Saturday, September 18, 2004

ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो

हम भावविभोर हैं. हमारा स्वागत हुआ.हार्दिक.हमारा कंठ अवरुद्द है.धन्यवाद तक नहीं फूटा हमारा मुंह से.सही बात तो यह कि हम अचकचा गये.देबाशीषजी . के"मध्यप्रदेश/उत्तरप्रदेश/होली की शैली/शायद-शर्तिया/शालीनता और फिर हार्दिक स्वागत "में हम अभी तक असमंजस में हैं कि क्या ग्रहण करें-क्या छोड.दें?

काश हम सूप होते और केवल सारतत्व ग्रहण कर पाते(साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाव/ सार-सार को गहि रहै थोथा देय उडाय).

तो हम पहले भरे गले से शुक्रिया अदा करते हैं-स्वागत का.

शुरुआत मानस का सहारा लेते हुये कहूंगा---" ब्लाग विवेक एक नहिं मोरे"

पहले बात शालीनता की क्योंकि मुझे लगा कि मुखिया सबसे ज्यादा इसी के लिये चिन्तित हैं.अगर मुन्ना भाई के लहजे में कहूं तो ---"शालीनता बोले तो?"और मैं‍ कहूं तो --"ये शालीनता किस चिडिया का नाम होता है?"

शालीनताजी को तो हम नहीं खोज पाये कहीं पर पट्ठा ब्रम्हचर्य मिला एक कविता में.कविता है:-

"तस्वीर में जडे हैं ब्रम्हचर्य के नियम
उसी तस्वीर के पीछे चिडिया
अंडा दे जाती है."


वैसे भी देखें तो सबसे ज्यादा गंदगी वहीं होती है जहां ---"यहां गंदगी फैलाना मना है "का बोर्ड लगा होता है.घूस देकर काम निकलवाने वाले देखते है कि ----"घूस लेना और देना अपराध है"का बोर्ड कहां शोभायमान है.

शालीनताजी की ही शायद बडी बहन हैं- पवित्रताजी.इनके बारे में परसाईजी "पवित्रता का दौरा" में लिखते हैं:-".....पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास शराब की दुकान हटाने की बात लोग करते हैं तब पुजारी बहुत दुखी होता है.उसे लेने के लिये दूर जाना पडेगा.यहां तो ठेकेदार भक्तिभाव में कभी-कभी मुफ्त में भी पिला देता था."

मुझे लगा आपको सिंकारा लेने का सुझाव दूं(शालीनता के बोझ का मारा इसे चाहिये हमदर्द का टानिक सिंकारा)पर फिर डर लगा कि कहीं यह अशालीन न हो जाये.बता दीजिये न क्या होती है शालीनता ताकि उसका लिहाज रख सकूं.

हिंदी ब्लाग जो अभी "किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत"की शैशवावस्था में है को"मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश"में बंटवारे की बालिग हरकतों में क्यों फंसारहे हैं?

"ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो"

अब एक बात कहने के लिये गंभीरता का चोला ओढना चाहता हूं.जब आप किसी नवप्रवेशी . का स्वागत (चाहे वो जितना हार्दिक करें)शालीनता का ध्यान रखने की चाहना के साथ करते है तो दो बातें तय हैं:

1.आप पहले से जुडे लोगों को बता रहे हैं कि इनसे संभल के रहना ये बडी "वैसी"बातेंकरते हैं.परिचय के साथ आलोचना का यह अंदाज उस कम्प्यूटर रिपेयर करने वाले का अंदाज हैजो कोई भी पीसी सूंघ के बता सकता है कि इसकी तो हार्डडिस्क खराब है.यह अंदाज दूसरों की अकल परभरोसा न होने का भी है.

2.नवप्रवेशी को आप बता रहे हैं कि शालीनता पर यहां पहले भी बुरी नजर डाली जा चुकी है सो कहीं प्रथम होने के लालच में कुछ न करना.वैसे जो मन आये करो.

बकिया शैली के बारे में तो हम यही कहेंगे:-

हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.
--वीरेन्द्र आस्तिक

6 comments:

  1. wah ustad wah ... aap ke blog ne nujhe bhi orarit kar diya hai ab mai bhi blog likhoongi ...shaleenta se..

    ReplyDelete
  2. मौज आ गयी. ब्लाग को क्षेत्रीयकरण से बचाने का प्रयास न हिदुस्तान भूलेगा न ठेलुहे. अब थोडे दिन हेलमेट लगा के घूमा जाय.

    ReplyDelete
  3. भाई अनूप लगता है हदें मैं ही लाँघ गया। आपने ध्यान दिया हो तो मैंने वैधानिक चेतावनी दे ही दी थी कि शालीनता का मैंने "वैसे मैंने कोई ठेका नहीं ले रखा। मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ। विश्वास करें कि मुखियाई की कोई जलतफ़हमी मैंने पाल नहीं रखी। जाल विचारों के स्वच्छंद विचरण का स्वतंत्र माध्यम है, ये किसी की बपौती वैसे भी नहीं हो सकती, मुझ नाचीज़ की क्या औकात़। राज्यों का उल्लेख स्वाभाविक जिञासावश हुआ, ये जानने की रुचि तो संभचतः किसी भी हिन्दी चिट्ठाकार को होगी कि ये माध्यम कहाँ जोर पकड़ रहा है। लिखते रहिए, आशा है यह हिन्दी ब्लॉगजगत को मजबूती प्रदान करेगा।

    ReplyDelete
  4. अरे भाई देबाशीष काहे एतना सेन्टीमेंटल बाउंसर मारते हैं?कहीं अइसा न हो कि हम बल्ला लिये- दिये विकेटै पर गिर जायें .

    ReplyDelete
  5. तस्वीर में जडे हैं ब्रम्हचर्य के नियम
    उसी तस्वीर के पीछे चिडिया
    अंडा दे जाती है.

    बहुत ही अच्छी लाइन है ई वाली |

    सादर

    ReplyDelete
  6. तस्वीर में जडे हैं ब्रम्हचर्य के नियम
    उसी तस्वीर के पीछे चिडिया
    अंडा दे जाती है.

    बहुत ही अच्छी लाइन है ई वाली |

    सादर

    ReplyDelete