Tuesday, January 15, 2019

किताबें और मेले


सबको पता है कि मेलों का आयोजन मिलने-जुलने, जरूरत का सामान खरीदने-बेचने के अलावा मनोरंजन के लिये होता था। फ़िल्मों के जुड़वां भाई बिछुड़ने के लिये मेले ही आते थे। खरीद-बिक्री, मनोरंजन और मिलने-जुलने का काम आजकल मॉल्स में होने लगा है। इस लिहाज से मेले, मॉल्स के पूर्वज हैं। संयुक्त परिवार टूटने के बाद एकल परिवार की तर्ज पर मेलों की जगह अब मॉल्स ने ले ली है। मॉल्स की चहारदीवारी और मोबाइल के बढ़ते चलन के चलते मॉल्स में जुड़वां भाइयों का बिछुड़ना बन्द सा हो गया है।
पुस्तक मेला में किताबें बिकने के आती हैं। प्रकाशक बड़ी रकम खर्च करके दुकान लगाते हैं। जैसे महिलायें ट्रायल के नाम पर कपड़े पहनकर फ़ोटो खींचकर दुकान से निकल लेती हैं वैसे ही लेखक मेले में आकर किताबें उलटते-पलटते हैं। किताबों के साथ फ़ोटो खिंचाकर वापस रख देते हैं। इसके बाद अपनी किताबों की कम होती बिक्री पर चिंता करते हुये सेमिनार करते हैं।
पुस्तक मेले में प्रकाशक किताबें बेंचने के लिये तरह-तरह के फ़ंडे अपनाते हैं। किताबों के दाम दोगुने से भी अधिक करके आधे से भी कम दाम पर बेंचते हैं। मेला खत्म होते-होते छूट का प्रतिशत बढता जाता है। मेले में लाई हुई किताबें प्रकाशकों के लिये जवान बेटियों सरीखी होती हैं जिनको वह अपने पास से जल्दी से जल्दी विदा कर देना चाहता है।
लेखक भी प्रकाशकों का मुफ़्त का बिक्री एजेंट बन जाता है। मुफ़्त में या फ़िर चाय-नाश्ते के बदले दिन भर अपने जान-पहचान के लोगों को पकड़-पकड़कर किताब खरीदवाता है। किताबों पर ऑटोग्राफ़ देने की खुशी हासिल करने के लिये कई लेखक तो पाठकों को किताब अपनी तरफ़ से सप्रेम भेंट करने से भी नहीं चूकते। अधिकतर प्रकाशक बेचारे उस बंदर की तरह होते हैं जिनके हिस्से लेखक और पाठक रूपी बिल्लियों के हिस्से की रोटियी ही बदी होती हैं।
जैसे शहरों में उचक्के, जेबकतरे मोहल्ले के थाने के आस-पास ही पाये जाते हैं वैसे ही पुस्तक मेले में लेखक भी अपने प्रकाशक की दुकान के आसपास ही मंडराता मिलता है। उसको लगता है पता नहीं कब कौन ऑटोग्राफ़ लेने आ जाये।
जिन लेखकों ने पैसे देकर किताबें छपवाई होती हैं वे बेचारे दुकान के पास ही अपनी किताब की बिक्री की दुआ करते रहते हैं। उनको डर सा लगा रहता है कि दुकान से दूर होने पर दुआ कहीं कबूल न हुई तो कहीं प्रकाशक किताब की छपाई के और पैसे न मांग ले। पैसे देकर किताब छपवाने वाले लेखक के हाल उस मजूर जैसे होते हैं जिनको उनका ठेकेदार बिना मजदूरी के दिहाड़ी पर काम करवाने के बाद उनसे इस बात का कमीशन ऐंठ लेता है कि इस मजदूरी के प्रमाणपत्र के आधार पर तुमको सरकारी नौकरी के पात्र हो जाओगे।
किताबों के धंधे एकमात्र विलेन के रूप में कुख्यात प्रकाशक के लिये हर नया लेखक आशा-आशंका अनिश्चित कोलाज सरीखा होता है। उसके लिये यह अंदाज लगाना मुश्किल होता है कि लेखक उसके लिये हिट साबित होता या फ़्लॉप। इसीलिये प्रकाशक किसी अनजान लेखक पर दांव लगाने में हिचकते हैं। कुछ लोग किताब की बीमा के पैसे के रूप में छपाई का पैसा लेखक से धरवा लेते हैं।
लेखक से किताब छापने के पैसे वसूलकर प्रकाशक मीडिया को बताता है कि सस्ते दाम में पुस्तकें छापकर वह समाज और साहित्य की सेवा कर रहा है। लेखक बेचारा प्रकाशक को अपने पैसे से साहित्य सेवा का श्रेय लूटते देखता रहता है। उसको आशा रहती है कि शायद इस किताब के छपने के बाद वह सफ़ल लेखकों की गिनती में शामिल हो जाये और उसकी अगली किताब बिन पैसे छपे।
मेले में किताबों के लोकार्पण की धूम मची रहती है। पहले दिन से बिकने लगी किताबों का लोकार्पण मेले के पांचवे दिन होता है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे ससुराल में तीन महीने रह चुकी किसी कन्या के फ़ेरे मंडप(लेखक मंच), दूल्हा (लेखक) और पंडित (विमोचनकर्ता) उपलब्ध होते ही करा दिये जायें।
पुस्तक मेले में लोकार्पण की संक्रमण इतना तगड़ा होता है कि मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशक अपनी पत्रिकाओं के विमोचन करवाते हैं। किसी भी विमोचन समारोह में सर्जिकल मुद्रा में घुसकर अपनी पत्रिका को झंडे की तरह फ़हराते हुये विमोचन करा देते हैं। पुस्तक मेला शुरु होते-होते अगर ग्यारह न बजते होते तो शायद दैनिक समाचार पत्र रोज अपने अखबार का विमोचन कराने के बाद ही हॉकर को अखबार वितरण के लिये सौंपते।
मेले में लोकार्पण करने वाले लेखकों की पूछ भी बढ जाती है। मार्गदर्शक मंडल की स्थिति को प्राप्त लेखक की स्थिति-’बूढे भारत में आई फ़िर से नई जवानी थी’ वाली हो जाती है। वह एक स्टॉल से दूसरे स्टॉल लोकार्पण करता घूमता है। प्रकाशक लोकार्पण के मौके पर चाय पीने आई भीड़ को देखते हुये किताब की बिक्री के प्रति थोड़ा आशावान हो जाता है, लेखक भावविभोर होता है। ऐसे में किताबों के कई सुधी पाठक विमोचन के बाद लेखक को बधाई देते हैं। सामने धरी किताबों में से एक को हाथ में लेकर विमोचन मुद्रा में लेखक के साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं। किताब के बारे में बात करते हुये चाय-चुश्कियाते हैं। इसके बाद विमोचन स्थल से तड़ीपार हो जाते हैं। किताबों की चोरी चोरी नहीं कहलाती’ सूत्र वाक्य उसकी हौसला आफ़जाई करता रहता है।
समाज में किताबें पढने की कम होती आदत के बावजूद किताबों की होती बिक्री इस बात का परिचायक है कि किताबों को पसंद करने वाले पाठक अभी भी समाज में हैं। ये पाठक भले ही किताब पढे न लेकिन किताबों को खरीदकर अपने पास रखते हैं। जैसे पुराने जमाने में राजा लोग कहीं भी दौरे पर जाते थे तो वहां से निशानी के तौर पर एक नई रानी उठा लाते थे। लाकर अपने रनिवास में डाल देते थे। किताबों से प्रेम करने वाले पाठक पुस्तक मेला से किताबों खरीदकर लाते रहते हैं। अपनी आलमारियां भरते रहते हैं। किताबें भी अपने पढे जाने के इन्तजार का इन्तजार करती रहती हैं जैसे पुराने जमाने में रनिवासों में राजकाज में डूबे राजा के रनिवास में पधारने के इन्तजार में अपने बाल सफ़ेद करती रहती थीं।
आप गये कि नहीं पुस्तक मेला? कोई किताब खरीदी कि नहीं? बताइये अपने अनुभव किताबों के बारे में।

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Friday, January 11, 2019

धूप की संगत की चाहना




सुबह दफ्तर जाते हुए लोगों को सड़क पर आरामफर्मा देखता हूँ तो मन करता है वहीं ठहर जाऊं। घंटा आध घण्टा धूप की संगत में बिताऊं। किलो दो किलो धूप पचा जाऊं।
लेकिन मनचाहा हमेशा हो कहाँ पाता है। सुबह से शाम दिन तमाम हो जाता है। शाम को लगता है कि दिन कल फिर निकलेगा। सूरज फिर निकलेगा। निकलता भी है लेकिन मुलाकात नहीं हो पाती। पहले किसी न किसी बहाने सामने आ जाते थे। मुस्कराते थे। बतियाते थे। चाय-चुस्कियाते थे। टिपियाते हुए तिड़ी-बिड़ी हो जाते थे।
शायद आजकल सूरज भाई को भी व्यस्त होने का शौक चर्राया हो। लेकिन व्यस्त होने का काम तो निठल्लों का है। उनको व्यस्त होने की क्या जरूरत। अनगिनत काम हैं उनके पास। यह भी हो सकता है कि दिल्ली निकल गए हों पुस्तक मेले में किसी विमोचन में। किताब सीने पर सटाकर फोटो खिंचाने का मन किया हो उनका भी।
हो तो यह भी सकता है कि सूरज भाई के मोहल्ले में भी चुनाव का डंका बजा हो और सूरज भाई भी इस बार चुनाव लड़ने का मूड बना रहे हों।


अच्छा मान लीजिये सूरज भाई के मोहल्ले में चुनाव होने को हों और उनको भाषण देना हो किसी चुनाव सभा मे तो क्या बोलेंगे वे? कल्पना कीजिये। क्या वे अपने यहाँ ताजी हीलियम की सप्लाई की बात करेंगे या फिर बहुत उजले जगह में काम भर के अंधेरे की। हो तो यह भी सकता है कि वे अपने यहां भ्रष्टाचार के खात्मे पर बतियाये। कहे हमारे केंद्र पर लाखों डिग्री का तापमान सतह तक पहुंचते हुए कुछ हजार डिग्री ही रह जाता है। यह अंतर कम करके रहेगें हम।
अभी हम सूरज भाई के भाषण का ड्राफ्ट तैयार कर ही रहे थे कि उन्होंने हल्ला मचाकर हमको बाहर बुला लिया।झल्लाते हुए बोले -'तुम लफ्फाजी कर रहे हो बिस्तर पर बैठे हुए, हम यहाँ सुबह से तुम्हारे यहां के कोहरे के झाड़-झंखाड़ उखाड़ रहे हैं।'
हम सूरज भाई की तारीफ करके अंदर आ गए। काम में लगे हुए इंसान को डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। क्या पता वह अपना काम निपटाने के पहले डिस्टर्ब करने वाले को ही निपटा दे।
अंदर आने के पहले हमने सूरज भाई की एक फोटो खींच ली थी। तारीफ सुनकर वे झल्लाने की जगह मुस्कराने लगे थे। तारीफ इंसान को मुलायम बना देती है।
है कि नहीं?

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Monday, January 07, 2019

घुमक्कड़ी की दिहाड़ी

 


कल देर रात लौटे पुस्तक मेले से। जब तक किस्से सुनाएं जाएं पुस्तक मेले के तब तक अगली किताब का मुखड़ा देखा जाए। किताब आ रही है रुझान प्रकाशन से। किताब लिखी है अनूप शुक्ल ने। इसमें पिछले कुछ सालों में कानपुर की घुमक्कड़ी के किस्से हैं। घुमक्कड़ी से पाया अनुभव ही इस घुमक्कड़ी की कमाई है। इसीलिए हमारी किताब का नाम रखने वाले व्यंग्य पंडित Alok Puranik ने इसका नाम तय किया 'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी।'

नाम तय करने के साथ ही भूमिका भी लिखी है आलोक जी ने और बताया है कि अनूप शुक्ल को वो वृत्तान्तकार किस लिए मानते हैं।
हमेशा की तरह हड़बड़ी ने फाइनल की गई इस किताब का मुखपृष्ठ बनाया है Kush Vaishnav ने। आशा है कि किताब पुस्तक मेला का डेरा तंबू उखड़ने के पहले आ जायेगी विमोचन के लिए।
किताब समर्पित है अपने बचपन से बड़े होने तक के कनपुरिया संगी-साथी Sharad Prakash Agarwal, Jaidev Mukherjee संतोष बाजपेई, Vikas Telang , Ajay Tiwari राजीव मिश्र, अनिल श्रीवास्तव , लक्ष्मी बाजपेयी, ब्रजेश शुक्ल और Rakesh Dwivedi को जिनके साथ जिया समय अपन की जिंदगी की सबसे बड़ी नियामतों में से एक है।
किताब आने तक फिलहाल इतना ही।
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Tuesday, January 01, 2019

नये साल की शुभकामनाएं


नया साल आ ही गया। न पूछा न जांचा। मुंडी उठाकर घुस गया। अठारह की जगह उन्नीस हो गया। नए साल में और कुछ हो या न हो 18 कि जगह 19 लिखने में स्याही बचेगी। दस्तखत करने में नीचे वाला आधा गोला घुमाकर लिखने वाला समय बचेगा। काश कोई बैंक होता जिसमें यह बचा हुआ समय जमा किया जा सकता।
नये साल में संकल्प लेने की और बाकी साल भर उसको पालन न करने की परंपरा है। हम इस परंपरा को तोड़ते हुए बिना किसी तामझाम के नए साल का स्वागत कर रहे हैं। कोई संकल्प लिए बिना नये साल में धंस रहे हैं। आप भी बिना किसी संकल्प के नया साल शुरू करें। हल्के रहेंगे।
जाड़ा बहुत पड़ रहा है। पहन-ओढ़कर रहें। सर्दी से बचाव रखें। सुबह टहलने के शौकीन 'कल्पना विहार' करने की सोच सकते हैं।
नए साल की शुभकामनाएं आप तक पहुंचे। आपकी हम तक पहुंच गईं है। शुभकामनाएं बफे सिस्टम में होती हैं। खुल्ले में पूरी कायनात में धरी होती हैं। जित्ती मन आये ग्रहण कर लें, भेज दें। जिस मित्र-सहेली को जिस घराने की शुभकामनाएं चाहिए वो मुझसे मिली हुई समझें।
आने वाला दिन आज से बेहतर हो। आपकी जिंदगी में खुशियों के क्षण आएं। आप मुस्कराएं, खिलखिलाएं, नए साल की खुशियां मनाएं।
नए साल की बधाइयां। शुभकामनाएं।

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Monday, December 31, 2018

सूरज की मिस्ड कॉल' को वर्ष 2017 का अज्ञेय सम्मान



कल दिनांक 30.12.18 को मुझे मेरी किताब 'सूरज की मिस्ड कॉल' के लिए उप्र हिंदी संस्थान के वर्ष 2017 के यात्रा- वृत्तांत/संस्मरण/रेखाचित्र/डायरी विधा के अंतर्गत सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' नामित पुरस्कार उप्र के माननीय राज्यपाल द्वारा प्रदान किया गया।

पुरस्कार हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार में प्रदान किये गए। 75000/- की धनराशि भी।


'सूरज की मिस्ड कॉल' में पिछले पांच-छह सालों में फेसबुक पर लिखे वृत्तान्त लेखों का संकलन है। इन लेखों को लिखने में अपने पाठक मित्रों की हौसला अफजाई का योगदान रहा। अपने सभी सहृदय पाठक मित्रों को इस मौके पर मन से आभार व्यक्त करता हूँ।


Sunday, December 30, 2018

’सूरज की मिस्ड कॉल’ पर सम्मान


1. हर ऐसी मुहिम पर शक करो, फ़जीहत भरी जानो जिसके लिये नये कपड़े पहनने पड़ें। -मुश्ताक अहमद यूसुफ़ी

         2.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है। - परसाई

’लखनऊ मुहिम’ के लिये तैयार होते हुये युसुफ़ी साहब की बात याद आ गयी। ’लखनऊ मुहिम’ मतलब अपन की किताब ’सूरज की मिस्ड कॉल’ पर उप्र हिन्दी संस्थान द्वारा दिये जा रहे सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ’अज्ञेय’ सम्मान के लिये लखनऊ यात्रा। यह इनाम मुझे रेखाचित्र, संस्मरण और यात्रा विवरण श्रेणी में मिलने की घोषणा हुई है।

युसुफ़ी साहब की बात याद आते ही अपन ने कपड़ों को किसी न किसी बहाने बहाने दायें-बायें कम कर दिया। कोई बड़ा है, कोई आरामदायक नहीं, किसी में प्रेस ठीक नहीं , कोई कसा लगता है आदि-घरानों के बहानों से नये कपड़ों को ठिकाने लगा दिया गया। फ़जीहत की मात्रा कम हो गयी।

नये कपड़े भले न पहनें लेकिन फ़जीहत का शक का एक बार हो गया तो हो गया। इसलिये परसाई जी की बात मानकर घरवालों को तैयार किया गया ’लखनऊ मुहिम’ के लिये। घरैतिन और बड़े साहबजादे इस मुहिम में साथ जाने के लिये तैयार हुये। फ़जीहत का एहसास एक-तिहाई हो गया। फ़िर भी बना तो हुआ ही है।

लखनऊ के मित्रों से गुजारिश है कि बचे रह गये फ़जीहत के एहसास को कम कराने के लिये वे भी हिन्दी संस्थान पहुंचे। सुबह 0230 बजे हिन्दी संस्थान , हजरजगंज, लखनऊ में नामित पुस्तकों पर हिन्दी संस्थान द्वारा घोषित पुरस्कार द्वारा प्रदान किये जायेंगे। किताब के लिये 75000/- रुपये मिलेंगे इनाम में। पुरस्कार की सूचना अपन नामराशि अनूप मणि त्रिपाठी से ३१ अगस्त को मिली थी। संबंधित पोस्ट का लिंक इस लिये लगा रहे हैं ताकि उस पर आई बधाईयों का शुक्रिया अदा कर सकें (https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10215097804211963)

सूरज की मिस्ड कॉल’ अपने सूरज भाई के विविध बिम्बों पर आधारित लिखे लेखों का संकलन है। किताब गये साल आई लेकिन इस किताब का शीर्षक ११ जुलाई, २०१२ को ही तय हो गया था जब अपन ने यह लेख लिखा था।

किताब रुझान पब्लिकेशन से आई। लिंक यह रहा http://rujhaanpublications.com/product/suraj-ki-missed-call/
इस किताब की भूमिका हमारे प्रीतिकर भाई प्रियंकर पालीवाल ने लिखी थी यह कहते हुये - "इस संकलन ‘सूरज का मिस्ड कॉल’ में सूरज के इतने मूड, इतनी क्रियाएं, इतनी मुद्राएं और भंगिमाएं हैं कि आप मुग्ध हो जाएंगे . यहां नदी और ताल पर चमकता सूरज है, ट्रेन और हवाई जहाज में साथ चलता और बतियाता सूरज है, कोहरे की रजाई में दुबका सूरज है, अंधेरे के खिलाफ सर्च वारंट लेकर आता मुस्तैद सूरज है, ड्यूटी कम्प्लीट करने के बाद थका-हारा सूरज है और अपनी बच्चियों यानी किरणों पर वात्सल्य छलकाता पिता सूरज है।

इस सूर्य-संवाद की भाषा शास्त्रीय नहीं, समकालीन है. बहती हुई, बोलती हुई हिंदी . वैसी ही हिंदी ,जैसी आज-कल सूरज के तमाम ‘क्लाइंट्स’ की है . यह कहना बड़ा मुश्किल है कि इस संकलन में सूरज अनूप शुक्ल की आंख से दुनिया देख रहा है या अनूप शुक्ल सूरज की आंख से। यह सूरज दरअसल लेखक का आत्मरूप है।"

इस मौके पर मैं अपने सभी पाठक मित्रों का आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने इस किताब में शामिल लेखों को पढते हुये हमारी हौसला आफ़जाई की। कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन अब निकलना भी है लखनऊ के लिये इसलिये इतना ही। आप भी पहुंचिये हिन्दी संस्थान, लखनऊ। फ़ोटूबाजी और चायचर्चा के लिये।

Tuesday, November 20, 2018

सपने में सांड



मुश्किल है। अब सपने में भी आदमी नहीं दिखते। हर तरफ आदमी का अकाल चल रहा है। दिखते ही नहीं। दो दिन पहले सपने में कुत्ता काट गया। अभी उससे उबरे भी नहीं थे कि कल दो सांड दिखे सपने में।

सांड का सपना सुनाने के पहले आपको बताएं पहले हमको सपने में इम्तहान और बस स्टैंड/रेलवे स्टेशन दिखता था। दिखता था कि इम्तहान आने वाले हैं, तैयारी हुई नहीं है। बस/ट्रेन का समय हो गया है और स्टेशन पहुंच नहीं पा रहे। भटक रहे हैं।

हमारे पहले के सपने शायद तमाम अधूरे पड़े कामों के चलते आते हों। काम बाकी हैं, हो नहीं रहे हैं। सपने में आकर वे मुंडी खटखटाते हों, हमको कब हिल्ले लगाओगे। काम पूरे न होने के पीछे के पीछे कारण शायद अतिआत्मविश्वास रहता हो कि हो जाएगा, कौन प्रलय आ रही है। वो शेर है न :
मैं जिंदगी पर बहुत इतवार करता था
इसी लिए सफर न कभी शुमार करता था।
शेर याद से लिखा। शायद कुछ गड़बड़ हो। मतलब यही है कि हमको जिंदगी पर इतना भरोसा था कि कोई काम शुरू ही नहीं करते थे।

हां तो हम सपने में सांड के बारे में बता रहे। यह बात गद्य में बता रहे हैं। कविता लिखते तो 'सपन-सांड' से शूरु करते। अनुप्रास अलंकार आ जाता। अलंकार की दर्शनीय छटा आ जाती। कविता शुरू होते ही खूबसूरत हो जाती। कविता में खूबसूरती आसानी से आ जाती है। इसीलिए लोग कविता ज्यादा लिखते हैं। ख़ूबसूरती की आड़ में तमाम बदसूरती खपाते हैं।

हां तो सपने में जो सांड दिखे वे बीच सड़क पर एक दूसरे से भिड़े हुए थे। सींग भिड़ा रहे थे, ऊपर उछलकर टांगे लड़ा रहे थे। सींग भिड़ते तो देख चुके हैं पहले भी लेकिन टांगे उछालकर लड़ते सांड पहली बार दिखे। ऐसा लग रहा था कि कोई फाइटर डायरेक्टर इनको निर्देशित कर रहा है । स्टंट सिखा रहा है- 'ऐसे लड़ बे, इफेक्ट आएगा।' लड़ाई में इफेक्ट न आये तो बेकार।

सांड लड़ते देख हम डर रहे थे कि आपस में लड़ते हुए वो हम पर न आ गिरे। हमको न धकिया दें। उनके तो धक्के से ही हमारा काम हो जाएगा। वो तो शुक्र मनाये कि सपना ज्यादा देर चला नहीं। सांड लड़ते रहे, सपना खत्म हो गया। लगता है हमारे 'सपना- मन' में भी हमारी आदतें आ गयी हैं। टीवी पर कोई प्रवक्ता लड़ता देखते ही हम चैनल बदल देते हैं। सपने में भी आदत बरकरार रही। सांड भिड़ंत देखी, सपना स्विच ऑफ कर दिया।

हमने तो सपना स्विच ऑफ कर दिया। लेकिन क्या पता बाद में दोनों सांड एक ही थान पर खड़े दिखते। दोनों को लड़ाने वाला स्टंट मैन दोनों की पीठ सहलाते हुए कहता-'बहुत अच्छा लड़े तुम दोनों। गुड इफेक्ट, ग्रेट ब्वायज।'

शायद दोनों सांड जुगाली करते हुये पूंछ हिलाकर उसको आंखों ही आंखों धन्यवाद बोलते।

सपने का मतलब बताया जाए। वैसे हमारे एक मित्र जिनकी सब खिल्ली उड़ाते हैं ने बताया कि यह आने वाले समय में चुनाव का सीन है। सांड आपस में लड़ते राजनीतिक दलों का प्रतीक हैं जिनसे बाजार तरह तरह के स्टंट करवा रहा है। तुम उसमें आम जनता के प्रतीक हो जो उनकी लड़ाई से भयभीत हो। कहने का मतलब जनता चुनाव से डरी हुई है।

हमने मित्र की बात की बेवकूफी की बात कहकर उड़ा दिया। दफ्तर चल दिये।

रास्ते में एक घोड़ा दिखा। बोझ के कारण बेचारा सड़क पर बैठ गया। दुष्यंत कुमार का शेर लागू नहीं होता जानवरों पर वरना सुना देता :
"मैं सजदे में शामिल नहीं था, धोखा हुआ होगा,
ये जिश्म बोझ से दोहरा हुआ होगा।"

बहरहाल घोड़े ने बीच सड़क अपने ऊपर लदे वजन से समर्थन वापस ले लिया। तांगे की सरकार बीच सड़क बैठ गयी। बाद में घोड़े को सहला, फुसला और जोर लगाकर खड़ा किया गया। घोड़ा अनमने मन से उठा और बेमन से चल दिया।

हम चुपचाप कार में बैठे घोड़े का गिरना, उठना और चल देना देखते रहे। बाद में फ़ोटो खींच लिए। आम नागरिकों की तरह हरकत किये जो सड़क पर सब कुछ होता देखता है । कुछ बोलता नहीं है। डरता है कि बोला तो निपटा दिया जाएगा। निपट जाएगा।

इसकी व्याख्या क्या करें। आप खुद समझिए। आप खुद समझदार हैं। आप देश की जनता हैं। जनता को समझदार होना लाजिमी है।


Saturday, November 17, 2018

शराफत का लालच


अठारह रुपये की चाय। बताओ भला।
सबसे पहले बाहर की चाय पीना शुरु किये थे 1981 में। इलाहाबाद में। 30 पैसे की एक चाय। कल बनारसी टी स्टॉल वाले ने 18 रुपये धरा लिए। 37 साल में 60 गुनी मंहगी हो गयी है चाय। मोटा मोटी हर साल क़ीमत दोगुनी हो रही।
लेकिन यह तो बनारसी टी स्टॉल की बात हुई।
शहर में अभी भी कई जगह 5 रुपये की एक चाय मिलती है। उतना भी मिलती तो कई जगह 100 रुपये की भी है। उससे तुलना करेंगे तो समझ लो आग ही लग जायेगी।
कहने का मतलब चाय के दाम के दाम सही में कितने बढ़े इस पर कुछ कहना मुश्किल काम है। हर अखबार अपने हिसाब से अलग दलों की सरकार बनने वाले सर्वे दिखाता है वैसे ही चाय के दाम दुकान के हिसाब से बदलते हैं।
बनारसी टी स्टॉल पहले मोतीझील के पास था। सुनते हैं सेल्स टैक्स वालों से कुछ लफड़ा हो गया , शायद लेनदेन में। वह दुकान अंततः बन्द हो गई। लब्बोलुआब यह निकला कि सरकारी मशीनरी से पंगा नहीं लेना चाहिए।
लेकिन बाद में अस्सी फ़ीट रोड पर दुकान खुली। एक जगह और भी खुली। एक कि जगह दो दुकान हो गईं। इसका लब्बोलुआब यह निकला कि बढ़ोत्तरी के लिए पंगा फायदेमंद होता है।
अब आगे पीछे दो लब्बो लुआब हो गए। दोनों में कौन ज्यादा फायदेमंद है यह कहना मुश्किल। आप जिसको ठीक समझें ग्रहण कर लें। हम किसी की गारंटी नहीं लेते। वैसे भी फैशन के दौर में गारंटी की बात करना बेवकूफी की बात है। करनी नहीं चाहिए लेकिन अब तो सबको पता चल गया कि बेवकूफी का सौंदर्य अद्भुत होता है इसलिए अगर कर भी ली गारंटी की बाद फैशन के दौर में गारंटी की बात तो कोई आफत नहीं आ जायेगी।
चलते चलते सोचते हैं कि व्यंग्य की कोई बात कर डालें। बात बहुत ऊंची सोची थी कहने के लिए लेकिन फिर याद आया कि सुरक्षा मानकों के हिसाब से 3 फ़ीट से ऊपर काम करने के पहले संरक्षा उपकरण का इस्तेमाल करना चाहिए। सुरक्षा अधिकारी की अनुमति ले लेनी चाहिए। अब सुबह-सुबह यह सारा तामझाम कहाँ से किया जाए।
व्यंग्य के बारे में ऊंची बात कहने में सुरक्षा का तामझाम की बात तो हमने ऐसे ही कही। असल बात यह है कि कल आलोक पुराणिक ने टेढ़ी बात कहते हुए कहा -'व्यंग्यकार मूलतः हरामी होता है।'
आलोक पुराणिक अक्सर मंचीय मजबूरी के चलते साथ में मौजूद व्यंग्यकारों को ऊंचा व्यंग्यकार बताते हैं। लोगों को खुश होने की बजाय समझना चाहिए कि वे मूलतः उनके बारे में कह क्या रहे हैं। हमारे प्रति आलोक पुराणिक का खालिश प्रेम भी देखिए कि उन्होंने हमको कभी व्यंग्यकार नहीं कहा , हमेशा वृत्तान्तकार कहा।
लेकिन अब मान लो हम व्यंग्य के बारे में कोई ऊंची बात कह डालें तो हमको कुछ लोग जो शरीफ माने भले न लेकिन लिहाज के मारे कहते हैं उनको बड़ा खराब लगेगा। उनको कष्ट होगा कि जो बात उनकी समझ में सिर्फ उनको पता थी वह वास्तव में सबको पता है।
ये मुआ शराफत का लालच हमको ऊंचा व्यंग्यकार बनने से रोकता है।

Monday, November 12, 2018

लेखन एक संजीवनी की तरह है

समय को पहचानिये। खराब समय को बदलिए। खराब हालत बहुत दिन तक हम पर हावी न हो सकें हमें यह देखना होगा। उसके लिये मेहनत करनी होगी। वक्त को नजरअंदाज मत कीजिये। नजर अंदाज करेंगे तो वक्त आपको छोड़कर आगे चला जायेगा। उसके बाद वक्त आपका होगा या नहीं , अच्छा होगा या बुरा , यह कहा नहीं जा सकता।
ये बातें कल प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर जी ने कथाकार गीतांजलि श्री Geetanjali Shree के उपन्यास ’रेत समाधि’ पर हुई चर्चा के अवसर पर अध्यक्षीय संबोधन देते हुई कही। चर्चा मर्चेन्ट चेम्बर हाल में हुई।
चर्चा का समय साढे तीन था। हम ठीक समय पर पहुंच गये। वहां अमरीक सिंह दीप, अनीता मिश्रा और अन्य कुछ लोग आ गये थे। कम लोग लगे। लगा कि ज्यादा लोग आयेंगे नहीं। अनीता मिश्रा को संचालन करना था। हमने उनसे किताब के बारे में पूछा तो उन्होंने पर्चा आउट करने से मना किया लेकिन सार संक्षेप बता दिया कि इस उपन्यास में लड़की और उसकी मां की कहानी के जरिये आज के समय पर बात की गई है।
हमने वहीं हाल के मौजूद स्टॉल से किताब खरीद ली। राजकमल की पुस्तक मित्र योजना का हवाला देकर २५% छूट सहित। साथ में गीतांजलि श्री जी की अन्य किताबें माई और प्रतिनिधि कहानियां भी लीं। ३७६ पेज का उपन्यास ’रेत समाधि’ २९९ रुपये का है। ९९ मतलब बाटा प्राइस। छूट मिलाकर २२४ का पड़ा।
कुछ देर में हाल भर गया। सभा के अध्यक्ष गिरिराज किशोर जी आ गये। उनका कस्तूरबा गांधी पर लिखा उपन्यास हाल ही में कानपुर विश्वविद्यालय के पाढ्यक्रम में शामिल किया है। कथाकार राजेन्द्र राव जी भी आ गये। धीरे-धीरे करके हाल भर गया। नीलाम्बर कौशिक जी भी आये। करेंट बुक डिपो के अनिल खेतान जी ने मुझे इस कार्यक्रम की जानकारी दी थी वे भी आ गये। कुछ देर में गीतांजलि श्री जी भी आईं। हमने राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी जी की कलम उधार लेकर गीतांजलि श्री जी के ऑटोग्राफ़ ले लिये।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुये अनीता मिश्रा ने गीतांजलि श्री के बारे में बताते हुये किताब का संक्षिप्त परिचय देते हुये अशोक माहेश्वरी जी को आमंत्रित किया। अशोक जी ने राजकमल प्रकाशन का परिचय देते हुये बताया कि इसकी स्थापना के ७० साल होने वाले हैं। गीतांजलि श्री जी के लेखन के बारे में भी बात करते हुये उन्होंने कहा – ’उनकी सिग्नेचर टोन एक अजीब तरह का फ़क्कड़पन, एक अजीब तरह की दार्शनिकता, एक अजीब तरह की भाषा और एक अजीब तरह की रवानी। लेकिन ये सारी अजीबियतें ही उनके कलाकार को व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। यहां सब परम्परा से हटकर भी है और परम्परा में समाहित भी।’
उपन्यास पर बात करने के लिये सबसे पहले दिनेश प्रियमन जी को बुलाया गया। अपनी साफ़गोई का ठीकरा अपने शहर पर फ़ोड़ते यह कहते शुरुआत की – ’ उन्नाव का आदमी हूं इसलिये साफ़ बात कहता हूं।’
आगे अपनी बात कहते दिनेश प्रियमन जी ने कहा- “यह थोड़ा ऊब का उपन्यास है। आज समय कम है। जिस कथा भूमि को लेकर गीतांजलि जी ने उपन्यास लिखा है उसका फलक बहुत व्यापक है। इसने स्त्री विमर्श की नई खिड़कियां खोलता है। यह उपन्यास एक अफसर परिवार की विधवा की कहानी है। मैंने उनका उपन्यास माई नहीं पढ़ा अतः कह नहीं सकता कि उससे यह कैसे रिलेट करता है। इसमें आज का बाजारवाद, भूमंडलीकरण दार्शनिक तरीके से चित्रित हुआ है।
शुरुआत में मुझे लगा कि क्या निराला की किसी कविता से ली गयी पंक्ति है। उपन्यास का शीर्षक पढ़कर निराला की कविता पंक्ति याद आई:
स्नेह निर्झर झर गया है
रेत ज्यों तन रह गया है।
मुझे प्रो जीडी अग्रवाल भी याद आये। रेत समाधि से उनका निधन भी याद आया। उन्होंने 112 दिन उपवास करके देह त्यागी। अपने समय की बात कहता हुआ आने वाले समय का संकेत देता है ’रेत समाधि’। भविष्योन्मुख है यह उपन्यास।
भाषा और शब्द संयोजन में बहुत तोड़ फोड़ की है गीतांजलि जी ने। हिंदी पट्टी के अनेक भूल से गये शब्द तद्भव रूप में दिखते हैं। भूले बिसरे शब्दों को जीवित किया है।
चीजों की नई प्रस्तुति इस उपन्यास की उपलब्धि है।“
दिनेश प्रियमन जी के बाद दया दीक्षित जी ने अपनी बात कही। उन्होंने उपन्यास के प्रकाशन के लिये राजकमल प्रकाशन के प्रकाशकीय विवेक को सलाम करते हुये बात की शुरुआत की।
दया जी ने अपना लिखा हुआ वक्तव्य पढते हुये कहा-
“इस कायनात में अनेक नेमतें अपनी विशेषताओं के साथ विद्यमान हैं। लेकिन विडंबना है कि सभी विशेषतायें हरेक को एक तरीके से नहीं प्रभवित कर सकती। सब पर अलग-अलग प्रभाव छोड़ती हैं।
यह बहुपाठीय उपन्यास है। लेखिका ने यह सुविधा प्रदान की है कि अपने हिसाब से हम इसका पाठ कर सकते हैं।
इसकी भाषा विलक्षण है। शब्दों की प्रयोग शीलता ऐसी है जिनमें आकर्षण भी हैं, विकर्षण भी है।
सफ़ल लेखक वह है जो अपने लेखन के माध्यम से समकालीन समस्याओं को उठाये। गीतांजलि इसमें पूर्णत: सफल हैं।
प्रेम का उद्दात स्वरूप इस उपन्यास का प्राणाधार है।“
खान अहमद फारुख साहब ने अपनी बात कहते हुये कहा- “जब बहुत बुरा वक्त आता है तो बशारतें (खुशखबरी) आती हैं। बुरे वक्त के लिए यह उपन्यास बशारत है।“
आगे खुलासा करते हुये फ़ारुख साहब ने कहा –“ यह उपन्यास मुश्किल है यह अफवाह मेरी ही उड़ाई हुई है। गीतांजलि का उपन्यास माई मैंने उर्दू में पढ़ लिया था।
इंतजार हुसैन ने माई का द्विवाचा उन्होंने किया है। सरहद की दोनों तरफ गीतांजलि उतनी ही पापुलर है।
माई से जोड़कर मैंने इसे पढ़ना शुरू किया। लगा कि माई की रूह उपन्यास में आ गई है।
कहानियां कभी मरती नहीं। बड़ी ढीठ होती हैं। सबने इस नेवले की कहानी सुनी होगी जिसके मुंह में खून देखकर उसके मालिक ने यह सोचकर उसे मार दिया कि उसने उसके बेटे को मार दिया है जबकि वह नेवला सांप से बेटे को बचाने के लिए उसको मार दिया है। दुनिया की तमाम भाषाओं में यह अलग अलग तरह से पढ़ी गयी है।
इस उपन्यास की खासियत है कि यह लाउड नहीं है। सहज है। इस उपन्यास की इस समय बहुत जरूरत थी। मोहब्बत की कहानी है यह उपन्यास।
जब बहुत बुरा वक्त आता है तो बसारत भी होती हैं। बुरे वक्त के लिए यह उपन्यास बसारत है। “
फ़ारुख साहब के बाद कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी जी ने उपन्यास के बारे में अपनी राय रखी।
उन्होंने बताया कि उनका वक्तव्य पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान का है। युध्द भूमि में लड़ते सैनिक का बयान। उन्होंने बताया कि इस उपन्यास पर लिखने वाले लेख का शीर्षक होगा - 'हद सरहद के आईना खाने में' ।
उपन्यास की दुरुहता पर किसी आलोचक को उद्दरित किया –’शेक्सपियर ने दस शक्तिशाली लगातार वाक्य कहीं नहीं लिखे।’
पाब्लो पिकासो के हवाले से कहा – ’दुनिया ही बेमतलब है।’
उपन्यास पर बात करते हुये पंकज चतुर्वेदी ने कहा – “मतलब भर की कविता के श्रेष्ठ अंश इस उपन्यास में मिले।
यह बहुत सारी विधाओं का संश्लेषण है। इसमें इतिहास है, दार्शनिकता है, संस्मरण है।
आज भारत का मध्यवर्ग आक्रामक है, मदमस्त है, तमाम समस्याओं की अनदेखी देखी करके मेरा भारत महान का नारा लगाने में लगे है।
जिसके ऊपर बीत रही है उसकी कथा कहने वाला उपन्यास है।
वामपंथियों की विफलता रही कि वे अपने समाज को शिक्षित कर पाए। आम लोगों को कहिये की फासीवाद आ गया तो लोग समझेंगे की कोई त्योहार आ गया है।
उपन्यास में ठहराव है, भुलभुलैयापन है, इसमें गद्य कब कविता हो जाये और कविता कब लौट आए कह नहीं सकते।
आप इसे कहीं से भी पढ़ सकते हैं। कहीं खत्म कर सकते हैं। पूरा पढ़कर भी लगेगा कि अधूरा है। आधा पढ़कर भी लग सकता है अधूरा है।
राजेन्द्र यादव की आत्मकथा मुड़ मुड़ कर देखता हूँ की तर्ज पर इस उपन्यास के बारे में कहा जा सकता है – ’रुक रुक कर देखता हूँ।'
उपन्यास में उन कई लेखकों के नाम हैं जिन्होंने विभाजन की त्रासदी पर लिखा है। विभाजन की त्रासदी पर उन्ही लोगों ने लिखा जिन्होंने इसे सबसे ज्यादा भोगा है। लेकिन कुछ नाम छूट भी गये हैं जैसे –’अज्ञेय, यशपाल आदि।’
पंकज जी ने उपन्यास के कुछ अंश भी पढे। ’ हर कहानी होती ही है पार्टीशन स्टोरी।’- यह एक समुद्र जैसा वाक्य है जिसमे मेरे जैसा पाठक बहुत दिन तक उतराता रहेगा।
राजेन्द्र राव जी ने उपन्यास पर अपनी राय जाहिर करते हुये कहा-’ यह उपन्यास अद्भुत है, अलग है, मुश्किल है। कोई जरूरी भी नहीं कि कोई उपन्यास चन्द्रकान्ता की तरह आसान लगे।’
उन्होंने आगे आह्वान किया –’ पढने में भी मेहनत करनी चाहिये। पढिये कसरत कीजिये। पहलवान की तरह। पढिये इसे। आनन्द उठाइये।’
प्रियंवद जी के आने तक समय काफ़ी हो चुका था। उन्होंने अपनी बात की शुरुआत इस शुरुआत इस शेर से की
’कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई ।’
उपन्यास के शिल्प पर बात करते हुये प्रियंवद जी ने कहा-’भाषा के स्तर पर इस उपन्यास के पहले भी बहुत प्रयोग हो चुके। जेम्स जायस ने लिख है - शब्द सब कुछ कह सकते हैं।’
कृष्ण वलदेव वैद्य के उपन्यास ’नर नारी’ में भी कोई पूर्णविराम नहीं है। जब कोई सोचता है तो वह व्याकरण में नहीं सोचता। कामा फूल स्टॉप में नहीं सोचता।
पंकज चतुर्वेदी की बात ’ विभाजन पर उन्होंने लिखा जिन्होंने भोगा’ पर सवाल उठाते हुये प्रियंवद जी ने पूछा –’ गंगा जमुनी सभ्यता पट्टी के लोगों ने क्यों नहीं लिखा विभाजन। निराला, महादेवी और अन्य के यहां यह त्रासदी कहां है? किसने लिखा है इस बारे में बताइये आप ? आप तो अध्यापक हैं।
पंकज चतुर्वेदी जी ने यह कहते हुये अपना पल्ला झाड़ लिया – ’अध्यापक सबसे मूर्ख होते हैं।’
लेकिन प्रियंवद जी ने इस पर अपनी राय रखते हुये कहा-’हिंदी पट्टी का आदमी हमेशा से साम्प्रदायिक सोच का रहा है इसीलिए यहां के लोगों ने विभाजन पर नहीं लिखा। आप तब भी साम्प्रदायिक थे, आज भी साम्प्रदायिक हैं।’
आगे अपनी बात कहते हुये उन्होंने कहा-’ किसी दूसरे की रचना पर हम कैसे टिप्पणी कर सकते हैं। लिख जाने के बाद उस पर हम बोलें यह ठीक नहीं लगता। ’
इसके बाद गीतांजलि श्री जी ने अपनी बात कही। उन्होने चर्चा पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये कहा – ’मैं सन्नाटे में हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या कहूं?’
गिरिराज किशोर जी से अपने जुड़ाव की बात करते हुये गीतांजलि जी ने बताया-’ पहला गिरमिटिया पढ़कर मेरे पिताजी जिगर से लगाये घूमते थे। उन्होंने उसे न जाने कितनी बार पढ़ा। वे ऊबे हुए थे। जब भी मन करता पढने लगते। बार-बार पढते।
बाद में मेरी माँ ने बा पढा। वे उसी तरह उससे जुड़ी जिस तरह पिताजी पहला गिरमिटिया से जुड़े थे।
अपने उपन्यास के बारे में बात करते हुये गीतांजली श्री ने कहा- ’छह सात साल लग चुके इसे लिखे। जब इतना डूबकर लिख चुके होते हैं तो कुछ इम्यून से हो जाते हैं। अलग से हो जाते हैं। समझ नही आता कि कैसे इसे ग्रहण किया जाए। ऐसे आयोजनों की उपलब्धि है कि संवाद बनता है। आप सबने मेरी किताब को पुर्नजीवन दिया है। यह एक विनम्र अनुभव है। यही कहकर अपनी बात खत्म करती हूँ।
अपनी बात खत्म करने के बाद गीतांजलि श्री जी ने उपन्यास के एक अंश का पाठ किया।
गिरिराज किशोर जी ने अपने संबोधन में गीतांजली श्री का अपने पिताजी से जुड़ी यादें साझा करने के लिये आभार व्यक्त करते हुये कहा –’यह मेरे लिये सुखद अनुभूति है कि मेरी रचना से कोई इस कदर जुड़ाव महसूस करे।’
उन्होंने गीतांजलि श्री जी के पिताजी के साथ की यादें साझा करते हुये करते बताया- ’चालीस साल पहले वो मेरे बॉस थे। हम साथ बैठते थे। वे अच्छे लेखक थे।’
गिरिराज जी ने अपनी बात कहते हुये कहा-“रचना होने के बाद वह उससे बाहर हो जाता है। वह खूब डूबकर लिखता है। उसके बाद बाहर हो जाता है। हो जाना चाहिए।
लेखन एक संजीवनी की तरह है। रचना लिखना बच्चों को पालना जैसा है।
आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या अपने समय को जीने की है। इतनी घटनाएं हो रही हैं, इन पर कैसे लिखें लेखक को समझ नहीं आ रहा। हमारी बात दूर दूर तक कैसे पहुंचे यह सोचना होगा।
अगर लेखक डरता है तो लिख भी नहीं सकता ।
गीतांजली की कहानियां मैंने पढ़ी हैं। उनमें भी वही सम्वेदना है जिसका जिक्र उपन्यास में हुआ है।
आज समय कठिन है। लेकिन कुछ रोशनी बची हुई है। हमको पहले से संम्भलना होगा। अभी उतना अंधियारा नही हुआ। कुछ किरणें बाकी हैं। हमें अपने समय को पहचानना होगा।
आज राजनीति में बहुत गड़बड़ है। जिस भाषा में वे राजनीतिज्ञ संवाद करते हैं उससे साफ लगता है कि उनको जनता से कोई मतलब नहीं। वे अपने मतलब के लिए जनता का उपयोग करते हैं।
हमारी आवाजें उन तक नहीं पहुंचती जहां तक पहुंचनी चाहिए। आज पाठ्यक्रम सरकारें तय कर रही हैं।
समय को पहचानिये। खराब समय को बदलिए। खराब हालत बहुत दिन तक हम पर हावी न हो सकें हमें यह देखना होगा। उसके लिये मेहनत करनी होगी।
वक्त को नजरअंदाज मत कीजिये। नजर अंदाज करेंगे तो वक्त आपको छोड़कर आगे चला जायेगा। उसके बाद वक्त आपका होगा या नहीं यह कहा नहीं जा सकता।“
अध्यक्षीय संबोधन के बाद अनीता मिश्रा सभी को धन्यवाद किया। बोलते रहने का आह्वान भी कर दिया यह कहते हुये –’बोल कि लब आजाद हैं तेरे।’
इस तरह एक खूबसूरत शाम रही। किताब की चर्चा उससे किस कदर जोड़ती है हमको इसका एहसास हुआ। इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिये। हों तो उनमें जाते रहना चाहिये। जिन्दगी को नया एहसास मिलता है। संजीवनी मिलती है।

Wednesday, November 07, 2018

त्योहार बाजार की गोद में बैठकर आता है


कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा झालर बनाने में लग गया। कूदते हुए कहीं चोट लग जाये तो कौन जिम्मेदार होगा। बालश्रम का सरासर उल्लंघन है यह कानून।
दीपावली एक बार फ़िर आ गई ! पूरे फ़ौज फ़ाटे के साथ आई है। साथ में बाजार को लाई है। आजकल हर त्योहार बाजार के साथ ही आता है। हर त्योहार का बाजार से गठबंधन हो रखा है।
जैसे लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों ने चैनल , अखबार खरीद रखे हैं वैसे ही बाजार ने त्योहार खरीद लिये हैं।
त्योहार आजकल बाजार पर पूरी तरह आश्रित हो गये हैं। उसने अपनी सारी ताकत बाजार को सौंप दी है।त्योहार बिना बाजार के आने से डरता है। उसको लगता है कि बाजार के बिना उसको कोई पूछेगा नहीं। आजकल त्योहार बाजार की गोद में बैठकर आता है। सारे त्योहार बाजार-बालक सरीखे हो गये हैं। लोकतंत्र में सरकारें कारपोरेट के इशारे पर नाचती हैं। त्योहार बाजार की धुन पर थिरकते हैं।
जैसे बिना पैसे चुनाव नहीं लड़े जाते वैसे ही बिना बाजार त्योहार नहीं मनता। बिन बाजार त्योहार है सून।
राजा महाराजाओं की सवारी निकलती थी तो सबसे पहले हरकारे हल्ला मचाते हुये निकलते होंगे - ’होशियार, खबरदार, शहंशाहों के शहंशाह, बादशाहों के बादशाह जिल्लेइलाही, महाराज पधार रहे हैं।’
बाजार आज का बादशाह है। शहंशाहों का शहंशाह है। जिल्लेइलाही है । महाराज है। हर त्योहार पर उसकी सवारी निकलती है। अपना जलवा देखने के लिये वह निकलता है। जहां-जहां से उसकी सवारी निकलती है , वहां-वहां रोशनी की बौछार हो जाती है। उसके रास्ते की हर सड़क चमक जाती है।
लोकतंत्र में मंत्रियों के दौरे की सूचना के पोस्टरों से शहर पट जाते हैं। त्योहारों पर बाजार का दौरे होते हैं। इसकी सूचना हर आम और खास को शुभकामना संदेशों के जरिये दी जाती है। त्योहारों पर दिये जाने वाले शुभकामना संदेश बाजार के हरकारे होते हैं। वे घोषणा करते हैं-’ होशियार, खबरदार, शहंशाहों के शहंशाह, जिल्लेइलाही बाजार जी पधार रहे हैं।’
शुभकामना संदेश आपको त्योहार के मौके पर लुटने के लिये तैयार करते हैं। संदेश पाकर आप खुशी से उत्तेजित हो जाते हैं। इन्ही उत्तेजना के क्षणों में बाजार आपसे मनमानी करता है। आपको लूट लेता है। लूटकर फ़ूट लेता है। आप लुटने के बाद ’मीटू’ घराने की शिकायत भी नहीं कर सकते। करेंगे भी तो बाजार यह कहकर बच जायेगा-’ये सहमति से बने संबंध थे।’
शुभकामना संदेश भी बाजार अपने हिसाब से बनवाता है। इस बार जो संदेश टहल रहे हैं उनमें से एक में एक नल से गिन्नियां निकल रही हैं। सारी गिन्नियां हाथ में समाती जा रही हैं। बगल में कमल खिला हुआ है। मतलब कमल देख रहा है, नल से गिन्नियां निकल रही हैं। किसी अनजाने के हाथ में समाती जा रही हैं। हाथ हिल तक नहीं रहा है। निठल्ला है। बिना मेहनत की कमाई निठल्ले हाथ में समा रही है। कोई कुछ बोल नहीं रहा है।
कायदे से यह मामला आय से अधिक संपत्ति का बनता है। जीएसटी चोरी का बनता है। काली कमाई का बनता है। लेकिन कोई कुछ बोल नहीं रहा है। बोले भी कौन ? सीबीआई , रिजर्व बैंक ईडी सब अपने लफ़डों में फ़ंसे हैं। लोग भी एक दूसरे को भेज रहे हैं यह बिना मेहनत की कमाई। लेकिन यह आभासी कमाई है। इसके झांसे में बाजार आपकी जेब से क्या लूट ले गया आपको हवा तक नहीं लगेगी।
कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
बिना मेहनत, बिना रसीद के गिन्नियां गिरकर समा रहीं हैं हाथ में। कोई शिकायत नहीं कर रहा है। सब चुपचाप देख रहे हैं।
दूसरा संदेश आज ही चलन में आया है। एक स्केच बनता है। स्केच से एक बच्चा निकलता है। निकलते ही वह बच्चा बेचारा बल्ब और उसकी झालर बनाने निकल लेता है। झालर बनाते हुए जब कूदता है बच्चा तो मेरा जी यह सोचकर दहल जाता है कि कहीं गिर गया तो चोट लग जायेगी। झालर बनाकर बच्चा उसके शुभकामना संदेश बनाता है। घर-घर बांटता है।
भले ही एक स्केच हो लेकिन है तो अभी-अभी पैदा हुआ दुधमुंहा बच्चा ही। पैदा होते ही बिना सोहर सुनाये बच्चे को काम में जोत दिया गया। उसकी अम्मा अपने बच्चे को दूध भी न पिला पाई। पक्का उसका दूध भी बिक गया होगा डब्बे में बन्द होकर। क्या पता बच्चे का बनाया ग्रीटिंग कार्ड और दूध का डिब्बा किसी माल में एक साथ बिक रहा हो।
एक दुधमुंहे बच्चे को उसकी मां के दूध से वंचित करके झालर और बल्ब सजाने , शुभकामना संदेश बनाने के लिये लगा देना कहां की इंसानियत है भाई। बजर गिरे ऐसे बाजार पर। नठिया कहीं का।
बाजार तो जो कर रहा है वह कर ही रहा है। वह तो है बदमाश। अपनी बढोत्तरी के लिये वह हर जायज-नायाजज हरकते करता ही है। लेकिन हम भी तो बिना जाने-बूझे उसको बढावा दे रहे हैं। हाल ही में पैदा हुये बच्चे से ग्रीटिंग कार्ड बंटवा रहे हैं। यह बालश्रम कानून का भयंकर उल्लंघन है। वो तो कहिये सुप्रीम कोर्ट अभी सीबीआई, राफ़ेल, राममंदिर में उलझा हुआ है वर्ना इस मसले का स्वत: संज्ञान लेकर नोटिस दे देता तो आप ग्रीटिंग भेजना भूलकर मेसेज कर रहे होते -’ भाई साहब, सुप्रीम कोर्ट के किसी वकील से जान पहचान हो तो बताइये।’
इसीलिये हम इन सब फ़र्जी और मुफ़्तिया शुभकामना संदेशों के झांसे में नहीं आते। अपने मन के कारखाने में बनी शुद्ध बधाइयां भेजते हैं। शुभकामनायें साथ में नत्थी कर देते हैं। बधाइयां और शुभकामनायें पक्की सहेलियां हैं। साथ -साथ खुशी-खुशी चली जाती हैं।
आपको भी भेजी हैं, बधाई और शुभकामनायें। दीपावली मुबारक हो, मंगलमय हो।

Sunday, November 04, 2018

मुश्ताक़ अहमद युसूफी

1.ऐसा लगता है मनुष्य में अपने आप पर हंसने का साहस नहीं रहा। दूसरों पर हंसने में उसे डर लगता है।
2. व्यंग्यकार को जो कुछ कहना होता है वो हंसी-हंसी में इस तरह कह जाता है कि सुनने वाले को भी बहुत बाद में खबर होती है।मैंने कभी किसी ठुके हुए मौलवी और व्यंग्यकार को लिखने-बोलने के कारण जेल में जाते नहीं देखा।
3. बिच्छू का काटा रोता और सांप का काटा सोता है। इंशाजी (इब्ने इंशा)का काटा सोते में मुस्कराता भी है। जिस व्यंग्यकार का लिखा इस कसौटी पर न उतरे उसे यूनिवर्सिटी के कोर्स में सम्मिलित कर देना चाहिए।
4. समाज जब अल्लाह की धरती पर इतरा-इतरा कर चलने लगते हैं तो धरती मुस्कराहट से फट जाती है और सभ्यताएं इसमें समा जाती हैं।
5. मुस्कान से परे वो विपरीतता और व्यंग्य जो सोच-सच्चाई और बुद्धिमत्ता से खाली है, मुंह फाड़ने , फक्कड़पन और ठिठोल से अधिक की सत्ता नहीं रखता।
6. धन, स्त्री और भाषा का संसार एक रस और एक दृष्टि का संसार है, मगर तितली की सैकड़ों आँखे होती हैं और वो उन सबकी सामूहिक मदद से देखती हैं। व्यंग्यकार भी अपने पूरे अस्तित्व से सब कुछ देखता, सुनता, सहता और सराहता चला जाता है। फिर वातावरण में अपने सारे रंग बिखेरकर किसी नए क्षितिज, किसी और रंगीन दिशा की खोज में खो जाता है।
-मुश्ताक़ अहमद युसूफी
अपने उपन्यास 'धन यात्रा' की भूमिका में

Monday, October 22, 2018

नेहरू की राजनीतिक सूझ-बूझ सुभाष से अधिक परिपक्व तथा सही थी- परसाई


प्रश्न: पंडित सुभाष और नेहरू में क्या मतभेद थे?
कटनी से सुभाष आहूजा देशबन्दु अखबार दिनांक १२.१०.१९८६
उत्तर: पंडित नेहरू और सुभाष बोस दोनों का विश्वास समाजवाद में था। पर नेहरू गांधीजी के तथा उनकी नीतियों के अधिक निकट थे। हालांकि उनके गांधीजी से उजागर मतभेद भी थे।सुभाष बोस गांधीजी के प्रति श्रद्धा रखते थे , पर उनके विचारों से बहुत हद तक सहमत नहीं थे। खासकर साध्य और साधन की पवित्रता के मामले में। गांधीजी ने अहिंसा को धर्म माना था पर बोस उसे केवल एक रणनीति मानते थे, वे हिंसा का प्रयोग अनुचित नहीं मानते थे। दक्षिणपन्थी चेले राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभ भाई पटेल आदि सुभाष बोस के खिलाफ़ थे।
सुभाष बोस नेहरू का समर्थन चाहते थे। उनका मानना था कि पंडित नेहरू भी समाजवाद चाहते हैं और दक्षिणपन्थी उनके भी खिलाफ़ हैं। दोनों मिलकर कान्ग्रेस को वामपन्थी दिशा देंगे- ऐसा सुभाष बोस का विश्वास था। पर जब त्रिपुरी में गोविन्द वल्लभ पन्त यह प्रस्ताव लाये कि सुभाष बोस कार्यकारिणी समिति गांधीजी की सलाह से बनायें, नेहरू ने इसका विरोध नहीं किया। सुभाष बोस का साथ नहीं दिया। नेहरू और सुभाष बोस का पत्र व्यवहार नेहरू के पत्रों के संग्रह ’ए बन्च ऑफ़ ओल्ड लेटर्स’ में छपा है। पंडित नेहरू ने सुभाष को लिखा था कि संगठन जिस प्रकृति का है, उसमें इस तरह सीधा विभाजन करने से कांग्रेस टूट जायेगी। इसलिये फ़िलहाल समझौता करना जरूरी है। दूसरे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर दोनों में मतभेद थे। मैंने यह पत्रव्यवहार पढा है। मेरा निष्कर्ष है कि नेहरू की राजनीतिक सूझ-बूझ सुभाष से अधिक परिपक्व तथा सही थी।
-परसाई
-राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक -’पूछो परसाई से’ से।

सुभाष चन्द्र बोस उग्र राष्ट्रवादी और समाजवादी थे-परसाई


प्रश्न: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस महात्मा गांधी के साथ अन्य नेताओं की तरह मिलकर कार्य नहीं कर सके। ऐसा क्यों हुआ?
बिलासपुर से रामकिशोर ताम्रकार , दिनांक १४ अप्रैल, १९८५
उत्तर: गांधी जी हर चीज को नैतिक आधार देते थे। अहिंसा का रास्ता उनके लिये नैतिकता का रास्ता भी था। सुभाष बोस हिंसा को केवल रणनीति मानते थे। अहिंसा को गांधीजी भी रणनीति मानते थे। पर वे अक्सर धर्म, नैतिकता और अन्तरात्मा की आवाज की बात करते थे। दूसरे सुभाष बोस उग्र राष्ट्रवादी और समाजवादी थे। १९३८ में जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष हुये तब उन्होंने योजना आयोग बना दिया। यह समाजवादी दिशा का संकेत था। गांधीजी इस तरह के समाजवाद में विश्वास नहीं था। सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता वल्लभ भाई पटेल, डॉ राजेन्द्र प्रसाद वगैरह दक्षिणपंथी थे, समाजवाद विरोधी थे। इनके बिना न कांग्रेस संगठन चल सकता था , न आन्दोलन। नेहरू स्वयं समाजवादी थे। पर वे यह भी जानते थे कि इन दक्षिणपंथी राजनेताओं के साथ तालमेल बिठाकर चलता चाहिये। कांग्रेस में समाजवादी बहुत कम थे। कम्युनिस्ट छोड़ गये थे और १९२५ में ही कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर ली थी। सुभाष बोस चाहते थे कि नेहरू उनके पथ के बीच न आयें, पर नेहरू व्यवहारिक राजनीति के हिसाब से बीच में रहे आते थे। गांधी जी और सुभाष बोस में मुख्य मतभेद विचारधारा का था।
इसीलिये उनके खिलाफ़ एक दक्षिणपन्थी पट्टाभि सीता रमैया को खड़ा किया गया। सीता रमैया हार गये और गांधीजी ने कहा यह मेरी हार है। अब जब दक्षिणपन्थियों के बावजूद सुभाष बोस फ़िर कांग्रेस अध्यक्ष बन गये तब दक्षिणपन्थियों ने उन्हें प्रभावहीन करने के लिये एक तरकीब निकाली। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में गोविन्द बल्लभ पंत से प्रस्ताव पास करा लिया कि सुभाष बाबू कार्यकारिणी गांधीजी की सलाह से बनायेंगे। इस पर सुभाष बाबू ने कांग्रेस छोड़ दी और ’फ़ार्वर्ड ब्लॉक’ संगठन बना लिया।
पर सुभाष बाबू का आदर गांधी जी के प्रति कम नहीं हुआ। आजाद हिन्द फ़ौज बनाकर जब वे भारत से बाहर अंग्रेजों से लड़ रहे थे , तब भी वे गांधीजी को ’राष्ट्रपिता’ कहते थे।
-परसाई
- राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ’पूछो परसाई से’ किताब से

Sunday, October 21, 2018

जिंदगी के स्कूल में पढाई की फ़ीस नहीं पडती

चित्र में ये शामिल हो सकता है: भोजन
जिंदगी का स्कूल रोज खुल रहता है, कभी छुट्टी नहीं होती यहां

सुबह सूरज भाई उगे। देखते-देखते जियो के मुफ़्तिया नेट कनेक्शन की तरह हर तरफ़ उनका जलवा फ़ैल गया।
इतवार की तीसरी चाय ठिकाने लगाकर हम भी निकल लिये। यह निकलना ऐसा ही थी जैसे चुनाव के मौके पर अपनी पार्टी में टिकट न मिलना पक्का होते ही लोग पार्टी बदल लेते हैं। घर में चौथी चाय का जुगाड़ भी नहीं था।
ओवरब्रिज खरामा-खरामा बन रहा था। एक ट्रक अधबने पुल की छाती पर चढा उस पर मिट्टी गिरा रहा था। पता नहीं कब इस पर बजरी गिरेगी, कब सड़क बनेगी, कब पुल चालू होगा।
नुक्कड़ की नाई की दुकान पर लोग बाल बनवाने के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। आगे एक पंचर बनाने की दुकान पर दुकान मालिक ग्राहक के इंतजार में अपनी फ़ोल्डिंग पर इस तरह अधलेटे हुये थे जैसे मुगल सम्राट अपने दरबार में तख्ते ताउस पर विराजते होंगे। दुकान के सामने हवा भरने का पंप किसी तोप की तरह हवा भरने के लिये तैयार था। सामने कई साइकिलों के ब्रेक शू, डिबरी, नट, बोल्ट और फ़ुटकर पुर्जे मोमिया पर पसरे हुये धूप सेंक रहे थे। बुजुर्ग और बेकाम आये पुर्जे अपनी मूंछे ऐंठते हुये कहते से दिखे-’पुर्जे हम भी थे कभी काम के।’
बगल से एक खड़खड़ा वाला किसी मकान की पुरानी इंटे लादे हुये ले जाता हुआ दिखा। आधी-अधूरी ईंटे खड़खड़े में किसी चुनाव में हारे हुये प्रत्यासियों सी पड़ी थीं। उनको इंतजार था कि वे फ़िर से किसी मकान में लगकर अपनी जिन्दगी सार्थक करें।
मूंगफ़ली, चने, लईया की दुकाने खुल गयीं थी। ग्राहकों के इंतजार में सावधान खड़ी थीं। एक दुकान पर एक बच्चा अखबार के लिफ़ाफ़े बना रहा था। आटे की लेई से अखबार को आहिस्ते-आहिस्ते चिपका रहा था। स्पीड इस कदर तसल्ली नुमा और धीमी गोया पुराने जमाने का कोई कोई आशिक अपनी मोहब्बत को अंजाम पर पहुंचाने में लगा हो। हमको अपने बचपन के दिन आ गये जब हम स्कूल से बचे समय में लिफ़ाफ़े बनाते थे। सौ लिफ़ाफ़े मे छह पैसे मिलते थे बनवाई। दिन भर में कभी-कभी हजार-हजार तक लिफ़ाफ़े बना डालते थे। हमने बच्चे के बगल में खड़े होकर फ़ुर्ती से लिफ़ाफ़े बनाकर बताया ऐसे बनाओ , जल्दी बनेंगे। वह बनाने लगा।
लिफ़ाफ़े बनाते हुये बच्चे ने बताया -'पुलिस वाले पन्नी पर धरपकड़ करते हैं। मां-बाप का नाम पूछते हैं। यही लिये लिफ़ाफ़े बना रहे हैं। बच्चे ने यह भी बताया कि स्कूल का मुंह नहीं देखा है उसने। अलबत्ता छोटा भाई जाता है स्कूल। ट्यूशन भी लगा है। पढाई बहुत मंहगी है।'
स्कूल की पढाई मंहगा बवाल है इसलिये हिन्दुस्तान में अनगिनत बच्चे सीधे जिन्दगी के स्कूल में दाखिला ले लेते हैं जहां फ़ीस और ट्यूशन का कोई झंझट नहीं।
आगे एक दुकान पर एक महिला मूंगफ़ली भूंज रही थी। नीचे आगे जल रही थी। महिला सारी मूंगफ़लियां बड़ी कड़ाही में उलटती-पुलटती हुई भूंज रही थी। हमने फ़ोटो लेने को पूछा तो बोली आंचल समेटते हुये बोली – ’लै लेव।’
फ़ोटो देखकर खुश हुईं। हमने नाम पूछा तो बताया – ’फ़ूलमती।’ हमारे मुंह से फ़ौरन निकला – ’हमरी अम्मा का नाम भी फ़ूलमती था।’ वो मुस्कराई। साथ खड़ी बच्ची ने पूछा-’फ़ोटो अखबार मां छपिहौ?’ हमने कहा –’न।’ इस पर फ़ूलमती बोलीं-’चहै जहां छापौ। कौनौ चोरी थोरो करित है। अपन मेहनत करित है।’
सुरेश के रिक्शे अड्डे पर राधा नहीं थीं आज। पता चला कि 21 दिन पहले अपने नाती-पोतन की याद आई तो चलीं गयीं। आठ महीने रहीं। सुरेश ने बताया-’ जब आई थीं तो कह रहीं थीं जाते समय 100 रुपये दे देना। नाती-पोतों को दस-दस रुपये देंगे। जब गईं 1500 रुपये सबने मिलकर दिये। दो साड़ी ब्लाउज दिलाये। दस पैकेट बिस्कुट, पानी की बोतल लेकर भेजा एक रिक्शे वाले के हाथ। सबसे होशियार आदमी के साथ कि उनको गाड़ी में बैठाके आये। अब तक पहुंच गयीं होंगी।’
एक अन्जान बुजुर्ग महिला किसी अड्डे पर आकर आठ महीने रहे। खिलाने-पिलाने, दवा-दारू , रहने के इंतजाम के बाद पैसे रुपये देकर विदा की जाये। हमको भोपाल के हाजी बेग की कही बात याद आई- ’इंसानियत का रिश्ता सबसे बड़ा होता है।’
आगे एक चारपाई पर दो बच्चे खेल रहे थे। उनके हाथ में दो मिट्टी की मूर्तियां थीं। वे उसे बारी-बारी से चारपाई पर रखी दरी के नीचे अपने हाथ की मूर्तियों को रखते-छिपाते हुये खेल रहे थे- जैसे कई जम्हूरियत में सियासी पार्टियां इबादतगाहों के मुद्दे उछालती-छिपाती रहती हैं।
गंगा का पानी घट गया था। दो लोग पानी में कटिया डाले मछली फ़ंसने का इंतजार कर रहे थे। हमको बुद्धिनाथ मिश्र का गीत याद आया:
एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
नदी तसल्ली से बह रही थी। उसको कोई हड़बड़ी नहीं थी आगे जाने की। शायद अपने साथ चल रहे और बिछुड़ गये पानी को याद कर रही हो। पता नहीं कहां-कहां का पानी साथ मिलकर यहां बह रहा हो। न जाने कितना साथ चला पानी रास्ते में बिछुड़ गया हो। न जाने कित्ता पानी किसी बांध की हवालात में गिरफ़्तार होकर बंदी पड़ा हो। मन किया नदी को रमानाथ अवस्थी की कविता सुनायें:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
मंदिर के पास गुप्ता जी मिले। हमने पूछा आंख बनवाई नहीं अभी तक? बोले- ’सोचते हैं दूसरी आंख का भी आपरेशन करा लें जाड़े में तब इकट्ठे बनवा लें।’ हमने फ़िर कहा –’आप बनवा लेव चश्मा पैसे हम दे देंगे।’ बोले-’कानपुर में पैसे बहुत मांगता है चश्मा वाला। सुना है शुक्लागंज में ढाई सौ रुपये में बनाता है कोई। लड़के से कहा है पता करने को।
हमको अपने गांव के चाचा की याद आई। उनकी रोशनी कम हुई। हमने सुझाया –’ आंखे/चश्मा काहे नहीं बनवा लेत हौ?’
चाचा बोले- ’का करैंक है बबुआ बुढापे मां। घर ते खेत औ खेत ते घरै तक आवैं क है। इत्ता देखात है। बस और का करैंक है फ़ालतू मां पैसा फ़ूंकैक (क्या करना है बेटा बुढापे में ? घर से खेत. खेत से घर आना जाना है। इतना दिखाई देता है। और क्या करना है। फ़ालतू में पैसा क्यों खर्च करना)
छह महीने हो गये गुप्ता जी को अपनी आंख के लिये चश्मा बनवाने की सोचते। इतने दिन में मनमाफ़िक न होने पर कारपोरेट बिना कुछ सोचे-समझे सरकार बदल देते हैं। जबकि इसी समय में अपने देश का एक आम इंसान अपने लिये चश्मा बनवाना टालता रहता है।
84 साल के होने को आये गुप्ता जी का भतीजा वहीं बैठा अपने औजार दुरुस्त कर रहा था। पूछने पर मुंह में भरा मसाला सड़क पर थूंकते हुये बताया –’हलवाई का काम करते हैं। कल कहीं काम लगा था वहीं से लौट रहे थे तो सोचा चाचा के हाल-चाल लेते चलें।
रास्ते में तमाम रिक्शेवाले अपने रिक्शों की साफ़-सफ़ाई, साज-सिंगार कर रहे थे। चाय की दुकान पर बैठे लोग टीवी देखते हुये बातिया रहे थे। साइकिल की पंचर की दुकान पर पंचरबाज अभी तक अपने तख्ते ताउस पर लेटा ग्राहक का इंतजार कर रहा था। घर में घुसते ही सूरज भाई खुपडिया पर धूप की चपत लगाते हुये बोले- ’हो गयी आवारगी?’
हम उनको कुछ जबाब दें तक तक वो और ऊपर उचककर पूरी कायनात में रोशनी और गर्मी बांटने लगे।

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