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फुरसतिया खाली भये छाप दिहिन अखबार…
By फ़ुरसतिया on June 3, 2007
जनता जनार्दन की जय हो।
अपने प्रेमी पाठक समुदाय की इच्छा के अनुसार ‘फुरसतिया टाइम्स’ का दूसरा अंक आपके सामने है। हम खाली हुये और अखबार निकाल दिये-
अपने प्रेमी पाठक समुदाय की इच्छा के अनुसार ‘फुरसतिया टाइम्स’ का दूसरा अंक आपके सामने है। हम खाली हुये और अखबार निकाल दिये-
फ़ुरसतिया खाली भये छाप दिहिन अखबार,
खुद तो बैठे मौज से दुखिया सब संसार।
दुखिया सब संसार कि हंसने से डरते लोग
हंसने केवल मात्र से, भाग जायें सब रोग।
हंसत-हंसत रहिये सदा, दुख को न डालो घास
घोड़े, खच्चर खा जायेंगे, फ़िर होगे और उदास।
छोड़ उदासी संगत को, मस्त रहो मेरे भइया,
पढो इसे ,पढ़कर बतलाओ, कैसाहै’फुरसतिया’।
यह घोषणा पत्र हम समीरलालजी से लिखवाना चाहते थे। मुंडलिया में। या फिर रवि रतलामी के व्यंजल। लेकिन दोनों आनलाइन न दिखे सो ऐसे ही ‘रफ़ू कविता’ से काम चलाना पड़ा।
एकाध चिप्पियां तो अखबार स्कैन कराते-कराते नत्थी कर दीं। ब्लाग जगत के अधिकाश लोगों के लिये यह है-
लिखत,पढ़त,विहंसत फिरत, इधर-उधर टिपियात,
ब्लाग जगत में सबसे करत मौज-मजे की बात।
कुछ विघ्न संतोषी जीव भी हैं। बंदऊं संत-असज्जन चरना की नियम के अनुसार उनका भी स्मरण करना आवश्यक है-
लड़त,भिड़त,ऐंठत फिरत, जहां-तहां भिरि बात,
ऐसेउ सनकी जीव हैं, जो राह चलत लड़ि जात।
इस अंक प्रकाशित करते हुये हमने और कुछ नयी बातें सीखीं। पहले तो नेट से रंगीन फोटो लेकर ‘माइक्रोसाफ़्ट वर्ड’ में की टेबल में लगाना सीखा। इसके साथ ही सागर ने आनलाइन कार्टून बनाना सिखाया। हिंदी में अलबत्ता अभी डायलाग लिखना नहीं सीख पाये। लिहाजा पाठक को इस बार भी हमारा ही हस्तलेख झेलना पड़ेगा। वैसे यह भी एक तरह से ठीक ही है।क्योंकि हम कार्टून बनाकर अगर उसे छोटा करके छापेंगे तो शायद दिखायी न दे। जबकि फोटॊ छोटा करके उसमें डायलाग पूरा लिखा जा सकता है।
तमाम दोस्तों ने इसके प्रकाशन में सहयोग देने के लिये लिखा था लेकिन इस बारे में कोई बातचीत न हो सकी। लिहाजा सामग्री जैसी है वैसी प्रस्तुत है। आगे के अंक शायद और बेहतर निकल सकें।
बहरहाल, ज्यादा कुछ और न लिखते हुये फुरसतिया टाइम्स का दूसरा अंक आपके सामने है। इसमें लिंक आदि आजकल में लगाये जायेंगे। तब तक आप बतायें आपको यह अंक कैसा लगा! आलोचना करने में संकोच न करें !:)
भूल सुधार: १.पहले पेज में पहले कालम में देबाशीष बनर्जी की जगह देबाशीष चक्रबर्ती पढ़ें। देबाशीष बनर्जी असल में मेरे बहुत पुराने दोस्त हैं। तब के जब दुनिया में ब्लागिंग शुरू भी न हुयी थी। वे भी पूना में हैं आजकल। दोस्त चाहे जितने पुराने हों जायें कहीं न कहीं से याद आ ही जाते हैं किसी न किसी बहाने।
२. पहले पेज के तीसरे कालम में मरहूम(स्वर्गीय) की जगह महरूम (वंचित) पढ़ें। इसके लिये ध्यान दिलाने के लिये राजीव टंडनजी का आभार। पहली गलती की तरफ़ भी देबू ने इशारा किया जो कि शुक्रवार को अमेरिका पहुंच चुके हैं।
Posted in इंक-ब्लागिंग | 25 Responses
फुरसतिया टाइम्स के संपादक को हमारी कुछ मांगे
इस बार तो हमारे काम का भी विज्ञापन मिल गया :)।
अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी।
क्या अखबार निकालते हैं साहब वाह।
आभार!
ईका पढिकर आ गयिन बचपन के दिन याद ।
जल्दी बाजी मे पेज भी खा गया और आधे आधे मे न. डाल दिये
हमे इसकी पूरी जांच रिपोर्ट चाहिये
अब आपका अखबार पढ़ने से खिज नहीं होगी, बल्कि सुबह-सुबह हँसने से स्वास्थ्य बनेगा.
आपकी हस्तलिपी इतनी अच्छी है उस में लिखे हिस्सों का प्रतिशत कृपया कुछ बढाईये!