Monday, October 18, 2021

बारिश, रिक्शा स्टैंड और मोबाइल में डूबे लोग



कल बहुत दिन बाद साइकिलिंग को निकले। शाहजहांपुर साइकिलिंग क्लब के सूत्रधार, संस्थापक डॉक्टर विकास खुराना ने सूचना दी कि एक दिन में 75 किलोमीटर साइकिल चलाने वाले साथियों को मेडल देकर उनका उत्साह वर्धन करना है। समय तय हुआ शाम 5 बजे। जगह कैंट आर्मी गेट।
शाम होते- होते पानी बरसने लगा। पहले तेज फिर रुक-रुक कर। बाद में हमारी तरफ रुक गया लेकिन दूसरी जगहों पर बरसता रहा। आर्मी गेट हमारे घर से दो मिनट की दूरी पर है। लिहाजा हम तो फटाक से पहुंच गए। लेकिन दूर से आने वाले कई साथी आ नहीं पाए। सम्मानित किए जाने वालों में से भी एक बच्ची नहीं आ पाई। तय हुआ कि सम्मानित करने का कार्यक्रम अगले हफ्ते होगा।
डॉ विकास खुराना अपनी बिटिया अवन्या के साथ समय पर पहुंच गए थे। कुछ और साथी भी आ गए थे। अवन्या ने बताया कि उसका स्कूल फिर बन्द हो गया है, दशहरे के कारण। अब 20 को खुलेगा। अवन्या ने लम्बी साइकिलिंग की बात भी कही। 100 किमी के लिए चलने को फौरन तैयार हो गयी। बोली -'अभी चलते हैं।'
जितने लोग आ गए थे उनके साथ फोटो के बाद हमने एक चक्कर साइकिल चलाई। पानी फिर बरसने लगा था, लिहाजा एक चक्कर के बाद सब लोग घर लौट गए।
लौटते हुए रामलीला मैदान का चक्कर लगाते हुए आये। मैदान में एक दुबला-पतला घोड़ा सड़क की तरफ पीठ किये घास चर रहा था। थोड़ा सहमा सा, जल्दी-जल्दी घास खाते देखकर लगा उसको समझाएं कि हड़बड़ी नहीं करो, तसल्ली से खाओ। लेकिन फिर उसको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं लगा।
घोड़े को हड़बड़ी में घास खाते देखकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वाले युवाओं का ख्याल अनायास आ गया। ऐसा लगा जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद हड़बड़ी में अपना पेट भर रहा है। उपमा निहायत बेतुकी और शायद सच से परे भी है। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम की जगह ही खाने का भी अच्छा इंतजाम होता है। लेकिन फिर भी ऐसी बात जेहन में घुस गई और निकली नहीं। दूसरों के बारे में हम अक्सर ऐसे ही बेसिर पैर की उपमाएं गढ़ लेते हैं। उपमाएं एक बार गढ़ ली जाती हैं तो ताजिंदगी जेहन से निकलती नहीं जबतक सच्चाई से सामना न हो जाये। और सच्चाई के बारे में तो आपको पता ही है कि कितना सहमती है आजकल सामने आने से।
मंदिर के पास कुछ गायें चौराहे पर खड़ीं दिखीं। बारिश में उनके बीच सड़क खड़े होने से ट्राफिक को समस्या होती है। लेकिन गायें को भी खड़े होने के लिए चौराहे ही रास आते हैं। समस्या अपनी जगह लेकिन गायों की बुराई करना ठीक नहीं। वो बुरा मानें या न माने उनकी चिंता करने वाले बुरा मान सकते हैं।
पानी तेज बरसने लगा तो सड़क किनारे रिक्शा स्टैंड पर बनी बेंचों पर बैठ गए। और लोग भी वहां आते गए, खड़े हो गए, बैठते गए। खड़े होते, बैठते ही लगभग सभी लोग मोबाइल निकालकर उसमें घुस गए। मोबाइल लोगों की शरण स्थली बना है। पुराने जमाने में लोग बचे हुए पैसे गुल्लक, सन्दूक में जमा कर देते थे यह सोचकर कि बख्त जरूरत काम आएगा। आजकल लोगों के पास जो भी समय बचता है उसे मोबाइल में डाल देते हैं। मोबाइल माने समय की गुल्लक। जो समय बचे उसे इसी में घुसा दो। अब लोगों को कौन समझाए कि समय कोई चिल्लर पैसा थोड़ी जो जमा करके बाद में उपयोग किया जा सके। वह गया तो गया।
लोगों की मौका मिलते ही मोबाइल में मुंडी घुसाने की आदत से दुष्यंत कुमार जी का शेर बदलकर पढ़वाने को जी चाहता है। अर्ज किया है:
लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया तो,
शरीफ लोग उठे और मोबाइल में जाकर डूब गए।
लहूलुहान नजारों से हो सकता है कि आपको एतराज हो। लेकिन हमारी भी मजबूरी कि हम पूरा का पूरा शेर थोड़ी बदल देंगे। बदल देंगे तो फिर पढेंगा कौन इसे। वैसे सच यह भी है कि लहूलुहान नजारों की बात हो या कोई और हादसा , आजकल उनकी बात होने पर लोग मोबाइल में ही घुस जाते हैं।
सामने बैठा आदमी जोर-जोर से किसी का हाल पूछ रहा था। दूसरी तरफ के इंसान को हड़का रहा था कि परेशानी के दौर से अगला अकेले, बिना बताए, चुपचाप कैसे गुजर गया। उसको क्यों नहीं बताया। परेशानी गुजर जाने पर उसकी सूचना न देने के बारे में हड़काना लाजिमी है।
बगल में बैठा आदमी मोबाइल पर कैरम खेल रहा था। हमारे लिए ताज्जुब का विषय कि बताओ कैरम भी मोबाइल में आ गया। हमको ताज्जुब के तालाब में तैरता छोड़ अगला कैरम खेलता रहा।
देखते-देखते पानी तेज हो गया। हम भी मोबाइल देखने लगे। मुंडी झुकाए मोबाइल में घुसे ही थे कि एक भाई जी आये और झटके से हमारे चरण स्पर्श कर गए। हमको झटका लगा। अपन चरण स्पर्श करवाने में बहुत संकोची हैं। किसी को यथा सम्भव पैर नहीं छूने देते। बच्चों तक को नहीं। पैर छुआने में संकोच लगता है। लगता है हमारे पास ऐसा क्या है जो हम किसी से पैर छुआएं। पुण्य-गरीब हैं हम। पैर छूने की कोशिश करता हुआ इंसान हमको हमारा बचा-खुचा पुण्य लूटने की कोशिश करता लगता है। इसलिए हम बहुत सावधान रहते हैं, कोई पैर छूने की कोशिश करता है तो रोक देते हैं, टोंक देते हैं, बचा लेते हैं पैर।
हमको लगता है किसी चरण-स्पर्शातुर से अपने पैर बचाकर अपनी इज्जत बचा ली। कोई पैर छूने की कोशिश करता है तो लगता है इज्जत पर हमला कर रहा। कोई अचानक पैर छू लेता है तो लगता है इज्जत लूट गईं। इज्जत की जेब कट गई। दुनिया के तमाम गड़बड़ काम पैर छूने के बाद ही अंजाम किये जाते रहे हैं। गुरुओं के मठों, तख्तों पर कब्जा करने के पहले शातिर चेले उनके पैर छूते हैं। कत्ल करने के पहले कातिल द्वारा कत्ल करने वाले के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेने की कई नजीरे हैं।
तमाम सावधानी के बावजूद कभी कोई पैर छू ही लेता है। कभी झटके में और कभी जबरियन यह कहते हुए -'यह तो हमारा हक है।' 'यह तो हमारा हक है' कहकर दुनिया में तमाम अपराध होते रहते हैं। छंटे हुए अपराधी तक 'यह तो हमारा हक है' कहते हुए समाज सेवा के अखाड़े में कूदकर समाज की मिट्टी पलीद करते रहते हैं। अपने ही यहां अनगिनत माफिया जनता की सेवा करना अपना हक मानते हुए राजनीति में सक्रिय हैं। धड़ल्ले से जनता की सेवा कर रहे हैं। किस माई के लाल की हिम्मत कि उनकी सेवा से जनता की हिफाजत करे।
बहरहाल पैर अकेले में छुए गए थे इसलिए हम कुछ करने की स्थिति में थे नहीं। वैसे सबके सामने भी कोई छू लेता तो कौन एफ आई आर कराते।
बरसते पानी में भी लोग घर आ-जा रहे थे। कुछ साइकिल सवार बतियाते हुए निकले। मोटरसाइकिल धड़धड़ाते हुए। एक आदमी सड़क पर दुलकी चाल से दौड़ता हुआ आता दिखा। उसके दोनों पैर एक दूसरे का विरोध करने वाले अंदाज में साथ चलते दिखाई दिए ऐसे जैसे किसी पार्टी में दो विरोधी धड़े अपने वर्चस्व की कुश्ती लड़ते हुए साथ भी है और अलग भी।
पानी और तेज हो गया। एक ऑटो वाले ने मुझे पहचानकर घर तक पहुंचाने का ऑफर दिया। हमने साइकिल का हवाला देकर मना किया। उसने ऑफर में साइकिल भी ले चलने को कहा। हमने फिर मना किया और बारिश रुकने का इंतजार किया।
इस बीच एक और आदमी आ गया। आते ही उसने नमस्ते करके एक घपले का किस्सा सुना दिया। हमको लगा कि जानकारी के लिए लोगों से मिलना बहुत जरूरी है। सब कुछ डिजिटल डाटा के भरोसे छोड़ना ठीक नहीं। खुद के बारे में जानकारी के लिए दूसरों से मिलना जरूरी है। दूसरे जितना हमारे बारे में जानते हैं उतना हमको खुद पता नहीं होता।
वहीं एक बच्चा और मिला। पिता नहीं रहे। उसकी जगह भाई को नौकरी लगी। दूसरा दिहाड़ी मजदूर। खुद नौकरी के लिए इम्तहान दे रहा है। पता चला एक साल इंजीनियरिंग भी की। लेकिन इंटर में पढ़ाई का माध्यम हिंदी होने के चलते पहले साल तीन विषय में फेल हुए। बैक आ गई। इंजीनियरिंग छोड़कर घर आ गए। बी.ए. किया और अब नौकरी की तलाश कर रहे हैं। बीए और नौकरी के बहाने अकबर इलाहाबादी भी याद आ गए जो नौकरी पेशा लोगों के लिए कह गए हैं:
क्या किये एहबाब, क्या कार-ए-नुमाया कर गये,
बीए किया, नौकर हुए, पेंशन मिली फिर मर गए।
कुछ देर बाद बादलों का पानी का स्टॉक खत्म हो गया। कुछ बादल शायद रिचार्ज कराने चले गए। बाकी गरजने की ड्यूटी बजाते रहे। हम खरामा-खरामा पैडलियाते हुये घर आ गए।

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