Tuesday, October 11, 2005

मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो

http://web.archive.org/web/20110901033115/http://hindini.com/fursatiya/archives/58

कल्लू पहलवान अपने ढाबे में परशुराम की तरह टहलते हुये चाय की तरह उबल रहे थे। कमर का तहमद बार-बार भारतीय क्रिकेट टीम के मनोबल की तरह ढीला हो रहा था। यह तय करना मुश्किल नहीं था कि वे गुस्से में थे। लिहाजा चाय केलिये आदेश देने से पहले मैंने पूछ लिया:-

क्या हुआ पहलवान आज कुछ नाराज दिख रहे हो?

हां कुछ ऐसे ही सबेरे से मूड आफ है।
हमने कारण पूछा:-
क्या हुआ भाई कुछ बताओ तो?
बहुत पूछने पर फट पड़े पहलवान:- यार इन बैंको का दिमाग खराब है। साले स्कूल खोलने के लिये लोन नहीं दे रहे हैं। फालतू के सवाल पूछते हैं।
स्कूल खोलने का लोन? क्या कह रहे हो मियां?
यार, तुम तो ऐसे उचक रहे हो जैसे तुमसे ही मांग रहे हैं।
नहीं,नहीं मियां फिर भी जरा तफसील में बताओ।
यार हर तरफ पढ़ाई का जमाना है तो हमने भी सोचा कि हम भी लड़को के लिये सस्ते में पढ़ाई का इन्तजाम करें। इसीलिये लोन के लिये बैंक में अर्जी देने के लिये सोच रहा था। बैंक वाले मेरे ख्याल को तवज्जो ही नहीं दे रहे।
मियां इरादा तो नेक है तुम्हारा। इलाके में गरीब बच्चों के लिये कोई स्कूल भी नहीं है। लेकिन बैंक वाले मना क्यों कर रहे हैं? कितने रुपये का लोन अप्लाई किया था?
अरे ज्यादा नहीं २५० करोड़ के लिये किया था। पहलवान कान खुजाते बोले।
२५० करोड़!
मेरी चाय छलक गई। पहलवान कान खुजाते रहे बोले- अबे छोकरे साहब को दूसरी चाय लाके दे। कपड़ा मार दे मेज पर।
कुछ देर बाद पहलवान बोले हां २५० करोड़ । बढ़िया ‘इस्कूल’खोलेंगे।हाई-फाई टाइप का। जिसमें वाई-फाई भी होगा। कम्प्युटर-फम्प्यूटर होगा। दिस होगा,दैट होगा। धांसू ‘परफेसर’ पढ़ायेंगे। बवाली गुरु को भी बुला लिया करेंगे। बढ़िया पढ़ाई,कम पैसेमें। पर ये साले बैंक वाले माने तब न!
हमारी चौंकने की क्षमता चुक गई थी। हमने पहलवाल से अनुरोध किया मियां अब ज्यादा पहेलियां न बुझाओ। सीधे पूरी बात बताओ।
जो बताया पहलवान ने उसका लब्बो-लुआब ये था कि कुछ ब्लागर उनके ढाबे पर चाय पीने आये थे। उनकी आपस की बातचीत से उन्हें पता चला कि किसी लड़की ने किसी बिजनेस स्कूल के बारे में कुछ लिखा तो उस स्कूल के दो-तीन लड़कों ने उसके बारे में तमाम भद्दी-भद्दी बातें लिखीं। सुनकर पहले तो कल्लू पहलवान गुस्से के मारे फड़के। लेकिन ब्लागरों के जाने के बाद सोचा कि शायद बिजनेस स्कूलों में गालियां ही सिखाई जाती हैं। तभी से उन्हें अपना खुद का बिजनेस स्कूल खोलने की धुन सवार हो गई। बाकी का किस्सा हम बता ही चुके।
हमने पहलवान को समझाने की कोशिश की। यार बिजनेस स्कूल चलाना तुम्हारे बस का नहीं है। तमाम प्रतिभा,काबिलियत चाहिये।
प्रतिभा,काबिलियत के नाम पर पहलवान उखड़ गये । बोले- अबे क्या काबिलियत चाहिये? जिस तरह की बातें,गालियां बिजनेस इस्कूल के लौंडों ने लिखी लड़की के लिये उससे ज्यादा झन्नाटेदार तो हमारा वो छोकरा दे लेता है जो चाय के कप धो रहा है, जिसने स्कूल का मुंह नहीं देखा। जब बिजनेस स्कूलों में गालियां ही सिखाई जाती हैं तो हमीं क्या बुरे हैं जो दिन भर सैकड़ों को बिना फीस के ट्रेनिंग देते रहते हैं। इसीलिये आइडिया आया बिजनेस स्कूल खोलने का। पर बैंक राजी ही नहीं होता। तुम भी कह रहे हो कि हमसे नहीं होगा।
हम बड़ी मुश्किल से समझाने में कामयाब हुये कि पहलवान ये काम इतना आसान नहीं हैं जितना तुम समझ रहे हो।
पहलवान मान तो गये लेकिन रह-रहकर उनको लग रहा था कि उनका इरादा मुल्तवी करने के पीछे हमारी कोई साजिश है। उनका यह भी कहना था कि अगर स्कूल उनका होता और उनके स्कूल के किसी लड़के इस तरह की बदतमीजी की होती तो वे उसको दो कन्टाप मारते। कान पकड़कर उठक बैठक कराकर लड़की के सामने मुर्गा बना देते। तभी उठाते जब लड़की माफ कर देती।
हमने यह भी पूछा -
अगर वो न होता तुम्हारे स्कूल का तो?
पहलवान ने बिना विचलित हुये कहा- तब तो हम उसकी खोज में जमीन आसमान एक कर देते। पकड़ में आने पर मारे जूतों चांद गंजी कर देते। जब तक न मिलता तब तक इतना तो हम तुरन्त करते कि लड़की से कहते- ये बातें हमारे किसी लड़के ने नहीं लिखीं। हम इसकी निंदा करते हैं।
हमने पूछा कि अगर कोई कहे लड़की भी कम नहीं है। बहुत साल पहले गलत हरकतें करते पकड़ी गई थी?
पहलवान बोले यार यह तो ऐसी ही बात है कि कोई चोर पकड़े जाने पर कहे कि तुमको तो हमने बचपन में नंगे देखा है। शिकायत के जवाब की गई शिकायत किसी शिकायत का जवाब कैसे हो सकती है?
हमने यह भी पूछा कि अच्छा ये बताओ पहलवान, अगर कोई दूसरी दुकान वाला तुम्हारे किसी छोकरे को निकालने के लिये कहो तो?
अब ये तो इस बात पर हैं कि किस लिये कहता है, छोकरे की गलती क्या है? लेकिन बिना अपनी तसल्ली किये मैं उसे नहीं जाने देता।
और अगर वह यह कहकर जाने की जिद करता कि उसके दुकान में रहने से दुकान को नुकसान हो सकता है। दुकान के भले के लिये वह दुकान छोड़ना चाहता है। तब क्या करते?
तब मैं उसको हरगिज न छोड़ता। यार, कैसे उस छोकरे को अकेला चले जाने देता जो हमारी सलामती की चिंता कर रहा है। कैसे रोकता यह तो छोकरे के मिजाज पर है लेकिन मैं किसी भी कीमत पर उसे जाने नहीं देता। अगर ज्यादा ही जिद करता तो कहता कि ले बेटा ये ताला लगा दे दुकान पर। जिस दुकान की सलामती के लिये तू अपनी रोजी छोड़ने को तैयार है वो तेरे बगैर खुल कैसे सकती है? चल कैसे सकती है? पहलवान भावुकता के पाले में पहुंच गये थे।
मैं घर आगया।
तबसे सारा प्रकरण मेरे दिमाग के चक्कर काट रहा है।
किसी महिला ने कुछ सही-गलत तथ्यों के आधार पर किसी संस्थान की कमियां बताईं। उस संस्थान के तथाकथित छात्रों ने बेहूदा भाषा में उस लड़की पर तमाम कीचड़ उछाला। तमाम लोग इसकी निंदा कर रहे हैं। इस मुद्दे पर महिला के विचारों का समर्थक अपनी कंपनी के हित में नौकरी छोड़ देता है। कंपनी उसका त्यागपत्र स्वीकार कर लेती है। बातें
बड़ी सीधी हैं । लेकिनतमाम सवाल उठते हैं।
1.ये कैसे संस्थान हैं जो अपने लड़कों को इतनी जाहिल,कमीनी, जलालत भरी भाषा सिखाते हैं? इससे कई गुना बेहतर भाषा गुंडे,मवाली बोल लेते हैं जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा होता।
2.ये कैसा जाहिल संस्थान है जो अपने ऊपर लगे आरोपों (अगर वे गलत हैं तो) का जवाब नहीं दे पाता?
3.ये कितना असंस्कृत संस्थान है जो संस्थान के नाम पर एक महिला के खिलाफ इतनी टुच्चीभाषा के इस्तेमाल के लिये अपने तथाकथित छात्रों की भर्त्सना नहीं कर सकता? छात्र अगर उससे संबंधित नहीं हैं तो यह सूचित करते हुये खेद क्यों नहीं जता सकता?
4.किसी महिला के द्वारा लगाये आरोप के जवाब क्या उसको चरित्रहीन, समलैंगिक,मंदबुद्धि बताये बिना नहीं दिये जा सकते?
5.ये कैसी कंपनी है जो अपने किसी कर्मचारी को नौकरी छोड़ने की अनुमति दे देती है जो कंपनी की भलाई के लिये नौकरी छोड़ने का प्रस्ताव रखता है। कैसी ‘लीडरशिप क्वालिटीस’ सीखे हैं कंपनी के कर्णधार जो अपने आदमी को तब बाहर जाने की अनुमति दे देते हैं जब वह कंपनी की भलाई के लिये सोच रहा है तथा जिस समय उसको सहयोग की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
सवाल और भी तमाम सारे हैं। उनके जवाब पता नहीं क्या होंगे। एक बात बिजनेस स्कूलों की शिक्षा के बारे में। मैं कभी बिजनेस स्कूल में नहीं पढ़ा लेकिन लगता है कि उतपादन तकनीकों में सुधार के अलावा जितना बेचने के चोंचले सिखाते हैं वे जनता को वेबकूफ बनाने के तरीके होते हैं। बेहतरीन संप्रेषण तकनीक और प्रस्तुतिकरण से सही-गलत के बीच भेद खतम कर देने का हुनर है यह। एक शेर यह बात बेहतर ढंग से यह बात कह सकता है:-
मैं सच बोलूंगी हार जाऊंगी ,
वो झूठ बोलेगा लाजवाब कर देगा।

इस लाजवाब झूठ की नींव में अगर हवा न भरी होती तो आलोचना की सुई से उसकी हवा न निकलती।
दुनिया का सबसे बुद्धिमान तबका होने का दंभ भरने वालों तथा खुदी को आसमानी बुलंदियों तक पहुंचाने का माद्दा रखने वालों को यह समझने की भी जरूरत है कि भाषा उनका हथियार है। ताकत है। भाषा गलीज होगी तो कितने दिन कोई कल्लू पहलवान को रोकेगा किसी बिजनेस स्कूल का डायरेक्टर बनने से?
क्या विचार है आपका?
मेरी पसंद
१.पहले कमरे की खिड़कियां खोलो
फिर हवाओं में खुशबुयें घोलो,
सह न पाऊंगी अब मैं तल्खियां
मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो ।
२. अगर लौटा सको तो टूटता विश्वास लौटा दो,
बनो बादल धरा को फिर पुरानी प्यास लौटा दो।
अगर मजबूर हो तुम प्यार सच्चा दे नहीं सकते
तो झूठा ही सही पर प्यार का अहसास लौटा दो।।
-सरिता शर्मा,दिल्ली

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

11 responses to “मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो”

  1. Vinay
    अनूप,
    बात को खोल कर रख दिया है आपने. इस पूरे प्रकरण में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का विषय तो अपनी जगह है ही. पर हमारा तथाकथित “सभ्य” समाज इस भाषा में बात करता है, यह जानकर निराशा होती है. नब्ज पर हाथ रखने के लिए साधुवाद.
  2. sarika
    बहुत ही सही तरीके से आपने बात को सामने रखा है।
  3. अनुनाद
    अनूप जी , सबसे पहले आपके चिट्ठे रूप-रंग की प्रशंशा करना जरूरी है क्योंकि आजि सकी सुन्दरता देखते ही बन रही है |
    रही बात कन्या को अपशब्द कहने की , तो मैँ भी इसकी भर्त्सना करता हूँ | लेकिन आप इसकी जिम्मेसदारी से नही बच सकते क्योंकि आप ही तो “गालियोँ के सामाजिक महत्व” का प्रचार करते रहते हैं |
  4. जीतू
    बहुत सुन्दर प्रभु, सब कुछ साफ़ साफ़ खोल के रख दिया है। मामला क्या है, क्या नही। गलती किसकी है, किसकी नही मै इसकी तह मे नही जाना चाहता। लेकिन इतना कहे बिना रहा नही जाता:

    “दरअसल गलती स्कूल की नही है, गलती पढाने वालों की भी नही है, गलती है लालन पालन में। जैसा आचरण ये बच्चा लोग कर रहे है उनसे इनके उठने बैठने, चाल चलन और आसपास के माहौल की झलक दिखाई देती है। इस लड़्को में मुझे भविष्य के राजनेता दिखाई देते है।”
  5. Raj
    अच्हा है
  6. Mrinal
    this is perhaps the best piece I have read on how a debate/discussion should proceed. I am not aware of the issue that is being referred to. But the simple and straight manner in which distinct, significant points have been woven together is beautiful. Also, a masterpiece in how it conveys various points but especially:
    1. on not bringing in extraneous issues in criticism
    2. on not abandoning manners when not necessary
    3. on responsibility of organizations towards their employees.
    Even though fictitious, the pehelwaan strikes a chord in the heart of every sane person. I am not exaggerating but I would say that I would compare this character to some of the best ones in literature.
    While the ideas you have presented are, in my opinion, important but I am thoroughly impressed by the presentation. Marvellous! It was a great reading. Difficult to get across such pieces even in print. Thanks for publishing this post.
  7. फुरसतिया » एक और कनपुरिया मुलाकात
    [...] -इस समय हम कल्लू पहलवान के ढाबे पर खाना खा रहे हैं। उन्होंने जबरदस्ती इत्ता खिला दिया है नींद आ रही है। वे सोने नहीं दे रहे हैं। कह रहे हैं हमें भी ब्लाग लिखना सिखाऒ। हमने कहा कि लिखना पहलवानों का काम नहीं भाई! इसमें दिमाग लगता है। इस पर पहलवान कह रहे हैं- जब समीरपहलवान, जीतू पहलवान और बोधि पहलवान लिख सकते हैं तो हम काहे नहीं! लगता है पहलवनवा रोज डेली ब्लाग पढ़ता है। [...]
  8. फुरसतिया » संवेदना के नये आयाम
    [...] पिछले साल एक महिला अंग्रेजी ब्लागर से एक संस्थान के लड़कों ने गाली-गलौज की थी। उस महिला ब्लागर के दोस्तों से उस संस्थान के संचालक की ऐसी कम तैसी कर दी थी। महीनों सैकड़ों पोस्ट लिखीं गयीं थीं। मैंने भी लिखी थी एक पोस्ट । उस संस्थान के खिलाफ़ लिखते हुये मैंने लिखा था- [...]
  9. आते जाते खुबसूरत आवारा सड़कों पे - 1
    [...] जवानी के दिनों में इन्होंने साइकिल बड़ी दौड़ायी है, अब जवानी ढलने सी लगी है लेकिन दौड़ाने का शौक अभी तक बरकरार है इसलिये आजकल चिट्ठाकारों को चिट्ठाचर्चा के मंच तक दौड़ा लाते हैं। स्वयंभु फुरसतिया का फुरसत का अंदाजेबयाँ ये है – हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै। लेकिन बकौल कल्लू पहलवान वो औरों से कहते फिरते हैं – मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो। [...]
  10. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी [...]

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Monday, October 10, 2005

कमजोरी

http://web.archive.org/web/20110926104943/http://hindini.com/fursatiya/archives/57
मैं ,
सारी दुनिया को
अपनी मुठ्ठियों में भींचकर
चकनाचूर कर देना चाहता हूं।

हर गगनचुम्बी इमारत को जमींदोज
और सामने उठने वाले हर सर को
कुचल देना चाहता हूं।
मेरा हर स्वप्न
मुझे शहंशाह बना देता है
हर ताकत मेरे कदमों में झुकी
कदमबोसी करती है।
बेखयाली के किन लम्हों में
पता नहीं किन सुराखों से
इतनी कमजोरी मेरे दिमाग में दाखिल हो गई!

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

4 responses to “कमजोरी”

  1. sarika
    फुर
  2. sarika
    फुरसतिया का नया रूप सुन्दर है।
  3. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 2.रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का [...]
  4. कविता-फ़विता, ब्लॉगर से मुलाकात और मानहानि

Saturday, October 08, 2005

रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है

http://web.archive.org/web/20110926064940/http://hindini.com/fursatiya/archives/56
हर समाज में कुछ अच्छाइयां होती हैं, कुछ बुराइयां होती हैं। अच्छाइयों का तो खैर क्या,बुराइयों के भी हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उनकी अनुपस्थिति चौंकाती है। हमारा शहर भी इसका अपवाद नहीं है। बिजली इतनी गायब रहती है कि उसके देर तक बने रहने पर लगता है कुछ गड़बड़ है जरूर। सड़क पर सुअर,गायें,गंदगी,पालीथीन वगैरह नहीं दिखते तो आशंका होती है कि कुछ लफड़ा है जरूर।
किसी नेता की रैली में मारपीट,लूटपाट नहीं होती तो लगता है कि नेता जी का जनाधार खिसक रहा है ,नेताजी के पास इतने पैसे भी नहीं बचे के भीड़-भगदड़ का इन्तजाम कर सकें। वसूली वाले दफ्तरों में काम की शुरुआत बिना लेनदेन के शुरु होती है तो मन डीजल जनरेटर सा धड़कने लगता है कि हाय लगता है काम पूरा नहीं होगा।
मन इतना आदी हो गया है अव्यवस्थाओं का कि उनका न होना चौंकाता है। तर्क पद्धति कुछ ऐसी हो गयी है कि हर गड़बड़ी में आशावाद टटोलती है। पानी की कमी तथा बदइंतजामी के कारण जब बच्चे रैली में बेहोश होते हैं तो लगता है कि यह पानी के महत्व तथा भविष्य की चुनौतियों के बारे में बताने का सटीक तरीका है।
आम हो चुके हुड़दंग चौकाने की क्षमता खोते जा रहे हैं । कल ही चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय के छात्रों ने जमकर उपद्रव किया। छात्रों ने रावतपुर रेलवे स्टेशन पर आरक्षण कराने के दौरान हुये झगड़े के बाद दुकानों में पथराव किया,फायर किये,वाहनों के शीशे तोड़े। चूंकि यह हमारे शहर की आम घटना बन चुकी है लिहाजा यह चौंकाती नहीं है। छात्र उपद्रव नहीं करेंगे तो कौन करेगा। यह तो उनका अपने को भविष्य के तैयार करने का प्रयास है।
कुछ दिन पहले एचबीटीआई के दो बालक एक दुकान पर पहुंचे। दुकान से उनकी मेस का सामान जाता था। बालकों ने सामान की खरीद का कमीशन मांगा। दुकानदार ने मना किया होगा या सौदा नहीं पटा होगा। मजबूरन गुम्मेंबाजी करनी पड़ी बालकों को।जब एस.पी. ने थाने बुला कर उनको डांटा तो वे बोले-जब नेता लेते हैं कमीशन तो हम क्यों नहीं ले सकते?सही भी है खाली इंजीनियरिंग की डिग्री से क्या होगा भविष्य में! विकल्प तो तलाशने ही होंगे।
यह तर्क प्रक्रिया तो उन घटनाओं के बारे में है जिनके हम आदी हो गये हैं। लेकिन अक्सर कुछ घटनायें हो ही जाती हैं जिनके लिये हमारे मन में तर्क तैयार नहीं होते। सिस्टम पुराना होने के कारण अक्सर झटका लगता लगता है। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ कविता की तर्ज पर आवाज उठती है:-
ओ मेरे खुराफाती मन,
ओ मेरे शहराती मन,
ये घटनायें नई घट गईं,
गलियां खबरों से पट गईं,
तूने अब तक क्या किया,
इन झटको को किस तरह लिया,
कुछ अपने विचार तो लिख,
झटके का उपचार तो लिख,
वर्ना नई घटनायें भी घट जायेंगी,
सारी मिलजुलकर चिल्लायेंगी,
क्या तुम्हें हम नहीं रही हैं दिख?
ओ शहर के आलस की मूर्ति
अब तो हमारे पे कुछ लिख।

घटी हुई घटनाओं का विवरण जानने के लिये मैं पुराने अखबार दुबारा देखता हूं। पिछले कुछ दिनों के अखबार बताते हैं कि शहर में तेजाब की खपत बढ़ गई है। यह खपत न तो प्रयोगशालाओं में हो रही है न ही किसी उद्योग में। यह तेजाब खप रहा है लड़कियों के चेहरों में। आये दिन खबर आती है कि किसी लड़की के चेहरे पर उसके एकतरफा प्रेमी ने तेजाब फेंक दिया। चेहरा बदसूरत कर दिया।
खबरें बताती हैं कि लड़की खूबसूरत थी। हंसमुख थी। पढ़ने-लिखने में अच्छी थी । तमाम उन चीजों से युक्त थी जिसके लिये लड़कियां जानी जाती हैं। इन्ही तमाम चीजों के कारण कोई लड़का उसके प्रेम में गिर जाता है(फाल्स इन लव)। लड़की नहीं गिर पाती। या यह भी संभव है कि उसे पता ही न चलता हो कि उसका प्रेम दीवाना भी है कोई। लड़की की कुछ हरकतों से लड़के को लगता है कि लड़की को भी कुछ-कुछ हो रहा है। कुछ हरकतों से लगता है कि कुछ-कुछ तो हो रहा है लेकिन लड़की के सपनों का राजकुमार कोई दूसरा है। इन कुछ-कुछ हरकतों से लड़का परेशान हो जाता है। फिर वो सोचता है कि जो खूबसूरत चेहरा उसकी नींदे ,दिन-रात का चैन हराम किये है वो ऐसा कर दिया जाये ताकि उसकी खूबसूरती से तो निजात मिले।
दिल के हाथों मजबूर बालक किसी रासायनिक सामान बेचने वाले की दुकान जाता। एक लीटर सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल(तेजाब) खरीदता है। मौका पाकर अपना सारा प्यार, मय तेजाब के, अपने प्यार के प्यारे चेहरे पर उड़ेल देता है। लड़की का चेहरा जलाकर वह अपने प्रेम का अध्याय पूरा करता है।
इस मनोवृत्ति के कारण तो समाजशास्त्री ही बेहतर बता पायेंगे। इनका ग्राफ ऊपर क्यों जा रहा है यह विचारक ही बता सकते हैं । मुझे कुछ समझ में नहीं आता फिर भी दिल है कि मानता नहीं । कुछ कहना चाहता है।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में बहुस्तरीय बदलाव आ रहे हैं। एक तरफ लड़कियां पढ़ रही हैं। आगे बढ़ रही हैं। जिंदगी के तमाम मोर्चों में कठिनाइयों लड़ भी रहीं हैं। वे लड़कों के बराबर आ रही हैं । उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
एक सर्वे के मुताबिक ,कुछ क्षेत्रों में (सेवा संबंधी) लड़कियां, लड़कों से बेहतर साबित हो रही हैं। अक्सर सेवा संबंधी नौकरियों में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले तरजीह दी जाती है। लड़के सोचते हैं-काश हम भी लड़की होते।
इन्हीं कारणों के घालमेल का दूसरा पहलू भी है। विज्ञापनों , सौन्दर्य प्रतियोगिताओं,एंकरिंग आदि कुछ ऐसा समा बांधते हैं कि नारी आइटम के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती। आम आदमी उसमें ‘माल‘ से ज्यादा कुछ तलाशने के पचड़े में नहीं पड़ता।
जब औरत आइटम में तब्दील होगी तो उससे व्यवहार का व्याकरण भी उसी तरह बदलेगा। वह ऐसी चीज में तब्दील हो जायेगी पाने के प्रयास में असफल व्यक्ति यह सोचेगा कि हमें न मिले तो किसी को क्यों मिले। येन-केन-प्रकारेण अपने चाहे को पाने की उत्कट अभिलाषा से पीड़ित असफल बालक मजबूरन उस चेहरे को बर्बाद करने की बहादुरी कर गुजरता है जिसको यादों में सहलाते हुये वो अपने दिन,महीने,साल बर्बाद कर चुका होता है।
यह उस किसान का अंदाज है जो आतताइयों के डर से गांव से भागते हुये अपनी फसल जला देता ताकि उसकी लगाई फसल का उपयोग वे न कर सकें। लड़की का प्रेमी यह नहीं चाहता जिसे उसने चाहा उसे कोई और चाहे। इसके लिये वह चेहरा ही बिगाड़ देता है ताकि वह चाहने लायक ही न रहे।
गलाकाट प्रतियोगिता,दिन पर दिन जटिल होते जा रहे समाज के तनाव,अपेक्षाओं व उपलब्धियों के बीच बढ़ते जा रहे अंतर ,आदर्शों की अनुपस्थिति लड़कों को जाने-अनजाने आवारा भीड़ में तब्दील करते जा रहे हैं।
ऐसे तो इतिहास भरा पड़ा है घटनाओं से जिसमें महिलाओं को सामान मानकर उन पर अत्याचार किये गये। लेकिन ऐसी घटनायें कम हैं जिनमें असफल प्रेमी ने अपनी प्रेमिका का सौन्दर्य भंग करने का प्रयास किया हो। आम तौर पर प्रेमी अपने प्रेम के लिये कोई भी कुर्बानी देकर प्रेम को उदात्त गुण के रूप में स्थापित करते रहे हैं।
पिछली शताब्दी की कहानी है -उसने कहा थाइसमें लहनासिंह अपनी भूतपूर्व प्रेमिका के पति को बचाने में अपनी जान दे देता है। जयशंकर प्रसाद की कहानी गुंडा में नायक की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती हैं लेकिन वह तबतक लड़ता रहता है जबतक उसकी कभी की एकतरफा प्रेमिका अपने पति के साथ सुरक्षित नहीं निकल जाते।
ये सारे आदर्श अब पुराने हो गये हैं। जमाना तेजी से बदल रहा है। समय का अभाव है। जो आइटम पसंद आ गया उसे तुरंत हासिल करना है। ये क्या कि बगीचे में बैठ के फालतू के गाने सुने जायें:-
यूं ही पहलू में बैठो रहो, आज जाने की जिद न करो।
या फिर बाप,भाई,बहन और दुनिया से छिपकर जब मुलाकात हो तो काम की बात न होकर सुनने को थरथराहट मिले :-
कितनी मुद्दत बाद मिले हो,न जाने कैसे लगते हो।
आज का प्रेमी अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक है। वह इन फालतू के पचड़ों में नहीं पड़ता कि अपनी प्रेमिका के चेहरे में चांद तलासे। जुल्फों में बेवफा – बादल की घटायें खोजे। सीने के उतार-चड़ाव में लहरें खोजे। उसके पास समय का बहुत अभाव है ।’ही इज इन हरी’। लिहाजा वह सीधा रास्ता अपनाता है। बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रेमिका की आंखों में आंखे डाल कर कहता है:-
तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त।
मस्त चीज से अपेक्षायें भी मस्ती की ही करता है:-
दे दे चुम्मा दे दे चुम्मा।
फिर वह शहंशाही अंदाज में फरियाद करता है:-
मैंने तुम्हें चुन लिया ,तू भी मुझे चुन।
इस आदेशात्मक अनुरोध के बाद नायक के कान किसी भी कीमत पर हां के अलावा कोई दूसरा जवाब नहीं सुनना चाहते। प्रेमिका को आइटम में तब्दील कर चुका होता है वह । आइटम की भी कोई भावनायें चाहतें हो सकती हैं यह वह समझ नहीं पाता। न जरूरत समझता है।
लेकिन जैसा बताया गया कि आज लड़कियां भी अपना भला बुरा समझने लगी हैं। अपने जीवन साथी की पसंदगी,नापसंदगी में अपनी राय रखती हैं। दूल्हा बेमेल होने पर बारात लौटा देती हैं दरवाजे से। जो काम पूरा समाज नहीं कर पाता मिलकर वह कर दिखाती हैं। वे बतातीं हैं कि अब लड़कियां गूंगी गुड़िया नही रहीं कि मां-बाप के बताये खूंटे से बंध जायें। हाड़-मांस के उनके शरीर में तमन्नायें भी हैं। उमंगे भी हैं। ये सारी बातें मिलकर लड़की को आइटम में तब्दील होने से रोकते हैं। बस यहीं से सारा झाम शुरु होता है।
लड़की के इंकार को लड़के पचा नहीं पाते। जाते हैं। तेजाब लाते हैं। उसका चेहरा जलाते हैं। न जाने कौन सा सुकून पाते हैं।
प्रेम लड़कियों के लिये बवालेजान बन गया है। बकौल प्रमोद तिवारी:-
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजै,
तेजाब का दरिया है और डूब के जाना है ।

संभव है आप सोचे कि यह तो सोचने का मर्द वादी नजरिया है। लड़कियां क्या सोचतीं हैं इस पर यह तो कुछ पता नहीं। आपके ऐसा सोचने पर हमें कोई एतराज नहीं । लेकिन यह भी संभव है कि आप यह सोच कर सुकून की सांस लें कि शुक्र है मैं लड़की नहीं या मेरे कोई लड़की नहीं या हमारे इधर ऐसा नहीं होता। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचना जरूरी है कि भले ही आप लड़की या लड़की के मां-बाप-भाई न हों लेकिन समाज आपका है जहां अच्छाइयां भले ही बैलगाड़ी की गति से चलें लेकिन बुराइयां जेट स्पीड से चलती हैं। एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में उन्हें समय नहीं लगता।
बाकी आपकी मर्जी।

मेरी पसंद


छलांग भर की दूरी पर
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।

कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
-अनूप शुक्ला

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

13 responses to “रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है”

  1. सारिका
    अनूप जी आपने भारतीय समाज के बहुत ही दर्दनाक पहलू को उजागर किया है। अपने कालेज के दिनों की कितनी घटनायें आंखो के सामने से गुज़र गईं। पिछले कई सालों से बाहर रहने से भूल सा गये थे कि हम जिस समाज से आये हैं, वहां ये रोज के किस्से हैं। सोंचते थे कि भारत इतनी प्रगति कर रहा है तो इन मामलों में भी कुछ तो सुधार हुआ ही होगा, पर लगता है स्थिति ज्यों कि त्यों है। हमेशा सोंचते थे कि कौन होते हैं वे लोग जो ऎसा घृणित काम कर सकते हैं, और ऎसा करने से आखिर उन्हें मिला क्या। इस प्रकार का कोई घिनौना काम करने वालों का मनोविज्ञान समझ में नही आता। कुछ लोग तो इसके लिये लड़कियों को ही दोषी करार देते हैं। कुछ फिल्मों, टीवी, फैशन और गलाकाट प्रतियोगिता को इसका कारण बता सकते हैं। पर प्रश्न ये है कि इस को दूर करने का उपाय क्या है। दोष दूसरों के सिर मढने या हमने तो ऎसा कभी नहीं किया, ऎसा सोंचकर भी हम इस समस्या से छुटकारा नहीं पा सकते।
    हमारे समाज में लड़की का पिता हमेशा चिन्ताओं से घिरा रहता है जबकि लड़के के पिता को कोई चिन्ता नहीं होती। मगर हम हमेशा यही सोंचते हैं कि समाज में हो रही प्रतिदिन ऎसी घटनाओं को देखकर क्या उन्हें कभी ये चिन्ता नहीं सताती होगी कि कल को हमारा बेटा भी कुछ ऎसा न कर दे, या ऎसी किसी घट्ना के पीछे हमारे बेटे का हांथ तो नहीं। खैर, ये कुछ ऎसे अनुत्तरित प्रश्न हैं जिनका उत्तर सभी अपने अपने ढंग से दे सकते हैं, मगर फिर भी वो प्रश्न अनुत्तरित ही रहते है|
  2. kali
    Shukla dada bahut bhadiya likhe rahe. Samaj ke prati ek 3rd person approach rakh ke bahut bhadiya observation kar rahe ho.
  3. Manoshi
    अनुप जी,
    बहुत सँजीदा विषय पर बहुत अच्छा लिखा है आपने|
  4. Rajesh Kumar Singh
    मेरे ख्याल से, दो चीजें बहुत आवश्‍यक हैं। पहला, भारत के कानून को अपराधियों के प्रति घृणात्मक कठोरता बरतनी पड़ेगी । हो सके, तो “शूट एट साइट” । जब तक, समाज में ,लोगों को ऐसे घिनौने कार्यों के प्रति खौफ नहीं पैदा होगा, हर आवारा, गुंडा, मजनूँ और फरहाद के आलम में एक नया अध्याय जोड़ने के लिये लड़कियों को अपना निशाना बनाते फिरेगें। दूसरा, स्त्रियों को आत्मरक्षा के भी उपाय सीखने पड़ेंगे। ताकि, ऐसी हालात के लिये कुछ तो वे एक दूसरे की मदद कर सकें। बाकी रही जन चेतना की बात , तो जिस देश में लोग बुद्ध और राम भी विवादित हों, वहाँ कौन सी जन चेतना कारगर होगी ? ( कम से कम, मेरा तो, यही सोचना है।)
    -राजेश कुमार सिंह
    (सुमात्रा)
  5. आशीष
    स्त्रियों की बुरी दशा को काफ़ी अच्छे से व्यक्त किया है आपने। लेकिन हमारे समाज में स्त्रियों की दशा को बुरा रखने में खुद स्त्रियां भी पीछे नहीं रही हैं। उदाहरणार्थ नई बहुओं में मीनमेख निकालना और उनका शोषण उनकी सासें और नन्दें ही करती हैं न कि ससुर, शादी के समय गोरे रंग की परवाह औरतों को आदमियों से ज़्यादा होती है। हमारी सामाजिक समस्यायें अभी काफ़ी उलझी अवस्था में हैं क्योंकि एक सूत्र के कई सारे तार हैं।
  6. Rajesh Kumar Singh
    आशीष भाई, आप की आलोचना के संबंध में कुछ कहने का मन हुआ। सो, फिर दुबारा टिप्पणी लिखना शुरू कर दिये। “आलोचना” अच्छी चीज है,बहुत जरूरी भी है, “आलू” और “चना” जैसी, जिनसे मिल कर “आलोचना” शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। लेकिन, चना और आलू को थोड़ा भिगोना और भूनना पड़ता है, तभी हजम करने लायक हो पाते हैं।
    स्त्रियों का जो भी स्थान घर में है और, जो स्थान समाज में है, उनमें भिन्नता है। पहले, इस प्रसंग के घर वाले पहलू पर ध्यान देंगे, पुनः समाज के बारे में भी सोचेंगे। झगड़े, घरों में, सिर्फ सास-बहू में ही नहीं होते, पति-पत्नी में भी होते हैं। पर जो अमानुषिक प्रताड़ना कुछेक को, सिर्फ नारी होने की वजह से घरों में मिलती है, विवाह के पश्‍चात नये घर के होने की वजह से, शुरूआती दौर में तो, इसका कारण मुख्यतया दहेज ही होता है। बाद में, हो सकता है, हर स्त्री का दुर्भाग्य अपने अलग-अलग रास्ते ढ़ूँढ़ कर प्रकट होता हो। किसी दम्पति को, (अपवादों को छोड़ कर) दस-पन्द्रह सालों के वैवाहिक जीवन बिताने के उपरान्त आपने, तलाक, जलाये जाने, या, मारे पीटे जाने की घटनाओं के बारे में कभी सुना है ? कारण शायद यह होता है, कि अगर विवाह पूर्णतया सफल नहीं भी है, तो वह एक आकार ग्रहण कर लेता है, चीजें जीवन के भाग-दौड़ में एडजस्ट हो जाती हैं। सभी विवाहित दम्पति सुखी होते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन, सिर्फ पति-पत्नी के सम्बन्धों को ले कर, जुड़े रहना भी एक मानवीय आत्मीयता है, जिसकी समझ हममें से गायब हो चुकी है। हर सम्बन्धों में, दूसरे से ज्यादा पाने की अपेक्षा हावी हो गयी है। यह शायद समय का परिवर्तन ही है, जो, स्त्री को वस्तु के रूप में देखने वाले दिमागों को भी नहीं रोकता है, न हीं टोकता है। सब कुछ “चलता है” जैसे मुहावरों में खो जाता है, अभिशप्त रूप में। कई वर्ष (लगभग २० वर्ष) पहले की बात है, मैं अपने पिता जी के सहकर्मी एक अन्य अध्यापक की बड़ी बहन से मिलने गया था। वे जब छोटी रही होंगी, तब किसी बारात में, उनके पिता जी से, उनके किसी बाराती मित्र ने हँसी में ही अपने लड़के के लिये, बहू बनाने की कह दी। बाद में भी, वे लोग एक-दूसरे को समधी के रूप में, भले ही मजाकवश, इज्जत करने, पाने लगे। विवाह का समय आने तक, वह लड़का अमरीका चला गया। लोग अटकलें लगाने लगे, कि अब यह सम्बन्ध सिर्फ ठिठोली ही रह जायेगी। लेकिन, सिर्फ सम्बन्धों के प्रति गहरे सम्मान की वजह से, लड़के ने न सिर्फ पिता की उस ठिठोली का मान रक्खा बल्कि, तमाम लोगों की अटकलों के बावजूद, वे उन्हें अमरीका भी साथ ले गये। वे जीवन पर्यन्त साथ रहीं। कहीं न दहेज आड़ा आया न हीं उनकी शिक्षा आड़े आयी, न हीं उनकी सुन्दरता !
    पर, समाज के सामने, स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध सिर्फ नग्न स्वरूप हैं। कुछ विकृत आदर्श हैं, जिन्हें आप मान्य मूल्य भी कह सकते हैं, और व्यक्ति को ये मान्य मूल्य और स्थापित परम्परायें ठीक से अपने बारे में सोचने समझने भी नहीं देतीं। ऐसे में, पति-पत्नी के सम्बन्ध, पारिवारिक चहारदवारियों में सिर्फ जड़ता भर का अहसास पैदा करेंगे, यह निश्‍चित है। जो स्त्री को वस्तु मानेगा, समझेगा, जाहिर है, वह पत्नी को कुछेक मायनों के पूर्ति के बाद, उस स्त्री को पत्नी या वस्तु भी नहीं, बल्कि उसे बेकार की वस्तु यानी कूड़ा के रूप में आँकेगा, या, आँकने के लिये विवश होगा, । फिर, कूड़े-करकटों जैसा व्यवहार ही, इस सोच और विचार की विकृत एवं अवश्यम्भावी परिणति होती है।
    प्रश्‍न यहाँ पर है, कि जब स्त्री, आदमी के बराबर खड़ी ही नहीं हो सकती है, तो वह समाज या घर में, जियेगी कैसे ? चलेगी कैसे ? जुड़ी हुई बहुत सारी बातें हैं। राजेन्द्र सिंह बेदी ने “एक चादर मैली सी” की शुरूआत ही की है, इस तरह से,”लड़की तो किसी दुश्‍मन को भी न दे भगवान! ” । अब आप सोचिये, कि तब से ले कर आज तक में, स्त्रियों के स्थिति में क्यों नहीं सुधार हुआ ? परिवर्तन आया, तो सिर्फ बलात्कारों की संख्या में वृद्धि, दस-बारह साल के वय की लड़की से बलात्कार, हत्या और, तेजाब फेंकने के रूप में ही क्यों आया ?
    मेरा यह दृढ़ विश्‍वास है, कि जब तक स्त्रियों के प्रति अमानुषिक रवैये को ले कर, लोगों में खौफ नहीं पैदा होगा, स्थिति कभी नहीं सुधरेगी। समाज में प्रेम का आदर्श चाहे रहे ना रहे, अमानवीय कृत्यों के प्रति खौफ पैदा होना, रोजी-रोटी के सवाल से भी ज्यादा आवश्‍यक है। प्रेम में फरार हो कर भागे लड़के-लड़कियों को, पकड़ कर, पंचायत बुला कर, सबके सामने सिर काटने वाले समाज को, ऐसे अपराधियों को भी चौराहे पर खड़ा कर कत्ल करना ही होगा, नहीं तो आँख मूँदे रहने वाली यह प्रवृत्ति, अपराधियों को दिन पर दिन, हादसे दर हादसे, और ढ़ीठ बनाती ही रहेगी।
    -राजेश कुमार सिंह
    (सुमात्रा)
  7. Tarun
    Mein rajesh kumar singh se kuch had tak sehmat hoon….jo tejab pheke uske dono haath kaat do…..kaanoon vyavstha jab tak thik nahi hogi aisa hi chalta rahega. Aadmi ki sunkuchit hoti maansikta ka badalna Saaksharta (literacy) se jyada jaroori hai.
  8. फ़ुरसतिया » मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो
    [...] �गा। धांसू ‘परफेसर’ पढ़ायेंगे। बवाली गुरु को भी बुला लिया करेंगे। बढ़िया [...]
  9. भोला नाथ उपाध्याय
    धन्यावाद फुरसतिया भाई साहब को जिन्होंने इस गंभीर एवं ज्वलंत समस्या पर इतना अच्छा लेख लिखा । समस्या जितनी भयावह है उसे देख पढ़ कर कोई भी निराशावादी हो सकता है पर आपके लेख की आखिरी पंकतियां “पर अभी भी यह एकदम साफ है कि रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।“ मन के किसी कोने में आशा की किरण जगाती हैं । लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप सारिका जी के विचार वस्तविकता को छू से गये हैं । सत्य है ऐसी घटनाओं से जुड़े भय एवं दर्द को एक महिला से बेहतर कौन समझ सकता है । भाई राजेश सिंह ने समस्या का जो तुरत फुरत हल निकाला है उससे कोई असहमति प्रकट कर ही नहीं सकता । क्योंकि ऐसे अपराधी के प्रति आम आदमी में इतनी घृणा भरी होती है कि उसके लिये जो भी जघन्यतम सज़ा तय की जाय वह सभी को कम लगेगी । लेकिन क्या यह व्यव्हारिक है? और फिर क्या भय पैदा करना ही इस समस्या से निजात दिला सकता है? नहीं । वरन मैं तो ये कहूंगा कि हमारी यही मनसिकता ही इस समस्या का कारण है। आज हम अतिवादी हो गये हैं यह शायद हमारे पालनहारों की बड़ी असफलता रही कि वे हमें सहिस्णु एवं उस दर्ज़े का संवेदनशील नहीं बना पाये कि हम द्र्घटनाओं के प्रति यथार्थ परक नजरिया अपना सकें ।आज फुरसतिया भाई सहब ने एक भयावह घटना का जिक्र किया और हमारे मन में “अपराधी को मिटा दो उसे ऐसी सज़ा दो कि दुसरों के मन में भय बैठ जाय” जैसी बातें गुँजने लगती हैं ऐसा जिन्दगी में बार बार होता है जब हमारे आस पास कुछ भी ऐसा होता है जो हमे पसन्द नहीं या जो हमारे माफिक नहीं या हमारी सामाजिक ढ़ाचे के अनुरूप नहीं है तो हम अति प्रतिक्रिया वादी हो जाते हैं और कर्म से कुछ करे या ना करें अपनी वाकधारा से आस पास के लोगों में, अपने बच्चों में अपने विचार को जरूर प्रवाहित करते हैं । ऐसा रोज़ रोज़ नहीं तो बार बार होता है और फिर बच्चों के मन में यह विचार धीरे धीरे एक विचार धारा के रूप में घर कर जाती है जिसकी परिणिति आज ऐसी दुःसहसिक घटनाओं के रूप में होती है । पालनहारों की बेबसी एवं अतिवाद का कार्यान्यवन न कर पाने की लचारगी निश्चित रूप से आगे की पीढ़ी को कुछ ज्यादा प्रयास करने का साहस देती है अतः इस अतिवाद के कार्यान्यवन का साहस पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़्ता ही जाता है । अतः अगर ऐसी घटनाओं को रोकना है तो हमें अतिवादी विचारधारा के फैलाव को रोकना होगा । हमें हरेक घटना के रोकथाम के लिये कुछ मानवीय तरीके भी अगली पीढी को सुझाने होंगे, ऐसी अमानवीय घटनाओं से होने वाले दर्द को महसूस कराना होगा बच्चों को । आज के भौतिकवादी युग में दुसरों की संवेदनाओं को समझने का जज्बात पैदा करना होगा ।हमें बच्चों को यह बताना पडेगा कि बदलती दुनिया में सब कुछ हमारी सुविधानुसार नहीं हो सकता । उन्हे हारना नहीं तो कम से कम हार को पचाने लायक तो बनाना ही पडेगा । माना कि यह रातो रात नहीं हो सकता लेकिन करे बिना सुधार भी नहीं हो सकता । बिगडने में पीढीयों लगे हैं सुधार होने में भी पीढ़ीयों लग जायेगे तब तक सारिका जी जैसी बेटियो और हमारे जैसे बापों को सतर्क रह कर एवं डर कर ही जीना पड़ेगा । कोई छुटकारा नहीं है। अंत में सभी को विजयदशमी की शुभकमनायें ।
  10. फ़ुरसतिया » अति सूधो सनेह को मारग है
    [...] पनी प्रेमिका के चेहरे पर अपना सारा प्रेम तेजाब का उडे़ल देता है।अगर तू मेरी न [...]
  11. anitakumar
    जहां अच्छाइयां भले ही बैलगाड़ी की गति से चलें लेकिन बुराइयां जेट स्पीड से चलती हैं। एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में उन्हें समय नहीं लगता।
    एक बहुत ही महत्तवपूर्ण विषय पर विस्तृत संवेदनशील चिन्तन। बहुत जरूरी था। आप ने सही कहा ऐसे व्यवहार के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण शोध करने चाहिएं।
  12. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] का सामाजिक महत्व 2.रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो [...]
  13. : बरसात, बचपन,वजीफ़ा और मित्रता दिवस
    [...] -अनूप शुक्ल ये भी देखें: … बरसात, बिम्ब की तलाश और बेवकूफ़ी की बहस जबलपुर के कुछ और किस्से …खोये आइडिये की तलाश में मगजमारी मिल्खा सिंह, रिक्शा चालक और दृष्टिहीन अध्यापिका यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैHello there! If you are new here, you might want to subscribe to the RSS feed for updates on this topic.Powered by WP Greet Box WordPress Plugin [...]

Wednesday, October 05, 2005

गालियों का सामाजिक महत्व

http://web.archive.org/web/20110101210523/http://hindini.com/fursatiya/archives/55
माजिक महत्व

पिछली पोस्ट में मैंने लिखा:-
लेकिन बुरी मानी जाने वाली वस्तु का भी क्या सामाजिक महत्व हो सकता है? मुझे तो लगता है होता है ।
इस पर विनयजी ने स्पष्टीकरण मांग लिया:-
सोचने लायक मुद्दा है. आपके स्पष्टीकरण का इन्तज़ार रहेगा. महत्व तो बेशक होता है, क्योंकि अच्छा या बुरा, असर तो होता ही है. पर हर बुरी “माने जानी वाली” वस्तु का सकारात्मक सामाजिक महत्व हो, ऐसा मुझे नहीं लगता.
वैसे तो हम यह कह सकते हैं कि अच्छाई-बुराई सापेक्ष होती है। बुराई न हो तो अच्छाई को कौन गांठे? बुराई वह नींव की ईंट है जिस पर अच्छाई का कंगूरा टिका होता है। लेकिन यहां हम हर बुराई की बात नहीं करेंगे। अच्छे बच्चों की तरह केवल गाली पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिसके बारे में यह बात शुरु की गयी थी।
अब हम खोज रहे हैं गाली के समर्थन में तर्क। जैसे खिचडी़ सरकार का मुखिया बहुमत की जुगत लगाता है वैसे ही हम खोज रहे हैं तमाम पोथियों से वे तर्क जो साबित कर दें कि हां हम सही कह रहे थे।
सबसे पहले हमें तर्क मिला अनुनाद सिंह के ब्लाग पर। वहां लिखा है :-
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥

(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे किसी मंत्र की शुरुआत न होती हो। अब देखने वाली बात है कि गाली शब्द दो अक्षरों ‘गा’ और ‘ली’ के संयोग से बना है। जो कि खुद ‘ग’ तथा ‘ल’ से बनते हैं। अब जब ‘ग’ व ‘ल’ से कोई मंत्र बनेगा तो ‘गा’ और ‘ली’ से भी जरूर बनेगा। अब आज के धर्मपारायण, धर्मनिरपेक्ष देश में किस माई के लाल की हिम्मत है जो कह सके कि मंत्र का सामाजिक महत्व नहीं होता? लिहाजा निर्विरोध तय पाया गया कि ‘गा’तथा’ली’ से बनने वाले मंत्रों का सामाजिक महत्व होता है। जब अलग-अलग शब्दों से बनने वाले मंत्रों का है तो मिल जाने पर भी कैसे नहीं होगा? होगा न! हां तो यह तय पाया गया कि गालियों का सामाजिक महत्व होता है।
जैसे कुछ अरब देशों में तमाम लोगों का काम केवल एक पत्नी से नहीं चल पाता या जैसे अमेरिकाजी में केवल एक जीवन साथी से मजा नहीं आता वैसे ही ये दिल मांगे मोर की तर्ज पर हम और सबूत खोजने पर जुट ही गये। इतना पसीना बहा दिया जितना अगर तेज टहलते हुये बहाता तो साथ में कई किलो वजन भी बह जाता साथ में। अरविंदकुमार द्वारा संपादित हिंदी थिसारस समांतर कोश में गालियां खोजीं। जो मिला उससे हम खुश हो गये । मुस्कराने तक लगे । अचानक सामने दर्पण आ गया । हमने मुस्कराना स्थगित कर दिया। दर्पण का खूबसूरती इंडेक्स सेंसेक्स से होड़ लेने लगा।
हिंदी थिसारस में बताया गया है कि गाली देना का मतलब हुआ कोसना। अब अगर विचार करें तो पायेंगे कि दुनिया में कौन ऐसा मनुष्य होगा जो कभी न कभी कोसने की आदत का शिकार न हुआ हो? अब चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लिहाजा उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों के सामाजिक महत्व की बात से कौन इन्कार कर सकता है? लिहाजा गाली देना एक सामाजिक महत्व का कार्य है।
इसी दिशा में अपने मन को आर्कमिडीज की तरह दौडा़ते हुये हमने अपनी स्मृति-गूगल पर खोज की कि सबसे पहले कोसने का कार्य किसने किया? पहली गाली किसने दी? पता चला कि हमारे आदि कवि वाल्मीकि ने पहली बार किसी को कोसा था। दुनिया जानती है कि काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोडे़ में से नर पक्षी को बहेलिये ने मार गिराया था। इस पर मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर वाल्मीकि जी ने बहेलिये को कोसा:-

मां निषाद प्रतिष्ठाम् त्वम् गम: शाश्वती शमा,
यत् क्रौंच मिथुनादेकम् वधी: काममोहितम् ।

(अरे बहेलिये तुमने काममोहित मैथुनरत कौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी प्रतिष्ठा न मिले)
इससे सिद्ध हो गया कि पहली बार जिसने कोसा था वह हमारे आदिकवि थे। एक के साथ एक फ़्री के अंदाज में यह भी तय हुआ कि जो पहली कविता के रूप में विख्यात है वह वस्तुत: कोसना ही था। अब चूंकि कोसना मतलब गाली देना तय हो चुका है लिहाजा यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता कि पहली कविता और कुछ नहीं वाल्मीकिजी द्वारा हत्यारे बहेलिये को दी गयी गाली थी ।
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान को नये अर्थ-वस्त्र धारण करवाकर मेरा मनमयूर उसी तरह नाचने लगा जिस तरह अपने ब्लाग का टेम्पलेट एक बार फ़िर बदलकर किसी ब्लागर का नाचने लगता है तथा वो तारीफ़ की बूंद के लिये तरसने लगता है। अचानक हमारे मनमयूर को अपने भद्दे पैर दिखे और उसने नाचना बंद कर दिया तथा राष्ट्र्गान मुद्रा में खडा़ हो गया । हमने मुगलिया अंदाज में गरजकर पूछा- कौन है वो कम्बख्त जिसने मेरे आराम में दखल देने की गुस्ताखी की? सामने आ?
मन के कोने में दुबके खडे़ सेवक ने फ़र्शी सलाम बजाकर कहा -हुजूरे आला आपका इंकलाब बुलंद रहे । इस नाचीज की गुजारिश है कि आपने जो यह गाली के मुतल्लिक उम्दा बात सबित की है जिसे आजतक कोई सोच तक न पाया उसे आप कानूनी जामा पहनाने के किये किसी गाली विशेषज्ञ से मशवरा कर लें।
हमारे मन-शहंशाह ने कहा-तो गोया हालात इस कदर बेकाबू हो गये हैं कि अब माबदौलत को अपनी सोच को सही साबित करने के लिये मशवरा करना पडे़गा ?
सेवक ने थरथराने का मुजाहिरा करते हुये अपनी आवाज कंपकपाई- गुस्ताखी माफ़, हूजूरे आला ! खुदा आपके इकबाल को बुलंद रखे। गुलाम की इल्तिजा इसलिये है ताकि आपके इस ऊंचे ख्याल को दुनिया भी समझे। आम अवाम की जबान में आपकी बात रखी जायेगी तो दुनिया समझ जायेगी । इसीलिये अर्ज किया है कि इस ख्याल के बारे में किसी काबिल शख्स से गुफ़्तगू कर लें।
शहंशाह बोले- हम खुश हुये तुम्हारी समझ से। आगे से जो भी बाहियात ख्याल आयेगा माबदौलत उस पर तुमसे मशविरा लेंगे। बताओ किस शख्स से गुफ़्तगू की जाये?
सेवक उवाचा- गाली-गलौज के मामले में मुझे बबाली गुरु से काबिल जानकार कोई नहीं दिखा। यह बताकर सेवक उसी तरह लुप्त हो गया जिस तरह तीस सेकेंड बीत जाने पर कौन बनेगा करोड़पति के फ़ोनोफ़्रेन्ड विकल्प का सहायक जवाब देने वाला गायब हो जाता है। मन के बादशाह भी समझदार प्रतियोगी की तरह हाट-सीट त्यागकर ठंडे हो गये।
हमारे मन से बादशाहत तो हवा हो गयी लेकिन जेहन में बवाली गुरु का नाम उसी तरह अटका रहा जैसे रजवाडे़ खत्म होने के बावजूद उनके वंशजों में राजसी अकड़ बनी रहती है। या फ़िर वर्षों विदेश में रहने के बाद भी भाइयों के मन में मक्खी,मच्छर नाले अटके रहते हैं।
लिहाजा हम बवाली गुरु की खोज में निकल पडे़। बवाली गुरु के बारे में कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी करना होगा। उनका वर्णन किया ही नहीं जा सकता । वे वर्णनातीत हैं । संक्षेप में जैसे हर बीमार उद्योग का इलाज विनिवेश माना जाता है,देश मे हुयी हर गड़बडी़ में बाहरी हाथ होता है उसी तरह बवाली गुरु हर सामाजिक समस्या की जड़ में गाली-गलौज में असुंतलन बताते हैं । वे शांति-सुकून के कितने ही घने अंधकार को सूर्य की तरह अपनी गाली की किरणॊं से तितर-बितर कर देते हैं।
बवाली गुरु के बारे में ज्यादा कुछ और बताने का लालच त्यागकर मैं बिना किसी भूमिका के बवाली गुरु से हुयी बातचीत आपके सामने पेश करता हूं।
बवाली गुरु,गाली शब्द का क्या मतलब है ?
अर्थ तो आपके ऊपर है आप क्या लगाना चाहते हैं। मेरे हिसाब से तो गाली दो लोगों के बीच का वार्तालाप है। ज्यादा ‘संस्किरत’ तो हम नहीं जानते लेकिन लोग कहते हैं कि ‘गल्प’ माने बातचीत होती है। उसी में ‘प’ को पंजाबी लोगों ने धकिया के ‘ल’ कर दिया । ‘गल्प’ से ‘गल्ल’हो गया। ‘गल्ल’ माने बातचीत होती है । यही बिगडते-बिगडते गाली बन गया होगा । तो मेरी समझ में तो गाली बोलचाल का एक अंदाज है। बस्स। गाली देने वाले का मन तमाम विकार से मुक्त रहता है।
अगर यह बोलचाल का अंदाज है तो लोग इसे इतनी बुरी चीज क्यों बताते हैं?
अब भइया, बताने का हम क्या बतायें? अइसा समझ लो कि जिसको अंग्रेजी नहीं आती वही कोसने लगता है अंग्रेजी को। ऐसे ही जो गाली नहीं दे पाता वही कहने लगता है कि बहुत बुरी चीज है। गाली देना बहुत मेहनत का काम है। शरीफ़ों के बस की बात नहीं।
क्या यह स्थापना सच है कि पहली कविता जो है वही पहली गाली भी था?
हां तब क्या ? अरे वाल्मीकि जी में अगर दम होता तो वहीं टेटुआ दबा देते बहेलिये का। मगर उसके हाथ में था तीर-कमान इनके हाथ में था कमंडल । ये कमजोर थे। कमजोर का हथियार होता है कोसना सो लगे कोसने वाल्मीकिजी। वही पहली गाली थी। और चूंकि श्लोक भी था अत: वही पहली कविता भी बन गया।
लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी ने दिया वह शाप था। गाली नहीं।
कैसा शाप ? अरे जब उसी समय बहेलिये को दंड न दे पाये तो क्या शाप ? शाप न हो गया कोई भारत की अदालत हो गयी।आज के अपराध के लिये किसी को दिया हुआ शाप सालों बाद फले तो शाप का क्या महत्व? शाप होता है जैसे गौतम ने अपनी बीबी को दिया । अपनी पत्नी अहिल्या को इंद्र से लटपटाते पकड़ लिया और झट से पानी छिड़ककर बना दिया पत्थर अहल्या को। वे अपनी बीबी से तो जबर थे तो इशू कर दिया शाप । लेकिन इंद्र का कुछ नहीं बिगाड़ पाये। तो उनको शाप नहीं दे पाये । कोस के रह गये होंगे। अब ये क्या कि आप बहेलिये को दीन हीन बन के कोस रहे हैं और बाद मे बतायें कि हमने शाप दे दिया । बाद में बताया भी लोगों ने (आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आखों से चुपचाप)। ये रोना धोना कमजोरों के लक्षण हैं जो कि कुछ नहीं कर सकता सिवाय कोसने के।
गाली का सबसे बडा़ सामाजिक महत्व क्या है?
मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है। कहासुनी की गलियों से निकले प्राणी इसी मैदान में जूझते हुये इतने मगन हो जाते हैं कि मारपीट की सुधि ही बिसरा देते हैं। अगर किसी जोडे़ के इरादे बहुत मजबूत हुये और वह कहासुनी से शुरु करके मारपीट की मंजिले मकसूद तक अगर पहुंच भी जाता है तो भी उसकी मारपीट में वो तेजी नहीं रहती जो बिना गाली-गलौज के मारपीट करते जोडे़ में होती है। इसके अलावा गाली आम आदमी के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। आप देखिये ‘मानसून वेडिंग’ पिक्चर। उसमें वो जो दुबेजी हैं न ,जहां वो जहां मां-बहन की गालियां देते हैं पब्लिक बिना दिमाग लगाये समझ जाती है कि ‘ही बिलांग्स टु कामन मैन’ ।
ऐसा किस आधार पर कहते हैं आप? गाली-गलौज करते हुये मारपीट की तेजी कैसे कम हो जाती है?
देखो भाई यहां कोई रजनीति तो हो नहीं रही जो हम कहें कि यह कुछ-कुछ एक व्यक्ति एक पद वाला मामला है । लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि मारपीट और गालीगलौज मेहनत का काम है। दोनो काम एक साथ करने से दोनों की गति गिरेगी। जिस क्षण तुमने गाली देने के लिये सीनें में हवा भरी उसी क्षण यदि मारपीट का काम अंजाम करोगे तो कुछ हवा और निकल जायेगी ।फिर मारपीट में तेजी कहां रहेगी? इसका विपरीत भी सत्य है। अब चूंकि तुम ब्लागिंग के चोचले में पडे़ हो आजकल तो ऐसा समझ लो जब रविरतलामीव्यंजल लिखते हैं तो पोस्ट छो॔टी हो जाती है। जब नहीं लिखते तो लेख बडा़ हो जाता है। तो सब जगह कुछ न कुछ संरक्षण का नियम चलता रहता है। कहीं शब्द संरक्षण कहीं ऊर्जा संरक्षण।
देखा गया है कि कुछ लोग गाली-गलौज होते ही मारपीट करने लगते हैं। यहां गाली-गलौज हिंसा रोकने का काम क्यों नहीं कर पाती?
जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
गाली-गलौज में आमतौर पर योनि अंगों का ही जिक्र क्यों किया जाता है?
मुझे लगता है कि पहली बार जब गाली का प्रयोग हुआ उस समय मैथुन प्रक्रिया चल रही थी । लिहाजा यौनांगों के विवरण की बहुतायत है गालियों में। दूसरे इसलिये भी कि मनुष्य अपने यौन अंगों को ढकता है। यौनक्रिया छिपकर करता है। गाली गलौज में इन्ही बातों का उल्लेखकर भांडा फोड़ने जैसी उपलब्धि का सुख मिलता है ।
गाली में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख क्यों बहुतायत में होता है?
मेरे विचार में पुरुष प्रधान समाज में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके गालियां दी जाती हैं। क्योंकि मां-बहन आदि आदरणीय माने जाते हैं लिहाजा जिसको आप गाली देना चाहते हैं उसकी मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके आप उसको आशानी से मानसिक कष्ट पहुंचा सकते हैं। स्त्री प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
स्त्री पात्रों को संबोधित करते समय गालियों की बात से यह सवाल उठता है कि पत्नी या प्रेमिका को संबोधित गालियां बहुत कम मात्रा में पायी जाती हैं?
तुम भी यार पूरे बुड़बक हो। दुनिया में लोग ककहरा बाद में सीखते हैं गाली पहले। तो लोग बाग क्या किसी को गरियाने के लिये उसके जवान होने और प्रेमिका तथा पत्नी हासिल करने का इंतजार करें। कुछ मिशनरी गाली देने वालों को छोड़ कर बाकी लोग प्रेमी या पति बनते ही गालियां देना छोड़कर गालियां खाना शुरु कर देते हैं। लिहाजा होश ही नहीं रहता इस दिशा में सोचने का। वैसे भी आमतौर पर पाया गया है कि मानव की नई गालियों की सृजनशीलता उसके जवान होने तक चरम पर रहती। बचपने में प्रेमी-पति से संबंधित मौलिक जानकारी के अभाव में इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हो पाती ।
एकतरफ़ा गाली-गलौज के बाद मनुष्य शान्त क्यों हो जाता है?
एक तो थक जाता है अकेले गाली देते-देते मनुष्य। दूसरे अकेले गरियाते-गरियाते आदमी ऊब जाता है। तीसरे जाने किन लोगों ने यह भ्रम फ़ॆला रखा है कि गाली बुरी चीज है इसीलिये आदमी अकेले पाप का भागी होने में संकोच करता है। जैसे भ्रष्टाचार है । इसे अगर कोई अकेला आदमी करे तो थककर ,ऊबकर ,डरकर बंद कर दे लेकिन सब कर रहे हैं इसलिये दनादन हो रहा है धकापेल।
कुछ लोगों के चेहरे पर गाली के बाद दिव्य शान्ति रहती है ऐसा क्यों है?
ऐसे लोग पहुंचे हुये सिद्ध होते हैं। गाली-गलौज को भजन-पूजन की तरह करते हैं। जैसे अलख निरंजन टाइप औघड संत।ये गालियां देते हैं तो लगता है देवता पुष्पवर्षा कर रहे हैं। शेफाली के फूल झर रहे हैं। इनके चेहरे पर गाली देने के बाद की शान्ति की उपमा केवल किसी कब्ज के मरीज के दिव्य निपटान के बाद की शान्ति से दी जा सकती है। जैसे किसी सीवर लाइन से कचरा निकल जाता है तो अंदर सफाई हो जाती है वैसे ही गालियां मन के विकार को दूर करके दिव्य शांति का प्रसार करती हैं। गाली वह साबुन है जो मन को साफ़ करके निर्मल कर देती है। फेफडे़ मजबूत होते हैं।
लेकिन गाली को बुरा माना जाता है इससे आप कैसे इन्कार कर सकते हैं?
भैया अब हम क्या बतायें ? तुम तो दुनिया सहित अमेरिका बने हो और हमें बनाये हो इराक। जबरियन गाली को बुरा बता रहे हो। वर्ना देख लो हिंदी थिसारस फ़िर से । गाली गीत (बधाईगीत,विवाहगीत,विदागीत,सोहरगीत,बन्नी-बन्ना गीत के साथ) मंगल कार्यों की सूची में शामिल हैं। केवल मृत्युगीत को अमंगल कार्य में शामिल किया गया है । जब गाली का गीत मंगल कार्य है तो गाली कैसे बुरी हो गयी?
वहां गाली गीत हो गई इसलिये ऐसा होता होगा शायद !
तुम भी यार अजीब अहमक हो। ये तो कुछ वैसा ही हुआ कि कोई वाहियात बात गाकर कह दें तो वह मांगलिक हो जायेगी। या कोई दो कौडी़ का मुक्तक लय ताल में आकर महान हो जाये ।
क्या महिलायें भी गाली देती हैं? अगर हां तो कैसी? कोई अनुभव?
हम कोई जानकारी नहीं है इसबारे में। लेकिन सुना है कि वे आपस में सौन्दर्य चेतना को विस्तार देने वाली बाते करती हैं।सुनने में यह भी आया है ज्यादातर प्रेम संबंधों की शुरुआत मादा पात्र द्वारा ‘ईडियट”बदतमीज”बेशरम’जैसी प्रेमपूर्ण बातें करने से हुयी। हमें तो कुछ अनुभव है नहीं पर सुना है कि कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।
लेकिन फिर भी यह कैसे मान लिया जाये कि गालियों की सामाजिक महत्ता है?
एक कड़वा सच है कि हमारी आधी आबादी अनपढ़ है। जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की। गालियां समाज को यौन संबंधों की (अधकचरी ही सही) प्राथमिक जानकारी देने वाले मुफ्त साफ्ट्वेयर है। गालियां आदिकाल से चली आ रही हैं । कहीं धिक्कार के रूप में ,कहीं कोसने के रूप में कहीं आशीर्वाद के रूप में। हमारे चाचा जब बहुत लाड़-प्यार के मूड में होते हैं, एके ४७ की स्पीड से धाराप्रवाह गालियां बकते हैं। जिस दिन चुप रहते हैं लगता है- घर नहीं मरघट है। यह तो अभिव्यक्ति का तरीका है। आपको पसंद हो अपनाऒ न पसंद हो न अपनाऒ। लेकिन यह तय है कि दुनिया में तमाम बर्बादी और तबाही के जो भी आदेश दिये गये होंगे उनमें गाली का एक भी शब्द शामिल नहीं रहा होगा। निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।
महाभारत के कारणों में से एक वाक्य है जिसमें दौप्रदी दुर्योधन का उपहास करती हुई कहती है -अंधे का पुत्र अंधा ही होता है। इन सात शब्दों में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे गाली की पात्रता हासिल हो। फिर भी इनको जोड़कर बना वाक्य महाभारत का कारण बना।
इतना कहकर बवाली गुरु मौन हो गये। मैं लौट आया। मैं अभी भी सोच रहा हूं कि क्या सच में गालियों का कोई सामाजिक महत्व नहीं होता ?
मुझे जो कहना था वह काफ़ी कुछ कह चुका। अब आप बतायें कि क्या लगता है आपको?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “गालियों का सामाजिक महत्व”

  1. Sunil
    वाह अनूप जी, आनंद आ गया यह लेख पढ़ कर, ज्ञान बढ़ोतरी भी हुई. आशा है यह लेख पढ़ कर बच्चों को, माता पिता के सामने, अपना बचाव करने लिए कई दलीलें मिल जायेंगीं. सुनील
  2. जीतू
    गालियाँ तो “ओपेन सोर्स” साफ़्ट्वेयर की तरह होती है जो “जीपीएल लाइसेन्स” के तहत दी जाती है,यानि के एक ने गाली दी, दूसरे ने कुछ और जोड़ा और आगे बढा दिया। माना कि कुछ गालियाँ “क्रियेटिव कामन्स लाइसेन्स” के तहत सुरक्षित होती है, लेकिन फ़िर भी यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ, मत पूछो कहाँ कहाँ छितरी पड़ी होती है, ठीक वैसे ही जैसे गूगल मे जब वर्डप्रेस प्लग-इन के लिये सर्च करो तो हर दूसरी साइट पर आपको प्लग इन मिल जाता है। अब बकिया बखान तो हमारे गाली विशेषज्ञ “मिर्जा साहब” ही करेंगे।
  3. eswami
    आपने भी गौर किया होगा की पीढी दर पीढी गली मोहल्लों मे खेले जाने वाले खेलों के अलिखित नीयम नही बदलते वही रहते हैं – यही गालियों के साथ भी होता है – बदलती नहीं हैं.
    इस की वजह है “कच्ची रोटी” – जी हां , मुहल्ले के बडे बच्चों के साथ खेलता वह नन्हा बालक जिसे बडे बच्चे खेलाते हैं ताकी वो कोई हम उम्र साथी ना मिलने पर ना रोये “चल तेरी कच्ची रोटी – अगर आउट होगा भी तो भी खेलते रहना कुछ देर” – ये बालक सब सीखता है खेल के नीयम और गालियाँ फिर आगे बढा देता है किसी और “कच्ची रोटी” को समय आने पर! :)
  4. विनय
    अब इस लेख के बाद भले गालियों का सकारात्मक सामाजिक महत्व न मानें पर कम से कम उनके ‘ब्लागिक’ महत्व से तो इंकार नहीं कर सकते. :)
  5. फ़ुरसतिया » मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो
    [...] �गा। धांसू ‘परफेसर’ पढ़ायेंगे। बवाली गुरु को भी बुला लिया करेंगे। बढ़िया [...]
  6. श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'
    हे गुरुदेव धन्य हुए यह लेख पढ़कर और परम ज्ञान हासिल करके। हरियाणवी और पंजाबी में तो वैसे भी दो गालियों (D.C और B.C) को काफी हद तक सामाजिक स्वीकार्यता हासिल है। वहाँ पर इनकी शब्दावली नहीं टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। जब शांतिकाल में बोली जाएं तो बातचीत का हिस्सा मात्र हैं जब अशांतिकाल में बोली जाएं तो गाली हैं।
  7. anamdasblogger
    क्या बात है, सचमुच अज्ञानवश इतनी मेहनत की, आपका वाले पीस पढ़ लिया होता तो बच जाता मेहनत से.सचमुच विशद विश्लेषण किया है आपने, काफ़ी अच्छा लगा. लिंक भेजने के लिए धन्यवाद
    अनामदास
  8. डा० अमर कुमार
    फुरसतिया गुरू
    मान गये आपको. बड़ा सटीक ‘इन्नोवेटिव टापिक ” लाते हैं .
    विनय जी ने गालियों के सामाजिक महत्व पर शंका जतायी है, अनुमति हो तो निवारण मैं कर दूं
    विनय सर जी , आप कहीं भी चले जाईये जहां कोई आपकी भाषा का अ-आ भी न जानता हो और किसी से मुखातिब हो कर एक गाली उछाल दीजिये ,बस देखिये मज़ा. आज़मा लें, ‘ मेलोडी खाओ, खुद जान जाओ ‘
    तो यह गाली रुपी नाउन आपके अभिव्यक्ति के चरम को छूता है, प्यार की धौल-धप्पे वाली गाली और क्रोध में दी हुई गाली मन को कितना सुकून देते हैं यह फिर कभी …….
    और फिर , गाली को तो कभी कभी रा्ष्ट्रीय हथियार की मान्यता देने का मन करता है. उत्कोच के बाद यदि कोई कारगर अस्त्र है तो गाली. आप प्रयोग करो आपकी अटकी हुई फ़ाईल न खिसके तो कहना. अन्यथा हमारे नेतागण खुल्लमखुल्ला गालियों की राजनीति करते न दिखते .
    अख़बार उठाइये, और देखिये . हम सफ़ेद कालर वाले इज़्ज़तदार व्यक्ति इसको न स्वीकारें यह दीग़र मुद्दा है
    वरना यह सब तो चल ही रहा है
  9. anitakumar
    स्त्री प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
    सही शोध का विषय
    “कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।”
    हा हा हा
    “जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की।”
    बढ़िया कटाक्ष्।
    “निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।”
    बहुत अच्छे, सटीक चिन्तन,
    गुरु मान गये गालियों का भी सामाजिक महत्त्व होता है, सिर्फ़ निर्मल मन का व्यक्ति ही गाली दे सकता है बाकी सभ्य जन तो मानवता का खून करने में व्यस्त
    इस बेहतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद
  10. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    आज चिठ्ठा चर्चा से यहाँ आया। पूरा लेख पढ़कर गालियों के प्रति मेरी दुर्भावना कम हो गयी। :)
    मजेदार क्लासिक रचना है यह।
  11. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.गालियों का सामाजिक महत्व 2.रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी 7.चलो चलें भारत दर्शन करने [...]
  12. सतीश पंचम
    हर पैरा एक अलग ही किस्म का दृष्टिकोण फेंक उठा रहा है….एकदम डम्पलाट टाईप पोस्टवा है :)
    जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
    एकदम मजेदार।