Wednesday, June 08, 2016

जिंदगी में संघर्ष तो होता ही है

सोनू से मिलकर आगे बढे तो देखा एक हाथ रिक्शा पर एक बुजुर्गवार झपकी ले रहे थे। रिक्शे की आगे की रॉड पर मसाला पुड़िया वंदनवार सरीखी सजी थीं। हम पास में खड़े होकर निहारने लगे बुजुर्गवार की 'झपकी सौंदर्य सुषमा'।

साँसे जितनी आराम से आ रहीं थीं उतनी ही तसल्ली से विदा हो रही थी।कोई हड़बड़ी नहीं थी। हम साँसों की भाषा नहीं जानते पर क्या पता बाहर निकलती हुई सांस अंदर जाती हुई सांस को 'आल द बेस्ट' भी बोलती हो। यह भी हो सकता है कोई अंदर जाती हुई सांस कहती हो -'यार मुझे डर लग रहा है। कहीं अंदर ही न रह जाऊं। बहुत अँधेरा होगा न अंदर।' इस पर बाहर आती हुई सांस उसको हौसला बंधाती होगी -'अरे ऐसा कुछ नहीं। बस जाना है और आना है। शरीर है कोई थाना थोड़ी जो दिन भर बिना मतलब बैठा लेगा कोई। जा अंदर जाकर बाहर आ जा तब तक मैं यहीं चेहरे पर रूककर तेरा इन्तजार करती हूँ।'

सांसों का फेसबुक खाता होता तो शायद अंदर जाती साँस स्टेटस डालती - 'पहली बार नाक के अंदर घुस रहीं हूँ। विश मी गुडलक।' बाहर निकलते हुए अपने स्टेटस पर सैकड़ों लाइक और दसियों टिप्पणी देखती तो खुशी और विनम्रता से दोहरी-तेहरी होते हुए सबको धन्यवाद देती। कुछ को दिल के आकार के निशान देती कुछ को कुछ और और बाकियों को मुस्कान निशान। 
पास में खड़े होने से बुजुर्ग की नींद खुल गयी और वे चैतन्य से हुए। हमें बतियाने का मौका मिल गया।

सालिगराम नाम बताया बुजुर्ग ने। पैदाइश सन 1936 की। मतलब समय के स्कोरबोर्ड पर अस्सी लकीरें खींच चुके। 1936 मतलब मुंशी प्रेमचन्द के निधन का साल। हाथ-पैर पोलियो ग्रस्त। पढाई हाईस्कूल तक की। फैजाबाद के रहने वाले। वहां से बाप-दादे आये थे। कानपुर में बस गए।

सात बीधे खेती थी फ़ैजाबाद में। तीन बच्चे हुए। तीनों होजरी का काम करते हैं। नातिन ने अभी बीए का इम्तहान दिया है।

जिंदगी कैसे कटी? पूछने पर बोले-' कट ही गयी। संघर्ष बहुत रहा। जिंदगी में संघर्ष तो होता ही है।'

पास की ही कालोनी में रहते हैं सालिगराम। घर में पत्नी है। सुबह आठ बजे करीब निकलते हैं। शाम तक सौ-पचास रूपये कमा लेते हैं। हो जाता है गुजारा।

हाथ साईकल किसी ने दी है विकलांग योजना के अन्तर्गत।

इस बीच कोई कमला पसंद लेने आया, कोई पान पराग। एक ने सिगरेट मांगी। गद्दी के नीचे से निकाल कर एक सिगरेट दी। कैप्सटन नाम देखते ही कालेज के दिनों CAPSTAN सीखा उल्टा-सीधा फुल फ़ार्म याद आ गया। यह भी याद आया कि खुली सिगरेट बिकना बन्द हो गया है। 45 रूपये की दस का रेट है सिगरेट का।

पान-मसाला सिगरेट बेंचते हैं सालिगराम पेट के लिए लेकिन खुद किसी चीज का शौक नहीँ करते। तम्बाकू तक नहीं खाते। खाते तो वो भी नहीं होंगे जिनकी इनसे हवेलियां खड़ी हैं। आम जनता के लिए हैं यह सब। ख़ास लोग तो बनवाने, बेंचने और कमाने के लिए हैं।

धूप बहुत तेज थी। गर्म हवा ने थपड़ियाते हुए कहा -'चलो, आगे बढ़ो। घर नहीं जाना क्या?'
हम आगे बढ़ लिए।

Tuesday, June 07, 2016

बिना पैसे कौन डॉक्टर इलाज करता है?

इतवार को शहर कुछ दूर पैदल टहले। मरियमपुर क्रासिंग से विजयनगर उर्फ़ गन्दा नाला चौराहा। भद्दर दोपहरिया में सड़क नापने को 'नून वाक' कहेंगे कि 'भून वाक'। आदमी पूरा भुने भले न पर सिंक तो जाता ही है। सड़क चटाई की तरह बिछी थी उस पर सूरज भाई गर्मी की कार्पेट बांबिग सी कर रहे थे।
अमर उजाला अख़बार के दफ्तर के पास वाले मोड़ पर देखा कुछ लोग चारपाई पर, कुछ लोग सड़क पर पसरे और बाकी बैठे हुए थे। पहली नजर में देखने पर लगा कोई बारात किसी अमराई में आरामफर्मा है। लेकिन ऐसा था नहीं।
एक नौजवान अपनी एक टांग पर कच्चा प्लास्टर बांधे दिगम्बरवदन सबके बीच में बैठा था। टूटी टांग को जमीन से थोड़ा ऊपर उठाये था या फिर पैर चोट के प्रताप से खुद उठ गया होगा। उसको घेरे हुए लोग उसके हाल पूछ रहे थे। जिनको हाल पता चल रहे थे वो दूसरों को हाल 'फारवर्ड' कर रहे थे। 30 किलोमीटर दूर से पैर टूटने पर हाल पूछने आये लोग रिश्तों में बची संवेदना की मिशाल लगे।
हम ठहर कर बतियाने लगे उनसे। पता चला कि नौजवान शोभन के पास के गाँव टिगरा का रहने वाला है। रिक्शा चलाता है। बताया कि दारू के नशे में एक मोटरसाईकल वाले ने उसको ठोंक दिया। घुटने की कटोरी निकल गयी। शहर आया है इलाज के लिए। इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। एक डाक्टर ने मुफ़्त में प्लास्टर चढ़ाने की बात कही है। पता नहीं कितना सही था यह लेकिन लगा कि डॉक्टर गरीब परवर है।
जब तक प्लास्टर नहीं चढ़ जाता तब तक शहर में ही रहना है। जगह नहीं है तो पेड़ के नीचे डेरा है। शाम को सामने अहाते के बाहर ठिकाना। जिस गर्मी में सड़क पर पैदल चलने को हम बहादुरी मान रहे उसी मौसम में ये भाई जी आराम से बतिया रहे थे।
गाँव से देखने आये लोग रिश्ते के लिहाज से व्यवस्थित थे। बुजुर्ग लोग खटिया पर। बच्चे और महिलाएं सड़क पर। कुछ महिलाएं घूँघट में थी। एक महिला की एक आँख कंचे की तरह सफेद थी। एक बुजुर्ग महिला एक बच्चे को खिला रही थी। बच्चा अचानक रोने लगा। महिला ने चुप कराने की कोशिश की। बच्चा माना नहीं। महिला न थोड़ी और कोशिश की चुप कराने की। बच्चा जिद पर अड़ गया। माना नहीं। महिला का धैर्य शायद खर्च हो गया था। हाथ खाली। उसने बच्चे को थपड़िया दिया। बच्चा थोड़ी देर जोर से रोया। फिर रोते-रोते थककर सो गया।
घायल नौजवान का नाम सोनू था। तीन बिटिया हैं उसके। सबसे बड़ी बिटिया पारो पापा के पीछे से आकर गर्दन के पास चिपक गयी। पांच में पढ़ने वाली पारो की हमने फोटो खींची तो शर्मा सी गयी। जब फोटो दिखाई तो बिना देखे और ज्यादा शर्माकर दूर भाग गयी। खेलने लगी।
कल शाम को लौटते हुए देखा तो पेड़ के नीचे जमावड़ा उखड़ गया था। सामने कुछ लोग बैठे ताश खेल रहे थे। सब युवा लोग। पता किया तो बताया गया कि सोनू तो प्लास्टर चढ़वाकर गाँव चला गया। बताने वाली सोनू की मौसी थी। बोली -'मेरी बहन का बेटा है।'
डॉक्टर के मुफ़्त इलाज की बात पर बोली-'आजकल बिना पैसे कौन डॉक्टर इलाज करता है?' मतलब पैसा लगा होगा कुछ।
सोनू की मौसी फिर अपना बताने लगी। बोली -'विधवा हूँ। छह साल पहले आदमी खत्म हो गया। बच्ची की शादी कर दी। पहले गोबर के कण्डे पाथ कर गुजारा हो जाता था। अब उस पर भी पाबन्दी लग गयी। सड़क पक्की हो गयी। कण्डे पाथने का जुगाड़ बन्द। कुछ समझ नहीं आता कैसे गुजर होगी। गरीब आदमी की मरन है।
हमसे कोई जबाब नहीं देते बना। हम चुपचाप घर चले आये। अँधेरा हो रहा था। सब तरफ अँधेरा सा ही लग रहा था। दिन भी हुआ अगले दिन, हमेंशा की तरह।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग

Saturday, May 28, 2016

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान मतलब -नेहरू और जिन्ना का अंतर

इधर भारत में कुछ महिलाओं द्वारा यौन सम्बन्धों में आजादी की बात चल रही है उधर पाकिस्तान में पत्नी द्वारा शारीरिक संबंध के लिए मना करने पर पिटाई की आजादी मांगी जा रही है।

पाकिस्तान में प्रस्तावित विधेयक में यह कहा गया है कि यदि पत्नी पति की बात नहीँ मानती, उसकी इच्छा के मुताबिक कपडे नहीं पहनतीं और शारीरिक संबन्ध बनाने को तैयार नहीं होती तो पति को अपनी पत्नी की थोड़ी सी पिटाई की इजाजत मिलनी चाहिए।

यदि कोई महिला हिजाब नहीं पहनती है, अजनबियों के साथ बात करती है, तेज आवाज में बोलती है और अपने पति की सहमति के बगैर लोगों की वित्तीय मदद करती है तो उसकी पिटाई करने की भी आजादी मिलनी चाहिए। 

हालांकि हाजी मोहम्मद सलीम का कहना है कि यह अव्यवहारिक है पर कुछ लोग तो यह मांग कर ही रहे हैं।
हिंदुस्तान में इधर कुछ महिलाएं 'फ्री सेक्स' की बात कर रही हैं वहीँ पाकिस्तान में कुछ पुरुष 'थोड़ी पिटाई' की इजाजत मांग रहे हैं। कितनी विविधता है मांगों में। क्या पता पाकिस्तान में विधेयक पारित होने पर कुछ 'हिंदुस्तानी मर्दों' के मन पाकिस्तान जाने के लिए मचलने लगें।

अब अगर हम पूछने लगें कि क्या दोनों देशों की आजादी में

नेहरू और जिन्ना का अंतर है तो क्या यह पोस्ट राजनैतिक हो जायेगी?

अगर हाँ तो भैया हम नहीं पूछ रहे कुछ ऐसा। फिर तो सिर्फ यही कहेंगे -'भारतमाता की जय, वन्देमातरम, इंकलाब जिंदाबाद।'

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Thursday, May 26, 2016

लेखन की कमियां

सुबह हमने पाठकों से अपने लेखन में कमियां बताने को कहा था। एक को छोड़ किसी ने अपनी राय नहीं बताई। मजे लिए या तारीफ़ कर दी। खुश हो जाओ।
पिछले दिनों जब हमने अपने पुराने लेख/पोस्ट देखे तो कुछ बातें या कहें कमियां जो नजर आई वो ये थीं।
1. लेख की लम्बाई। लम्बा लिखने के चलते कम लोग पूरा पढ़ते हैं। ज्यादातर पसंद करके निकल लेते हैं। कम समय में बहुत कुछ पढ़ना होता है भाई। हालांकि जितने लोग पूरा पढ़ते हैं और टिपियाते हैं उतने से अपन के लिखने भर का सन्तोष हो जाता है। 
2. दोहराव। कई बार एक ही बात को अलग-अलग तरह से कहने के चक्कर में दोहराव होता है। कभी यह कुछ ज्यादा ही हो जाता है और पोस्ट लम्बी हो जाती है।
3. मुद्दे की बात पर देर से आना। पुराने लेखों में यह बात अक्सर देखी मैंने। लिखना शुरू किया ईरान से, खत्म हुआ तूरान पर। शुरुआत और अंत में 36 के आंकड़ा।
4. नियमितता का अभाव। जब मूड बना ठेल दिया स्टेटस। आजकल तो नेट दिव्यांग हैं सो आनलाइन कम रहने से यह दोष कम हुआ है।
5. विवादास्पद मुद्दों लिखने से बचते हैं। सुरक्षित लेखन। क्योंकि लगता है कि लिखने से कोई विवाद कम तो होने से रहा। पर इस चक्कर में अपनी राय भी नहीँ दे पाते।
6. बेसिरपैर के स्टेटस। यह अक्सर होता है। जैसा गौतम ने लिखा भी कि फेसबुक के बाहर भी दुनिया है।
7. बहुत पहले ब्लागिंग के सूत्र बताते हुए लिखा था:
'अगर आपको लगता है कि दुनिया का खाना-पीना आपका लिखा पढ़े हुए नहीं चलता तो आपकी सेहत के लिए जरूरी है कि आप अगली साँस लेने से पहले अपना लिखना बन्द कर दें।' यह सूत्र फेसबुक पर भी लागू होता है। लेकिन अमल में अक्सर चूक हो जाती है।
8. वर्तनी की कमी अक्सर हो जाती है। कई बार जल्दी लिखने के कारण और कई बार जानकारी ही न होने के चलते। एक बार गलती हो गयी तो फिर हो ही जाती है। सुधर मुश्किल से पाती है।
और भी कुछ बातें नोट की थीं पर फ़िलहाल यही ध्यान में आयीं। सोचा सुबह वादा किया था कि हम भी लिखेंगे अपनी कमियों के बारे में तो सोचा सोने के पहले वादा निभा ही दें ।

लेखन रियाज से सुधरता है

तीन दिन पहले सुभाष चन्दर जी ने अपनी वाल पर लिखा:
"मित्रों , एक शिकायत है नये लेखको से। 50 कविताएँ हो गयी / 10 कहानियां लिख ली /30 व्यंग्य हो गये ।बस अब किताब आ जानी चाहिए। अपना पैसा खर्च करके आये।प्रकाशक से शोषण कराके आये पर आये।ऐसी जल्दी क्या है भई ? किताब बहुत कीमती होती है।उसमे कच्चापन रह गया तो वो तुम्हे माफ नहीं करने वाली। समझ रहे हैं ना ?"
इसके समर्थन में कई मित्रों ने अपनी राय व्यक्त की। मेरी राय इससे अलग है। मेरी समझ में लिखने वाले को जब मौका मिले किताब छपवा लेनी चाहिए। संकोच में बूढ़े होते रहने से कोई फायदा नहीं। खासकर जो लोग समसामयिक घटनाओं पर लिखते हैं उनको तो साल के साल अपना संग्रह छपा लेना चाहिए।
सुभाष जी की राय अपने समय के हिसाब से होगी। उस समय अख़बार में व्यंग्य छपते नहीं होंगे। इतने अख़बार नहीं होंगे। आज अख़बार के अलावा सोशल मिडिया है, ब्लॉग , फेसबुक है। अभिव्यक्ति के नए माध्यम हैं। उन पर लिखा हुआ अगर लोग पसन्द करते हैं, आपको भी लगता है तो मेरी समझ में इकठ्ठा करके किताब बनवाना ही चाहिए।
प्रकाशक के शोषण की बात है तो लेखक को किताब छपाने में हमेशा झेलना पड़ता है। परसाई जी तक ने अपनी पहली किताब खुद छपवाई और बेंची। बाद में जब प्रसिद्ध हुए तब प्रकाशक मांगते होंगे किताबें।
छपाने के लिए नयी तकनीक के माध्यम हैं। ईबुक, प्रिंट आन डिमांड और भी कई तरीके हैं। जो ठीक लगें उनका उपयोग करके अपना जो लेखन ठीक लगे, एकाध मित्र की सलाह से किताब छपानी चाहिये। अच्छी छपी तो ठीक वरना पहली किताब की गलती से सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए।
पहली किताब की बहाने खराब रचनाएँ निकल जाएंगी। इसके बाद अगर अच्छा लिखा तो अच्छा सामान आयेगा। पहली गिनती 'रामजी की' के बाद दूसरी किताब आ जाये।
अच्छा लेखक और खराब लेखक समय तय करेगा। जब लेखन सामने आएगा ही नहीँ तय कैसे होगा। इसलिए हम तो इस बात के हिमायती हैं कि अगर लेखक/कवि को लगता है कि उसकी रचनाएँ ठीक हैं तो छपवाने में देर नहीं करनी चाहिए।
किताब छपने में देरी से लेखन में सुधार नहीँ आता। उसके लिए अलग रियाज करना होता है।
Subhash Chander

Tuesday, May 24, 2016

पानी के साथ आंधी फ्री

कल सूरज भाई से जरा गर्मी की शिकायत क्या कर दी बड़ी जोर भन्ना गए। शाम को घर पहुँचते हुए सागर को कान पकड़कर साथ ले गए होंगे। भरी होगी पिचकारी पानी की बादलों में और रात होते-होते झमाझम बरसा दिया पानी।

इतनी तेज बरसाया पानी कि हुलिया टाइट कर दी सबकी। पानी के साथ आंधी फ्री। अब पेड़ आंधी के लिए तो तैयार नहीँ थे। आंधी आई तो हड़बड़ा गए। किसी की हड्डी टूटी तो किसी की पसली। किसी की
कमर ही लचक गयी। कई बूढ़े पेड़ तो भरभरा के जहाँ थे वहीँ बैठ गए। कोई बिल्डिंग पर गिरा तो कोई सड़क पर।

एक पेड़ तो बेचारा बीच सड़क पर बैठ गया। जड़ से उखड़कर साष्टांग करने लगा आंधी महारानी को। आंधी महारानी फिर भी मानी नहीं। उसकी पीठ पर तेज हवा के कोड़े बरसाती रहीं।

आंधी के चक्कर में कई पेड़ सहारे के लिए बिजली और टेलिफोनों के तारों पर टिक गए। अब तार में कहां इतना दम कि पेड़ का वजन उठा ले। पेड़ के चलते तार भी टूट गए। टूट क्या गये समझ लो लचक गये। जैसे मुगलेआजम  पिच्चर में अनारकली मारे डर के कुर्ते को पकड़कर झूल जाती है और फिर कुर्ता चर्र देना फट जाता है वैसे ही पेड़ जब बिजली के तार पर टिका तो तार भी बेतार हो गया।

आंधी-पानी के हल्ले-गुल्ले में बिजली गुल हो गयी। अँधेरे ने सब तरफ कब्ज़ा कर लिया। हवा भी सांय-सांय करने लगी।

सुबह जब जगे तो सब तरफ पेड़ों की टूटी टहनियां पड़ी थीं। पूरी सड़क पर पत्तियों की लाशें पड़ी थी।जगह-जगह जाम लगा हुआ था। एक जगह पूरा पेड़ पूरी सड़क को घेरे धराशायी हुआ पड़ा था। हमने पहले तो सोचा गाडी मोड़कर दूसरी तरफ़ से निकल लें लेकिन फिर सोचा क्या पता वहां दूसरा पेड़ गिरा हो। हमने गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ाकर पेड़ के बगल से निकाल ली। हमारी देखादेखी और लोगों ने भी ऐसे ही गाड़ी निकली। फुटपाथ सड़क हो गयी।

आगे ओवरब्रिज पर लोहे की आधी से ज्यादा बैरिकटिंग सड़क पर फर्शी सलाम मुद्रा में जमीन पर लुढ़की थी। बाकी जो खड़ी थी वह भी लग रहा था अब गिरी तब गिरी।

सामने सूरज भाई एकदम मूछों पर गर्मी का ताव देते हुए डटे हुए थे। हमसे पूछे-- हाउ डू यू डू? हम बोले--कुछ पूछो मत भाई। बहूत बवालिया हो आप।

सूरज भाई ठठाकर हंसे। शायद कहना चाह रहे हों--सुबह हो गयी।।

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10208141130459467&set=a.3154374571759.141820.1037033614&type=3&theater

Monday, May 23, 2016

लो सूरज भाई फिर आये हैं

लो सूरज भाई फिर आये हैं
अबकी बड़ी तेज भन्नाए हैं।

देखो आँख तरेरी जोर से
सबको आते ही झुलसाये है।

चिड़ियाँ के भी गले सूख गए
बस किसी तरह चिचिआये हैं।

पर फूल ऐंठता झूम रहा है
उसका कुछ न बिगाड़ पाये हैं।

पानी बेचारा भी डरा हुआ है
जमीन में घुस जान बचाये है।

पानी आ गया है नल में जी
हम अब्बी पानी भरकर आये हैं।

सूरज भाई ने हमको देख लिया,
फॉर्मेलिटी में बड़ी तेज मुस्काये हैं।

आ रहे हैं अब संग हमारे देखो
उनके लिए चाय बनाकर लाये हैं।

-कट्टा कानपुरी

Friday, May 20, 2016

किताब छपने की सूचना

कितनी खूबसूरत होती है बेवकूफी -है न।
किताब छपने की सूचना देने पर तमाम मित्रों ने बधाई दीं। कुछ ने खरीद भुगतान की रसीद भी दिखा दी। कुछ मित्रों ने किताब से सम्बंधित सुझाव भी दिए। वो सब कुश देख रहे होंगे। करेंगे भी जो ठीक लगेगा और कर सकेंगे।

सब मित्रों की टिप्पणियों का अलग से जबाब दिया जाएगा। सच तो यह है कि मुझे लिखने से भी ज्यादा मजा मित्र पाठकों की प्रतिक्रियाओं का जबाब देने में आता है। लेकिन अक्सर हो नहीं पाता। टिप्पणी पढ़ते ही कोई फड़कता सा जबाब सूझता है। मन करता सब काम छोड़कर सबसे पहले प्रतिक्रिया लिखें।पर तमाम कारणों से ऐसा हो नहीं पाता। 

कानपुर आकर तो हाल और भी बेहाल हो गए हैं। कहते हैं :

आवत जात पनिहियां घिस गयीं बिसरि गयो हरिनाम। :)

कानपुर में दफ्तर से घर आते- जाते समय गुजर जाता है। बाकी रही बची कसर दफ्तर में मोबाईल पर नेट की कौन कहे फोन तक नहीँ मिलता। 'नेट दिव्यांग' और 'मोबाईल दिव्यांग' एक साथ हो गए हैं। नेट सक्रियता का हाल यह हो गया जैसे गर्मी में बिजली। वो शेर याद आता है:

आज इतनी भी मयस्सर नहीं मैखाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में।


पल्लवी ही बता सकती हैं यह
किताब के लिए कुश ने दो साल पहले शायद कहा था कि वो छापेंगे। इसके बाद हमेशा की तरह वो गोल हो गए। कुश में अच्छाई और खराबी यह है कि वो काम कायदे से करते हैं । कायदे से करने के चक्कर में अक्सर नहीं भी करते हैं। करें भले न लेकिन जब करते हैं तो अपनी समझ में सबसे अच्छी तरह ही करते हैं। अब जिस तेजी से वो इसकी छपाई में लगे हैं उससे लगता है कि अगले महीने हम भी एक अदद व्यंग्य लेखक हो जाएंगे जिसकी किताब भी छप चुकी है।

किताब छपने के बाद इनाम के लिए मारामारी करेंगे। जो नहीं देगा उस संस्था की बुराई करेंगे। जिस समारोह में सम्मानित नहीं किये जाएंगे उसका बहिष्कार भले न करें पर वहां ऐंठे-ऐंठे रहेंगे। जिसने किताब नहीं खरीदी होगी उसको अच्छा आदमी मानने से हिचकेंगे। (15 रूपये की रॉयल्टी का चूना लगाने वाला व्यक्ति भला आदमी कैसे हो सकता है) जिसने तारीफ़ की उसके आगे फल से लदे हुए पेड़ की तरह विनम्रता से झुक जायेंगे।

मल्लब वह सब करेंगे जो एक आम मध्यमवर्गीय लेखक करता है।

खैर वह सब तो अगले महीने होगा। अभी तो आप किताब बुक करा लीजिए। हम किताब पर आटोग्राफ देने का रियाज कर रहे हैं आजकल। तय कर रहें हैं कि 'शुभकामनाओं सहित' लिखें कि 'प्यार सहित' या सीधे सीधे 'with love' लिखें। 'आदर सहित' भी लिखना होगा कुछ लोगों को भाई। 'ससम्मान' भी। 'ससम्मान' से कभी कभी यह भी लगता है -'सामान सहित' लिखा है। किताब भी सामान ही तो है न।

किताब का कवर पेज फिर से देखिये। यह कवर कुश ने खुद बनाया है। हमने उसको 15 रूपये इनाम की घोषणा की है। मतलब एक किताब की रायल्टी। बड़ा दिल है भाई।

किताब की भूमिका लिखी है आलोक पुराणिक ने जिनको हम व्यंग्य के अखाड़े का सबसे तगड़ा पहलवान मानते हैं। भूमिका के बहाने आज के व्यंग्य पर अपनी बात भी कहेंगे आलोक पुराणिक।

खैर अब आइये किताब बुक करने का मन बन गया होगा अब तक आपका। तो आप नीचे दिए लिंक पर पहुंचकर किताब बुक कर सकते हैं। जब तक किताब बुक करिये आप तब तक आटोग्राफ का रियाज करते हैं। ठीक न।
http://rujhaanpublications.com/produ…/bevkoofi-ka-saundarya/

कम्बो ऑफर के लिए इधर आइये

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और हाँ सभी मित्रों को शुक्रिया। उसकी आफजाई के लिए जिसे लेखक लोग हिन्दी में 'हौसला' कहते हैं।
Kush Vaishnav, Pallavi Trivedi Alok Puranik


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208110394651091

Wednesday, May 18, 2016

पहला व्यंग्य संग्रह


.....और मजाक मजाक में यह पहला व्यंग्य संग्रह आ ही गया। कुश माने नहीं और किताब छाप ही देंगे अब। बुकिंग भी शुरू कर दी। किताब का नाम रखा है आलोक पुराणिक ने - 'बेवकूफी का सौंदर्य।'
किताब का दाम रखा गया है 150 रूपये। बुकिंग करने के लिए इस लिंक पर जाएँ।
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हमारी किताब के साथ ही पल्लवी त्रिवेदी का हास्य व्यंग्य संकलन 'अंजामे गुलिस्तां क्या होगा' भी प्रकाशित होगा। उसका भी दाम 150 रूपये है। दोनों किताब के कुल दाम 300 रूपये हैं लेकिन अगर एक साथ आर्डर करते हैं तो 255 रूपये में ही दोनों किताबें मिल जायेंगी बोले तो कम्बो ऑफर है यह।

प्रि बुकिंग कराने पर हमारे खूबसूरत आटोग्राफ भी मिल जाएंगे। फ्री डिलिवरी तो है ही।





कॉम्बो ऑफर मने दोनों किताब एक साथ खरीदने का लिंक यह रहा
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तो शुरू कीजिये आप भी बुकिंग अगर हमारा लिखा छपे में बांचना चाहते हों तो। केवल पल्लवी की किताब खरीदने के लिए उनके फेसबुक खाते पर पहुंचे।
Kush , Pallavi Trivedi , Alok Puranik


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208100713289063

कल रात मैंने एक सपना देखा!

कल रात मैंने एक सपना देखा! अरे न भाई किसी की झील सी गहरी आखों में नहीं देखा भाई ! झीलें आजकल बची कहां हैं? जो बची भी हैं उनमें सपने देखना भी सामाजिक अपराध है। झीलें वैसे भी गन्दी हो रही हैं। उन पर घुसकर सपना देखने से झील गन्दी हो जायेगी न! और दूसरी बात हमको तैरना भी तो नहीं आता।

हां तो सपना कुछ ऐसा कि हम एक ट्रेन में जा रहे हैं। एक महिला टीटी आती है। टिकट दिखाने को कहती हैं। हम सब जेब टटोल लेते हैं पर टिकट नहीं मिलता। टिकट किसी लंबे व्यंग्य से सरोकार की तरह गायब था। वहीं सोच लिया मिलते ही टिकट का टेटुआ दबा देंगे। लेकिन वह तो तब होता जब टिकट मिलता। अभी तो सामने टिकट चेकर थीं। उनको तो टिकट दिकट दिखाना था। 

जब टिकट नहीं मिला तो टिकट चेकर ने फ़ाइन लगा दिया। हमने दे भी दिया। थोड़ी बहस के बाद! लेकिन फ़िर फ़ौरन उतर भी गये ट्रेन से। आमतौर पर तो जुर्माना भरने के बाद ऐंठकर बैठने और टीटी को गरियाने का चलन है। पता नहीं क्यों हम उतर गये। अब यह सब सपने में हुआ। हम को ’सपना निर्देशक’ तो हैं नहीं। होते तो पक्का मंजिल तक तो पहुंचते ही।

ट्रेन से उतरने के फ़ौरन बाद याद आया कि कुछ सामान ट्रेन में ही छूट गया था। जब याद आया तो लपके ट्रेन की तरफ़ लेकिन तब रेल छुक-छुक करती हुई आगे बढ गयी थी।

हम प्लेटफ़ार्म पर खड़े हुये खोये हुये सामान के बारे में सोचते रहे। पता नहीं क्या खोया है ट्रेन में याद नहीं आ रहा। सपने पर बस चलता तो दुबारा ट्रेन पर जाकर देखते और खोया सामान उठा लेते। पर अगर बस चलता तो सपने को रिवाइंड करके और पीछे जाते और देखते कि क्या सच में हम बिना टिकट चल रहे थे। क्या ऐसा टिकट न लेने के चलते हुआ या टिकट खो गया था। क्योंकि हम बहुत डरपोंक टाइप के यात्री हैं। बिना प्लेटफ़ार्म टिकट लिये प्लेटफ़ार्म तक नहीं जाते फ़िर इत्ती बहादुरी कैसे आ गयी कि मेरे में बिना टिकट ट्रेन में चढ गये।

जो हुआ लेकिन यह बात अच्छी हुई कि सपना हमने अकेले ही देखा। घरैतिन को मेरा सपना दिखा नहीं। दिखता तो पक्का हड़कातीं टिकट गैरजिम्मेदारी से रखने के लिये। सपने भी पासवर्ड सुरक्षित होते हैं। एक का सपना दूसरा नहीं देख पाता।

आज भी एक सपना देखा। लेकिन जो देखा वह याद नहीं आ रहा। बहुत छोटा नन्ना सा सपना था। वनलाइनर स्टेटस सा क्यूट! बच्चा सपना केवल चढ्ढी सा कुछ पहने था। जब जगे तो बस यही दिखा कि भागा चला जा रहा था दिमाग के मेन गेट से। कुछ ऐसे जैसे चौराहे पर पुलिस वाले के डंडा फ़टकारते ही चौराहे के ठेलिया वाले इधर-उधर फ़ूट लेते हैं।

एक बार मन किया भागते हुये नन्हे से सपने की पीछे से चढढी पकड़कर उसको रोक लें और कहें मुखड़ा तो दिखा जा बच्चे। लेकिन जब तक यह सोचते, सपना आंखों से ओझल हो गया था। हम जग गये थे। आप भी जग गये होंगे अब तक। तो अब उठ भी जाइये। दिन शुरु कीजिये। जो होगा देखा जायेगा।

Monday, May 16, 2016

यही तो छोटे-छोटे सुख हैं

सबेरे-सबेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे हैं। अगल-बगल मच्छर उड़ रहे हैं। थक जाने पर हाथ, पैर, मुंह, कंधे मतलब जहाँ मन किया वहीँ बैठ जा रहे हैं। जैसे अपने यहां के घपलेबाज जहाँ मन आता है घपला कर लेते हैं, पान-मसाला खाने वाले जिधर जगह साफ दिखती है थूक देते हैं वैसे ही मच्छरों को भी जहाँ जरा जगह दिखी बैठ जा रहे हैं। कुछ देर बैठकर, आराम करके फिर उड़ जा रहे हैं। जिनको भगा रहे हैं वे फ़ौरन वापस आ रहे हैं। जो अपने आप जा रहे हैं वो देर में लौट रहे हैं।

भुनभुना नहीं रहे हैं मच्छर। शायद रात भुनभुनाते हुए थक गए हों। गला बैठ गया हो। वैसे भी मच्छर भुनभुनाते हैं क्या ? वो तो उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाते हैं। पंख के बीच जो हवा फंस जाती होगी वही हल्ला मचाती होगी -'बचाओ, बचाओ, बचाओ।' क्या पता नारा भी लगाती हो-'हमको चाहिए आजादी, मच्छरों के चंगुल से आजादी।'

मच्छर खून नहीं चूस रहे। यह भी हो सकता है कि रात भर सोये हुये लोगों ’खून लंगर’ चख चुकने के बाद ’अफ़रे पेट’ हों। और अधिक खून चूसने का मन न हो। या शायद यह भी हो सकता है कि मच्छर की नाजुक सूंड़ हमारी मोटी खाल में घुस न रही हो और इसी बात से मच्छर खफ़ा हो रहा हो। भुनभुना रहा हो।

क्या पता मच्छरों की दुनिया में भी जो मच्छर किसी कारणवश खून चूस नहीं पाते हों उनके लिये दूसरे मच्छर कोई व्यवस्था करते हों। सूंड़ भरकर खून लाते हों और मच्छरों की सूंड़ में उड़ेल देते हों। मच्छर तृप्त होकर अपने फ़ेसबुक स्टेट्स अपडेट करते हों- ’यम्मी खून। मजा आ गया। फ़ीलिंग हैप्पी।’

हो सकता है जो मच्छर खुद खून न चूस पाते हों वे वहां विशेषज्ञ मच्छर हों जो योजना बनाते हों कि किसी इंसान की खून की चुसाई किस तरह करनी है।उनकी योजनाएं भी हमारे विशेषज्ञों की भुखमरी से बचाने की योजनाओं की तरह फ्लॉप होती हों और करोड़ों मच्छर इंसानों की तरह भूखे मर जाते हों।

जो भी हो मच्छरों की भुनभुनाहट की आवाज नहीं आ रही। क्या पता उन्होंने भी अपने पंखो में साइलेन्सर फ़िट करा रखे हों। ये साइलेन्सर भी शायद दिन में सौर ऊर्जा से काम करते होंगे इसीलिये दिन में भुनभुनाहट नहीं सुनाई देती। लेकिन रात होते ही सूरज के अस्त होने पर साइलेन्सर काम करना बन्द कर देते होंगे और भुनभनाहट सुनाई देने लगती हो।

अगर ऐसा है तो हमको मच्छरों से सौर ऊर्जा तकनीक लेकर उनको बैटरी तकनीक देने का समझौता करना चाहिए। फ़ौरन कोई मंत्रिमंडल कांगो-सोमालिया के मच्छरों से उच्चस्तरीय वार्ता के लिए भेज दिया जाना चाहिये जैसे भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार के लिये सम्मेलन अमेरिका में होते हैं। सम्मेलन घटनास्थल से जितनी दूर हों, उतने ही अधिक सार्थक होते हैं।

लेकिन हो यह भी सकता है कि मच्छर भुनभुना रहे हों पर बगीचे में पक्षियों की आवाज के हल्ले-गुल्ले में उनकी आवाज दब जाती हो। जैसे बड़े शहरों के हाई प्रोफ़ाइल चोंचलों, घपलों, घोटालों के हल्ले में आम जनता की परेशानियों की आवाज दब जाती हो। सूखे में भूख से मरने वालों की खबर पनामा घपले में डूब जाती है।

बाहर जो पक्षी हल्ला मचा रहे हैं उनमें मोर की आवाज सबसे तेज सुनाई दे रही है। केहों, केहों, केहों कर रहा है। शायद मर्द मोर है। डांस के लिये तैयार होकर मोरनी को बुला रहा है- कहां हो, कहां हो, कहां हो? हम तुम्हारे लिये नया डांस करने वाले हैं। जल्दी आओ। कम फ़ास्ट, बि क्विक।

मोर की केहों-केहों बहुत तेज है। दूसरे पक्षी धीमें-धीमे हल्ला मचा रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज भी साफ़ सुनाई दे रही है। होता क्या है जब मोर तेज हल्ला मचाकर जहां सांस लेने के लिये रुकता है उसी बीच कोई छोटा पक्षी जल्दी-जल्दी चींचींचींचीं करके केहों, केहों, केहों के बाद ही या साथ ही अपनी आवाज रिकार्ड करा देता है। कुछ चींचींचींची तो इतनी तेज हैं कि ’के’ और ’हों’ के बीच की जगह में ही घुसकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देती हैं।

पक्षी अपना ’प्रभात राग’ गाते हुये शायद आपस में बतिया भी रहे हो। कोई पक्षी अपने छुटके-छुटकी की शरारतें बताते हुये कह रही हो- ’ये मेरी छुटकी तीन दिन की हुई नहीं एक-डाल से दूसरे पर फ़ुदकने लगी है। कल तो बगल के पेड़ पर जाने के लिये उड गयी। पंख फ़ड़फ़ड़ाये तो मैं सोची कि इसी पेड़ की किसी डाल पर जा रही होगी। पर ये शैतान तो पडोस के पेड़ की तरफ़ फ़ड़फ़ड़ाते हुये चली गयी। मेरा तो कलेजा बैठ गया। मैंने इत्ती तेज चिंचिंयाया कि मेरा तो गला ही बैठ गया। साथ ही मैं भी। लेकिन जरा ही देर में यह सामने पेड़ पर पहुंच गयी तो मारे खुशी के मेरे आंसू आ गये। बदमाश ने वहां से चोंच खोलकर, आंख मारते हुये कुछ किया तो मुझे कुछ समझ नहीं आया पर मैंने भी वैसे ही कर दिया। बाद में इसने बताया कि वो ’फ़्लाइंग किस’ था माने ’उड़न पुच्ची’। हमको तो बड़ी शरम आयी। लेकिन फ़िर अच्छा भी लगा। देख तो अभी भी गुदगुदी हो रही है छाती में।

दूसरी ने छाती को अपनी चोंच और गाल से छुआ और मुस्कराते हुई बोली - हां री, सच में। तेरा दिल तो धक-धक कर रहा है। आज से तेरा नाम ' धक-धक चिड़िया' नहीं चिड़िया नहीं वर्ड रख देते हैं। तू हमारी 'धक-धक वर्ड।' सुनकर चिड़िया मुस्कराई। पर उसके ऊपर मम्मीपना इत्ता हावी था कि अपने याद किये डायलॉग बोलने लगी।

वो बोली-'यही तो छोटे-छोटे सुख हैं अपनी हम लोगों की जिन्दगी में। बच्चे अपने उड़ना सीख जायें, कूड़े से दाना-पानी लाना सीख जायें, घोसला-वोसला बनाना आ जाये बस और क्या चाहिये हमको। कौन हमें अपने बच्चों को हाईस्कूल कराना है, इंजीनियर-डाक्टर बनाना है।'

बरामदे में इतना लिखने के बाद मोबाइल बैटरी बाय-बाय करने लगी। हम अन्दर कमरे में आ गये। लेकिन फ़िर लिखने का कुछ सूझ ही नहीं रहा था। हमने सोचा चक्कर क्या है? फ़िर ध्यान से देखा तो ’कल्पना’ बाहर तख्त पर ही पसरकर अंगड़ाई ले रही है। बहुत खूबसूरत जमाऊ सी लग रही थी ’कल्पना शक्ति’ उर्फ़ इमेजिनेशन पावर। मन किया कि स्माइली लगाकर गुडमार्निंग कर दें लेकिन फ़िर नहीं किया। डर लगा कि कहीं इसका भी फ़ेसबुक खाता होगा तो पक्का मेरी चैट का स्क्रीन शाट अपनी वाल पर टांगकर अपने फ़ेसबुक मित्रों को बतायेगी कि देख लो इन बुढऊ की हरकतें। हम इनको लेखक समझते थे लेकिन ये तो गुडमार्निगिये निकले। :)

हमने स्माइली लगाकर गुडमार्निंग तो नहीं कहा लेकिन कहा -’आओ चलो अंदर वहीं मेरे दिमाग में बैठकर आराम से पसरना।’ लेकिन वह बदमाश नहीं मानी तो मानी। उल्टे उसने धमका भी दिया कि ज्यादा करोगे तो जो जूठन छोडी है दिमाग में वह भी साफ़ कर दूंगी। हमको डिस्टर्ब मत करो। अपने बंद दिमाग में बुलाने की जिद मत करो। कौन सुर्खाब के पर लगे हैं वहां जो आ जायें दिमाग में तुम्हारे। जरा खुले में आराम से सांस लेने दो। पता नहीं कब यह हवा जहरीली हो जाये।

बहरहाल सुबह हो गयी है। अब आपसे तो कम से कम गुडमार्निंग तो कर ही सकते हैं। आप तो हमारे मित्र हैं आप तो बुरा नहीं मानेंगे न! है न ? 














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Saturday, May 14, 2016

दिल्ली में मुलाकात के किस्से

आलोक पुराणिक और कमलेश पाण्डेय के साथ अनूप शुक्ल
किसी भी व्यंग्य लेखक को लेखन की शुरुआत करने से पहले इन तीन लेखकों को अवश्य पढ़ना चाहिये:

1. कार्ल मार्क्स (विसंगतियों की समझ के लिये)
2. लोहिया (भारतीय समाज की समझ के लिये)
3. ओशो (भारतीय संस्कृति और परम्परा समझ के लिये)

यह बात Alok Puranik ने कल एक बार फ़िर से कही जो वो अक्सर कहते रहते हैं। लेकिन यह तो बाद की बात है। पहले का किस्सा तो सुनिये पहले :)

कल हमारे काम निपट गये तो हमने सोचा कुछ दोस्तों से मिल लें। सो फ़ेसबुक पर सूचना चिपकाई - ’दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक दिल्ली में मंडी हाउस (श्रीराम सेंटर के पास चाय की दुकान पर) रहेंगे। जो मित्र आसपास हों और आ सकें तो आएं उधर। चाय तो पिलाएंगे ही।’

Srijan Shilpi का। फ़ोन के पीछे-पीछे वह खुद भी आ गये। ’काल ड्रापिंग’ का हल्ला इतना ज्यादा मचा हुआ है आजकल कि पहुंचकर पूछता है -फ़ोन मिला कि नहीं :)
आलोक पुराणिक , राजकुमार , सुधीर तिवारी और अनूप शुक्ल
सबसे पहला फ़ोन आया

सृजन शिल्पी हमारे ब्लाग के दिनों के साथी हैं। गहन अध्येता। तर्क पूर्ण बहस करें तो खूब लम्बी बातें होंगी। गुस्सा करने से भी परहेज नहीं। मसिजीवी से एक मजेदार बहस की याद हुई । दस साल पहले रात को सेंट्रल स्टेशन पर हुई मुलाकात भी लगता है कल ही हुई थी।

मास्टर Vijender Masijeevi और Amrendra Nath Tripathi से फ़ोन-मुलाकात हुई। दूरी के चलते मिलना न हो पाया। Lalit Vats से भी फ़ोन पर ही बात हो सकी।

बहरहाल सृजन शिल्पी से मिलकर जब हम घटनास्थल पहुंचे तो दो बजने वाले थे। श्रीराम सेंटर पर बाहर चाय-वाय की दुकान देखी। बाहर ही कई नाटकों के बोर्ड लगे हुये थे। एक नाटक का शीर्षक था- 'बुड्ढा मर गया।' हमने सोचा जगह होती तो फ़ेसबुक की तरह -'नमन' लिख देते।


सुधीर तिवारी, प्रमोद कुमार , राजकुमार , विनीत कुमार और अनूप शुक्ल
अन्दर का जायजा लेने के लिये पूछा कि यहां कैफ़ेटेरिया किधर है? चौकीदार ने बताया- ’कैफ़ेटेरिया के लिये दायीं तरफ़ से लास्ट हो आओ।’ कोई अंग्रेजी जानने वाला समझता - ’बडे आये कैफ़ेटेरिया वाले। गेट लास्ट मने दफ़ा हो जाओ।’ लेकिन मैंने हिन्दी भाषी होने का फ़ायदा उठाया और समझा -’ दायीं तरफ़ आखिरी में है कैफ़ेटेरिया।’

कैफ़ेटेरिया जाकर देखा तो ठीक सा लगा। ठीक इसलिये कि वहां चार्जिंग प्वाइंट भी था एक , चाय 12 रुपये की थी और कई युवा लड़के-लड़कियां थे वहां। एक जोड़ा शायद सूरज को चुनैती देने के लिहाज से बाहर धूप के पास चाय पी रहा था।

कैफ़ेटेरिया मुआयना करके बाहर निकलते ही आलोक पुराणिक आते दिखे। कंधे पर सफ़ेद अंगौछा व्यंग्यकार के साथ सरोकार की तरह लटका हुआ था। मुख पर मुस्कान और आंख पर शानदार चश्मा। आलोक जी की कई बातों से जलन होती है मुझे उनमें से सबसे बड़ी जलन उनके समय प्रबन्धन से होती है। नियत समय पर तय काम करना उनकी अनुकरणीय खासियत है। कल भी सही समय पर पहुंच गये।


आलोक पुराणिक , राजकुमार , सुधीर तिवारी और अनूप शुक्ल
आलोक जी के साथ हम पास के बंगाली रेस्टारेंट पहुंचे। कुछ देर बाद वहां कमलेश पांडेय जी भी आ गये। लेकिन तब तक हम लोग सांभर-बड़ा-इडली चांप चुके थे। कमलेश जी के आने पर फ़िर रबड़ी खाय़ी गयी और ढेर सारी बातें हुईं। उसी दौरान आलोक जी ने वो बातें कहीं जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया।

आजकल के समय में हो रही व्यंग्य से जुड़ी कई बातों की चर्चा हुई। आलोक पुराणिक ने इस बात राजेन्द्र धोड़पकर का जिक्र करते हुये कहा वे आज के समय के सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों और कार्टूनिस्टों में से हैं। लेकिन उनको अपने जिक्र की कोई फ़िक्र नहीं। सालों से शानदार व्यंग्य लिखने के बावजूद कोई व्यंग्य संग्रह नहीं धोड़पकर जी का। दूसरे लोग भी उनका जिक्र नहीं करते (खुद से फ़ुर्सत मिले तब जिक्र हो न)

यह बात भी चली कि हम लोगों के यहां इतनी ’यश विपन्नता’ है कि लोग दूसरे को सम्मानित होते देख ’यश विलाप’ करना शुरु कर देते हैं कि हाय यह कैसे सम्मानित हो गया। दूसरों को खारिज करके खुद बड़ा नहीं सकते। कोई क्या नहीं लिख रहा है यह बताकर उसको छोटा बताने का चलन है।

नीरज वधवार को ’वनलाइनर’ कहकर खारिज करने की बात पर आलोक पुराणिक का ट्विटरिया कमेंट था कि ऐसे तो कल को आप कबीर के दोहों को खारिज कर देंगे यह कहते हुये कि कबीर तो टू लाइनर लिखते थे। :)
आलोक पुराणिक पर उनके ’बाजार का लेखक’ होने के आरोप बताये गये तो उनका कहना था - ’मैं लिख रहा हूं। मेरी समझ में लेखन की कसौटी वर्तमान में पाठक होते या फ़िर समय। वैसे मुझे अपने लेखन के बारे में कोई मुगालता नहीं। मुझे पता है कि जो मैं आज लिख रहा हूं उनमें से समय के साथ बहुत कम आगे जायेग।

पांच-सात साल बाद अगर कुछ आगे गया तो उनमें से शायद ’कारपोरेट प्रपंचतंत्र’ एक हो।

अपनी व्यंग्य उपन्यास लिखने की कसम को फ़िर से दोहराया आलोक जी ने। कमलेश पांडेय उसके गवाह हैं।

कमलेश पांडेय जी की एक किताब मेरे पास कई और किताबों की तरह मेरे पास समीक्षा लिखने के लिये है।

कमलेश जी दफ़्तर से सीधे आये थे मिलने। अपने लफ़्ज के दिनों के किस्से, हरि जोशी जी हुई बहस, लखनऊ के अट्टहास सम्मेलन की यादें ताजा की उन्होंने। हमसे और आलोक पुराणिक से वहां न पहुंचने की शिकायत दोहराई। आलोक ने रिजर्वेशन न मिलने का और अपन ने छुट्टी न मिलने का बहाना दोहरा दिया।

अट्टहास कार्यक्रम के संयोजक अनूप श्रीवास्तव जी की भी चर्चा हुई। राजनीति और समाज शास्त्र की बात से अलग उनकी इस बात की तारीफ़ हुई कि वे अपने कार्यक्रम में छोटी से छोटी बात का ध्यान रखते हैं। बड़े-बुजुर्ग की तरह। छोटे से छोटे लेखक की सुविधा का ख्याल रखते हैं। व्यक्तिगत प्रयास से इतना कर पाना सबके लिये संभव नहीं होता।

इस बीच मथुरा से हमारे वकील साहब शर्मा जी का फ़ोन आ गया। वे सब व्यंग्य कारों की फ़िरकी लेते रहते हैं। चाहे संतोष त्रिवेदी हों या आलोक पुराणिक या फ़िर अनूप शुक्ल सबके लिखे का अपने बस्ते में बैठे-बैठे अपने हिसाब से ’हिसाब’ करते रहते हैं। आलोक पुराणिक और शर्माजी दोनों एक ही कालेज के पढे हुये हैं। लेकिन कभी बतियाये नहीं आपस में। कल हमारे सौजन्य से दोनों बतियाये।

इस बीच अर्चना चतुर्वेदी का भी फ़ोन आया। उन्होंने फ़ोनो शिरकत की बातचीत में। घर भी बुलाया । इस तरह कि अगला कहे - अगली बार। :)
 
काम भर की बातें करके और खा-पीकर जब हम वापस लौटे तो भाई राजकुमार वहां मिले। बेचारे आधे घंटे से हमारा इंतजार कर रहे थे। पता चला कि हमने उनको नम्बर जो दिया था उसमें आखिरी अंक 4 की जगह 5 बता दिया था। वो वही नम्बर नोट करके घर से निकल लिये थे। मिलाये जा रहे थे और अनूप शुक्ल रेन्ज के बाहर मिल रहे थे। वो तो कहो उन्होंने हमको देखते ही पहचान लिया। शक्ल से ही हम लोग व्यंग्यकार लगते हैं।
राजकुमार हमारे डेढ साल से फ़ेसबुक पाठक है। पर बात कल पहली बार हुई। मुलाकात भी हुई। हमने आलोक पुराणिक से परिचय कराया। पूछा -इनको जानते हैं? वो बोले - नहीं। हमने बताया - ’ इनको हम आजकल के व्यंग्य के अखाड़े का सबसे तगड़ा पहलवान मानते है।.’ राजकुमार ने कहा - ठीक है देखेगें। जोड़ लेंगे इनको भी। उस समय मुझे याद नहीं रहा कि अब तो आलोक जी को फ़ालो ही किया जा सकता है। पांच हजारी हो गये हैं आलोक जी।

हमको राजकुमार भाई को गलत नम्बर अनजाने में देने का अफ़सोस हुआ। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि बंगाली रेस्टारेण्ट में रबड़ी का खर्च बचा। यहां चाय से ही काम चल गया। :)

हम लोग राजकुमार भाई से बतिया रहे थे तब तक वहां प्रमोद कुमार जी भी आ गये। प्रमोद जी से भी पहली मुलाकात थी। आलोक जी के पुराने मुरीद और पाठक। दस साल पुराने ’गुप्त पाठक’ से मिलकर आलोक जी भी खुश हो गये। हमारे मामा नदन जी कई कवितायें प्रमोद जी को याद हैं और वे उन्होंने जिस तरह वहां दोहराई उससे लगा कि कितने गहरे साहित्य प्रेमी हैं प्रमोदजी। फ़तेहपुर, कानपुर की कितनी यादे हैं उनके। ऐसे प्रेमी पाठक मित्र से मिलकर मन खुश हो जाना सहज बात है। इस चक्कर में आलोक जी विदा लेने के बाद फ़िर रुक गये कुछ देर के लिये।

ज्यादा देर नहीं हुई कि वहां सुधीर तिवारी जी भी आ गये।पास ही उनका दफ़्तर है। फ़ेसबुक पर टिपियाने और सराहने और मौजियाने का सबंध कल फ़ोनियाने और आमने-सामने खड़े होकर गपियाने तक पहुंचा। बहुत अच्छा लगा। आलोक जी और तिवारी जी में कार्ड की अदल-बदल भी हो गयी। इसके बाद आलोक जी निकल लिये। किसी को समय दिया होगा मिलने का। :)

विदा होने से पहले कोरम पूरा किया कल की मुलाकात की सबसे हसीन कड़ी विनीत ने। विनीत के मीडिया से जुड़े लेख में उनकी समझ और अध्ययन और सरोकार जो दिखते हैं उसके तो हम मुरीद है हीं लेकिन विनीत के लेखन का सबसे प्यारा पहलू मुझे उनके वे लेख लगते हैं जो उन्होंने अपने साथ जुड़े लोगों के बारे में लिखे हैं। डूबकर लिखे वे लेख चाहे वो अपनी मां के बारे में लिखे कई लेखों में से एक ’दिया बरनी की तलाश हो’ या फ़िर अपने पापा के बारे में लिखा लेख हो जिसका शीर्षक है - ’ मेरे पापा मुझसे डरी हुई गर्ल फ़्रेन्ड की तरह बात करते है’ अद्भुत हैं।

बतियाते हुये पांच बज गये। फ़्लाइट का समय हो गया था हम निकल लिये। मित्रों के साथ हुई इतनी आत्मीय मुलाकात से मन बहुत प्रमुदित च किलकित टाइप था। निकलने के पन्द्र्ह मिनट बाद सुभाष चन्दर जी का फ़ोन आया कि वे मिलने के लिये निकल चुके हैं। लेकिन हम तब तक हवाई अड्डे की तरफ़ निकल चुके थे। इसके अलावा Lalit Vats और Arifa Avis से भी मुलाकात न हो सकी।

जिनसे नहीं मिल पाये उनसे यही कह रहे हैं कि जल्दी ही फ़िर आयेंगे मिलने। तब तक बिना मुलाकात के मुलाकात हुई समझना।

(यह पहला ड्राफ़्ट है। शाम तक इसमें सबंधित टैग/लिंक लगा देंगे। फ़िर पढियेगा। मजा आयेगा। :) )

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208069782555814

Friday, May 13, 2016

व्यंग्यकार लोग बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं


कल दिल्ली आना हुआ। ठहरने की जगह दरियागंज के पास ही थी सो Sushil Siddharth जी से मिलने गए। उनके केबिन में पहुँचते ही चाय मंगा ली सुशील जी ने। बिस्कुट साथ में। पानी तो खैर पहुँचते ही पिला दिया उन्होंने।
हमने सुशील जी को बताया कि हम जबलपुर से कानपुर आ गए हैं तो सुशील जी ने कहा -'हाँ हमने देखा था। आपने फोटो लगाया था। कई सुंदर महिलाएं आपको छोड़ने आयीं थीं।' मतलब 'सुंदरता' को सुशील जी ध्यान से नोटिस करते हैं। 
बहुत दिनों से हम सुशील जी से कह रहे थे कि उनको अपने व्यंग्य लेखों के वीडियो बनाने चाहिये। लेकिन उनका कहना था कि उनको बनाना आता नहीं। हमने कहा था कि हम बता देंगे। कल मिलते ही हमने सबसे पहला काम यही किया और सुशील जी का जनसन्देश में छपा सबसे ताजा व्यंग्य लेख रिकार्ड करवाया।जितना किया, बढ़िया रिकार्ड किया। लेकिन इसके बाद उसको 'यू ट्यूब' में रिकार्ड करके बताने को हुए तब तक उनके फोन की बैटरी 'बोल' गयी। पर काम भर की जानकारी हो गयी। अब शायद सुशील जी जल्दी ही अपने व्यंग्य वीडियो अपलोड करना शुरू करें।
वैसे कहने को तो Alok Puranik भी कह चुके हैं कि वे व्यंग्य लेख रिकार्ड करेंगे। लेकिन कर नहीँ पाते। समय की कमी सब बड़े लेखकों के पास है। 
बातचीत के दौरान यह बात हुई कि हम लोग पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के मामले में अक्सर पूर्वाग्रह से प्रभावित होते हैं। जो लेखक मुझे पसंद होते हैं उनकी रचनाओं को हम अच्छी नजर से देखते हैं। उनका लिखे में हम अच्छाई खोज ही लेते हैं। इसका उलट भी सही होता ही होगा।
इस बीच संतोष त्रिवेदी भी धड़धड़ाते हुए पधारे। कोरम पूरा होते ही सुशील जी ने अपने बगल के चैंबर के साथी से फोटो खिंचवाया। जो फोटो अच्छी आईं उनको स्निग्ध भाव से निहारते हुए एक फोटो ऐसी खिंचवाई जिससे लगे कि हम लोग कोई गहन चर्चा कर रहे हों। पर जो फोटो आई उससे साफ़ लग रहा था कि ये चर्चा नहीँ कर रहे, फोटो खिंचा रहे हैं।
सन्तोष त्रिवेदी को जैसे ही फोटो उनके मोबाईल में मिली वैसे ही उन्होंने उसको फेसबुकिया दिया। शीर्षक दिया -'व्यंग्य की तिकड़ी गिरफ्तार।' हमने कहा -'तुमको लिखने में शब्दों का ख्याल रखना चाहिए। अब बताओ गिरफ्तारी दिखाओगे तो गिरफ्तार करने वाला भी तो होगा कोई। वह कहां हैं चर्चा में।' सुशील जी बोले -'ठीक बात।'
सुशील जी जब बोल दिए ठीक बात तो हमने लोहा गरम देखकर एक और हथौड़ा जड़ दिया -'संतोष त्रिवेदी अपने स्टेटस कई बार ऐसे लिखते हैं जैसे वो खुद के लिए लिख रहे हों। 'ओनली फॉर मी' मोड वाले लगते हैं।' सुशील जी फिर बोले -'ठीक बात।' सुशील जी जिस तरह से हमारी बात से सहमत हो रहे थे उससे मन किया और भी खूब सारी खिंचाई कर लें संतोष की, सुशील जी ' ठीक बात ' कहकर समर्थन करेंगे ही लेकिन फिर छोड़ दिए। संतोष भी अपनी खिंचाई के विरोध में डायलॉग बोलने लगे थे।
बतियाते हुए वहां अनुपस्थित लोगों की बुराई, भलाई और खिंचाई शुरू हुई। समय बहुत कम था फिर भी कई मित्रों की खिंचाई कर डाली हम लोगों ने। इस बीच संतोष ने जल्दी-जल्दी कुछ लेखकों के लेखन की बुराई की। बुराई को पक्का रंग देने के लिए यह भी कहा -'आदमी के तौर पर बहुत अच्छे हैं, पहले मैं उनका प्रसंशक था।' मतलब सिद्गान्त की बुराई है यह। उसूल की बात है। कोई जलन वाली बात नहीं।
बात होते-होते दफ्तर का समय हो गया सुशील जी का। हम लोग उनके दफ्तर से उठकर बाहर चाय की दुकान पर आ गए। फुटपाथ की चाय की दुकान पर जमीनी बुराई-भलाई हुईं। सुशील जी ने चाय वाले बच्चे से कहकर बढ़िया फोटो खिंचवाया। सुशील जी को फोटो खिंचवाना अच्छा लगता है। फोटो अच्छा लगता है तो और अच्छा लगता है।
इस बीच सुशील जी ने चर्चा के दौरान कहा कि व्यंग्यकार लोग बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं। संतोष जी ने बताया कि उनको किसने-किसने ब्लाक किया और उन्होंने किसको किया। संतोष ने व्यंग्य लेखन से जुड़ी सरोकारी चिंताओं को जितनी शिद्दत से जाहिर किया उससे लगा कि उनके स्लिम-ट्रिम होने का राज यही है कि वे व्यंग्य की चिंता में दुबले होते रहते हैं।
इस बीच सुशील जी के व्यंग्य संग्रह 'मालिश महापुराण' की समीक्षा की बात चली। हमने कहा -' जितनी समीक्षाएं इस व्यंग्य संग्रह की हुई हैं साल भर में उस लिहाज से तो यह गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में आना चाहिए। लेकिन गिनीज बुक वालों को कोई चिंता ही नहीँ।
संतोष त्रिवेदी के व्यंग्य संग्रह की भी बात चली। संतोष ने उसके खिलाफ कुछ डायलॉग मारा। मेरा मन किया कि उनकी बात का विरोध करें लेकिन कर नहीँ पाये क्योंकि चाय की दुकान पर भजिया के पैसे भी संतोष ने दिए थे। भजिया में नमक मिला था। अब संतोष का नमक खाया था तो विरोध कैसे करते। सहमत हो गए।
सुशील जी ने अपने व्यंग्य उपन्यास के पहले ड्राफ्ट लिख लेने की बात बताई। बड़ा धाँसू उपन्यास होगा ऐसा आभास हुआ बातचीत से। अगला व्यंग्य संग्रह भी आने वाला है जल्द ही।
बातचीत फिर हालिया सम्मान के बहाने व्यंग्य में राजनीति के बारे में हुई। हमारा कहना था कि राजनीति कहां नहीँ है। परसाई जी तो कहते थे कि जो कहता है कि वह राजनीति नहीं करता, वह सबसे बड़ी राजनीति करता है।
वैसे भी व्यंग्य की दुनिया में ले देकर तीन-चार ही संस्थाएं हैं जिनसे जुड़कर लोग आपस में मिल मिला लेते हैं। इनका भी विरोध करके बन्द करा देंगे इनको भी तो क्या मिलना-जुलना होगा। खराब लेखन की आलोचना करने वाले यह भी समझें कि हमारे समय के सबसे अच्छे व्यंग्यकार ज्ञान जी का साल भर में 500 किताबों एक संस्करण मुश्किल से निकलता है। तो जो खराब लिखने वाले हैं चाहे वो सपाटबयानी वाले लेखक हों या सरोकारी हल्ले वाले लेखक वो कम से कम अच्छे लेखक के आने तक मंच तो संभाले हुए हैं। जब अच्छे लेखक आएंगे तो छा जाएंगे।
बातें बहुत सारी हुईं। बातें करते हुए सुशील जी को उनके घर के लिए विदा करते हुए संतोष ने फाइनल सेल्फी ली। इसके बाद हम लोगों ने फिर से एक बार और चाय पी। संतोष ने पानी की बोतल भी ले ली। इस बार पैसे हमने दिए। रास्ते भर संतोष हमें उस बोतल से पानी पिलाते रहे ताकि बोतल से छुट्टी मिले।
आईटीओ से मेट्रो पकड़कर हम जनपथ उतरे। संतोष आगे चले गए।
अच्छा लगता है इस तरह मेल मुलाकात करना। आमने-सामने बुराई करके हाजमा दुरुस्त हो जाता है। तबियत झक्क हो जाती है। चेहरे पर रौनक आ जाती है। 'हंसता हुआ नूरानी' चेहरा वाला गाना याद आ जाता है। मुखमंडल कमल सा खिल जाता है। है कि नहीँ।
बहुत अच्छा लगा सुशील जी आपसे मिलकर । अब फटाक से अपना वीडियो बनाइये। संतोष जी व्यंग्य की चिंता में और दुबले मत होइए। थोड़ा मस्त रहिये और लिखना शुरू किये और हाँ स्टेटस 'ओनली फॉर मी' वाले मोड की बजाय पब्लिक ऑप्शन वाले लिखा करिये।
अपने बारे में कुछ नहीँ कहेंगे हम। वैसे कहने को मथुरा वाले शर्मा जी कह रहे थे कि फोटो में खूबसूरत नजर आ रहे हैं। इस फोटो को प्रोफाइल पिक्चर बनाइये।
मौज लेने का मौका कोई छोड़ता नहीँ है। 
(साल भर पहले की पोस्ट है। Sushil जी का व्यंग्य उपन्यास अभी पूरा होना है। व्यंग्य संग्रह आ गया। संतोष त्रिवेदी अब धड़धड़ाते हुए किताबघर नहीँ जा पाते। बाकी सब शायद यथावत है।  )

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10211389085056302

आमने-सामने बुराई करके हाजमा दुरुस्त हो जाता है

सिद्धार्थ जी के दफ्तर में बतकही
कल दिल्ली आना हुआ। ठहरने की जगह दरियागंज के पास ही थी सो Sushil Siddharth जी से मिलने गए। उनके केबिन में पहुँचते ही चाय मंगा ली सुशील जी ने। बिस्कुट साथ में। पानी तो खैर पहुँचते ही पिला दिया उन्होंने।

हमने सुशील जी को बताया कि हम जबलपुर से कानपुर आ गए हैं तो सुशील जी ने कहा -'हाँ हमने देखा था। आपने फोटो लगाया था। कई सुंदर महिलाएं आपको छोड़ने आयीं थीं।' मतलब 'सुंदरता' को सुशील जी ध्यान से नोटिस करते हैं। :)

बहुत दिनों से हम सुशील जी से कह रहे थे कि उनको अपने व्यंग्य लेखों के वीडियो बनाने चाहिये। लेकिन उनका कहना था कि उनको बनाना आता नहीं। हमने कहा था कि हम बता देंगे। कल मिलते ही हमने सबसे पहला काम यही किया और सुशील जी का जनसन्देश में छपा सबसे ताजा व्यंग्य लेख रिकार्ड करवाया।जितना किया, बढ़िया रिकार्ड किया। लेकिन इसके बाद उसको 'यू ट्यूब' में रिकार्ड करके बताने को हुए तब तक उनके फोन की बैटरी 'बोल' गयी। पर काम भर की जानकारी हो गयी। अब शायद सुशील जी जल्दी ही अपने व्यंग्य वीडियो अपलोड करना शुरू करें।

Alok Puranik भी कह चुके हैं कि वे व्यंग्य लेख रिकार्ड करेंगे। लेकिन कर नहीँ पाते। समय की कमी सब बड़े लेखकों के पास है। :)
चाय की दुकान पर चिरकुट चिंतन
वैसे कहने को तो

बातचीत के दौरान यह बात हुई कि हम लोग पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के मामले में अक्सर पूर्वाग्रह से प्रभावित होते हैं। जो लेखक मुझे पसंद होते हैं उनकी रचनाओं को हम अच्छी नजर से देखते हैं। उनका लिखे में हम अच्छाई खोज ही लेते हैं। इसका उलट भी सही होता ही होगा।

इस बीच संतोष त्रिवेदी भी धड़धड़ाते हुए पधारे। कोरम पूरा होते ही सुशील जी ने अपने बगल के चैंबर के साथी से फोटो खिंचवाया। जो फोटो अच्छी आईं उनको स्निग्ध भाव से निहारते हुए एक फोटो ऐसी खिंचवाई जिससे लगे कि हम लोग कोई गहन चर्चा कर रहे हों। पर जो फोटो आई उससे साफ़ लग रहा था कि ये चर्चा नहीँ कर रहे, फोटो खिंचा रहे हैं।

सन्तोष त्रिवेदी को जैसे ही फोटो उनके मोबाईल में मिली वैसे ही उन्होंने उसको फेसबुकिया दिया। शीर्षक दिया -'व्यंग्य की तिकड़ी गिरफ्तार।' हमने कहा -'तुमको लिखने में शब्दों का ख्याल रखना चाहिए। अब बताओ गिरफ्तारी दिखाओगे तो गिरफ्तार करने वाला भी तो होगा कोई। वह कहां हैं चर्चा में।' सुशील जी बोले -'ठीक बात।'


कल की फाइनल सेल्फी
सुशील जी जब बोल दिए ठीक बात तो हमने लोहा गरम देखकर एक और हथौड़ा जड़ दिया -'संतोष त्रिवेदी अपने स्टेटस कई बार ऐसे लिखते हैं जैसे वो खुद के लिए लिख रहे हों। 'ओनली फॉर मी' मोड वाले लगते हैं।' सुशील जी फिर बोले -'ठीक बात।' सुशील जी जिस तरह से हमारी बात से सहमत हो रहे थे उससे मन किया और भी खूब सारी खिंचाई कर लें संतोष की, सुशील जी ' ठीक बात ' कहकर समर्थन करेंगे ही लेकिन फिर छोड़ दिए। संतोष भी अपनी खिंचाई के विरोध में डायलॉग बोलने लगे थे।

बतियाते हुए वहां अनुपस्थित लोगों की बुराई, भलाई और खिंचाई शुरू हुई। समय बहुत कम था फिर भी कई मित्रों की खिंचाई कर डाली हम लोगों ने। इस बीच संतोष ने जल्दी-जल्दी कुछ लेखकों के लेखन की बुराई की। बुराई को पक्का रंग देने के लिए यह भी कहा -'आदमी के तौर पर बहुत अच्छे हैं, पहले मैं उनका प्रसंशक था।' मतलब सिद्गान्त की बुराई है यह। उसूल की बात है। कोई जलन वाली बात नहीं।

बात होते-होते दफ्तर का समय हो गया सुशील जी का। हम लोग उनके दफ्तर से उठकर बाहर चाय की दुकान पर आ गए। फुटपाथ की चाय की दुकान पर जमीनी बुराई-भलाई हुईं। सुशील जी ने चाय वाले बच्चे से कहकर बढ़िया फोटो खिंचवाया। सुशील जी को फोटो खिंचवाना अच्छा लगता है। फोटो अच्छा लगता है तो और अच्छा लगता है।

इस बीच सुशील जी ने चर्चा के दौरान कहा कि व्यंग्यकार लोग बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं। संतोष जी ने बताया कि उनको किसने-किसने ब्लाक किया और उन्होंने किसको किया। संतोष ने व्यंग्य लेखन से जुड़ी सरोकारी चिंताओं को जितनी शिद्दत से जाहिर किया उससे लगा कि उनके स्लिम-ट्रिम होने का राज यही है कि वे व्यंग्य की चिंता में दुबले होते रहते हैं।

इस बीच सुशील जी के व्यंग्य संग्रह 'मालिश महापुराण' की समीक्षा की बात चली। हमने कहा -' जितनी समीक्षाएं इस व्यंग्य संग्रह की हुई हैं साल भर में उस लिहाज से तो यह गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में आना चाहिए। लेकिन गिनीज बुक वालों को कोई चिंता ही नहीँ।

संतोष त्रिवेदी के व्यंग्य संग्रह की भी बात चली। संतोष ने उसके खिलाफ कुछ डायलॉग मारा। मेरा मन किया कि उनकी बात का विरोध करें लेकिन कर नहीँ पाये क्योंकि चाय की दुकान पर भजिया के पैसे भी संतोष ने दिए थे। भजिया में नमक मिला था। अब संतोष का नमक खाया था तो विरोध कैसे करते। सहमत हो गए।

सुशील जी ने अपने व्यंग्य उपन्यास के पहले ड्राफ्ट लिख लेने की बात बताई। बड़ा धाँसू उपन्यास होगा ऐसा आभास हुआ बातचीत से। अगला व्यंग्य संग्रह भी आने वाला है जल्द ही।

बातचीत फिर हालिया सम्मान के बहाने व्यंग्य में राजनीति के बारे में हुई। हमारा कहना था कि राजनीति कहां नहीँ है। परसाई जी तो कहते थे कि जो कहता है कि वह राजनीति नहीं करता, वह सबसे बड़ी राजनीति करता है।
वैसे भी व्यंग्य की दुनिया में ले देकर तीन-चार ही संस्थाएं हैं जिनसे जुड़कर लोग आपस में मिल मिला लेते हैं। इनका भी विरोध करके बन्द करा देंगे इनको भी तो क्या मिलना-जुलना होगा। खराब लेखन की आलोचना करने वाले यह भी समझें कि हमारे समय के सबसे अच्छे व्यंग्यकार ज्ञान जी का साल भर में 500 किताबों एक संस्करण मुश्किल से निकलता है। तो जो खराब लिखने वाले हैं चाहे वो सपाटबयानी वाले लेखक हों या सरोकारी हल्ले वाले लेखक वो कम से कम अच्छे लेखक के आने तक मंच तो संभाले हुए हैं। जब अच्छे लेखक आएंगे तो छा जाएंगे।

बातें बहुत सारी हुईं। बातें करते हुए सुशील जी को उनके घर के लिए विदा करते हुए संतोष ने फाइनल सेल्फी ली। इसके बाद हम लोगों ने फिर से एक बार और चाय पी। संतोष ने पानी की बोतल भी ले ली। इस बार पैसे हमने दिए। रास्ते भर संतोष हमें उस बोतल से पानी पिलाते रहे ताकि बोतल से छुट्टी मिले।

आईटीओ से मेट्रो पकड़कर हम जनपथ उतरे। संतोष आगे चले गए।

अच्छा लगता है इस तरह मेल मुलाकात करना। आमने-सामने बुराई करके हाजमा दुरुस्त हो जाता है। तबियत झक्क हो जाती है। चेहरे पर रौनक आ जाती है। 'हंसता हुआ नूरानी' चेहरा वाला गाना याद आ जाता है। मुखमंडल कमल सा खिल जाता है। है कि नहीँ।

बहुत अच्छा लगा सुशील जी आपसे मिलकर । अब फटाक से अपना वीडियो बनाइये। संतोष जी व्यंग्य की चिंता में और दुबले मत होइए। थोड़ा मस्त रहिये और लिखना शुरू किये और हाँ स्टेटस 'ओनली फॉर मी' वाले मोड की बजाय पब्लिक ऑप्शन वाले लिखा करिये।

अपने बारे में कुछ नहीँ कहेंगे हम। वैसे कहने को मथुरा वाले शर्मा जी कह रहे थे कि फोटो में खूबसूरत नजर आ रहे हैं। इस फोटो को प्रोफाइल पिक्चर बनाइये।

मौज लेने का मौका कोई छोड़ता नहीँ है।






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Saturday, May 07, 2016

उठो, चलो, दफ्तर के लिए तैयार हो

कल सुबह जब दफ्तर जा रहे थे तो आगे जाने वाले ऑटो पर लिखा मिला -'जय भोले नाथ की, चिंता नहीं किसी बात की।'

भोलेनाथ की जय के पहले जय माता दी और श्री बाला जी का जयकारा भी लगाया गया था। जिस टेम्पो पर तीन देवी/देवताओं की कृपा हो जाए उसको किस बात की चिंता। कलयुग में तो लोग निर्बल बाबा की कृपा के सहारे निकाल लेते हैं काम।


कल शाम को लौटते समय जरीब चौकी पर रेलवे क्रासिंग बन्द मिली। हम पीछे लग लिए लाइन में। सिपाही भाई ने हमको आगे बढ़ने का इशारा किया। हम बढ़ लिए। लेकिन और आगे जगह नहीं थी तो थम गए। उसने कहा -'आगे बढ़ते काहे नहीं।' हमने कहा-'जगह कहां है? क्रासिंग तो खुले।' 

बाद में पता चला कि उसने यह सोचकर हमसे आगे बढ़ने के लिए कहा था कि हम रावतपुर की तरफ जाएंगे। मेरे पीछे बस खड़ी थी जिसको रावतपुर की तरफ जाना था। उसी को निकालने के लिए सिपाही ने मुझे आगे निकलने को कहा था।

बहरहाल, जब क्रासिंग खुलने में समय लगा तो हमें लगा सिपाही की इच्छा का सम्मान किया जाए। आगे बढ़ लिए यह सोचकर कि गुमटी या मोतीझील क्रासिंग से निकल लेंगे। लेकिन वो क्रासिंग भी बंद मिलीं। फिर रावतपुर गोल चौराहे तक आ गए। वहां तमाम सारी फल की ठेलिया लगीं थीं। उतरकर फल खरीदे। खरबूजा 35 रूपये किलो। दो किलो तौलवा लिए। दो दिन पहले विजय नगर में 50 रूपये किलो खरीद चुके थे खरबूजा। बन्द क्रासिंग के चलते कल 30 रूपये बच गए।

फल खरीदने में बचत के अलावा दूसरा फायदा यह हुआ कि देर से पहुँचने के बावजूद शिकायत नहीं मिली। गृहस्थ जीवन का आजमाया हुआ फंडा है कि जब कभी देरी हो जाए तो थोड़ा देर और करके वो काम करके घर पहुंचा जाए जो आपसे कई दिन से कहा जा रहा था और जिनको आप कई दिनों से कर न पा रहे हों।

इसी फंडे को आगे बढ़ाते हुए कुछ और घर के काम किये गए। प्रेस वाले न कल नाइंसाफी की। हमारे पहुंचने के पहले ही कपड़े हमारे घर देने के लिए निकल चुका था वर्ना वो क्रेडिट भी हमारे खाते में आता।

आज सुबह फिर टहलना स्थगित रहा। बगीचे में पक्षी हल्ला मचाते हुए हमको बुलाते रहे लेकिन हम आराम से उनकी आवाज सुनकर अनसुना करते रहे। लेकिन अब सामने की घड़ी की बात कैसे अनदेखा करें। बता रही है कि उठो, चलो, दफ्तर के लिए तैयार हो।

चलते हैं फ़िलहाल। जल्दी ही मिलते हैं। ठीक न


 

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10208019446137435&set=a.3154374571759.141820.1037033614&type=3&theater

Friday, May 06, 2016

गाड़ी मेरी हेमामालिनी, मैं इसका राजेश खन्ना

गाँव में हैं मेरे खेत, खेत में ऊगा है गन्ना,
गाड़ी मेरी हेमामालिनी, मैं इसका राजेश खन्ना।


कल शाम घर लौटते हुए एक छोटे ट्रक के पीछे यह लिखा दिखा। कालपी रोड पर लौटते समय भीड़ काफी हो जाती है। हरेक को दूसरे से आगे निकलने की जल्दी है। मोटरसाईकल और टेम्पो वाले सबसे हड़बड़ी में रहते हैं। जाम के जहां जरा जगह वहां अपनी गाड़ी अड़ा देते हैं। दो गाड़ियों के बीच की जगह बाइक सवार अपनी गाड़ी घुसा देते हैं। उसके पीछे दूसरे बाइक वाले भी 'महाजनो एन गत: स: पन्था' का सहारा लेकर घुस जाते हैं। दो सीधी रेखाओं को तिर्यक रेखा सरीखा काटते हुए बाइक सवार सड़क की लंबाई में लगे जाम को चौड़ाई में फैलाने का काम करने में यथासम्भव योगदान करते हैं।
खैर यह तो लौटने की बात। शुरुआत सुबह से की जाए। कल जब हम घर से निकलते ही हमारे एस. ए. एफ. के एक साथी पैदल जाते दिखे। हमने गाड़ी रोक कर उनको बैठा लिया। जब हम एस ए एफ में काम करते थे तो उनकी ख्याति एक कर्मठ अधिकारी के रूप में थी। बाद में तबियत बिगड़ गयी और याददास्त गड़बड़ा गयी। अब कुछ सुधरे हैं हाल। लेकिन फिर भी तबियत वैसी नहीं हो पायी जैसी पहले थी।
हमने बैठाकर हाल पूछा। पहचान नहीं पाये मुझे।बताया तो कुछ-कुछ पहचाने। बताया- 'पत्नी रोज छोड़ देती हैं फैक्ट्री। आज उनकी तबियत खराब थी तो पैदल ही जा रहे थे।'
उनको फैक्ट्री गेट पर छोड़ने के बाद सोचते रहे कि आदमी के हाल में कैसे बदलाव आते हैं, कोई नहीं जानता। यह सरकारी सेवाओं का संरक्षण भाव ही है जो ऐसी सेहत के बावजूद ऐसे कामगारों को साथ रखता है। प्राइवेट संस्था होती तो अब तक अंतिम नमस्ते कर चूकी होती।
और कुछ ज्यादा सोचते तब तक दीपा का फोन आ गया जबलपुर से। उसके घर के बाहर लोग रुके हैं, मजदूर गुंडम के, उनके फोन से किया था। बैलेंस नहीं था उनके फोन में। हमने मिलाया। दीपा से बात की।
सुबह पढाई कर रही थी। जो किताबें हमने दी थीं उनको पढ़ रही है। नहाया नहीँ अभी। घड़ी ठीक चल रही है। पूछ रही थी -'कब आओगे हमसे मिलने, ग्वारी घाट कब घूमने चलेंगे।' फिर बोली- 'आंटी से बात कराइये।' बात कराई गयी।
फिर दीपा के पापा से भी बात हुई। दीपा ने कहा--'इसी नंबर पर बात करना। सुबह फोन किया करना।अब रखते हैं।'
दीपा और उसके पापा अभाव में जीते हैं। पर उनके व्यवहार में दैन्य भाव नहीं है। बातचीत में बराबरी का भाव है। अच्छा लगता है यह भाव।
अब चलें दफ्तर की तैयारी करें। आज सुबह हलकी बारिश होने के चलते टहलने नहीँ गए। फेसबुक पर ही टहलते रहे।


https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10208013356025186&set=a.3154374571759.141820.1037033614&type=3&theater

Thursday, May 05, 2016

यहाँ नाम किस लिए लिखवायें



पेड़ों की आड़ में सूरज भाई
जग गए आज भी सुबह पौने पांच बजे। लेकिन उठे नहीं। अलार्म बजने का इंतजार करते रहे। 4 बजकर 59 मिनट का अलार्म लगा है। सोचा नहीं बजेगा तो हड़कायेंगे।

यह हरकत उन वरिष्ठों सरीखी है जो चुपचाप अपने अधीनस्थों की गलती का इन्तजार करते हैं। जहाँ कहीं पकड़ ली गलती वहीँ उसको हड़का दिया या फिर एक सलाह पत्र थमा दिया। लेकिन ऐसे वरिष्ठ यह समझने की भूल करते हैं कि हड़काई या सलाह पत्र से काम बड़ी अच्छे से हो जाते हैं। अच्छे काम के लिए मेरी समझ में अच्छा तालमेल, व्यवहार में पारदर्शिता और परस्पर विश्वास का भाव प्रमुख होता है।


पार्क में बैठकी करते लोग
बहरहाल, अलार्म समय पर बजा। हमें मौका नहीं मिला उसको हड़काने का। उठ गए मजबूरन। चाय बनाई। घरैतिन के साथ पी और साईकल स्टार्ट करके निकल लिए। कानपुर में हमारे बेटे की साईकल रखी है। शायद हमारा ही इन्तजार कर रही थी साईकल। आकर पहला काम साईकल की मरम्मत का किये और निकल लिए।
सूरज भाई गेट पर ही मिल गए। पेड़ों पीछे से सूरज भाई का चेहरा किसी नई नवेली दुल्हन के लाज-लाल चेहरे जैसा सलोना दिख रहा था। हम भी मुस्कराये। सूरज भाई मेरे साथ ही चल दिए। कैरियर पर बैठकर। अनगिनत किरणें साईकल के हैंडल, रिम, पहिये और बाकी जो बचीं हमारे कंधे, चेहरे पर लटककर चल दीं।

एक महिला मेरी साईकल के आगे चली जा रही थी। उसका बायां हाथ भारत में वामपंथ की हलचल सा स्थिर था। दाहिना हाथ दक्षिणपंथी ताकतों सरीखा तेजी से आगे-पीछे हो रहा था। दायें हाथ की तेजी देखकर लगा मानों बाएं हाथ ने अपनी हलचल भी दायें हाथ को समर्पित कर दी हो।


मिसिर जी घर के बाहर अपनी खटिया पर
आगे मैदान में कुछ एक गोल घेरे में खड़े बड़ी तेजी से हंस रहे थे। हल्ला मचा रहे थे। संख्या में 7 थे वे लोग। लगा सूरज भाई ने धरती पर पहुंचकर अपने घोड़ों को खोल दिया हो कहते हुए -'जाओ मस्तिआओ।'

मैदान के आगे हीरक जयंती पार्क है। इसकी फेंसिंग हमारे तत्कालीन वरिष्ठ महाप्रबंधक विज्ञान शंकर जी के समय हुई थी। यहाँ आयुध निर्माणी का हीरक जयंती कार्यक्रम हुआ था। बाद में इसको पार्क के रूप में बनवाने का काम करने में हम लगे थे।

पूरे मैदान को समतल बनाने और पार्क बनाने में अपने साथियों के साथ जुनून से लगे हम लोग। मैदान के बीच में फव्वारा लगवाया। पार्क में झूले लगवाये। दरबान रखा था हम लोगों ने। जमीन यहाँ इतनी सख्त और उबड़-खाबड़ थी कि एक बात जेसीबी का फावड़ा भी टूट गया।

इस पार्क से बहुत लगाव था मुझे। दिन में कम से कम एक बार जरूर देखने जाते थे इसको। कोई झूला अगर टूट गया होता था तो उसको उसी दिन ठीक कराते थे। बहुत लोग आते थे यहाँ सुबह टहलने।

आज देखा कि उस फव्वारे की दीवार पर तमाम लोग गप्पाष्टक कर रहे थे। फव्वारे के लिए पानी की व्यवस्था तो बहुत पहले ख़त्म हो गयी थी। लेकिन हरियाली बची हुई थी तो तमाम लोग वहां मौजूद थे।


4 -4 का क्रिकेट हो रहा है
पार्क के बाहर देखा। लिखा था -हीरक जयंती पार्क का लोकार्पण वरिष्ट महाप्रबंधक सुभाष कुमार शर्मा के कर कमलों से संपन्न हुआ दिनांक 30.04.2006 को। मतलब यह भी एक संयोग कि मेरे पसंदीदा काम में एक यह काम भी 30.04 को हुआ था।

आगे कालोनी में एक जगह कुछ भैंसे इकठ्ठा किये एक आदमी दूध दुह रहा था। तमाम लोग बर्तन लिए अपनी बारी के इन्तजार में खड़े थे। मैदान में आसपास के बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे।

आर्मापुर से बाहर निकलकर हम कल्याणपुर की तरफ बढे। एक आदमी उछल-उछलकर सड़क पर कर रहा था। उसके एक पैर में तकलीफ थी। दूसरा पैर मजबूती से आगे रखता। थोड़ा ठहरता। फिर तकलीफ वाले पैर को झटके से आगे करके कुछ सुस्ताता। इसके बाद फिर अगले कदम के लिए दूसरा पैर उठाता।

कुछ दूर जाकर हम आर्मापुर की तरफ मुड़ गए। एक महिला अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रही थी पैदल। पानी की बोतल महिला के हाथ में थी। उसके पीछे एक आदमी प्लास्टिक बोतल हाथ में लिए , कहीँ खुले में निपटने के लिए, चला जा रहा था। उनको देखकर लगा कि कोई पार्टी मांग कर सकती है-' हर घर में शौचालय हो, घर के पास विद्यालय हो।'

एक लड़की एक गढ़हे के पास इकट्ठा नाले के पानी के पास जमीन से जरा सा ऊपर उठे नल से प्लास्टिक के डब्बों में पानी भर रही थी। बताया सुबह 6 से 8 बजे तक आता है पानी। इसी से घर का सब काम होता है।

आगे एक घर के सामने एक बुजुर्ग खटिया घर के बाहर सड़क पर डाले आराम से बैठे थे। जैसे राजशाही खत्म होने के बाद पुराने राजे-महाराजे अपने सिंहासन पर बैठते होंगे। सफेद बंडी पहने बुजुर्गवार की मच्छरदानी खटिया के बगल में धरी थी।

रास्ता पूछने के बहाने बतियाए। एस. एन. मिश्र नाम है बुजुर्ग का।केफ्को से सन 1999 में रिटायर हुए थे। अब उम्र 82 साल है। बिल्हौर के पास के एक गाँव के रहने वाले। अब यहीं बस गए। घर के बाहर जो नाम लिखे थे उनमे मिसिर जी का नाम नहीं था। हमने पूछा -'ये बनवाया आपने और आपका ही नाम नहीं है।' इस पर हँसते हुए बोले-' अब तो दुनिया से नाम कटने का समय आने वाला है। यहाँ नाम किस लिए लिखवायें।'

मिसिर जी की फोटो दिखाई तो खुश हुए पर बोले -'कम दिखता है आँख से।' ज़ूम करके दिखाए तो बोले-'हाँ, बढ़िया है फोटो।'

गंधाते हुए गंदे नाले को पार कर हम वापस आर्मापुर आ गए। मैदान में बच्चे खेल रहे थे। एक जगह बच्चे टीम बना रहे थे। दूसरी जगह मैच चल रहा था। 4 - 4 ओवर का मैच। ईंट का विकेट। दूसरी तरफ के ईंट के विकेट को अंपायर कुर्सी की तरह बनाकर बैठा था। पहली टीम बैटिंग कर रही थी। स्कोर हुआ था -3 विकेट पर 23 रन।
चौथे ओवर की पहली गेंद को बल्लेबाज ने हिट किया। गेंद थोड़ा मिस्फील्ड हुई। रन आउट का मौका हाथ से निकल गया तो विकेटकीपर ने फील्डर की तरफ देखरेख कहा -'अबे झान्टू।' इसके बाद अगली गेंद के लिए गेंदबाज रनअप पर चला गया।

सुबह स्कूल के लिए बच्चे निकल चुके थे। एक बच्चा तेजी से साईकल से चला जा रहा था। उसका स्कूल बैग करियर से नीचे गिर गया। उसको पता नहीं चला। सामने से आ रहे रिक्शे वाले ने उसको रोका और टोंका। बच्चे ने स्कूल बैग सड़क से उठाकर पीठ पर लादा और चल दिया।

रिक्शा वाले ने हमको नमस्ते किया। हमने उसके हालचाल पूछे। रिक्शा वाला सुबह बच्चों को स्कूल भेजता है। शाम को आर्मापुर बाजार में सब्जी, फल बेंचता है। मेहनत की कमाई करता है।

आगे एक बच्चा हाथ रिक्शा पर चला जा रहा था। हाथ से पैडल चलाते हुए बच्चे के रिक्शे को पीछे से एक आदमी सहारा देते हुए आगे ले जा रहा। शायद पोलियो है बच्चे को।

घर पहुंचकर फिर एक और चाय मिल गयी। कुछ देर बाद निम्बू पानी भी। साथ ही कई हिदायतें भी जल्दी से तैयार होने की।

अब चलते हैं तैयार होने। आप भी मजे से रहिये। बोले तो -'झाड़े रहो कलटटरगंज।'

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