Sunday, December 25, 2016

कमलेश पांडेय और उनका आत्मालाप हमारी नजर में



......और ये निपट गयी ’आत्मालाप’ भी।
साल के शुरु में 16 जनवरी, 16 को दिल्ली के पुस्तक मेले से खरीदी थी किताब। लेखक कमलेश पाण्डेय संग थे तो उनसे ’प्रिय बंधु अनूप शुक्ल जी को बहुत आदर के साथ’ लिखकर दस्तखत भी किये थे किताब में। वह हमारी पहली मुलाकात थी कमलेश जी से। शुरु-शुरु में आदमी मिलता है तो औपचारिकता में आदर करता ही है। बाद में असलियत जानकर व्यवहार करता है।
हमने सोचा था और ऐसी आशा भी की गयी थी हमसे कि हम जल्दी ही इसके बारे में कुछ लिखेंगे। लेकिन हम अभी तक इसे पूरी बांच ही न पाये थे तो लिखते क्या?
यह हमारी किताबों को पढ़ पाने की घटती गति को बताता है। कभी वे भी दिन थे कि किराये की दुकान से रोज एक किताब (छुटके उपन्यास) लाकर अगले दिन बदल लाते थे। आज हाल यह हैं कि 143 पेज की ’आत्मालाप’ बांचने में महीनों लग जाते हैं। वह भी तब जब इसे पूरा पढ़ने का पूरा मन हो। कभी-कभी लगता है कि महीने भर की छुट्टी लेकर कम से कम मित्रों की लिखी किताबें तो बांच लूं।
किताब के साथ मजेदार वाकये भी हुये। रोज साथ दफ़्तर ले जाते थे। एक दिन निकालकर कम्प्यूटर वाली मेज में धर ली। सोचा लंच-ब्रेक में पढेंगे। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि न पढ पाये उस दिन। फ़िर सामने न दिखी तो पढी न गयी। फ़िर अभी दो-तीन दिन पहले सोचा कि आज तो पूरी बांचकर ही सोयेंगे। लेकिन किताब मिली नहीं। हम सब जगह खोजे लेकिन नदारद। फ़िर याद आया कि दफ़्तर की कम्प्यूटर की मेज पर धरी थी। परसों देखे तो वहीं बेचारी नीचे उल्टे मुंह औंधे पड़ी थी। भौत गुस्सा आया खुद पर कि मुफ़्त में मिली हो तब तो कोई बात नहीं लेकिन खरीदी हुई किताब की इत्ती बेइज्जती तो ठीक बात नहीं न !
कल गाड़ी का बम्पर बनवाना था। किताब साथ में ले गये। गैरेज में पता चला कि पुराना बम्पर भी लाना होना होगा। हम घर आये। बम्पर ले गये। करीब घंटा भर लगा इस सबमें। फ़िर याद आया कि किताब तो गैरेज के शो रूम की मेज पर ही धरकर भूल गये। देखा तो किताब मेज पर जस की तस धरी थी। मतलब किसी ने उसको उलटकर देखा भी न था।
ये जो किताब पढने में हीला-हवाली का हम इत्मिनान से वर्णन कर रहे हैं न उसको अब सोचते हैं उपयोग भी कर लें। तो हम यह कहना चाहते हैं कि कमलेश पांडेय व्यंग्य लेखक कैसे हैं उस पर अपना मत बतायेंगे ही लेकिन उनकी किताब बांचकर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे बहुत आलसी लेखक हैं। आलोक पुराणिक जैसे ’व्यंग्य के आधुनिक कारखाने’ कि संगत में रहते हुये भी उनके व्यंग्य लेखन की गति कुटीर उद्योग से भी कम है। वो तो भला हो कि ’व्यंग्य विधा’ का कोई सर्वमान्य अखाड़ा होता तो हम उनकी इस लेखन कंजूसी की शिकायत करके उनके खिलाफ़ हफ़्ते में कम से कम एक व्यंग्य लेख का फ़तवा तो जारी करवा ही लेते।
काबिलियत होते हुये भी अल्प लेखन से इस बात का सुराग मिलता है कि बंदे का जीवन (पारिवारिक और व्यक्तिगत) खुशहाल टाइप है और बंदा बेचैन तो कत्तई न है!
’आत्मालाप’ तीसरा व्यंग्य संग्रह है कमलेश जी का। भावना प्रकाशन से आया 2016 में। इसके पहले बाइसवीं सदी का विश्वविद्यालय(1999) और तुम कब आओगे अतिथि (2011) प्रकाशित हो चुके हैं। वे दोनों ही हमने बांचे नहीं हैं। अब जुगाड़ेंगे अगले साल में बांचने के लिये।
सुशील सिद्धार्थ और सुभाष चंदर की भूमिका और फ़्लैप टिप्पणी सहित ’आत्मालाप’ में कुल जमा 32 लेख हैं। अधिकतर लेख तसल्ली वाली मनस्थिति में लिखे हुये हैं। दो चार व्यंग्य लेख हालिया तरह अखबारी आपाधापी लेखन के आकार में हैं। शुरुआती लेख पढने पर मुझे लगा कि कमलेश पाण्डेय का व्यंग्य लेखन जुमले फ़ेंककर फ़ूट लेने वाली मुद्रा से मुक्त लेखन है। पहले हमने इसे धारणा भी बनाई कि अरे इनके लेखन में ’पंच’ तो अल्पसंख्यक हैं। जब मैंने यह सोचा उसी के आसपास मेरी मुंड़ी पर यह विचार हावी था कि व्यंग्य लेखन में पंच में कमी उसके कमजोर होने की निशानी है। लेकिन जब बाद के लेख पढे तो पंच भी मिले और खूब मिले।
कमलेश पांडेय का व्यंग्य लेखन कथा तत्व से भरपूर है। जबरियन पंच भर्ती करने के लिये उसमें कथात्मकता से छेड़छाड़ नहीं की गयी। भाषा के लिहाज से पढे-लिखे होने का सबूत देती हुई प्रांजल भाषा। शुद्ध । तत्सम ! ज्ञान जी की ’मरीचिका’ घराने की । विषय आसपास के रोजमर्रा के जीवन में होने वाली घटनाओं से लिये हुये। अंदाज-ए-बयां भले धीर-गंभार टाइप दिखे और लगे कि बन्दा अधुनिक जीवन की घपलेबाजी से परिचित न होगा लेकिन यह भ्रम धारण करने वाला जब उनके लेख बांचता है तो उसको इहलाम होता है जिस स्कूल में उसने पढाई की है उसके हेडमास्टर रह चुके हैं व्यंग्यकार महोदय।
लफ़्ज पत्रिका (और बाद में साहित्यम) के संपादक मंडल से जुड़े रहने के चलते हुये अनुभवों की बानगी उनकी लेखकों से जुड़े व्यंग्यों में मिलती है जिनमें उन्होंने पूरी इज्जत के साथ इस प्रवृत्ति की छीछालेदर की है।
’मुक्ति’ में उन्होंने आज के समय में किताबों की स्थिति पर खूबसूरत चर्चा की है।
’आत्महत्या’ जैसे विषय पर व्यंग्य लेखन हिम्मत का काम है। इसमें लिखते हैं कमलेश जी:
“आत्महत्या के प्रेरक तत्वों पर ध्यान दें तो हमारे देश की हर संस्था में वे भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं. इस प्रेरणा का ऊर्जा-केंद्र देश की समृद्ध राजनीतिक परंपरा में मौजूद है. जब भी आपकी श्रद्धा हो इस ज्योति-पुंज से प्रेरणा लेकर एक अदद सुसाईड नोट तैयार करें और आत्महत्या संपन्न कर लें. ध्यान रखें कि ये मात्र प्रयास न हो, क्योंकि अगर चूक हुई तो भारतीय दंड विधान में लपेटे जायेंगे जो आत्महत्या से ज़्यादा कठिन सिद्ध होगा.”
आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वाले तत्वों को पहचानने के बाद वे आह्वान करते हैं-”अपनी हत्या स्वयं सम्पन्न करने की बजाय आपकी हत्या का षडयन्त्र कर रही शक्तियों के सुराग ढूंढें , उन्हें बेनकाब करें और बस में हो तो स्वयं की जगह उन्हें ही फ़ांसी पर लटकायें।“
शिक्षा व्यवस्था, मिड डे मील और इसी तरह की घाल मेल वाली योजनाओं की झांकी संस्कृतनिष्ठ भाषा में दिखाते हुये अपने लेख ’काग चेष्टा, बको ध्यानं, बैल प्रवृत्ति’ में लिखते हैं:
“कल ही आये नये आदेश में तो अति है। ग्राम में कितने तड़ाग हैं और कितनी पगडंडियां ? यों नियमित चल रही ढोर-डंगरों की की गणना में भी क्या तर्क संगत है। क्या पशुओं से जिज्ञासा करते फ़िरें कि तुम्हारे सींग कितने हैं, और दिन भर में कितना गोबर करते हो? कभी आर्थिक जनगणना और तो कभी बौद्धिक, कभी मूढमतियों की गणना तो कभी मति-भ्रष्टों की, समझ में नहीं आता कि सम्राट चाहते क्या हैं? और चाहते भी हैं तो हम शिक्षकों से ही क्यों चाहते हैं -निहिरानंद किसी मधुमक्खी की तरह भुनभुनाये।“
’डीडी त्रिशंकु पर’ पढते समय यह एहसास लगातार बना रहा कि यह परसाई जी की रचना ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ से प्रभावित होकर लिखी गयी लेकिन कुछ पंच बहुत धांसू हैं:
“कैडर प्रशासन की वह दीक्षा है जो एक सरकारी नौकर को आदमी का चोला उतारकर सच्चा प्रसाशनिक अधिकारी बनाती है।“
इससे अपनी नौकरशाही शामिल होते ही आदमी में होने वाले बदलाव की झांकी दिखाई गयी है। लेखक जब यह लिखता है तो बता देता है कि विकास के ताम-झाम की असलियत उसको पता है:
“विकास की खासियत ही है उसका होना किसी की नजर में न आये, जिसका होना बाकी है वो भी सर खुजाये और जिसका हो चुका वह भी। इस बीच विकास प्रोजेक्ट में लगे लोगों का विकास अपने आप हो जाये।“
”प्रोत्साहित होती हिन्दी’ में जब कमलेश पाण्डेय लिखते हैं, “इस युग में किताबें पढी जाकर नहीं बल्कि अपना मूल्य दूना-चौगुना पाकर सार्थक होती हैं।“ तो यह बात उनकी किताब के दाम के संबंध में लागू होती है जिसकी 143 पेज की कीमत 350 रुपये रखे हैं प्रकाशक ने। मतलब लेखक सच कहने में खुद को भी नहीं बख्शता है। बहुत निर्मम व्यंग्य लेखक है भाई !
’आत्ममुग्ध हम’ में कवितागीरी, गद्यगीरी करते हुये व्यंग्य के आंगन में फ़ांद पड़ने वाले लेखक सजीव वर्णन पढकर लगता है कि कमलेश पांडेय जितने शरीफ़ दिखते हैं खुराफ़ाती भी उससे कम नहीं हैं। व्यंग्य लेखन से जुड़े हुये जिस लेखक का नाम जेहन उभरता है उसको लिखकर कमलेश जी से पूछने का मन है कि क्या उनके ही बारे में लिखा है?
’आत्मालाप’ लेख जो कि इस व्यंग्य संग्रह का शीर्षक भी है में एकदम अलग तरह की भाषा प्रयोग की गयी है। प्रवाहयुक्त मने फ़र्राटेदार हिन्दी। मुझे लगता है कि यही भाषा कमलेश जी को आगे भी प्रयोग करनी चाहिये।
’मेरी राजनीतिक समझ’ में जब वे लिखते हैं:
“यहां बताता चलूं कि मैं बिहार से हूं जहां तन पर लंगोट ही भर हो तो भी उसमें राजनीति की पुडिया बांधे रहता है। बल्कि मुंह में हमेशा एक मुस्तैद जुबां भी रखता है जिसको धार देती हुई एक चुटकी राजनीति अगल-बगल ही खैनी की तरह दबी रहती है। आप पूछ भर तो कि मुद्दा क्या है?”
तब लगता है कि वे यह बात अपने व्यंग्य लेखन के बारे में भी अनजाने में लिख रहे हैं। व्यंग्य लेखन के हल्ला मचाऊ और इनाम झपटाऊ दौर में कमलेश पांडेय सब पहलवानों की गतिविधियों पर चुपचाप लेकिन सटीक नजर रखते हुये तसल्ली वाले ’मृदु मंद-मंद मंथर मंथर’ लेखन में अपने सहज आलस्य की मधुर तान के साथ जुटे रहते हैं।
जब मैंने आत्मालाप बांचना शुरु किया था तब तक मुझे लगता था कि ऐसे-वैसे टाइप के ही लेखक हैं कमलेश पांडेय जिनकी तीन किताबें आ चुकी हैं। लेकिन किताब को एक बार बांचकर खतम करने के बाद उनकी लेखकीय इमेज में गुणात्मक सुधार हुआ और हमको पता लगा कि कमलेश पाण्डेय बढिया इंसान ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन व्यंग्यकार भी हैं।
इस बढिया इंसान और बेहतरीन व्यंग्यकार के ’काम्बो पैकेज’ में एक खामी है तो यह कि वे नियमित लेखन से परहेज करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। ऐसा करके वे अपने साथ और व्यंग्य लेखन के साथ भी अन्याय करते हैं। आशा है कि वे अपने द्वारा किये जा रहे इस अल्प लेखन की शिकायत को दूर करेंगे और विपुल व्यंग्य लेखन करेंगे।
कमलेश जी को खूब सारी शुभकामनायें देते हुये कामना करता हूं कि ’आत्मालाप’ के अपने परिचय में उन्होंने पुरस्कार या सम्मान के आगे जो ’कोई नहीं’ लिखा है आने वाले समय में इस ’कोई नहीं’ की जगह कई इनामों का जिक्र हो। वे इसके सर्वथा काबिल पात्र हैं यह कहने में मुझे कत्तई संकोच नहीं।

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