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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
रात को बगोदर पहुंच गये थे। प्रोग्राम के अनुसार हमें पांच जुलाई
को ही बगोदर पहुंच जाना था लेकिन गया में दत्तात्रेय शास्त्री जी से मिलने
के कारण बोधगया में ठहरना हो गया तथा इसके बाद तेज बारिश ने बाधा
पहुंचाई। कुछ समय मगध विश्वविद्यालय में भी लग गया।लिहाजा हम पांच जुलाई
को केवल डोबी तक ही पहुंच पाये।रात डोबी में रुककर हम छह जुलाई को सबेरे बगोदर के लिये चले।
डोबी से ही ‘ऊँच-नीच’ का सिलसिला शुरू हो गया था।सड़कें इस कदर ऊँची-नीची थीं मानो स्पीड-ब्रेकर को फैला कर बिछा दिया गया हो।कभी तो आधा-आधा किमी तक की ऊँचाई मिलती थी। इन पर ट्रक तक चींटी की रफ्तार से चलते दिखाई देते।
हम चढ़ाई पर चढ़ते-चढ़ते पस्त हो जाते थे। चढ़ाई के बाद ढलान कुछ देर सुखद अनुभूति के रूप में आती जहां हम सर्राते हुये आगे बढ़ते लेकिन कुछ दूरी के बाद चढ़ाई फिर हमारा स्वागत करने को सामने दिखाई पड़ती।यह रास्ता वास्तव में थका देने वाला था।अगर इस रास्ते पर साईकिल की गद्दी से एक-एक फुट ऊपर उचककर चढ़ाई चढ़ाते हमारे घर वाले देख लेते तो शायद बीच रास्ते से वापस बुला लेते।
बहरहाल दिन भर की थकान भरी यात्रा के बाद हम शाम को बगोदर पहुंचे।बगोदर में हमारे जानने वाला कोई नहीं था। जिन जगहों पर हमारा कोई तय ठिकाना नहीं होता था वहां हम कुछ देर घूम-घाम कर मुफ्त का आशियाना खोजते। बगोदर में भी ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। बगोदर हाईस्कूल के छात्रावास में हमें रहने को छत तथा खाने को खाना मिल गया।
बगोदर स्कूल के प्रधानाचार्य विनय अवस्थी से कुछ नाराज से हुये क्योंकि उसने अपना परिचय अंग्रेजी में दिया था।लेकिन नाराजगी ज्यादा देर नहीं रही। वे हमसे रास्ते के अनुभव सुनते रहे।
खा-पीकर हम कुछ देर तक छात्रावास के बच्चों से गपियाते रहे फिर पता ही नहीं लगा हम कब सो गये। जागे तो सबेरा हो चुका था।
सात जुलाई का दिन , खास दिन था। हमारे साथी विनय अवस्थी का जन्मदिन था । सबेरे ही उसको हमने जन्मदिन की शुभकामनायें दीं। छात्रावास के बच्चों ने वहीं के फूलों लो तोड़कर माला बनाकर अवस्थी को पहनाई। कुछ देर बाद नास्ता करके हम आगे के लिये चल दिये।
हम खरामा -खरामा चले जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी जिसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा। नदी के किनारे हम कुछ देर खड़े रहे। नदी के प्रवाह को देखते रहे। कुछ देर में पास के ही गांवों की कुछ प्रोढ़ महिलायें वहां नदी में नहाने लगीं। अधिकतर ने ऊपर कुछ कपड़े नहीं पहने थे। वे केवल धोती पहने/लपेटे थीं।वे हमसे बेखबर नदी में नहाने में तल्लीन थीं। हमारे लिये महिलाओं को इस तरह नहाते देखने का पहला मौका था। हम नदी के प्रवाह के साथ-साथ नदी में सौन्दर्य प्रवाह को भी देखने में तल्लीन हो गये।
लेकिन हमारी तल्लीनता ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह सकी। जब हम नदी में नहाते सौन्दर्य को देख रहे थे उसी समय नदी के किनारे निपटता आदमी सौन्दर्य के साथ-साथ शायद हमें भी देख रहा था। निपटने के बाद पहले तो उसने महिलाओं को इस तरह नहाने के लिये जोर से डांटा। फिर वह हमारी तरफ बढ़ा। उसे अपनी तरफ बढ़ते देख हम सड़क की तरफ बढ़ लिये। इससे उसका कर्तव्य बोध भी बढ़ गया तथा उसने तमाम प्रचलित तथा अप्रचलित गालियों के अलावा हमें धमकी दी -भाग जाओ नहीं तो छह इंच छोटा कर देंगे।
लेकिन हम गरदन कटने के दायरे से बहुत दूर जा चुके थे। डर के मारे हमारे पैर बहुत देर तक कांपते रहे।अगली सांस हमने तभी ली जब हम नदी को मीलों पीछे छोड़ आये थे।
जान बच जाने की बात सोचते हुये हमने चैन की सांस लेना शुरू किया ही था कि हमारा सामना एक पुलिस दल से हुआ। पहले तो हमें लगा कि हमारी हरकत की रिपोर्ट कर दी गयी है तभी पुलिस दल हमारी तलाश कर रहा था। लेकिन पहली ही बातचीत से हमें लगा कि हमारा डर फिजूल था।
पुलिस दल ने हमसे निहायत शराफत से बात की। हमारे अनुभव सुनने के लिये दरोगा ने हमें अपने साथ एक ढाबे में चाय पिलाई।हमारी खूब हौसला आफजाई की। रास्ते के लिये तमाम हिदायतें दीं।
हम इतने में ही अविभूत थे। लेकिन चलते समय और भी कुछ होना बाकी था। जब हम चलने लगे तो दरोगा ने अपने पास के सारे पैसे अपने पर्स से निकालकर (शायद चार-पांच सौ रहे होंगे) हमें रास्ते में खर्चे के लिये दे दिये। हमने कुछ ना नुकुर किया । पुलिस जो लोगों से पैसे ऐंठने के लिये कुख्यात है उसी पुलिस का बिहार का दरोगा हमें अपने पास के सारे पैसे दे रहा था। यह हमारे लिये सर्वथा नया अनुभव था । लेकिन यह सच भी था।
बहरहाल उसने आग्रह तथा अधिकार पूर्वक हमें पैसे लगभग जबरदस्ती दे दिये।
२३ साल पहले की वह छवि मेरे जेहन में आज तक जस की तस अपनी पूरी चमक के साथ ताजा है।
इसी तरह के तमाम अनुभव हैं जो मेरे मन में अच्छाई के प्रति लगातार विश्वास कायम करती रहती हैं।
डोबी से ही ‘ऊँच-नीच’ का सिलसिला शुरू हो गया था।सड़कें इस कदर ऊँची-नीची थीं मानो स्पीड-ब्रेकर को फैला कर बिछा दिया गया हो।कभी तो आधा-आधा किमी तक की ऊँचाई मिलती थी। इन पर ट्रक तक चींटी की रफ्तार से चलते दिखाई देते।
हम चढ़ाई पर चढ़ते-चढ़ते पस्त हो जाते थे। चढ़ाई के बाद ढलान कुछ देर सुखद अनुभूति के रूप में आती जहां हम सर्राते हुये आगे बढ़ते लेकिन कुछ दूरी के बाद चढ़ाई फिर हमारा स्वागत करने को सामने दिखाई पड़ती।यह रास्ता वास्तव में थका देने वाला था।अगर इस रास्ते पर साईकिल की गद्दी से एक-एक फुट ऊपर उचककर चढ़ाई चढ़ाते हमारे घर वाले देख लेते तो शायद बीच रास्ते से वापस बुला लेते।
बहरहाल दिन भर की थकान भरी यात्रा के बाद हम शाम को बगोदर पहुंचे।बगोदर में हमारे जानने वाला कोई नहीं था। जिन जगहों पर हमारा कोई तय ठिकाना नहीं होता था वहां हम कुछ देर घूम-घाम कर मुफ्त का आशियाना खोजते। बगोदर में भी ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। बगोदर हाईस्कूल के छात्रावास में हमें रहने को छत तथा खाने को खाना मिल गया।
बगोदर स्कूल के प्रधानाचार्य विनय अवस्थी से कुछ नाराज से हुये क्योंकि उसने अपना परिचय अंग्रेजी में दिया था।लेकिन नाराजगी ज्यादा देर नहीं रही। वे हमसे रास्ते के अनुभव सुनते रहे।
खा-पीकर हम कुछ देर तक छात्रावास के बच्चों से गपियाते रहे फिर पता ही नहीं लगा हम कब सो गये। जागे तो सबेरा हो चुका था।
सात जुलाई का दिन , खास दिन था। हमारे साथी विनय अवस्थी का जन्मदिन था । सबेरे ही उसको हमने जन्मदिन की शुभकामनायें दीं। छात्रावास के बच्चों ने वहीं के फूलों लो तोड़कर माला बनाकर अवस्थी को पहनाई। कुछ देर बाद नास्ता करके हम आगे के लिये चल दिये।
हम खरामा -खरामा चले जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी जिसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा। नदी के किनारे हम कुछ देर खड़े रहे। नदी के प्रवाह को देखते रहे। कुछ देर में पास के ही गांवों की कुछ प्रोढ़ महिलायें वहां नदी में नहाने लगीं। अधिकतर ने ऊपर कुछ कपड़े नहीं पहने थे। वे केवल धोती पहने/लपेटे थीं।वे हमसे बेखबर नदी में नहाने में तल्लीन थीं। हमारे लिये महिलाओं को इस तरह नहाते देखने का पहला मौका था। हम नदी के प्रवाह के साथ-साथ नदी में सौन्दर्य प्रवाह को भी देखने में तल्लीन हो गये।
लेकिन हमारी तल्लीनता ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह सकी। जब हम नदी में नहाते सौन्दर्य को देख रहे थे उसी समय नदी के किनारे निपटता आदमी सौन्दर्य के साथ-साथ शायद हमें भी देख रहा था। निपटने के बाद पहले तो उसने महिलाओं को इस तरह नहाने के लिये जोर से डांटा। फिर वह हमारी तरफ बढ़ा। उसे अपनी तरफ बढ़ते देख हम सड़क की तरफ बढ़ लिये। इससे उसका कर्तव्य बोध भी बढ़ गया तथा उसने तमाम प्रचलित तथा अप्रचलित गालियों के अलावा हमें धमकी दी -भाग जाओ नहीं तो छह इंच छोटा कर देंगे।
लेकिन हम गरदन कटने के दायरे से बहुत दूर जा चुके थे। डर के मारे हमारे पैर बहुत देर तक कांपते रहे।अगली सांस हमने तभी ली जब हम नदी को मीलों पीछे छोड़ आये थे।
जान बच जाने की बात सोचते हुये हमने चैन की सांस लेना शुरू किया ही था कि हमारा सामना एक पुलिस दल से हुआ। पहले तो हमें लगा कि हमारी हरकत की रिपोर्ट कर दी गयी है तभी पुलिस दल हमारी तलाश कर रहा था। लेकिन पहली ही बातचीत से हमें लगा कि हमारा डर फिजूल था।
पुलिस दल ने हमसे निहायत शराफत से बात की। हमारे अनुभव सुनने के लिये दरोगा ने हमें अपने साथ एक ढाबे में चाय पिलाई।हमारी खूब हौसला आफजाई की। रास्ते के लिये तमाम हिदायतें दीं।
हम इतने में ही अविभूत थे। लेकिन चलते समय और भी कुछ होना बाकी था। जब हम चलने लगे तो दरोगा ने अपने पास के सारे पैसे अपने पर्स से निकालकर (शायद चार-पांच सौ रहे होंगे) हमें रास्ते में खर्चे के लिये दे दिये। हमने कुछ ना नुकुर किया । पुलिस जो लोगों से पैसे ऐंठने के लिये कुख्यात है उसी पुलिस का बिहार का दरोगा हमें अपने पास के सारे पैसे दे रहा था। यह हमारे लिये सर्वथा नया अनुभव था । लेकिन यह सच भी था।
बहरहाल उसने आग्रह तथा अधिकार पूर्वक हमें पैसे लगभग जबरदस्ती दे दिये।
२३ साल पहले की वह छवि मेरे जेहन में आज तक जस की तस अपनी पूरी चमक के साथ ताजा है।
इसी तरह के तमाम अनुभव हैं जो मेरे मन में अच्छाई के प्रति लगातार विश्वास कायम करती रहती हैं।
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 9 Responses
बकिया चकाचक, आगे की कडियों का भी इन्तजार रहेगा।
आलोक भाई ,ज्यादातर संस्मरण शुरुआती दिनों में लगभग रोज लिखे थे।बाद के दिनों में केवल मुख्य घटनायें लिखीं,डायरी में। जैसे इस लेख के बगोदर हाईस्कूल से चलने तक का विवरण डायरी से लिया है तथा दरोगाजी वाला विवरण याददाश्त तथा फोटो से लिया गया है। लेकिन घटनायें सच हैं।
-प्रेमलता पांडे
अब स्वामी जी का ईंतजार है, उन्होने किसे चूना लगाया है ?
आशीष