*मंच के कवि को अपमान की परवाह नहीं करनी चाहिए। यदि आप स्वाभिमान के चक्कर में पड़े तो हाथ धो बैठेंगे।
ऊपर के पंच वाक्य Arvind Tiwari जी के एकदम ताजा उपन्यास 'लिफाफे में कविता' से हैं। उपन्यास मंचीय कवियों की पोल-पट्टी खोलने वाला है। इसमें अरविंद जी के अनुभव सुने-सुनाए और प्रत्यक्ष दोनों तरह के होंगे।
192 पेज के उपन्यास में से 68 पेज सुबह की सिटिंग में पढ़ गए। उपन्यास की पठनीयता और रोचकता का प्रमाण है यह।
फिलहाल इतना ही। बकिया पूरा पढ़कर लिखेंगे। पढ़ तो आज ही लेंगे। लिखेंगे भी जल्दी ही।
आप भी मंगा लीजिए उपन्यास। पढ़ने लायक है। पसन्द न आये तो पढ़कर या अधपढा हमको आधे दाम पर दे दीजियेगा। हम।मित्रों को उपहार के रूप में दे देंगे।
राज की बात यह भी कि उपन्यास का नामकरण वरिष्ठ व्यंग्यकार के नाम से विख्यात होने के बाद एकरिंग के अखाड़े में 'उछल-उछलकर' हाथ आजमाने के लिए कूदे Alok Puranik ने किया था। लेकिन अरविंद जी कवि सम्मलनों की हालिया दुर्गति से इतना ज्यादा भन्नाए हुए लगे 'अपनी बात' में कि इसका जिक्र करना भूल गए। यह उसी तरह हुआ जैसे कवि सम्मलेन का आयोजक कवियों से कविता पढ़वा कर पारिश्रमिक देना भूल जाता है।
किताब पढ़ते हुए अरविंद जी के पिछले उपन्यास शेष' अगले अंक में' , 'हेड ऑफिस के गिरगिट' और 'दिया तले अंधेरा' भी याद आये। इन उपन्यासों का जितना जिक्र होना चाहिए उतना शायद हुआ नहीं। अरविंद तिवारी जी को आत्मविज्ञापन भी सीखना चाहिए। लेकिन यह गुण आदतन होता है, सीखा नहीं जाता।
बहरहाल फिलहाल ' लिफाफे में कविता' का आनन्द ले रहे हैं अपन। आप भी लीजिए। मजा आएगा।
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