"हर क्रान्तिकारी विचार शुरु के अकेलेपन में पागलपन ही तो होता है।"- 'पागलखाना'से
पिछले हफ़्ते ’पागलखाना’ किताब पूरी की। बड़ा सुकून मिला। बहुत दिनों से , मतलब महीनों से यह किताब पढने की कोशिश कर रहा था। लेकिन इधर पढने की गति इत्ती धीमी हो गयी कि कभी कोई किताब उठाई तो एकाध पन्ना पढकर वापस धर दी। फ़िर कुछ दिन बाद एक पन्ना और। यह बात अच्छी और खराब दोनों तरह की किताबों के साथ है।
जो किताब अच्छी लगती है उसे लगता है कि पूरी न पढो। पढ ली तो फ़िर इसके बाद क्या पढेंगे। खराब किताब के बारे में क्या कहें? वैसे किताब कित्ती भी खराब हो उसे लिखने में लेखक के क्या होते हैं यह कोई लेखक ही जान सकता है। श्रीलाल शुक्ल जी ने एक लेखक की व्यथा बताते हुये लिखा है:
"किताब लिखना दिमाग के लिए कठोर और शरीर के लिए कष्टप्रद कार्य है। इससे तंबाकू की लत पड़ जाती है। काफीन और डेक्सेड्रीन का जरूरत से ज्यादा सहारा लेना पड़ता है। बवासीर, बदहजमी, अनवरत् दुश्चिंता और नामर्दी पैदा होती है।"
श्रीलाल जी ने पाठक के हाल नहीं बयान किये। खासकर ऐसे पाठक के जिसके पास पढने के लिये खूब सारी किताबें हों लेकिन उसकी पढने की आदत कम हो गयी हो।
’पागलखाना’ ज्ञान जी का पांचवां उपन्यास है। बाजार की फ़ंतासी को लेकर लिखे गये इस उपन्यास के बारे में लोगों ने काफ़ी कुछ लिखा है। अधिकतर लोगों ने यह बताया कि उपन्यास में पठनीयता नहीं है। जबरियन खींचा गया उपन्यास है। अनावश्यक विस्तार है। वहीं कुछ लोगों ने यह भी लिखा है कि यह अद्भुत उपन्यास है। जो लोग इसकी बुराई कर रहे हैं वे इसको समझ नहीं पाये हैं। उनकी अकल कमजोर है।
यह दूसरी वाली बात उसी तरह की है जिस तरह लोग कहते हैं जो हमारा विरोध कर रहे हैं वे देशद्रोही हैं।
दुनिया का चलन है कि इंसान आमतौर पर चुगली बड़ी ध्यान से सुनता है और उस पर सहज विश्वास भी करता है। तो अपन ने यही मानकर पढा उपन्यास कि बोरिंग है। हमारी पढने की कम हुई गति ने भी इस नकार भाव में सहयोग किया। बोरिंग है इसीलिये पूरा नहीं पढ पा रहे। वर्ना हजार-हजार के पेज के ’मुगदर साहित्य’ अपन ने 3-4 दिन में पढकर किनारे किये हैं।
लेकिन बोरिंग है तो फ़िर पढ क्यों रहे हैं। किस डॉक्टर ने कहा है कि पढो नहीं तो तबियत खराब हो जायेगी। फ़िर पढना शुरु करते। मेहनत करते। अंतत: मेहनत सफ़ल हुई । किताब पूरी हुई।
बाजार पर केन्द्रित इस उपन्यास को पढते समय मुझे बार-बार कथाकार अखिलेश का कथादेश पत्रिका के फ़रवरी-2000 के अंक में छपा लेख याद आता रहा। लेख का शीर्षक था - "मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं "। इस लेख में बाजार के बढते प्रभाव को लेकर कही कुछ बातें यहां पेश हैं:
१. सबमें वह है। उसी में सब हैं। वह कहाँ नहीं है। अर्थात हर जगह है। वह पृथ्वी,नभ और भू -गर्भ सर्वत्र विराजमान है।संसार के समस्त क्रिया व्यापारों का संचालन उसकी मुट्ठी में हैं।
२.मेरी एक बड़ी ट्रेजडी है कि मैं ईश्वर की तरह हूं जिसके अनेक रूप हैं। हालांकि मैं ईश्वर का विलोम मनुष्य हूं। वाकई मेरे कई रूप हैं। मैं ही हूँ, जो उदास, गम्भीर और एकान्तप्रिय हूँ। मैं ही मितभाषी हूँ, मैं ही बकबक करने वाला हूँ। मैं आधुनिकता, कुलीनता को चाहने वाला हूँ और मैं ही फूहड़ गँवार हूँ। मैं ही सांवली सुन्दरियों का दीवाना हूं और मैं ही हूं जो गौरवर्णी रूपसियों पर लट्टू रहता हूं। मैं भावुकता की हंसी उडाता हूं,जबकि स्वयं बहुत भावुक हूं। जो चिरकुट, कायर, काहिल, घरघुसना, साहसी, फुर्तीला, घुमक्कड़ और सज्जन है वह भी मैं ही हूं। जो विश्वसनीय, मददगार, शाहखर्च है वह भी मैं ही हूं। जो संदिग्ध, ह्दयहीन और मक्खीचूस है वह भी मैं हूं। मैं एक साथ उच्च, नीच, श्रेष्ठ, घटिया, प्रिय, अप्रिय, सुन्दर और कुरूप हूं।
३.यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
४. कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
अखिलेश जी का यह लेख मुझे इतना पसंद आया था कि मैंने इसे अपने ब्लॉग में पोस्ट किया था। दो पोस्टों में। लिंक यहां पोस्ट में नीचे है।
बहरहाल पागलखाना पढना बहुत अच्छा अनुभव रहा। सूरज के प्री-पेड कार्ड जैसी बातें मेरे दिमाग में आती रही हैं। सुरंग में बार-बार जाते हुये बुजुर्गवार मुझे अपनी उस कल्पना की याद दिलाते रहे जिसमें मैं कभी सोचता था कि एक पूरा का पूरा शहर जमीन के नीचे बसा है। इस कल्पना को विस्तार देने की कभी हिम्मत नहीं हुई।
सूरज के प्री-पेड कार्ड वाली बात पढकर मुझे प्रियंकर पालीवाल जी कविता याद आई:
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा।
’पागलखाना’ बाजार के प्रभाव में इंसान के सपने छिनने के खतरे और उनसे अपने सपने बचाये रखने की जद्दोजहद का आख्यान है। बुजुर्गवार बार-बार सुरंग के पास ’कदमताल’ करते रहते हैं। बच्चे उनकी बात समझते नहीं। पागल समझते हैं उनको। वे बच्चों को बेवकूफ़ समझते हैं। बाजार उनकी दुनिया पर कब्जा करने के लिये बेताब है, अपनी कोशिश में कामयाब होने वाला लेकिन वे सब उससे बेखबर हैं। मजबूरन बुजुर्गवार को अकेले मोर्चा संभालना पड़ता है। अंतत: वे निपट जाते हैं।
’पागलखाना’ एक सिद्ध कथाकार की नजर से बाजार के बारे में लिखा गया उपन्यास है। ज्ञान जी डिटेलिंग के उस्ताद हैं। बाजार की डिटेलिंग की उन्होंने। बाजार का रकबा बहुत बड़ा होता है। अनंत तक फ़ैले बाजार की रिपोर्टिंग इस उपन्यास में सुरंग, सपने, डॉक्टर की दुकान और ऐसी ही कुछ जगहों से की गयी है। जगर-मगर करते , तेजी से भागते, हर पल रूप बदलते बाजार के बारे में चंद स्थिर जगहों से पकड़ने की कोशिश की गई।
अब जब लिख रहा हूं यह भी लग रहा कि पागलखाना ज्ञानजी ,आलोक पुराणिक जी के साथ मिलकर लिखते तो कुछ और जगहें जुड़तीं।
उपन्यास इस मामले में खास है कि हिन्दी में बाजार को लेकर इतने विस्तार से लिखा गया शायद पहला उपन्यास है। भाषा पर पकड़ ज्ञान जी की जबरदस्त है। उसके अनगिनत नमूने किताब पढते समय दिखते हैं लगता है -’काश हम भी वैसे लिख पाते।’ आखिरी के पन्नों में ’चहबच्चे’ शब्द का प्रयोग कई बार हुआ। ’रोशनी के चहबच्चे’, ’अंधेरे के चहबच्चे’। पुरानी पीढी तक सीमित रहे गये इस तरह के शब्द शायद अगली पीढी के लेखकों के हाथ से निकल जायें।
हिन्दी में उपन्यास कम ही लिखे जाते हैं। साल में आठ-दस उपन्यास चर्चा में आ पाते हैं। पचास-साठ करोड़ की हिन्दी पट्टी की आबादी में यह संख्या हिन्दी में पठन-पाठन, लेखन की स्थिति का बैरोमीटर है। ऐसे में कोई उपन्यास लोग पढें, उसकी आलोचना ही करें यह अपने में एक उपलब्धि है। ज्ञान जी के ’पागलखाना’ की ’हम न मरब’ जितनी तो नहीं लेकिन फ़िर भी लोगों ने आलोचना की। कम आलोचना का कारण शायद इसमें गालियों की अनुपस्थिति भी रही हो। तारीफ़ भी खूब हुई। आलोचना भले संयमित रही लेकिन तारीफ़ जिन्होंने की उन्होंने ’बल भर’ की। कलम, माइक तोड़ दिया। फ़िर इनाम भी मिल गया लाख रुपये का। इससे अधिक और क्या चाहिये उपन्यास के सफ़ल होने के लिये।
ज्ञान जी हमारे समय के कुछ सबसे अच्छे लेखकों में हैं। व्यंग्य में तो लोगों ने उनको देवता मान लिया। ज्ञान जी इसे मानते भले न हों लेकिन जबरदस्ती मना भी नहीं करते। बड़ी प्यारी अदा है यह। वे कहते भले हैं कि लिखकर मैं भूल जाता हूं लेकिन ऐसा होता नहीं। किसी भी मुद्दे पर बात करेंगे तो अपने लेखन के विरोध की बात किसी न किसी तरह आ ही जाती है। ’हम न मरब’ की गालियों पर इत्ती गालियां पड़ीं, लोगों ने इत्ता विरोध किया, ’पागलखाना’ को लोगों ने शुरु में बोर उपन्यास बताया लेकिन बाद में लोगों ने उसे पसन्द किया, इनाम भी मिला। जब भी वे इस तरह की बातें करते हैं तो लगता है कि वे यह कहकर अपने उन अनगिनत पाठकों की अनदेखी करते हैं जिन्होंने इन उपन्यासों को बेइन्तहा पसंद किया और तारीफ़ भी की। अपने उन पाठकों की मोहब्बत की ’बेइज्जती खराब’ करते हैं जो उनके हर तरह के लेखन को प्यार से पढते हैं।
हम भी ज्ञान जी के लेखन को पसंद करने वाले हैं। इसलिए जब वे विरोध करने वालों को लिफ्ट देते हैं तो जलन तो होती ही है। 'पाठकीया डाह' होता है। बुराई करने वालों को इतना फुटेज, तारीफ करने वालों का कोई जिक्र नहीं। शिकायत करें तो कह देंगे ज्ञान जी -'भूल जाता हूँ।' ये अच्छी आदत है कि तारीफ करने वाले भूल जाते हैं, बुराई करने वाले याद रहते हैं।
’पागलखाना’ एक अनूठी कृति है। एक संवेदनशील कथाकार द्वारा लिखी गयी अपनी तरह किताब। इसे पढा जाना चाहिये। इस पर खूब बात होनी चाहिये। पीठ पीछे खुसुर-पुसुर करने की बजाय खुलकर खूब लिखा जाना चाहिए। खासकर हिन्दी व्यंग्य से जुड़े बड़े लोगों को इस पर बात करनी चाहिये। ज्ञान जी की ही किसी और किताब से इसकी तुलना की बात ठीक नहीं।
आज की दुनिया में दो ही तरह के पाठक हैं एक वे जो ’पागलखाना’ पढ चुके हैं। दूसरे वे जिन्होंने पागलखाना नहीं पढी। हमको खुशी है कि हम उन लोगों में शामिल हो चुके हैं जो ’पागलखाना’ पढ चुके हैं। आप भी ’पागलखाना’ पढ चुके लोगों में शामिल होइये। अच्छा लगेगा।
पागलखाना -लेखक Gyan Chaturvedi
1.उपन्यास : पागलखाना
लेखक: ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पेज: २७१
कीमत: पेपरबैक -२५०
खरीदने का लिंक : https://www.amazon.in/Pagalkhana-Gyan.../dp/938746234X
मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं -भाग १
मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं -भाग २
4.'पागलखाना' के पंच
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