Sunday, June 23, 2019

व्यंग्य की महापंचायत होने के पहले की चकल्लस



आज सुबह दिल्ली आना हुआ । सड़कों से यात्री हालिया व्यंग्य में सरोकार की तरह गायब। जिधर देखो उधर सड़क व्यंग्य में सपाटबयानी की फैली दिखी। इस सूनेपन का कारण बाद में पता चला । वह आगे।
कमरे में पहुंचकर चाय मंगाई। पता चला दूध फट गया। चाय में देरी से मन ऐसे खिन्न हो गया जैसे कोई इनाम खुद को न मिलकर किसी दूसरे को मिलने पर होता है। बहरहाल 'गली ब्वाय ' पिच्चर का गाना 'अपना भी नंबर आयेगा ' दोहराते हुए चाय का इंतजार किया। इंतजार का फल मीठा मिला मतलब चाय में चीनी भी थी।
चाय पीते हुए मोबाइल में सूचना पढ़ी अनूप जी की वाल पर - ' शाम ४ बजे हिंदी भवन में व्यंग्य की महापंचायत होने वाली है।' हमको दिल्ली की सड़कें सूनी होने का कारण समझ में आ गया। हम तो बाहर से आए हैं। दिल्ली वालों को व्यंग्य की महापंचायत होने की खबर पहले से पता होगी। इसी दिल्ली के अधिकतर व्यंग्यकार दिल्ली से फुट लिए। जो बेचारे फूट नहीं पाए उन्होंने दिल्ली में ही कुछ काम निकाला और व्यस्त हो गए। संतोष त्रिवेदी जैसे मिलनसार लोग भी काम में व्यस्त हो गए।

हमने सोचा आए हैं तो ' व्यंग्य की महापंचायत ' देखते चलें। पता चला कि ' व्यंग्य के महा आलोचक ' सुभाष जी करने वाले हैं। सुभाष जी पिछले दिनों हम लोगों से बिना पूछे कुछ दिन बीमार भी रह लिए। यह बात हमको तब पता चली जब वो ठीक हो गए। सोचा उनको देख भी लेंगे। मिलना हो जाएगा। बाद में संतोष त्रिवेदी ने सलाह भी दी कि मिलते रहने से व्यंग्य श्री भी मिल सकता है। हमको उनके सबसे मिलिए धाय वाली अदा के पीछे की कहानी उनकी ही जबानी पता चली।
इस बीच रमेश तिवारी जी से बात हुई। हमने उनसे साथ चलने को कहा। शुरुआती और जरूरी ना नुकुर के बाद वे तैयार हो गए। हम खुश। हमको परसाई जी की बात याद आई - ' अपनी बेइज्जती में किसी को शामिल कर लेने से बेइज्जती का दर्द आधा हो जाता है।'
रमेश जी ने जहां मिलने को बताया था वहां पहुंचने में देर हुई। गलती हमारी थी कि हमने अपने रुकने कि जगह गलत बताई थी। रमेश जी धूप में खड़े भन्ना गए थे। देखते ही ड्राईवर को इस तरह हड़काना शुरू किया जैसे शायद बुजुर्ग लोग अपने पालक - बालक को विरोधी गुट की खुलेआम तारीफ करने पर डपटते होंगे। हमें लगा वो हमको ही हड़का रहे हैं। हमने कोई बेवकूफी की बात शुरू करके बात इधर - उधर की। इसके बाद हम लोग बुराई भलाई में जुट गए। समय कम था, बुराई भलाई ज्यादा। हम लोग तेजी सब निपटाते गए। फोन पर संतोष त्रिवेदी को भी शामिल कर लिया। काम तेज गति से निपटने लगा।


इस बीच हमने संतोष त्रिवेदी से उनकी किताब ' नकटों के शहर में ' हिंदी संस्थान के इनाम के लिए भेजने को कहा। कहने का मकसद यह जताना था कि हम उनका ख्याल रखते हैं। संतोष ने हमको हमारे मकसद में कामयाब नहीं होने दिया और कहने लगे - ' किताब इनाम के लिए नहीं है।' हमने उनको समझाने की कोशिश की जिन किताबों पर इनाम मिलता है वो सब कोई इनाम के लिए थोड़ी होती हैं। भेज दो क्या पता कोई हसीन हादसा हो ही जाए। लेकिन अगला माना नहीं।
हिंदी भवन में सुभाष चन्दर जी का 75 साल का बच्चा और हमारे व्यंग्य के राणा सांगा अनूप श्रीवास्तव जी पहुंच चुके थे। उनको जैसे ही पता चला कि हम कुछ ही देर में चले जाएंगे वैसे ही उन्होंने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी को हमारी गर्दन में हाकी की स्टिक की तरह धरा और हमारी गर्दन को गेंद समझ कर ड्रिबलिंग शुरू कर दी। हमारे पास सिवाय इसके कोई चारा नहीं था कि हम अट्टहास सम्मान की बात शुरू करें। अट्टहास सम्मान की तारीफ सुनते ही अनूप जी ने हमारी गरदन छोड़ दी और तारीफ का काम खुद संभाल लिया।
हमने प्रेम जी और अन्य व्यंग्य से जुड़े लोगों के बारे में पूछा कि वे आयेंगे क्या। पता चला कि प्रेम जी पहाड़ गए हैं। इससे याद आया कि आलोक पुराणिक जी भी किसी पहाड़ पर जाम में फंसे हैं। व्यंग्य यात्रा और कुल्लू के मज़े अनूप जी टिप्पणी में ले ही चुके थे। मज़े लेने में अनूप जी कभी पीछे नहीं रहते। एक बार बोले व्यंग्य यात्रा में व्यंग्य कितना है और यात्रा कितनी ? बहरहाल।
पता चला कि एम एम चन्द्रा भी आने वाले हैं। हमने सोचा मिल लेंगे। चंद्रा जी की बात चलते ही किसी ने मौज ली - ' वो पूछने गया होगा प्रेम जी से कि क्या बोलना है।' कहने का मतलब कि कहने वाला एम एम को प्रेम जी के गुट का मानता है।


गुटबाजी का भी मजेदार सीन है। साहित्य में लोग बिना गुट के चलते शक्स को बिना घरवालों को साथ लिए सड़क पर चलती जवान होती लड़की की तरह समझते हैं जिसके अकेले चलने पर लोगों को डर लगता है कि कहीं कोई छेड़ देगा। इसीलिए हर व्यक्ति को लोग किसी न किसी गुट से जबारियन जोड़ देते हैं।
व्यंग्य से जुड़े तमाम लोग व्यंग्य की गहरी समझ रखते हैं। हमको तो व्यंग्य पर कोई भी बात करने को कह दे तो कर ही न पाएं। हमसे कोई हमारा नाम पूछ ले वो हम भले बता दें लेकिन कोई पूछे व्यंग्य किसे कहते हैं तो हम न बता पाएंगे। यही कहकर पिंड छुटा लेंगे - ' इस बारे में परसाई जी से पूछो।' कई वरिष्ठ और सिद्ध व्यंग्यकार कहते हैं व्यंग्य लिखना बहुत कठिन है। हमें तो व्यंग्य लिखने से भी कठिन यह बताना लगता है कि - व्यंग्य होता क्या है?
ऐसे में जब किसी सभा में व्यंग्य के औजार, सरोकार, अमिधा, लक्षणा , व्यंजना की बात करता है तो लगता है अगला कितना ज्ञानी है।
इस बीच उर्मिलिया जी आ गए। उन्होंने हमारे जल्दी जाने की बात सुनते ही हमको लड्डू खिलाकर मुंह मीठा कराया। हमें लगा कि शायद मेरे जल्दी जाने की खुशी में खिलाए। लेकिन पता चला कि उनकी बिटिया की शादी की खुशी के लड्डू थे। हमने दो बार खाए।

ऊर्मिलिया जी ने मुझे आज विमोचित होने वाली व्यंग्य संग्रह की किताब भी भेंट की। विमोचित होने से पहले ही किताब भेंट होना मतलब इम्तहान शुरू होने से पहले पर्चा आऊट हो जाना। यह हुआ आज।
इस बीच अनूप जी ने मेरे गद्य लेखन को जैसे लड़कियां स्वेटर बिनती हैं उसी तरह का बताया। यह बात कहते हुए वे यह भी कहते हैं कि अगर अनूप लड़की होते। यह प्यारी बात से इतनी बार कह चुके हैं कि अगर शादी शुदा और बाल बच्चेदार न होते यौन परिवर्तन की बात सोचते।
अनूप जी ने अपने लखनऊ के व्यंग्यकारों का जिक्र करते हुए बताया कि उनको उन्होंने मंच दिया अब उनमें से कुछ लोग उनका विरोध करते हैं। हमने कहा - ' यह समर्थ खानदानों में की सहज परम्परा है। बेटे बाप को बुरा भला बताते हैं। राग दरबारी में कुशहर प्रसाद और छोटे पहलवान का किस्सा है ही।
जब हमारे जाने की बात पक्की हो गई तो अनूप जी ने हमारी फोटो मंच के सामने ले ली। मतलब बिना पूरी तरह शिरकत किए व्यंग्य की महापंचायत में हमारी उपस्थिति दर्ज हो गई। यह भी मजेदार रहा।


हमारे आने का समय हो गया। लेकिन महापंचायत के अध्यक्ष जी नदारद थे। फोन बजाया गया। लेकिन उठा नहीं। पता चला फोन उनकी गाड़ी में पड़ा था। कितनी शिद्दत से अध्यक्षता करते हैं सुभाष जी कि फोन तक को बिसरा दिया।
लेकिन जाने से पहले सुभाष जी के दर्शन हो गए । स्लिम ट्रिम और हसीन टाईप अध्यक्ष जी ने हमारे पेट की तरह इशारे करते हुए टांका जैसे किसी रचना की झूठी तारीफ के बाद आलोचक रचना में आए बिखराव की तरफ इशारा करते हुए तटस्थ होने की कोशिश करता है।
हम चले आए बिना महापंचायत का पूरा मज़ा लिए। रुकते तो और मज़े लेते। ऐसी पंचायतों का यह भी हासिल होता है कि नवीनतम बुराइयों - भलाइयों का अपडेट हो जाता है। कौन किस गुट में चल रहा है यह पता चलता है। किस लेखक/ लेखिका को कौन उठाए घूम रहा है यह जानकारी होती है। यह भी कि हमारी किस बात पर क्या चर्चे हुए ।

इससे व्यंग्य से एक नए किस्म का जुड़ाव महसूस होता है जो कि सिर्फ निर्लिप्त होकर लिखने - पढ़ने से नहीं होता।

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