पुस्तक मेले में दो दिन के कुल जमा कुछ घण्टे रहे। तमाम यादें इकट्ठा हुईं। कुछ लिख गईं बहुत बाकी हैं। बची हुई यादें रोज हल्ला मचाती हैं। कहती हैं हम पर भी लिखो न। कुछ तो हड़काती हैं -'लिखो हम पर नहीं तो मानहानि का मुकदमा कर दूंगी। बताए दे रहें। सच्ची।'
इस बीच पहले दिन की सबसे पहले विमोचन की फोटो कल भेजी लालित्य ललित जी ने। फोटो देखकर एक बार फिर से मन मेले में पहुंच गया। बिना टिकट। हमने डांटा मन को -'अबे, इत्ती सुबह कहाँ खुलता है मेला। अब तो खत्म भी हो गया।'
मन बेचारा मन मानकर वापस लौट आया और पुरानी यादों के साथ खेलने लगा।
अगले दिन मेट्रो से गये मेले। चालीस रुपये एक तरफ का किराया।
इस बार हाल नम्बर पांच से घूमना शुरू किया। हाल नम्बर पांच में अंग्रेजी की दुकानें थीं। यहां चकाचक सेल्सपर्सन भी दिखे दुकानों में-' में आई हेल्प यू घराने के।' जबकि अधिकांश हिंदी स्टालों में प्रकाशक खुद मौजूद थे -'पीर ,बाबरची, भिस्ती, खर की भूमिका निभाते हुए।'
एक कोने में बने लेख मंच में किसी किताब पर अंग्रेजी में बात भी हो रही थी। हमने खड़े होकर कुछ देर सुना और फिर चल दिये। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे थे।
ये जो आगे में मोर्चे आवाज देने वाली बात लिखी हमने वो हमने पहली बार और आखिरी बार भी कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित'घोड़े वाले'के मुंह से सुनी थी। दीक्षित जी जब चुनाव लड़ते तो घोड़े पर चढ़ते हुए आते। कुछ देर भाषण देते और फिर चल देते कहते हुए -'आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे हैं।'
दीक्षित जी से आखिरी बार उनके घर के नीचे मिला था तो उन्होंने सुनाया था:
'चलो न मिटते पदचिन्हों पर,
अपने रास्ते आप बनाओ।'
(पोस्ट का लिंक टिप्पणी बॉक्स में)
आगे बढ़ने पर दूसरे हाल दिखे। सब हाल आपस में मिले हुए थे। एक जगह बच्चों के कुछ कार्यक्रम हो रहे थे। बच्चों से कुछ कलाकृतियां बनवाई जा रही थी। फ़ोटो हो रहीं थीं बच्चों के माता पिता अपने नौनिहालों के कौतुक करतब देखते हुए निहाल हो रहे थे। हम भी थोड़ी देर निहाल हुए और आगे बढ़ गए।
आगे बढ़ते हुए हम हाल नम्बर 2 में आ गए जहां से हिंदी किताबों के स्टॉल का सिलसिला शुरू हुआ। पहली दुकान मिली भावना प्रकाशन। भावना प्रकाशन से तमाम साथी व्यंग्यकारों की किताबें आई हैं। सुभाष चन्दर Subhash Chander जी का हिंदी व्यंग्य का उपन्यास और दीगर किताबें वहां सामने नोटिस बोर्ड की तरह लगी थीं। दुकान के अंदर जाकर किताबें देखने लगे।
किताबें देखने में मशगूल हुए ऐसा कि पीछे से आई हुई अर्चना चतुर्वेदी की कई आवाजें नहीं सुनाई दी। बाद में जो आवाज सुनाई दी वो थी -'कट्टा कानपुरी।' अर्चना चतुर्वेदी ने बताया इसके पहले वो हमको हमारे नाम से आवाजिया चुकी थीं जिनको हमने सुना नहीं था। इससे पता चलता है कि असल नाम के मुकाबले तखल्लुस वाले नाम की धमक ज्यादा होती है।
अर्चना चतुर्वेदी की किताब 'घूरे का हंस' एक दिन पहले विमोचित हुई हुई थी। उनकी और किताबें भी वहां मौजूद थीं। उन पर हम पहले ही पैसे खर्च कर चुके थे। लिहाजा ताजी किताब 'घूरे का हंस' उठाई और अर्चना जी के साथ फोटो खिंचाई। व्यंग्यकार, मीमकार सौरभ जैन (डॉ सौरभ जैन ) भी साथ ही थे। किताब में लेखिका के आटोग्राफ भी ले लिए।
इस बीच टहलते हुए बगल की स्टाल के प्रकाशक भी वहां आ गए। अर्चना ने उनसे मजे लेते हुए कहा -'हम तो आपके यहाँ से किताब छपवाने की सोच रहे थे लेकिन आप पैसे मांग रहे थे इसलिए नहीं छपवाई।'
प्रकाशक जी कुछ बोले नहीं। अर्चना जी से और इधर-उधर की बातें हुईं तमाम सारी फिर वो मेला घूमने निकल लीं सौरभ के साथ। हम फिर घुस गए दुकान में।
भावना प्रकाशन से कई किताबें लीं। उनमें सुभाष चन्दर जी द्वारा संपादित हास्य कहानियों का संकलन भी था। अच्छा संकलन लगा देखने में। यह लिखते हुए सुभाष जी के हास्य बोध के बारे में बड़ा खुराफाती जुमला आया दिमाग में। टाइप भी हो गया। लेकिन हमने उसको डपट के भगा दिया। कहते हुए-'नेपथ्य में रह बे। सुभाष जी बुरा मान गए तो निकाल बाहर करेंगे हिंदी व्यंग्य के इतिहास से। एक पैरा जो लिखा है हमारे बारे में वो हटा के नया संकलन छपा देंगे।
खुराफाती जुमला बेचारा मन मार कर बैठ गया। बैठा है। लेकिन कभी न कभी तो मुंह उठाएगा ही।
इस बीच भावना प्रकाशन के नीरज जी ने मेरे लेखन की तारीफ भी कर दी। कहा -'आपका लेखन रोचक है।' इसी तरह की कुछ और भी बातें जो किसी भी लेखक को झांसे में डाल सकती हैं। कुछ लेखक तो इस तरह की बातों को दिल पर ले लेते हैं और तबियत भी खराब कर लेते हैं। लेकिन अपन ने खुद को संभालते हुए इधर-उधर की बातें करनी शुरू कर दीं।
भावना प्रकाशन पर मुस्ताक अहमद यूसुफी जी किताब दिखाई दी। शीर्षक है -'पापबीती।' पता चला कि पहले लफ्ज प्रकाशन से ' धनयात्रा' नाम से आई किताब ही दूसरे अनुवादक ने नए नाम से छापी है। खूबसूरत छपाई और बेहतरीन अनुवाद। अनुवाद की खूबी यह कि इसमें जगह-जगह टिप्पणियों के माध्यम से लेखन में आये सन्दर्भो के बारे में विस्तार से बताया गया था। इसके अनुवादक डॉ आफताब अहमद फिलहाल कोलंबिया यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क से संबद्ध हैं।
बाद में पता चला कि किताब के प्रकाशक कानपुर के ही हैं। प्रकाशक से बतियाये भी। तारीफ भी की। प्रकाशक भी खुश हो गए। तारीफ से हर कोई खुश हो जाता है।।
पापबीती के साथ ही युसूफ़ी साहब की 'आब-ए-गुम' भी खरीदी। यह किताब लफ्ज़ प्रकाशन से आ चुकी है-' खोया पानी' नाम से।
युसूफ़ी साहब की दोनों किताबें हासिल-ए-पुस्तकमेला लगा।
मुझे युसूफ़ी साहब की किताबें लपककर लेते हुए देखकर नीरज जी ने कहा -'तमाम व्यंग्यकारों को तो युसूफ़ी साहब के लेखन के बारे में पता ही नहीं।'
हमारा कहने का मन हुआ कि व्यंग्यकार को पता हो जाएगा तो लिख कैसे पायेगा? लेकिन फिर कहा नहीं। क्या पता कौन बुरा मान जाए।
लेकिन यह बात तो कहनी पड़ेगी की भावना प्रकाशन वाले नीरज जी बड़े खतरनाक किताब वाले हैं।अपनी स्टाल पर मौजूद किताबों के बारे में बताते-बताते कई किताबें खरीदवा दीं।
भावना प्रकाशन से निकलकर पुस्तक मेले में और दुकानों की तरफ बढ़े।
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