http://web.archive.org/web/20110831120358/http://hindini.com/fursatiya/archives/112
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
भौंरे ने कहा कलियों से
होली पर आमतौर पर ऊलजलूल हरकतें करने की परम्परा है। जो जितना
बांगड़ूपन दिखा सके वह उतना बड़ा कलाकार माना जाता है। पंकज बेंगानी पूरे
मोहल्ले को लिये बसंती को खोजते रहे। उसे रंगने की सोचते रहे। लेकिन बसंती हाथ न आई-अंत तक। लाहौल बिला कूवत! बसंती न हो गयी आशीष श्रीवास्तव की नायिका हो गयी-हर बार गच्चा दे जाती है।
बसंती की खोज में प्रत्यक्षा का शामिल किया जाना ऐसा ही लग रहा था मानो किसी महिला अपराधी को पकड़ने के लिये कम से कम एक महिला पुलिस कर्मी जरूरी होता है।
बसंती को सफलता पूर्वक भागते देखकर हम फिर बाग में गये। देखा बसंत बिखरा हुआ है। प्रमाण स्वरूप एक भौंरा दिखा जो एक कली के चारो तरफ मंडरा रहा था। कली मौज के मूड में थी। बोली तुम अभी तो बगल की कली के ऊपर मंडरा रहे थे। इधर कैसे आये?
भौंरा बोला -मैं तो जन्म से एक कलीव्रता हूं। लेकिन क्या करूं मानोसीजी ने मेरी कुंडली विचारकर मुझे ‘फ्लर्टयोग’ बताया है। उनकी बात का मान रखने के लिये मैं कली-कली मंडरा रहा हूं। वैसे भी अब मैं अपनी कली से चाहते हुये भी प्रणय निवेदन नहीं कर सकता क्योकिं अब वह फूल बन चुकी है और फूल से प्यार करने में समलैंगिकता का ठप्पा लग सकता है। लिहाजा अब मेरे पास तुम्हारे चारों तरफ मंडराने के अलावा कोई चारा नहीं हैं।
कली ने ‘हाऊ स्वीट’ कहते हुये मौन स्वीकृति दे दी तथा भौंरा कली का उपग्रह सा बन कर उसके चक्कर काटने लगा।
पिछले तीन घंटे में यह आठवां भौंरा था जो किसी न किसी बहाने कली के चक्कर लगाने आया था लेकिन कली की पंखुड़ियों पर पहले प्रेम के नखरे-ठसके बरकरार थे।
कली भौंरे के गुंजन सुनते-सुनते ऊब गयी जिस तरह जीतू के कमेंट के तकाजे से जनता त्रस्त हो जाती है। लिहाजा वह भौंरे से बतियाने लगी-
ये देबू नहीं दिखते आजकल। क्या उनके दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज है?
भौंरा पहले तो भुनभुनाया यह सोचकर कि शायद देबू उसके रकीब का नाम है लेकिन तुरंत याद कि हो न हो ये वही देबाशीष हों जो हमेशा नुक्ताचीनी में लगे रहते हैं।
भौंरा बोला- असल में आदमी जो काम साल भर नहीं कर पाता वो तीज-त्योहार में करता है। सो देबू भइया आजकल जुटे हैं ब्लागर की तारीफ में वो भी अखबार में। अभी तक एक्को कमेंट नहीं मिले हैं। यहां वही अपने ब्लाग में लिखते तो बोहनी तो हुइयै जाती।
अइसा होना तो नहीं चाहिये। देबाशीषजी तो फीड-वीड में ही मस्त रहते हैं। तारीफ-वारीफ झमेले में नहीं पड़ते। रवि रतलामीजी बता रहे थे कि वो कोई दूसरे देबाशीष हैं।
और यहां की चौपाल का क्या हाल है? पूरा आपातकाल लगा है। कोई बोलता नहीं है। एक शेर कुलबुला रहा है:-
वही पेड़ ,शाख,पत्ते वही गुल वही परिंदे,
एक हवा सी चल गयी है,कोई बोलता नहीं
है।चौपाल का तो अइसा है कि जिस सेठ की दुकान है वो दूसरे काम में लगा है। अपनी
दुकान दूसरे को तका गया है। लिहाजा दुकान ठंडी है। वैसे भी आज हर एक की तो अपनी
खुद की दुकान है। दुकानें ज्यादा ग्राहक कम हैं।
अतुल वगैरह जो पिछले साल हुल्लड़ मचा रहे थे वे भी नदारद हैं। कहां चले गये।
अतुल तो आजकल नवजोत सिंह सिद्धू हो गये हैं।लिखना-पढ़ना बंद ।केवल टीपबाजी कर रहे हैं। टिपियाने से जो समय बचता है उसमें वो आइडिया उछालते हैं । हर आइडिया को तीन लोग लपकते हैं तो चार लोग गिरा देते हैं। आइडिया ससुरा महिला विधेयक हो जाता है।संसद में कभी पास ही नहीं हो पाता।
शशिसिंह का क्या हाल हैं जो जीते थे इंडीब्लागर का चुनाव?
हाल वही हुये जो इंडीब्लागर का इनाम जीतने के बाद होता है-लिखना बंद।
जीतेंद्र की उछल-कूद में कुछ कमी दिखती है। क्या बात है?
कुछ बात नहीं है। बस लगता है उनके पास भी काम की कमी हो गयी है लिहाजा बिजी हो
गये हैं। कपडे़ अरगनी पर टांगकर सो रहे हैं।
कली बोली:-यार, बहुत बोरियत हो रही है । होली पर तमाम लोगों ने कुछ न कुछ कविता-दोहा-शुभकामनायें झेलाईं है। तुम भी कुछ वैसा ही करो न!
भौंरा बोला-तुम्हारे भोलेपन पर मेरा दिल मचल सा रहा है। मेरे मन में कुछ-कुछ होने लगा है लेकिन मैं उसकी उपेक्षा करके सुनाता हूं। सुनो ध्यान से:-
होली आवत देखकर ,ब्लागरन करी पुकार,
भूला बिसरा लिख दिया,अब आगे को तैयार।
पिचकारी ने उचक के, रंग से कहा पुकार,
पानी संग मिल जाओ तुम, बनकर उड़ो फुहार।
कीचड़ में गुन बहुत हैं, सदा राखिये साथ,
बिन पानी बिन रंग के ,साफ कीजिये हाथ।
रंग सफेदा भी सुनो ,धांसू है औजार,
पोत सको यदि गाल पर,बाकी रंग बेकार।
वस्त्र नये सब भागकर , भये अलमारी की ओट,
चलो अनुभवी वस्त्रजी ,झेलिये रंगों की चोट।
सुनकर कली खिलखिल करने लगी। भौंरा डरा कि कहीं यह खिलकर फूल न बन जाये।
तथा प्यार का क्षितिज सिमट न जाये लिहाजा वह कली को ताजे समाचार सुनाने लगा।
पता है तुमको जो बिहार की ट्रेन का अपहरण हुआ था उसमें से नक्सली भाग क्यों गये?
कली ने बताया कि पुलिस को देखकर भागे होंगे।
भौंरा बोला-भक, पुलिस से भी कहीं कोई डरता है आजकल वो भी बिहार में । हुआ असल में यह कि किसी ने अफवाह फैला दी कि जीतेंदर अपना ब्लाग अब ट्रेन में भी सुनायेंगे ।अफवाह से सहमने के बावजूद वे टिके रहे तो किसी ने जोड़ दिया कि वे अब
कविता भी लिखेंगे जिस तरह दूसरे ब्लागर-
ब्ला
गगरिन लिखती हैं। फिर तो उनकी रही-सही हवा भी हवा हो गयी तथा वे रामलाल की उड़नतस्तरी हो गये ।सर पर पांव रखकर महाब्लाग के
आइडिये की तरह गायब हो गये।
कली ने कहा होली में टाईटल-साईटिल देने का रिवाज है। तुम कुछ नहीं करोगे?
भौंरा बोला-किसको क्या- टाईटिल दें। लोग इत्ते हो गये हैं। सबके नाम भी याद नहीं।
फिर भी जो हो सकता है दिया जा रहा है। लोग बुरा न माने तो अच्छा , मान लें तो
बहुत अच्छा।लेकिन किसी को बताना मत कि हमने दिये हैं टाईटिल वर्ना मजा
किरकिरा हो जायेगा।
कली बोली-यार, तुम्हारे तो टाईटिल न हो गये बोर्ड का पर्चा हो गये।सुनाओ जल्दी। आयम स्वेटिंग।
कली के पसीने को सूंघते तथा निहारते हुये भौंरा टाईटिल पढ़ने लगा:-
जीतेन्द्र:-
लट्ठ पड़ा जब जीतेन्द्र पर,गये तुरत घबराय,
कपड़े रंगे उतारकर,दिये डोरी पर लटकाय।
शशिसिंह:-
हमने पहले ही कहा,ये इंडीब्लागीस बड़ा बवाल,
अतुल अंगूठा टेक भये,शशि की भी वैसी ही चाल।
आशीषश्रीवास्तव:-
आशीष फिरत हैं बाबरे,लिये कुंवारापन हाथ,
है कोई कन्या सिरफिरी,जो गहै हमारे हाथ।
मानोसी चटर्जी:-
मानसी की मत पूछिये,जन्मतिथि धरो लुकाय,
जो इनके हत्थे चढ़ी ,जाने क्या-क्या देंय बताय।
अमित:-
अमित,अमित से सौ गुने,लड़कपना अधिकाय,
घुमाफिरा कर दोष सब, कन्यन पर रहे लगाय।
लाल्टू:-
लाल्टू जी तो धांसकर, लिखते हैं भरमाय/हडकाय,
समझगये तो ठीक है, वर्ना क्या ‘कल्लोगे’ भाय!
मसिजीवी:-
मसिजीवी तो रेल की ,पटरी के हैं पास।
ठहर गयी है रेल,क्या चले बुझावन प्यास।
रविरतलामी:-
रविरतलामी के हाथ का कैसे करें बखान,
इत्ता टाइप हम करें तो निकल जायेंगे प्रान।
लक्ष्मी नारायन गुप्त:-
लक्ष्मी भइया समझ में, आयी न आपकी चाल,
इत कहते हो रूढि है,उत चातक-स्वाती सा हाल।
ईस्वामी:-
स्वामीजी से क्या कहें,पूरा औघड़ का अवतार,
सांड़ का रोल माडल गहे,भैंसन को रहे निहार।
देबाशीष:-
क्या हाल बना रखा है ,हे देबाशीष , महाराज,
कल कैसे लिख पाओगे,यदि नहीं लिखोगे आज!
प्रत्यक्षा:-
कविता को अब छोड़कर ,लेखन ही लें अपनाय,
हम भी समझेगें कुछ-कुछ,कुछ आपहु समझो भाय।
इन्द्र अवस्थी:-
ठेलुहे तो हैं ठेठ ही, मौंरावा के लाल ,
आलस में इनसे बड़ा ,कौन माई का लाल।
राजेश कुमार सिंह:-
राजन लौटे देश में , हुई लेखनी ठप्प,
नून-तेल भारी हुआ,भूले कविता -गप्प।
सारिका सक्सेना:-
कुछ साज बज रहे थे मेरे मन की सरगमों में,
अब सुन रही हूं केवल,शब्दांजलि की उलझनों को।
क्षितिज कुलश्रेष्ठ :-
क्षितिज तुम्हारा चिंतन ही स्वयं काव्य है,
बर्लिन में समलैंगिग बन जाना सहज सम्भाव्य है।
जोगलिखी:-
ये आपके तरकश से कैसे तीर चलते हैं,
जिनको महान कहते हैं उन्हीं से बचते हैं।
‘सृजन-गाथा’ :-
ब्लाग बहुत ही अच्छा है , लोकप्रियता से न घबराइये,
वाह-वाह से डरें मत बिल्कुल ,बस आप लिखते जाइये।
शुऎब:-
शुऐब ओसामा से जरा मिलना बहुत संभलकर,
पोटा का सोंटा पड़ जायेगा,रह जाओगे तड़पकर।
रमनकौल:-
रमनकौल जी बसि रहे ,न जाने केहि देश,
हम नित खोजत हैं यहां मिल जाये किस भेष!
समीर लाल:-
उड़नतस्तरी उड़ रही,जमकर पंख पसार,
ऊंचाई बढ़ जायेगी,कुछ कम हो यदि भार।
अतुल अरोरा:-
स्टेचू सा खड़ा है,ये रोजनामचा ब्लाग,
बहुत दिनों तक सोते बीते,अब तो जाओ जाग।
पंकज नरुला:-
मिर्ची सेठ ने किया ये तो बड़ा कमाल,
मिर्च बेचना त्यागकर, लिया सृष्टि का हाल।
सुनाते सुनाते भौंरे ने देखा कि कली बोरहोकर सो गयी है। भौंरे ने कली को चूमकर
‘हैप्पी होली’कहा तथा दूसरी कली पर डोरे डालने निकल पड़ा।
नोट-बाकी के टाईटिल पढ़ने के लिये दुबारा पढ़ें। टिप्पणी देकर टाईटिल सुझायें।
लेकिन अब क्या दुबारा पढ़ेंगे।दूसरा ही लेख पढ़ लें -आइडिया जीतू का लेख हमारा।
बसंती की खोज में प्रत्यक्षा का शामिल किया जाना ऐसा ही लग रहा था मानो किसी महिला अपराधी को पकड़ने के लिये कम से कम एक महिला पुलिस कर्मी जरूरी होता है।
बसंती को सफलता पूर्वक भागते देखकर हम फिर बाग में गये। देखा बसंत बिखरा हुआ है। प्रमाण स्वरूप एक भौंरा दिखा जो एक कली के चारो तरफ मंडरा रहा था। कली मौज के मूड में थी। बोली तुम अभी तो बगल की कली के ऊपर मंडरा रहे थे। इधर कैसे आये?
भौंरा बोला -मैं तो जन्म से एक कलीव्रता हूं। लेकिन क्या करूं मानोसीजी ने मेरी कुंडली विचारकर मुझे ‘फ्लर्टयोग’ बताया है। उनकी बात का मान रखने के लिये मैं कली-कली मंडरा रहा हूं। वैसे भी अब मैं अपनी कली से चाहते हुये भी प्रणय निवेदन नहीं कर सकता क्योकिं अब वह फूल बन चुकी है और फूल से प्यार करने में समलैंगिकता का ठप्पा लग सकता है। लिहाजा अब मेरे पास तुम्हारे चारों तरफ मंडराने के अलावा कोई चारा नहीं हैं।
कली ने ‘हाऊ स्वीट’ कहते हुये मौन स्वीकृति दे दी तथा भौंरा कली का उपग्रह सा बन कर उसके चक्कर काटने लगा।
पिछले तीन घंटे में यह आठवां भौंरा था जो किसी न किसी बहाने कली के चक्कर लगाने आया था लेकिन कली की पंखुड़ियों पर पहले प्रेम के नखरे-ठसके बरकरार थे।
कली भौंरे के गुंजन सुनते-सुनते ऊब गयी जिस तरह जीतू के कमेंट के तकाजे से जनता त्रस्त हो जाती है। लिहाजा वह भौंरे से बतियाने लगी-
ये देबू नहीं दिखते आजकल। क्या उनके दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज है?
भौंरा पहले तो भुनभुनाया यह सोचकर कि शायद देबू उसके रकीब का नाम है लेकिन तुरंत याद कि हो न हो ये वही देबाशीष हों जो हमेशा नुक्ताचीनी में लगे रहते हैं।
भौंरा बोला- असल में आदमी जो काम साल भर नहीं कर पाता वो तीज-त्योहार में करता है। सो देबू भइया आजकल जुटे हैं ब्लागर की तारीफ में वो भी अखबार में। अभी तक एक्को कमेंट नहीं मिले हैं। यहां वही अपने ब्लाग में लिखते तो बोहनी तो हुइयै जाती।
अइसा होना तो नहीं चाहिये। देबाशीषजी तो फीड-वीड में ही मस्त रहते हैं। तारीफ-वारीफ झमेले में नहीं पड़ते। रवि रतलामीजी बता रहे थे कि वो कोई दूसरे देबाशीष हैं।
और यहां की चौपाल का क्या हाल है? पूरा आपातकाल लगा है। कोई बोलता नहीं है। एक शेर कुलबुला रहा है:-
वही पेड़ ,शाख,पत्ते वही गुल वही परिंदे,
एक हवा सी चल गयी है,कोई बोलता नहीं
है।चौपाल का तो अइसा है कि जिस सेठ की दुकान है वो दूसरे काम में लगा है। अपनी
दुकान दूसरे को तका गया है। लिहाजा दुकान ठंडी है। वैसे भी आज हर एक की तो अपनी
खुद की दुकान है। दुकानें ज्यादा ग्राहक कम हैं।
अतुल वगैरह जो पिछले साल हुल्लड़ मचा रहे थे वे भी नदारद हैं। कहां चले गये।
अतुल तो आजकल नवजोत सिंह सिद्धू हो गये हैं।लिखना-पढ़ना बंद ।केवल टीपबाजी कर रहे हैं। टिपियाने से जो समय बचता है उसमें वो आइडिया उछालते हैं । हर आइडिया को तीन लोग लपकते हैं तो चार लोग गिरा देते हैं। आइडिया ससुरा महिला विधेयक हो जाता है।संसद में कभी पास ही नहीं हो पाता।
शशिसिंह का क्या हाल हैं जो जीते थे इंडीब्लागर का चुनाव?
हाल वही हुये जो इंडीब्लागर का इनाम जीतने के बाद होता है-लिखना बंद।
जीतेंद्र की उछल-कूद में कुछ कमी दिखती है। क्या बात है?
कुछ बात नहीं है। बस लगता है उनके पास भी काम की कमी हो गयी है लिहाजा बिजी हो
गये हैं। कपडे़ अरगनी पर टांगकर सो रहे हैं।
कली बोली:-यार, बहुत बोरियत हो रही है । होली पर तमाम लोगों ने कुछ न कुछ कविता-दोहा-शुभकामनायें झेलाईं है। तुम भी कुछ वैसा ही करो न!
भौंरा बोला-तुम्हारे भोलेपन पर मेरा दिल मचल सा रहा है। मेरे मन में कुछ-कुछ होने लगा है लेकिन मैं उसकी उपेक्षा करके सुनाता हूं। सुनो ध्यान से:-
होली आवत देखकर ,ब्लागरन करी पुकार,
भूला बिसरा लिख दिया,अब आगे को तैयार।
पिचकारी ने उचक के, रंग से कहा पुकार,
पानी संग मिल जाओ तुम, बनकर उड़ो फुहार।
कीचड़ में गुन बहुत हैं, सदा राखिये साथ,
बिन पानी बिन रंग के ,साफ कीजिये हाथ।
रंग सफेदा भी सुनो ,धांसू है औजार,
पोत सको यदि गाल पर,बाकी रंग बेकार।
वस्त्र नये सब भागकर , भये अलमारी की ओट,
चलो अनुभवी वस्त्रजी ,झेलिये रंगों की चोट।
सुनकर कली खिलखिल करने लगी। भौंरा डरा कि कहीं यह खिलकर फूल न बन जाये।
तथा प्यार का क्षितिज सिमट न जाये लिहाजा वह कली को ताजे समाचार सुनाने लगा।
पता है तुमको जो बिहार की ट्रेन का अपहरण हुआ था उसमें से नक्सली भाग क्यों गये?
कली ने बताया कि पुलिस को देखकर भागे होंगे।
भौंरा बोला-भक, पुलिस से भी कहीं कोई डरता है आजकल वो भी बिहार में । हुआ असल में यह कि किसी ने अफवाह फैला दी कि जीतेंदर अपना ब्लाग अब ट्रेन में भी सुनायेंगे ।अफवाह से सहमने के बावजूद वे टिके रहे तो किसी ने जोड़ दिया कि वे अब
कविता भी लिखेंगे जिस तरह दूसरे ब्लागर-
ब्ला
गगरिन लिखती हैं। फिर तो उनकी रही-सही हवा भी हवा हो गयी तथा वे रामलाल की उड़नतस्तरी हो गये ।सर पर पांव रखकर महाब्लाग के
आइडिये की तरह गायब हो गये।
कली ने कहा होली में टाईटल-साईटिल देने का रिवाज है। तुम कुछ नहीं करोगे?
भौंरा बोला-किसको क्या- टाईटिल दें। लोग इत्ते हो गये हैं। सबके नाम भी याद नहीं।
फिर भी जो हो सकता है दिया जा रहा है। लोग बुरा न माने तो अच्छा , मान लें तो
बहुत अच्छा।लेकिन किसी को बताना मत कि हमने दिये हैं टाईटिल वर्ना मजा
किरकिरा हो जायेगा।
कली बोली-यार, तुम्हारे तो टाईटिल न हो गये बोर्ड का पर्चा हो गये।सुनाओ जल्दी। आयम स्वेटिंग।
कली के पसीने को सूंघते तथा निहारते हुये भौंरा टाईटिल पढ़ने लगा:-
जीतेन्द्र:-
लट्ठ पड़ा जब जीतेन्द्र पर,गये तुरत घबराय,
कपड़े रंगे उतारकर,दिये डोरी पर लटकाय।
शशिसिंह:-
हमने पहले ही कहा,ये इंडीब्लागीस बड़ा बवाल,
अतुल अंगूठा टेक भये,शशि की भी वैसी ही चाल।
आशीषश्रीवास्तव:-
आशीष फिरत हैं बाबरे,लिये कुंवारापन हाथ,
है कोई कन्या सिरफिरी,जो गहै हमारे हाथ।
मानोसी चटर्जी:-
मानसी की मत पूछिये,जन्मतिथि धरो लुकाय,
जो इनके हत्थे चढ़ी ,जाने क्या-क्या देंय बताय।
अमित:-
अमित,अमित से सौ गुने,लड़कपना अधिकाय,
घुमाफिरा कर दोष सब, कन्यन पर रहे लगाय।
लाल्टू:-
लाल्टू जी तो धांसकर, लिखते हैं भरमाय/हडकाय,
समझगये तो ठीक है, वर्ना क्या ‘कल्लोगे’ भाय!
मसिजीवी:-
मसिजीवी तो रेल की ,पटरी के हैं पास।
ठहर गयी है रेल,क्या चले बुझावन प्यास।
रविरतलामी:-
रविरतलामी के हाथ का कैसे करें बखान,
इत्ता टाइप हम करें तो निकल जायेंगे प्रान।
लक्ष्मी नारायन गुप्त:-
लक्ष्मी भइया समझ में, आयी न आपकी चाल,
इत कहते हो रूढि है,उत चातक-स्वाती सा हाल।
ईस्वामी:-
स्वामीजी से क्या कहें,पूरा औघड़ का अवतार,
सांड़ का रोल माडल गहे,भैंसन को रहे निहार।
देबाशीष:-
क्या हाल बना रखा है ,हे देबाशीष , महाराज,
कल कैसे लिख पाओगे,यदि नहीं लिखोगे आज!
प्रत्यक्षा:-
कविता को अब छोड़कर ,लेखन ही लें अपनाय,
हम भी समझेगें कुछ-कुछ,कुछ आपहु समझो भाय।
इन्द्र अवस्थी:-
ठेलुहे तो हैं ठेठ ही, मौंरावा के लाल ,
आलस में इनसे बड़ा ,कौन माई का लाल।
राजेश कुमार सिंह:-
राजन लौटे देश में , हुई लेखनी ठप्प,
नून-तेल भारी हुआ,भूले कविता -गप्प।
सारिका सक्सेना:-
कुछ साज बज रहे थे मेरे मन की सरगमों में,
अब सुन रही हूं केवल,शब्दांजलि की उलझनों को।
क्षितिज कुलश्रेष्ठ :-
क्षितिज तुम्हारा चिंतन ही स्वयं काव्य है,
बर्लिन में समलैंगिग बन जाना सहज सम्भाव्य है।
जोगलिखी:-
ये आपके तरकश से कैसे तीर चलते हैं,
जिनको महान कहते हैं उन्हीं से बचते हैं।
‘सृजन-गाथा’ :-
ब्लाग बहुत ही अच्छा है , लोकप्रियता से न घबराइये,
वाह-वाह से डरें मत बिल्कुल ,बस आप लिखते जाइये।
शुऎब:-
शुऐब ओसामा से जरा मिलना बहुत संभलकर,
पोटा का सोंटा पड़ जायेगा,रह जाओगे तड़पकर।
रमनकौल:-
रमनकौल जी बसि रहे ,न जाने केहि देश,
हम नित खोजत हैं यहां मिल जाये किस भेष!
समीर लाल:-
उड़नतस्तरी उड़ रही,जमकर पंख पसार,
ऊंचाई बढ़ जायेगी,कुछ कम हो यदि भार।
अतुल अरोरा:-
स्टेचू सा खड़ा है,ये रोजनामचा ब्लाग,
बहुत दिनों तक सोते बीते,अब तो जाओ जाग।
पंकज नरुला:-
मिर्ची सेठ ने किया ये तो बड़ा कमाल,
मिर्च बेचना त्यागकर, लिया सृष्टि का हाल।
सुनाते सुनाते भौंरे ने देखा कि कली बोरहोकर सो गयी है। भौंरे ने कली को चूमकर
‘हैप्पी होली’कहा तथा दूसरी कली पर डोरे डालने निकल पड़ा।
नोट-बाकी के टाईटिल पढ़ने के लिये दुबारा पढ़ें। टिप्पणी देकर टाईटिल सुझायें।
लेकिन अब क्या दुबारा पढ़ेंगे।दूसरा ही लेख पढ़ लें -आइडिया जीतू का लेख हमारा।
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फ़ुरसतिया
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- अमल के इंतजार में आइडिये.... 43 comment(s)
बहुत बधाई इतने बढियां तरीके से आपने होली मनवा दी, बहुत जमाने बाद टाइटिल देखने मिले…
वैसे अगर मै इतनी मेहनत से टाईप करुँ तो उडन तश्तरी पर भार जरुर कम हो जायेगा.:)
पुनः बधाई.
समीर लाल
कुर्सी हिलती देख कर नारद जी पकड़ें कान।
बोले प्रभु सब को मिले महा समय वरदान
फुरसतिया सी फुरसत हो, और शब्दों की खान।
शब्दों की हो खान, रोज़ चिट्ठा लिख पाएँ
इन्द्र, देब, राजेश, रमन, फुरसतिया हो जाएँ।
आपको और आपके परिवार को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। हमारी तरफ़ से भी होली खेल लेना भाई, हम तो होली के दिन भी आफिस मे बैठे है।
फ़ुरसतिया:-
ये टाइटिल तो महज़ बहाना है
मकसद कच्छा चोली रँगना है
फ़ुरसतिया की लेखनी की मार
देखें रोता कौन किसे हँसना है
सवाल कुछ भी नहीं था यारों
दरअसल सारा नगर रँगना है
सोच कर अभी खुश मत हो
अगली बार तुम्हें ही फंसना है
व्यंग्य बाण तो देखे थे बहुत
ये तो हाइड्रोज़न बम चलना है
कुर्सी हिलती देख कर नारद जी पकड़ें कान।
बोले, प्रभु सब को मिले महा समय वरदान
फुरसतिया सी फुरसत हो, हो शब्दों की खान।
हो शब्दों की खान, रोज़ चिट्ठा लिख पाएँ
इन्द्र-देब-राजेश-रमन फुरसतिया हो जाएँ।
(कल यह टिप्पणी लिखी थी, शायद 4-5 कड़ियाँ होने के कारण अनुमोदित नहीं हुई। अब बिना कड़ियों के कोशिश की है।)