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यार दंगा ही तो भड़का है
By फ़ुरसतिया on September 9, 2013
कल इतवार था। देखते-देखते बीत गया।
हमने बहुत कहा कि आराम से रहो यार! काहे हड़बड़ाये हो। धीरे-धीरे गाड़ी हांको। लेकिन माना नहीं पट्ठा। बीत गया।
कित्ते तो काम बाकी थे इतवार को करने के लिये। लेकिन कोई पूरा नहीं हुआ। सब काम आपस में पहले आप, पहले आप कहते रहे। लेकिन हुआ कोई नहीं। हर काम को यही लगता रहा कि जैसे ही वो हो गया उसका महत्व खतम हो जायेगा। भाव गिर जायेगा। वह दिमाग से बाहर हो जायेगा।
जब कोई काम अपने को कराने के लिये प्रस्तुत न हुआ तो आरामफ़र्मा रहे दिन भर। करवटें बदलते रहे बिस्तर पर लेटे-लेटे। पहले दांये करवट ली तो थोड़ी देर बाद दिमाग ने हल्ला मचाया कि दक्षिणपंथी राजनीति नहीं चलेगी। बायें हो गये तो हल्लामचा -वाममार्गी मत बनो। थककर सीधे लेट गये तो ’सेकुलर कहीं का’ का हल्ला मचा। मन तो किया कि झटके से उठ जायें और कुछ काम निपटा दें लेकिन फ़िर दया आ गयी। इत्ते दिन का साथ रहा है उन कामों का। मन नहीं किया किसी को निपटाने का। बारी-बारी से करवटें बदलते रहे। टीवी पर दंगे की खबरे देखते रहे।
दंगे की खबरें देखते हुये कुछ-कुछ ज्ञान हुआ कि दंगे कैसे भड़कते हैं। जो बच्चे मारे गये उनका बाप भर्राई आवाज में कह रहा है:
कवि लोग भी अपने-अपने काम में जुटे हुये हैं। दंगे से मौसमी बुखार निजात पाने के लिये एंटीबॉयटिक कवितायें पेश कर रहे हैं। कवितायें इत्ती असरदार होती हैं कि उनको देखते ही दंगा सर पर पांव धरकर नौ दो ग्यारह हो जाता है। समझदार डॉक्टर लोग ’दंगा क्यों भड़का?’ की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश कर रहा है। कोई एक कौम को दोषी ठहरा रहा है कोई दूसरी को। जो कौमी लफ़ड़े में नहीं पड़ना चाहते वो ठीकरा प्रशासन पर फ़ोड़ रहे हैं। दोष दे दिया हो गया काम। इससे ज्यादा और कोई क्या सहयोग कर सकता है दंगा भड़काने से रोकने के लिये।
दंगे का मूल कारण खोजने निकलें तो बात दूर तलक निकल जायेगी और ले-देकर आदम और हव्वा और उनकी सेवबाजी तक पहुंचेगी। लेकिन इस बार का प्रस्थान बिंदु एक लड़के द्वारा एक लड़की से छेंड़खानी रही। हमारे समाज के लड़के बेचारे इतने निरीह और कम अक्ल और संस्कार विपन्न हैं कि उनको यह अंदाजा ही नहीं कि किसी लड़की से छेड़छाड़ के अलावा कोई और व्यवहार भी किया जा सकता है। उनको शायद लगता है लड़की को छेड़ा नहीं जवानी बर्बाद चली जायेगी, जीवन चौपट हो जायेगा। जवानी बर्बाद चले जाने से बचाने के लिये कुछ लड़के जवानी का एहसास होते ही सबसा पहला काम लड़की छेड़ने का करते हैं। बात हुय़ी तो गाना गाने लगे- मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन। दिल निकाल के फ़ेंक दिया लड़की के सामने। ये मेरा मर्द दिल है, अपना भी इसी में लपेट दे और कहानी खतम कर कर। लड़की पट गयी तो जवानी सुफ़ल वर्ना आगे फ़िर तेजाब, हमला, बलात्कार जैसे आम हो चुके हथियार तो हैं हीं।
कारण पता नहीं क्या हैं लेकिन आज के समाज में तेजी से बढ़ते बाजार का प्रभाव भी होगा इसके पीछे। जो चीज अच्छी लगी उसको हर हाल में हासिल करना ही एक मात्र मकसद हो जाता है जवानों को। लड़की भी उनके लिये एक सामान जैसी ही है। अच्छी लगी तो उनके पास ही होनी चाहिये। लड़की की मर्जी से उनको क्या मतलब?
बिडम्बना यह है कि जो लड़की अच्छी लगी उसको को सामान समझकर हर हाल में हासिल करने के उज्जड भावना को वे प्रेम का नाम देते हैं।
प्रेम तो काशी के गुंडे नन्हकू सिंह ने भी किया था। उसने जिससे प्रेम किया उसकी और उसके परिवार की रक्षा के लिये अपनी कुर्बानी दी। बोटी-बोटी कटवा दी लेकिन अपने प्रेम की रक्षा की।
लेकिन वो पुराने जमाने का प्रेम का था जो बलिदान देता था। आज प्रेम आधुनिक हो गया है। वह छेड़छाड़ और उसके बाद दंगा भड़काने तक सीमित हो गया है।
अरे हम भी कहां कहां की सोचने लगे भाई। जैसा कि आपको पता है कि दंगों की आग में सब अपनी रोटी सेंक लेते हैं। सो कट्टा कानपुरी ने भी इस दंगे का फ़ायदा उठाकार कुछ शेर निकाल लिये। लीजिये फ़र्माइये वो जिसे शाइर लोग मुजाहिरा कहते हैं:
हमने बहुत कहा कि आराम से रहो यार! काहे हड़बड़ाये हो। धीरे-धीरे गाड़ी हांको। लेकिन माना नहीं पट्ठा। बीत गया।
कित्ते तो काम बाकी थे इतवार को करने के लिये। लेकिन कोई पूरा नहीं हुआ। सब काम आपस में पहले आप, पहले आप कहते रहे। लेकिन हुआ कोई नहीं। हर काम को यही लगता रहा कि जैसे ही वो हो गया उसका महत्व खतम हो जायेगा। भाव गिर जायेगा। वह दिमाग से बाहर हो जायेगा।
जब कोई काम अपने को कराने के लिये प्रस्तुत न हुआ तो आरामफ़र्मा रहे दिन भर। करवटें बदलते रहे बिस्तर पर लेटे-लेटे। पहले दांये करवट ली तो थोड़ी देर बाद दिमाग ने हल्ला मचाया कि दक्षिणपंथी राजनीति नहीं चलेगी। बायें हो गये तो हल्लामचा -वाममार्गी मत बनो। थककर सीधे लेट गये तो ’सेकुलर कहीं का’ का हल्ला मचा। मन तो किया कि झटके से उठ जायें और कुछ काम निपटा दें लेकिन फ़िर दया आ गयी। इत्ते दिन का साथ रहा है उन कामों का। मन नहीं किया किसी को निपटाने का। बारी-बारी से करवटें बदलते रहे। टीवी पर दंगे की खबरे देखते रहे।
दंगे की खबरें देखते हुये कुछ-कुछ ज्ञान हुआ कि दंगे कैसे भड़कते हैं। जो बच्चे मारे गये उनका बाप भर्राई आवाज में कह रहा है:
”हमारा आम आवाम से कोई झगड़ा नहीं है, हम नहीं चाहते की ख़ूनख़राबा हो या कोई नाहक़ मारा जाए. हमारे बच्चों की लाशें पड़ी थी और हम लोगों से ग़ुस्से पर क़ाबू करने की अपील कर रहे थे. हमने कहा कि जो हमारे साथ होना था हो गया. जो हमारे बच्चे मर गए वे मर गए, अब कहीं और किसी बेगुनाह को मारने-मरवाने से क्या होगा? शांति में ही सबका फ़ायदा है.”लेकिन अब बात कौम की इज्जत की है तो दंगा कैसे रुके? बदला लिया जाना जरूरी है। सो जारी है दंगा। चुनाव भी आने वाले हैं। इसलिये जनता के नुमाइंदे अपनी पूरी क्षमता से लगे हुये हैं। कोई दंगे के फ़र्जी वीडियो चलवा रहा है। किसी के यहां से हथियार बरामद हो रहे हैं।
कवि लोग भी अपने-अपने काम में जुटे हुये हैं। दंगे से मौसमी बुखार निजात पाने के लिये एंटीबॉयटिक कवितायें पेश कर रहे हैं। कवितायें इत्ती असरदार होती हैं कि उनको देखते ही दंगा सर पर पांव धरकर नौ दो ग्यारह हो जाता है। समझदार डॉक्टर लोग ’दंगा क्यों भड़का?’ की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश कर रहा है। कोई एक कौम को दोषी ठहरा रहा है कोई दूसरी को। जो कौमी लफ़ड़े में नहीं पड़ना चाहते वो ठीकरा प्रशासन पर फ़ोड़ रहे हैं। दोष दे दिया हो गया काम। इससे ज्यादा और कोई क्या सहयोग कर सकता है दंगा भड़काने से रोकने के लिये।
दंगे का मूल कारण खोजने निकलें तो बात दूर तलक निकल जायेगी और ले-देकर आदम और हव्वा और उनकी सेवबाजी तक पहुंचेगी। लेकिन इस बार का प्रस्थान बिंदु एक लड़के द्वारा एक लड़की से छेंड़खानी रही। हमारे समाज के लड़के बेचारे इतने निरीह और कम अक्ल और संस्कार विपन्न हैं कि उनको यह अंदाजा ही नहीं कि किसी लड़की से छेड़छाड़ के अलावा कोई और व्यवहार भी किया जा सकता है। उनको शायद लगता है लड़की को छेड़ा नहीं जवानी बर्बाद चली जायेगी, जीवन चौपट हो जायेगा। जवानी बर्बाद चले जाने से बचाने के लिये कुछ लड़के जवानी का एहसास होते ही सबसा पहला काम लड़की छेड़ने का करते हैं। बात हुय़ी तो गाना गाने लगे- मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन। दिल निकाल के फ़ेंक दिया लड़की के सामने। ये मेरा मर्द दिल है, अपना भी इसी में लपेट दे और कहानी खतम कर कर। लड़की पट गयी तो जवानी सुफ़ल वर्ना आगे फ़िर तेजाब, हमला, बलात्कार जैसे आम हो चुके हथियार तो हैं हीं।
कारण पता नहीं क्या हैं लेकिन आज के समाज में तेजी से बढ़ते बाजार का प्रभाव भी होगा इसके पीछे। जो चीज अच्छी लगी उसको हर हाल में हासिल करना ही एक मात्र मकसद हो जाता है जवानों को। लड़की भी उनके लिये एक सामान जैसी ही है। अच्छी लगी तो उनके पास ही होनी चाहिये। लड़की की मर्जी से उनको क्या मतलब?
बिडम्बना यह है कि जो लड़की अच्छी लगी उसको को सामान समझकर हर हाल में हासिल करने के उज्जड भावना को वे प्रेम का नाम देते हैं।
प्रेम तो काशी के गुंडे नन्हकू सिंह ने भी किया था। उसने जिससे प्रेम किया उसकी और उसके परिवार की रक्षा के लिये अपनी कुर्बानी दी। बोटी-बोटी कटवा दी लेकिन अपने प्रेम की रक्षा की।
लेकिन वो पुराने जमाने का प्रेम का था जो बलिदान देता था। आज प्रेम आधुनिक हो गया है। वह छेड़छाड़ और उसके बाद दंगा भड़काने तक सीमित हो गया है।
अरे हम भी कहां कहां की सोचने लगे भाई। जैसा कि आपको पता है कि दंगों की आग में सब अपनी रोटी सेंक लेते हैं। सो कट्टा कानपुरी ने भी इस दंगे का फ़ायदा उठाकार कुछ शेर निकाल लिये। लीजिये फ़र्माइये वो जिसे शाइर लोग मुजाहिरा कहते हैं:
यार दंगा ही तो भड़का है,
कहीं कोई जंग तो छिड़ी नहीं।
बस कुछ लोग ही तो मरे,
पर मुआवजा दिया की नहीं।
मंहगाई ,लूट और घपले देखे,
अब एक चीज ये भी सही।
हर तरह की वैराइटी है,
किसी चीज की कमीं नहीं।
-कट्टा कानपुरी
Posted in बस यूं ही | 5 Responses
Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- सारी नूडल्ज़ चाइनीज़ नहीं होतीं
खींस निपोरे, बाहर आया।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..अगला एप्पल कैसा हो
इश्कबाज लड़कों को देखो कैसे करते नंगा॥
कैसे करते नंगा नेता और धर्म के चेलों को।
बलवायी भी समझ न पाये राजनीति के खेलों को।
सरकारी है अभयदान तो मौत पे लगता सट्टा।
दंगा पर दोहे लिखकर भी क्या कर लेंगे कट्टा।?
अधिकारी ले रहे कैश और इकॉनमी हो रही क्रैश
एकोनोंमी हो रही क्रैश करावंगे दंगा
होगा किसी दिन सिरिया जैसा पंगा
जब पब्लिक सड़क पर आएगी
मुह तोड़ जवाब दिलवाएगी
नेता सुधर जाओ नहीं तो कही के नहीं रहोगे
सड़क पर अपाहिज होकर कही पड़े होगे