आज दिल्ली में Subhash Chander जी से मिलना हुआ। जगह मंडी हाउस। व्यंग्य के प्रकांड पंडित सुभाष जी के लिए सितम्बर का महीना ' सहालग' का महीना होता है। कहीं मुख्य अतिथि तो कहीं विशिष्ट वक्ता। कहीं विषय प्रवर्तक तो कहीं उपसंहार कर्ता। पूरे महीने कहीं से आ रहे होते हैं या कहीं जा रहे होते हैं।
आज भी जब बात हुई तो गुड़गांव से आ रहे थे, मेट्रो सेंटर जा रहे थे। इसी 'कार्यक्रम ब्रेक' में मंडी हाउस पधार कर मुलाकात भी अंजाम कर डाली। चलते समय बताया कि गाड़ी उठा के निकल लिए हैं। आधे घण्टे में पहुंचते हैं। जो लोग सुभाष जी को हल्के में लेते हैं उनको समझना चाहिए जो व्यंग्यकार, आलोचक 300 किलो की गाड़ी उठाकर निकल लेता है उसका जलवा कितना वजनदार होगा।
मंडी हाउस में चाय पीते हुए दोस्तों से मिलना सुलभ होता है। यहां चाय चरचा के दौरान कई किताबों के मसौदे तय हुए। पिछली बार कमलेश पांडेय जी Kamlesh Pandey, आलोक पुराणिक जी Alok Puranik के साथ बतियाते हुए तीनों की एक-एक किताब फाइनल हुई थी। इस बार दोनों लोग गोल हो गए। मजबूरन हमको अकेले अपनी किताब फाइनल करनी पड़ी। बाद में सुभाष जी से हमने पूछा -'आप 49 किताबों पर कब तक अटके रहेंगे। पचासा कब लगेगा। इस पर सुभाष जी ने बताया कि पचास नहीं सीधे 51 किताबों पर पहुंचेंगे। मतलब उनकी दो किताबें आएंगी इस साल।
सुभाष जी ने आते ही चाय-समोसे आर्डर किये। हमने पैसे देने का नाटक किया। जिसे सुभाष जी ने सीनियारिटी का रोब दिखाते हुए मना कर दिया। बोले -'ये तो नहीं चलेगा यहां।' ये वरिष्ठ लोग अपने आगे किसी की चलने नहीं देते।
मौके का फायदा उठाते हुए हमने सुभाष जी से व्यंग्य के इतिहास के अगले संस्करण में अपने लिए थोड़ी ज्यादा जगह, थोड़ी ज्यादा स्याही और थोड़ी तारीफ की गुंजाइश निकालने की बात की। इस बात को वरिष्ठ आलोचक महोदय ने गर्म समोसे को मुंह में ठंडा करने की कोशिश करते हुये हवा में फूंक मारकर उड़ा दिया। बड़े कठकरेजी होते हैं आजकल के आलोचक।
इस बीच सन्तोष संतोष त्रिवेदी जी को फोन किया। पता चला मास्टर साहब कोई इम्तहान ले रहे थे। शायद किसी को नकल कराकर फेल कराने का इन्तजाम कर रहे थे।हमने पूछा -'आजकल कोई लफड़ा क्यों नहीं कर रहे। बड़ी बदनामी हो रही है। इमेज चौपट हो जाएगी।' इस पर मास्टर साहब ने भुनभुनाते हुए कहा -'सारा बवाल हम ही करेंगे क्या जी? बाकी लोग भी अपनी जिम्मेदारी निभाएं। हमारे भरोसे ही न रहें। '
आलोक पुराणिक जी भी किसी मीटिंग में होंगे, बात नहीं हुई। अलबत्ता कमलेश पांडेय जी जरूर बताएं कि वो अहमदाबाद में हैं। रमेश तिवारी जी से बात नहीं हो पाई।
आधे घण्टे की यात्रा करके आये सुभाष जी से दस मिनट की मुलाकात हुई । इस बीच उन्होंने अपने दो अधूरे उपन्यासों का हवाला दिया। झटके में 30-35 पेज लिखे गए। फिर थम गए। फोन पर बातचीत में Shashi Pandey जी ने भी अपने उपन्यास के दस पेज के बाद ठहराव की बात बताई। Arvind Tiwari जी भी एक उपन्यास में ठहरे हुए हैं। गरज यह कि हिंदी व्यंग्य में जिस भी लेखक से बात की जाए तो पता चलता है कि उसका कोई उपन्यास कहीं ठहरा हुआ है। इस लिहाज से यह भी माना जा सकता है कि सच्चा व्यंग्य लेखक वही है जिसका कम से कम एक उपन्यास ठहरा हुआ है। उसी कड़ी में यह तय किया जा सकता है कि जिसके सबसे ज्यादा अधूरे उपन्यास हैं वह उतना बड़ा लेखक।
क्या ही अच्छा हो कि इन सब आधे-अधूरे, ठहरे-ठिठके उपन्यासों को मिलाकर एक महाउपन्यास तैयार किया जाए - व्यंग्य की महापंचायत की तरह। इसके प्रकाशन के बाद उसकी जमकर तारीफ करी जाए। इसे अपने ढंग का अनूठा उपन्यास बताते हुये कुछ इनाम झपट लिए जाएं। हो सकता है कोई कहे कि यह उपन्यास किस कोने से से है, समझ में नहीं आता। इसका जबाब यह होगा कि इस उपन्यास का सहयोगी लेखक होने के पहले तक हमको भी यही लगता था लेकिन अब समझ में आया कि यह अपने समय से बहुत आगे का उपन्यास है। इस पीढ़ी को नहीं , अगली पीढ़ी को समझ में आएगा।
चाय की दुकान के बाहर एक बुढ़िया डस्टबिन से पन्नियां बीन रही थी। ऐसे जैसे अपन कभी-कभी अपने कुछ व्यंग्य लेखों से पंच-छंटाई करते हैं।डस्ट बिन के बाहर आकर पन्नियां साफ और शरीफ हो गई थीं। दुकान वाला शायद उनको वापस ले जाने के लिए मोलभाव कर रहा था।
इस बीच हमारे ड्रॉइवर साहब ने भी खाना खाया। चाय के लिए पूछा तो बोले -' हम चाय नहीं पीते। शाम वाली गरम चाय पीते हैं।' रोज 100 रुपये का पउवा ठिकाने लगा देते हैं। कल 1000 खर्च हो गए दोस्तों के साथ। परिवार गांव में है। बातचीत के दौरान शादी के पहले के अपने संसर्ग के किस्से निस्संग भाव से बताए। उनको सुनते हुये मैं सोच रहा था कि जिससे संसर्ग हुए क्या वे भी इतनी ही सहजता से किसी अजनबी को अपने किस्से सुना सकती हैं।
यह बात लिखते हुये आइडिया आया कि इसी बात पर दस-पन्द्रह पन्ने घसीट दिए जाएं। कुछ नहीं तो कम से कम अपना भी एक ठहरा हुआ उपन्यास तो हो जाएगा। नाम आलोक पुराणिक तय कर ही देंगे। भूमिका किससे लिखवाई जाए यह तय होते ही अटका देंगे उपन्यास।
चौराहे पर एक लड़का छोटी बच्ची के साथ कुछ करतब दिखाते हुए कुछ मांगने की कोशिश कर रहा था। ड्रॉइवर ने उनको देखकर कहा -'कुछ काम सीखना चाहिए इसको। छह महीने में ड्राइवरी ही सीख जाता। मांगने से तो अच्छा कुछ काम करना।'
हमारा कहने का मन हुआ कि जब देश-दुनिया के तमाम कर्ण धार करतबों के सहारे अपना जलवा कायम किये हैं तो उस बालक को क्या समझाना। लेकिन हमने कुछ कहा नहीं। इस बेफालतू की सोच का टेंटुआ दबाकर उसको निपटा दिया। बाहर आती तो बबाल ही मचता।
देखते-देखते ट्रेन चल दी। दिल्ली पीछे छूट गयी। दिल्ली के किस्से भी।
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