http://web.archive.org/web/20110926054235/http://hindini.com/fursatiya/archives/450
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
कृष्ण बिहारी- मेरी तबियत है बादशाही
[सारिका सक्सेना काफ़ी
दिन तक शब्दांजलि पत्रिका चलाती रहीं। मैंने शब्दांजलि के लिये कुछ
इंटरव्यू लिये थे। उनमें से एक चर्चित कथाकार कृष्णबिहारीजी का भी था।
बिहारीजी का यह इंटरव्यू आपके लिये हम जस का तस पेश कर रहे हैं। लेख के अंत
में उनसे जुड़े लेखों, कहानियों और गीतों की संबंधित कड़ियां दी गयी हैं। ]
अपने बोल्ड ,बेबाक लेखन के लिये जाने जाने वाले कृष्णबिहारी ने मात्र १४ वर्ष की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था ।पहली कहानी छपी १७ वर्ष की उम्र में।२७ अगस्त,१९५४ को गोरखपुर जिले की बांसगांव तहसील(अब खजनी) के कुण्डाभरथ गांव में जन्में कृष्णबिहारी का बचपन से जवानी का अधिकांश हिस्सा कानपुर के अर्मापुर में बीता। कानपुर से हिंदी विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. बिहारीजी की सैंकडो़ कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। पत्रकारिता के दिनों में सच्ची प्रेम कहानियों पर आधारित श्रंखला,‘मेरी मोहब्बत-दर्दे जाम’,१९८४ के दंगों पर,‘यह क्या हो गया देखते-देखते’ ,वेश्याओं के जीवन पर आधारित, ‘घुंघरू टूट गये’ और अन्तरजातीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवाहों पर परिचर्चाओं की श्रंखला प्रकाशित । हिंदी तैमासिक पत्रिका ‘कल के लिये’ के लिये प्रकाशन सहयोग देने वाले कृष्णबिहारी के रचनासंसार में शामिल हैं:-
एकांकी नाटक-यह बहस जारी रहेगी,गांधी के देश में,एक दिन ऐसा होगा ।
कविता संग्रह-मेरे मुक्तक मेरे गीत,मेरे गीत तुम्हारे हैं,मेरी लम्बी कवितायें।
उपन्यास-रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आंखों वाला यात्री,पारदर्शिया।
यात्रा वृतांत-सागर के इस पार से उस पार से।
‘दो औरतें‘ का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा दिल्ली द्वारा श्री देवेन्द्रराज अंकुर के निर्देशन में १९९६ में मंचन।
हालांकि ‘दो औरतें’ के लेखक के नाते समय-समय पर बिहारीजी की कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे लेकिन वे इससे बेपरवाह अपने लेखन के माध्यम से जिसे सच समझते हैं उसे दिखाने में हिचकते नहीं। ‘बोल्ड‘ लेखन के लिये ख्यात बिहारीजी सस्ते सनसनीखेज लेखन के बिल्कुल हिमायती नहीं हैं। हंस पत्रिका में जब आत्मस्वीकृतियों का दौर में जब हो हल्ला मचा तो अपनी बेबाक राय देत हुये कृष्णबिहारी ने लिखा-…आप तय करें कि जिसे आपने मोहब्बत के दो बोल कहे हैं उसे नंगा करते हुये आपको कैसा लगता है।..खुद को नंगा करना हिम्मत की बात है लेकिन दूसरों के कपड़े बाजार में बेचने के लिये उतारना चिबिल्लई है। …मैं चिबिल्लई का समर्थक कतई नहीं हूं।अखबार और रेडियो की दुनिया से जुड़े रहने के बाद पिछले सत्रह वर्षों से अध्यापक कृष्ण बिहारी से शब्दांजलि के लिये यह साक्षात्कार गोविंद उपाध्याय तथा अनूप शुक्ला ने लिया। साथ में कृष्ण बिहारी द्वारा लिखा लेख मेरा लेखन तथा कृष्ण बिहारी पर गोविंद उपाध्याय का लेख मैं कृष्णबिहारी को नहीं जानता।
अपने बचपन के बारे में कुछ बतायें।
‘मेरा बचपन’! आपने गोर्की की याद दिला दी । मध्यवगीर्य परिवार में पैदा हुआ । गोरखपुर के गांव कुण्डाभरथ में। परिवार समर्थ था । ननिहाल भी । मांगने से पहले चीज़ें मिल जाती थीं । परिवार में सबसे बड़ा लड़का था। मान-जान था । लेकिन वह सब तबतक ही रहा जबतक मैं बच्चा था। मेरे होश संभालते ही सबकुछ गड़बड़ हो गया। ननिहाल में भी और घर में भी । किसी का होश संभालना एक दुघर्टना है ।
आपने लिखना कब से ,कैसे शुरु किया?
लिखना सन १९६७-६८ में शुरू किया लेकिन तब कुछ भी स्पष्ट नहीं था कि मैं क्या लिखना चाहता हूं ।
आप पहले पत्रकारिता से जुड़े थे। अब अध्यापन से ।किस पेशे में ज्यादा सुकून मिलता है?
पत्रकारिता रही हो या अध्यापन , या फिर कोई और जरिया ही जीवन यापन के लिए अपनाया होता , यह तो तय था और तय है कि मैं कुछ भी कर सकता हूं । मैं इस मामले में ‘फसी’ नहीं हूं कि यही करना है और इसके अलावा कुछ नहीं। मैंने इनके अलावा भी कई काम किए हैं । मसलन ‘गोल्ड स्पाट’ कंपनी में एक दिन जूठी बोतलें ट्रक से उतारने और भरी बोतलें लादने का भी काम किया है । मैं कोई भी काम अरूचि से नहीं करता । सुकून एक ‘टर्म’ है और यह तब मिलता है जब आपने कोई काम मन से किया हो।
आपकी रचना प्रक्रिया क्या है?
‘ मेरी रचना प्रक्रिया’ क्या है ? यह तो वही सवाल हुआ कि आप जीते कैसे हैं ? जब जियूंगा तभी तो रचूंगा। बड़ा सीधा उत्तर है। जि़न्दगी से मुठभेड़ करता हूं । ठीक वैसे ही जैसे पुलिस वाले एनकाउण्टर करते हैं । निर्दय मुठभेड़। मैं छोड़ता किसी को नहीं , खुद को भी नहीं । तो , रचना की कमी कहां है ?
आपके लेखन में आपके परिवार का क्या योगदान रहा-खासतौर पर पत्नीश्री का कितना योगदान है?लगातार लेखन से आप अपने परिवार को समय कम दे पाते होंगे।क्या प्रतिक्रिया होती है परिवार के लोगों की?
शादी होने के १५ साल पहले से लेखन से जुड़ाव हो चुका था। होने वाली पत्नी को भी मालूम हो चुका था कि एक लेखक से शादी हो रही है। हां ,होने वाला पति अध्यापक भी है इस बात से सुकून ज्यादा था। बहरहाल यह कह सकता हूं कि लेखकों के बारे में प्राय: सुनी जाने वाली घर-परिवार के प्रति लापरवाही मेरे स्वभाव का अंग नहीं है।मैं अपनी जिम्मेदारियां निभाता हूं।जहांतक पत्नी के योगदान का सवाल है तो ऐसा शायद ही किसी लेखक की बीबी करती हो कि रात ९ बजे मोबाइल पर ‘रिमाइन्डर’ देकर कहे कि आपके लिखने का समय हो गया है।अबूधाबी में जब मैं रहता हूं तो हर हाल में रात ९ बजे तक लिखने की मेज पर आ जाता हूं लेकिन हिंदुस्तान में छुट्टियों के दौरान हर तरह के नियम टूट जाते हैं। हिंदुस्तान में घूमने और अपने दोस्तों से मिलने जाता हूं, बैठकर लिखने नहीं। लगातार लेखन का संबंध रोज और नियमित लिखने से है।पत्नी की ओर से मुझे सहयोग ही मिला है। हां,कभी-कभी शिकायतें भी मिलीं कि आपको तो लिखने से ही फुरसत नहीं किंतु ऐसा बहुत कम बार हुआ है। लिखना जिंदगी की गाड़ी के चलने में कभी रोड़ा नहीं बना। इसका कारण शायद यह भी हो सकता है कि मैं हमेशा अच्छी नौकरी में रहा और दूसरे लेखन से जो यश मिला उसके भागी सभी हुये।
आपकी कहानी ‘दो औरतें’ बहुचर्चित हुयी। इसके पहले भी आपकी तमाम रचनायें छपीं होंगी।उनके बारे में चर्चा क्यों नहीं होती?
‘ दो औरतें’ अक्टूबर सन १९९५ में ‘हंस’ में छपी थी । इससे पहले मेरी कहानियां’जागरण’, ‘रितम्भरा’ ‘कहानीकार’ और ‘मन्तव्य’ नामक पत्रिकाओं में छपीं । पहली कहानी १९७१ में प्रकाशित हुई थी । उन कहानियों में से कुछ की चर्चा भी हुई थी लेकिन वे चर्चा का वह मुकाम हासिल नहीं कर सकीं जो ‘दो औरतें ‘ को मिला । बात साफ है । चर्चा कहानियों की नहीं होती । आफ बीट कहानियों की होती है । एक बात और है । इस बात से भी फर्क पड़ता है कि आपकी कहानी ‘छपी’ किस पत्रिका में है। दूसरी बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । क्या आप अपनी चर्चा करा सकते हैं ? करने वाले हैं । न होते तो एक ही कहानी की बरसों विरूदावलियां गाईं जाती ? क्या आप आज के चारणों को नहीं जानते ? पिछले ६-७ साल की पत्रिकाएं पलट लें , नाम-पता सब मिल जाएगा ।
आपने प्रेम सम्बन्धों पर श्रंखलाबद्ध लेखन दैनिक जागरण में किया था। क्या है आपकी नजरों में प्रेम की परिभाषा?
जब मैंने प्रेम पर सीरीज़ लिखी या एक लम्बी कहानी ‘यह कोई कहानी नहीं’ तब मैं उम्र के उस भावुक मुका़म पर एक असफल आशिक था । प्रेम में मिली असफलता ने मुझे बहुत समय तक संज्ञा-शून्य कर दिया था।उस सीरीज़ ‘मेरी मोहब्बत दर्दे आम’ में टूटे दिलों की कहानी थी । आज जब आपने यह सवाल पूछा है कि मेरी नज़रों में प्रेम क्या है तो यह कहना चाहूंगा कि अपने विगत और वतर्मान के बीच बहुत कचरा गन्दे नाले और उससे ज्यादा गंगा नदी में बहते देख चुका हूं । समय के साथ प्रेम भी बदलता रहा है और आज तो प्रेम केवल व्यवहारजन्य मेल से उपजी मात्र एक स्थिति है । न प्रेम होने से किसी को फर्क पड़ता है और न उसके टूटने से । उस दौरान मैंने मुजफ्फरपुर की वेश्याओं पर भी एक सीरीज़ ‘घुंघरू टूट गए’ स्व०श्यामनन्दन वर्मा के सहयोग से लिखी थी और दूसरी सन १९८४ में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद ‘यह क्या हो गया देखते-देखते?’ दोनों कानपुर से प्रकाशित ‘आज’ में प्रकाशित हुई थीं । करीब एक साल बाद इसी शीषर्क से अमृता प्रीतम जी ने भी एक सीरीज़ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में लिखी । वही विषय, वही शीषर्क। मुझे न केवल खुशी मिली बल्कि सन्तोष भी कि रचनाकार कहीं भी रहें, आपस में मिलें या न मिलें किन्तु सोचते तो एक दिशा में हैं ।
‘दो औरतें’,संगात् संजायते काम: आदि कहानियों में नायक बुनी परिस्थितियों के मुकाबले काफी आदर्शवादी है । क्या आप भी मानते हैं ? यदि हां तो ऐसा क्या आपके संस्कारों के कारण है?
आदशर्वाद से आपका क्या आशय है ? मैं नैतिकता और अनैतिकता को उस रूप में देखता ही नहीं जिस रूप में यह ढपोरशंखी समाज देखता है । यदि मैं अपनी मां , बहन , बीवी के साथ पार्क में घूम रहा हूं तो आदशर्वादी हूं और अगर एक रण्डी के साथ घूम रहा हूं तो लम्पट ? कैसे ?जबकि घूमने की प्रक्रिया एक है । मैं ऐसे किसी आदशर्वाद में यक़ीन नहीं रखता और न मेरे पात्र ।
‘चिठिया हो तो…’,'दो औरतें,’ब-बाय’ और नातूर जैसी कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं तथा वे अपने कथानक से ज्यादा खुलेपन के कारण चर्चित रहीं हैं। कहीं आप ऐसा तो नहीं मानते कि जो वर्जित है उसकी मांग ज्यादा है तथा कहानियां इसी को ध्यान में रखकर गढ़ी गईं हैं।
‘चिठिया हो तो …’ या ‘ब-बाय’ या कोई अन्य कहानी मेरी कोई रचना अश्लील नहीं है । अगर है तो फिर यह पूरी दुनिया ही अश्लील है। खुलापन क्या होता है ? क्या यह बाथरूम में नंगा होना है ? अगर बाथरूम में नंगा होना है तो उसे खुलापन नहीं कहा जा सकता। और अगर दूसरे को नंगा देखने की इच्छा है तो वह भी खुलापन नहीं है । मेरा विश्वास ढंके और खुले होने में नहीं , सच का बयान करने में है। आपको झटके लगें तो मैं क्या करूं ? मैं मांग के आधार पर नहीं लिखता और किसी क्षेत्र को अपने लिए वर्जित नहीं समझता। एक सच्चाई यह भी है कि मेरा यथार्थ संवेदना विहीन नहीं है । यही दशा मेरे पात्रों की है। वे किसी भी प्रकार के चूतियापे में यक़ीन नहीं रखते। किसी से डरते भी नहीं ।मेरी कहानियां पाठकों को झकझोरती हैं , अश्लीलता की जुगुप्सा या नपुंसक आनन्द नहीं देतीं । यदि किसी को ‘मधुशाला’ में केवल शराब ही शराब दिखाई देती है तो उसकी समझ की बलिहारी है ।
जयप्रकाश आंदोलन से आप जुड़े रहे।८४ के सिखविरोधी दंगों के दौरान भी आप बहैसियत पत्रकार आपने बहुत कुछ देखा। आपकी कहानियों में इन दोनों घटनाओं के अनुभव नहीं मिलते?
जयप्रकाश आन्दोलन अपने समय का वह सच है कि उससे आंखें नहीं चुराई जा सकतीं। दुष्यंत ने लिखा था -
हिंदी कहानी का भविष्य क्या है?
हिन्दी कहानी के भविष्य के बारे में शंका किसलिए ? कहानी अपने किसी न किसी फार्म में चली आ रही है । जो लोग लिख नहीं सकते वे भी कहानियां सुनते सुनाते हैं । जब तक कहानी में रोचकता बनी रहेगी उसके चाहने वाले भी बने रहेंगे । हां, यदि कविता की तरह इसमें भी बौद्धिकता की अति होती जाएगी तो फिर इसका भी नामलेवा मिलना मुश्किल होगा ।
भारतीय लेखकों में विक्रम कोठारी,अरुन्धति राय जैसे लेखक अंग्रेजी में लिखकर दुनिया में चर्चित हुये लेकिन हिंदी में लेखक की हैसियत ‘बेचारा’ की ही बनी रहती है।हिदी लेखन आज पार्ट टाइम जाब बनकर रह गया है। ऐसा क्यों?
अंग्रेजी के जिन लेखकों या लेखिकाओं का आपने जिक्र किया है , निश्चित ही वे आथिर्क रूप से कुछ समृद्ध हुए हैं लेकिन ऐसे रचनाकारों की संख्या बहुत कम है जो केवल लिखने के बल पर अपना जीवन यापन ठीक ढंग से कर पा रहे हैं। हिन्दी का लेखक प्रकाशन की ग़लत नीति के कारण बेचारा बना हुआ है । इतनी बड़ी आबादी वाला देश और इतने अधिक हिन्दी भाषा भाषी लेकिन ३०० प्रतियों का एक एडीशन भी किसी लेखक का हाथो हाथ नहीं बिकता। पुस्तक का छप जाना ही एक लेखक के लिए बहुत बड़ी उपलबब्धि हो सकती है । हिन्दी के परम्परागत पाठक तो रहे नहीं , बड़े लेखक भी पुस्तकें और पत्रिकाएं खरीदकर नहीं पढ़ते । सच तो यह है कि वे मुफ्त में मिलने वाली पत्रिकाएं भी नहीं पढ़ते । लघु पत्रिकाएं हों या बड़ी पत्रिकाएं, रचनाकार को पारिश्रमिक देना तो दूर , यह बताना भी धर्म नहीं समझतीं कि रचना प्रकाशित की है। प्रकाशित रचना की प्रति देने में तो उनका दीवाला निकल जाता है । जहां तक मैंने जाना है उस आधार पर यह कह सकता हूं कि बहुत सी पत्रिकाएं निकालने वाले सम्पादक अपना पेट जिला रहे हैं। कुछ विज्ञापन मिल जाते हैं , कुछ लोग उन्हें जानने लगते हैं , प्रशासनिक अधिकारी उनके बहनोई हो जाते हैं । बस यही कुछ है जिससे एक ऒर उनका पेट भरने लगता है और दूसरी ओर यश का चस्का पूरा होता है। साला बनने का सुख तो अलग है ही लेखकों की दुदर्शा होती हो तो हो उससे इन तथाकिथत सम्पादकों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये ऐसे सम्पादक हैं जो लेखक के डाक टिकट को बेंचकर शाम के पौव्वे का जुगाड़ करते हैं । रचनाकार घर फूंककर तमाशा देखता है और भीतर ही भीतर फुंकता रहता है । कुछ गिनती के सम्पादक हैं जो लेखकों को ‘मनुष्य’ समझते हैं और उनकी रचनाओं का स्टेटस बताते हैं । इस लिहाज़ से भारतीय रचनाकार का जीवन एक थके हुए व्यक्ति का लेखन है।
आज आप प्रवासी हैं। प्रवासी लेखकों की रचनायें हिंदी पत्रिकाओं के लिये ‘इम्पोर्टेड’जैसा आकर्षण रखती हैं। पत्रिकाओं भी प्रवासी विशेषांक निकाल रही हैं। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
प्रवासी होने से पूर्व ही एक लेखक के रूप में मैं जाना जाने लगा था। उस समय की सबसे बड़ी पत्रिकाओं में ‘धमर्युग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ का नाम लिया जा सकता है। मैं उनमें सम्मान के साथ छप रहा था । धर्मवीर भारती जी से मैं कभी मिल तो नहीं सका लेकिन उनका स्नेह मुझे ज़रूर मिला । इसलिए प्रवासी लेखक होने के किसी अतिरक्त लाभ से मैं वंचित हूं । एक बात और है , लेखन के उस ग्लैमर से भी मैं दूर हूं जहां आए दिन मुलाकातें होती हैंऔर एक दूसरे को अच्छा कहने की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। मैं तो साल में बमुश्किल दो दिन दिल्ली और चार दिन कानपुर में होता हूं । लगभग २७ साल से तो यही चर्या है । लगभग ५ करोड़ भारतीय विदेश में हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो इनमें से १००-५० रचनाकार भी हों । सम्पादक अगर प्रवासी अंक निकाल रहे हैं और उनमें मेरी रचनाएं हैं तो इसे मात्र संयोग समझिए कि किसी प्रकार मुझे पता चल गया और मैंने रचना भेज दी वरना मुझे यह तक पता नहीं चलता कि कौन कैसा अंक निकाल रहा है। प्रवासी होने से सही रचनाकार को लाभ नहीं मिलता। हां , कुछ लेखिकाओं को ज़रूर मिल जाता है और सम्पादक उन्हें न जाने क्या देखकर आनन फानन में ‘जानी मानी’ लेखिका बना देते हैं । जहां तक एक स्पष्ट दृष्टि रखने वाले सम्पादक की बात है तो यह सुनिश्चित समझिए कि वह फालतू रचनाओं को मात्र इसलिए तो स्थान देगा नहीं कि वे प्रवासियों द्वारा लिखी गई हैं । कुछेक सम्पादकों को शायद किसी प्रवासी लेखिका से कुछ विशेष की प्राप्ति हो जाए तो हो जाए वरना बहुत से प्रवासी रचनाकार किसी की मदद कर पाने में हर तरह से अक्षम हैं ।
एक अध्यापक की नजरों से आपने बाल मनोविज्ञान का काफी बारीक
अध्ययन किया है।कुछ कहानियां भी लिखी हैं-पापा,हम स्कूल नहीं जायेंगे, वरुण
का क्या होगा ,सर्वोत्तम होने का डर ।बच्चों के लिये और कहानियां क्यों
नहीं लिखते?
अध्यापन से जुड़े हुए तो तीस वर्ष होने को आए। मेरी कहानियों में ‘बच्चा’ बड़ा जीवन्त पात्र है। लगता है बहुत से लोगों की तरह आपकी नज़र से मेरी कई कहानियां नहीं गुज़रीं। बच्चों को पात्र बनाकर मैंने लगभग बीसेक कहानियां लिखी हैं और उनका एक संग्रह भी बहुत ज़ल्द प्रकाशित होने जा रहा है ।
आपकी कहानियों से लगता है कि आप कहानी विस्तार के मोह से बच नहीं पाते। कभी-कभी विस्तार गैरजरूरी भी लगता है। आपका मानना है-’मैं कहानी लिखता हूं चौपाइयां नहीं।’क्या अच्छी कहानी का बड़ा होना जरूरी है?
कहानी में अनावश्यक विस्तार क्या होता है ? रचना की अपनी ज़रूरत होती है। मैंने चार पृष्ठ में समाने वाली कहानियां भी लिखी हैं और बीस-पचीस पंक्तियों में लघुकथाएं भी । यह तो आसान सी बात है कि बैलगाड़ी अब आपको कहीं नहीं ले जाती। दोहे और चौपाइयां भी आपको कहीं नहीं ले जाएंगे। कबीर , रहीम , तुलसी , बिहारी , रसलीन के अलावा भी कुछ और नाम हैं जिन्होंने दोहे लिखकर न केवल नाम कमाया बल्कि ऐसा लिखा कि दूसरों के लिए कुछ बचा ही नहीं । आज भी कुछ लोग दोहे लिख रहे हैं लेकिन क्या नए लिखने वालों का एक भी दोहा आपकी ज़बान पर चढ़ सका ? मैं जो कहानियां लिखता हूं उनका अपना कलेवर होता है । किसी के कहने पर मैं जवाहर लाल नेहरू का कोट लालबहादुर शास्त्री को नहीं पहना सकता। सिर्फ़ इसलिए कि कहानी, कहानी है तो कोई भी आकार चलेगा यह बात बेमायने है । सीधी सी बात है कि आपके अनुभव का दायरा क्या है ?
आपकी कहानी के नायक कहीं न कहीं आपके भोगे हुये यथार्थ की प्रतिक्रिया लगते हैं-खासतौर पर प्रवासी कहानियों की प्रष्ठभूमि वाली कहानियां।क्या कहानी लिखने के लिये किसी लेखक को उस परिवेश को भोगना जरूरी है?
मैं भोगे हुए यथार्थ से भाग कैसे सकता हूं ? कोई तरीका है क्या ? किसी से मुझे सुख मिला , किसी से दुख , तो , दोनों को प्रकट करना मेरा धर्म है । अब यदि यह भोगा हुआ और ज्यादा प्रामाणिक लगता है तो अच्छी बात ही हुई न!कहानी लिखने के लिए प्रामाणिकता क्या होती है , इसे समझने के लिए यह उदाहरण काफी होगा । कैदी की कहानी लिखने के लिए कैदी का जीवन जीना ज़रूरी नहीं लेकिन जेल जीवन को न देखना भी ज़रूरी नहीं , यह तो कहीं नहीं लिखा। जेल जीवन कई तरह से देखा जा सकता है ।
आपको खाड़ी देश के माहौल में तथा देश के माहौल में क्या अन्तर लगता है?
आज इलेक्ट्रानिक युग है । इसके बावज़ूद हिन्दुस्तान और खाड़ी के देशों में जीवन और माहौल दोनों ही आज भी बहुत अलग हैं । हिन्दुस्तान में हर स्थिति को भुगतना पड़ता है लेकिन खाड़ी के देशों में सिर्फ़ एक तनाव है जो जब आता है , जान पर बन आती है । और तनाव से बचा कौन है ?अन्यथा यहां का माहौल हर दृष्टि से हिन्दुस्तान से बेहतर है।
आप मनमौजी,बादशाह तबियत के मालिक के रूप में जाने जाते हैं। यहां खाड़ी के अनुसासित बंधनों में कैसे गुजारा होता है?
मैं ‘मनमौजी’ या ‘बादशाह’ तबियत का जाना जाता हूं लेकिन शायद कुछ करीबी लोगों को छोड़कर बहुत से लोग यह नहीं जानते कि मेरे भीतर का फकीर ही सच्चा इनसान है । मैंने लगभग तीस साल पहले एक ग़ज़ल कही थी -
‘समुझें जग की हर नीतिन्ह को उन्हें देस विदेस मनौं घर है’
जहां रिहए वहां के नियमों और कानूनों का पालन कीजए। कभी – कभी कानून टूटते भी हैं और यह तो सभी जानते हैं कि अपने बगीचे के अमरूदों से ज्यादा स्वादिष्ट दूसरों के बगीचों के अमरूद लगते हैं । तो , उन्हें बिना कानून तोडे कैसे पा सकते हैं! आपको हिम्मत करनी होगी और ज़ोखिम के लिए तैयार रहना होगा । मैं रहता हूं। इसलिए मनचाही जि़न्दगी जीता हूं ।
जैसा हम जानते हैं आप संबंधों में खुले,उदार और खास टाइप के तानाशाही अपनापे का व्यवहार करते हैं। क्या आप इसे सच मानते हैं? यदि हां तो क्या कारण हैं इस व्यवहार के?
तानाशाह नहीं हूं , न्यायप्रिय हूं । अन्याय मुझसे सहन नहीं होता। कहीं भी नहीं । न घर में न बाहर न कायर्क्षेत्र में । मेरी पिछली नौकरियां सिर्फ़ इसीलिए छूटीं या मुझे छोड़नी पड़ीं कि मैं समझौतापरस्त नहीं हो सका । यह नौकरी भी अबतक कभी की छूट गई होती । अगर बची हुई है तो सिर्फ़ इसलिए कि मेरी आवाज़ ग़लत नहीं उठी और इसलिए भी कि मैं अपने सब्जेक्ट में ठीक-ठाक रहा । बाकी , मैं हिटलर या स्टालिन नही हूं । किसी को भी मैं यह हक़ नहीं देता कि वह मेरा भविष्य तय करे । क्या ऐसा करना तानाशाही है ? मैं दुव्यर्वहार न तो किसी से करता हूं न बरदाश्त करता हूं । मुझसे बोलने वालों को सतर्क रहना चाहिए । न तो मैं स्वतंत्रता लेता हूं और न देता हूं ।
आपने अपनी आत्मकथा सागर के उस पार में कई जगह यह जाहिर किया है कि आपकी कहानियों को अपेक्षित तारीफ आलोचकों से नहीं मिली। क्या यह अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की स्थिति नहीं है?आलोचकों को आपसे क्या दुश्मनी है जो आपकी कहानियों को अपेक्षित तारीफ नहीं मिली? अपनी आत्मकथा में मैंने सच ही लिखा है । यदि सच नहीं लिखता तो क्या ज़रूरत थी आत्मकथा लिखने की ? नामवर आलोचकों ने मुझे पढ़ा नहीं और मैंने अपनी किताबें उन्हें पढ़ने के लिए दी नहीं। पत्रिकाओं में मुझे पढ़ने के बावजूद उन्होंने कुछ कहा या लिखा नहीं। लिखते कैसे ? उनकी छाती पर भाई मूंग दल रहा है कि मुझे स्थापित करो । अब वे क्या करें ? पुत्र-मोह या भ्राता-मोह से ऊपर उठना उनके बूते से बाहर है। वैसे भी कुछ दिनों के बाद वे वैशाखी के सहारे ही खड़े हो सकेंगे । मुझे किसी आलोचक की ज़रूरत नहीं है । मेरे आलोचक पाठक हैं । उनके पत्र आते हैं । उनसे बड़ा कोई नहीं। समकालीनों की तो आत्मा सुलगती है कि यह आदमी इतना अच्छा कैसे लिख रहा है ? इतना ज्यादा क्यों लिख रहा है ? जिनकी तारीफ मिलनी चाहिए , मिल रही है । जिनकी नहीं मिल रही है उनसे चाहिए भी नहीं । मैंने एक नहीं , अनेक कहानियां दी हैं जिनका मूल्यांकन ये कुकुरमुत्ते नहीं बल्कि समय करेगा ।
आपके कुछ चरित्र गजब के लगते हैं। जैसे लूला हैदर। आपको अपनी कहानियों के कौन से चरित्र बहुत पसंद हैं?क्यों? ‘लूला हैदर’ ही क्यों ? ‘नातूर’ का बादशाह खान , ‘संगात जायते कामः’ की सुदक्षिणा ,’दो औरतें’ की संक्रांति , ‘हरामी’ का हेनरी , ‘शराबी’ का शंकर नारायन, ‘मुजस्समां’ की अफशां , ‘सर्वप्रिया’ की सैली , ‘अन्ततः पारदर्शी’ की नायिका। मैं किसे याद करूं और किसका उल्लेख न करूं? मेरे चरित्र मुझे प्रिय न होते तो मैं उनपर लिखता ही क्यों? अभी कुछ दिन पहले ‘हंस’ में ‘इन्तज़ार’ प्रकाशित हुई है । उसकी ‘चाची’ को कौन भूल सकता है
कुछ कहानियों मेंआप अपने पात्रों से स्थानीय अरबी भाषा बोलवाते है।कभी-कभी तो पूरे के पूरे वाक्य। फिर अनुवाद। जैसे ड्राइविंग लाइसेंस। हिंदी पाठकों के लिये यह तो स्पीड ब्रेकर की तरह होते हैं।क्या कारण है इसका?
कहानी की कोई भाषा नहीं होती । भाषा लेखक की होती है और वह एक दिन में नहीं बनती। वह उसे अकेले भी नहीं बनाता । वह उसे लोगों के बीच मिलती है । मेरी कहानियों की भाषा उस ज़मीन और उन पात्रों की भाषा है जिनकी वह कहानी है। इसलिए अंग्रेजी ,अरबी, बांग्ला, भोजपुरी और नेपाली भाषा के शब्द मेरी कहानियों में मिलते हैं । मैं इन जगहों और इन लोगों के बीच बरसों रहा हूं तो इनसे बच कैसे सकता हूं । हां , बिना भाषा जाने मैं उसका हास्यास्पद प्रयोग नहीं कराता जैसा कुछ रचनाकार भोजपुरी से नावाकिफ़ होते हुए उसका मज़ाक अपनी रचनाओं में अनजाने उड़ाते हैं। यह बेहूदगी है जो मैं नहीं करता।
आप आमतौर पर अपनी रचना के कितने ड्राफ्ट करते हैं?
रचना को एक बार ही लिखता हूं । चूंकि, कई दिनों में रचना पूरी करता हूं इसलिए उसमें परिवर्तन हर दिन होता रहता है । मैं संडे राइटर नहीं हूं । मैं रचनाऒं की बिक्री से अपना और अपने परिवार का पालन नहीं करता । लिखता जीने के लिए हूं इसलिए रोज़ लिखता हूं, रोज़ जीता हूं । नहीं लिखूंगा तो परेशान रहूंगा और अपने साथ न्याय नहीं कर सकूंगा। कोई बात निरन्तर घूमती रहती है मेरे साथ । वही रचना बनती है।
आजकल नेट पर हिंदी में पत्रिकायें बढ़ रही हैं। आप कौन-कौन सी पत्रिकायें नियमित पढ़ते हैं?
मैं बीस साल से गल्फ़ में हूं । ज़ाहिर है कि मुझे हिन्दी की पत्रिकाएं मुश्किल से मिलती हैं । ‘हंस’ छोड़कर मुझे कोई पत्रिका समय से नहीं मिलती ,वे भी नहीं जिनमें मेरी रचनाएं होती हैं। जब ‘तदभव’ और ‘वागर्थ’ नेट पर आईं तो मुझे अच्छा लगा । ‘तदभव’ नेट से हट गई। ‘वागर्थ’ हटने बाद दुबारा लगी है किन्तु वह आधा महीना बीतने के बाद लगती है। इन्तजार करते-करते मन हार जाता है । हर महीने कालियाजी को याद दिलाना पड़ता है ।
आत्मकथा सागर के उस पार में लिखना स्थगित क्यों है?
आत्मकथा लिखना बन्द नहीं है । उसका प्रकाशन भी ‘प्रशांत ज्योति’ में धारावाहिक रूप से हर रविवार को हो रहा है । सुभाष सिंगाठिया बहुत अच्छे ढंग से उसको प्रकाशित कर रहे हैं। हां, नेट पर उसका प्रकाशन मैंने व्यक्तिगत कारणों से रोक दिया है। मुझे आत्मकथा पर हर सप्ताह कई पत्र, कई फोन और एस एम एस मिल रहे हैं । पाठकों ने पसन्द किया यही मेरी उपलब्धि है। मैं सुभाष का आभारी हूं कि उसने मुझे घर-घर पहुंचाया । नेट पर लिखता था । अच्छा भी लगा था । लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि सच्चाई की राह पर जो मेरे साथ नहीं है मैं उसके साथ नहीं हूं । मेरा एक गीत है -
युवा लेखन कोई नया शब्द नहीं है । युवा हरदम रहे हैं । संघषर्रत। उन्हें स्थान भी मिलता रहा है । नयी पीढ़ी का स्वस्थ जन्मना शुभ है। मुझे युवा रचनाकारों को पढ़ना अच्छा लगता है ।
आपके पसंदीदा रचनाकार कौन हैं?पसंदीदा कहानी,कविता,उपन्यास कौन हैं?
मैं वह सबकुछ पढ़ता हूं जो उपलब्ध हो पाता है । यह नशा है । एक वक्त भूखा रह सकता हूं मगर बिना पढ़े नहीं । देशी-विदेशी रचनाकारों को पढ़ता आ रहा हूं । मुझे रचना अच्छी लगती है रचनाकार का नाम नहीं ।
हंस में आत्मस्वीकृति का सिलसिला चला था। कितना सही था वह?
‘आत्मस्वीकृतियां’ ही तो हैं जिन्हें हम लिख रहे हैं । एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि साहित्य का प्लेटफार्म चरित्र हत्या का प्लेटफार्म न बने । रामशरण जोशी ने जो लिखा मैं उसका विरोधी कतई नहीं हूं। बस उस बारीक रेखा का ध्यान रखने की बात करता हूं । ‘हाट बर्ड’ चैनेल सरलता से मिल रहा है तो क्या करूं ? लगवा लूं ? उसपर दिन भर सबकुछ दिखता है ।
नेट पर न लिखने की कसम नहीं खाई है। समय मिलने पर लिखूंगा।हिंदी नेस्ट में अक्सर कहानियां देता हूं। अब तो हंस ,वागर्थ भी नेट पर ही हैं।
जब आपने कानपुर में लिखना शुरु किया था तब के तथा आज के परिवेश में कितना अंतर पाते हैं?
जब मैंने लिखना शुरू किया था तब कलम में स्याही भरकर लिखने का युग था , आज कम्प्यूटर पर लिखता हूं। बहुत कुछ बदल गया है । ३५-४० सालों में दुनिया ही बदल गई है। दुखद यह रहा कि सुविधाएं तो मिलीं किन्तु रिश्ते मर गए ।
आपको अपनी सबसे पसंदीदा रचना कौन सी लगती है?
रचनाएं मेरी सन्तान हैं । किसे अच्छा कहूं ? किसे बुरा? सब अपना किया-धरा है । सब स्वीकार है । सभी प्रिय हैं ।
आगे क्या लिखना आपसे छूट गया है जिसे लिखना चाहेंगे?
लिखने को अभी तो सबकुछ छूटा ही तो है । जो लिखा गया उससे अच्छा लिखना अभी बाकी है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी कमजोरी कौन सी है जो आपको कचोटती है? उससे छुटकारे का उपाय?
भारतीय समाज की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसका दोमुंहापन, दोगलापन है । वह कहता कुछ , सोचता कुछ और चाहता कुछ है।
अपनी जिंदगी से कितना संतुष्ट हैं आप?
जिन्दगी से प्यार है मुझे अतः असन्तुष्ट होने का प्रश्न ही नहीं।
आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत क्या है आपकी नजरों में?
आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है मेरी।
और सबसे बड़ी कमजोरी?
कमज़ोरियां ही कमज़ोरियां हैं मुझमें।
शब्दांजलि के पाठकों के लिये संदेश?
शब्दांजलि के पाठक अच्छी रचनाएं पढ़ें और दूसरों को भी प्रोत्साहित करें । नया वर्ष आप सबके लिए शुभ हो।
संबंधित कड़ियां:
१. कृष्ण बिहारी परिचय
२. कृष्ण बिहारी के गीत
३. आत्मकथा
अपने बोल्ड ,बेबाक लेखन के लिये जाने जाने वाले कृष्णबिहारी ने मात्र १४ वर्ष की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था ।पहली कहानी छपी १७ वर्ष की उम्र में।२७ अगस्त,१९५४ को गोरखपुर जिले की बांसगांव तहसील(अब खजनी) के कुण्डाभरथ गांव में जन्में कृष्णबिहारी का बचपन से जवानी का अधिकांश हिस्सा कानपुर के अर्मापुर में बीता। कानपुर से हिंदी विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. बिहारीजी की सैंकडो़ कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। पत्रकारिता के दिनों में सच्ची प्रेम कहानियों पर आधारित श्रंखला,‘मेरी मोहब्बत-दर्दे जाम’,१९८४ के दंगों पर,‘यह क्या हो गया देखते-देखते’ ,वेश्याओं के जीवन पर आधारित, ‘घुंघरू टूट गये’ और अन्तरजातीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवाहों पर परिचर्चाओं की श्रंखला प्रकाशित । हिंदी तैमासिक पत्रिका ‘कल के लिये’ के लिये प्रकाशन सहयोग देने वाले कृष्णबिहारी के रचनासंसार में शामिल हैं:-
कृष्णबिहारी
कहानी संग्रह-दो औरतें,पूरी हकीकत पूरा फसाना,नातूर ,एक सिरे से दूसरे सिरे तक।एकांकी नाटक-यह बहस जारी रहेगी,गांधी के देश में,एक दिन ऐसा होगा ।
कविता संग्रह-मेरे मुक्तक मेरे गीत,मेरे गीत तुम्हारे हैं,मेरी लम्बी कवितायें।
उपन्यास-रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आंखों वाला यात्री,पारदर्शिया।
यात्रा वृतांत-सागर के इस पार से उस पार से।
‘दो औरतें‘ का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा दिल्ली द्वारा श्री देवेन्द्रराज अंकुर के निर्देशन में १९९६ में मंचन।
हालांकि ‘दो औरतें’ के लेखक के नाते समय-समय पर बिहारीजी की कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे लेकिन वे इससे बेपरवाह अपने लेखन के माध्यम से जिसे सच समझते हैं उसे दिखाने में हिचकते नहीं। ‘बोल्ड‘ लेखन के लिये ख्यात बिहारीजी सस्ते सनसनीखेज लेखन के बिल्कुल हिमायती नहीं हैं। हंस पत्रिका में जब आत्मस्वीकृतियों का दौर में जब हो हल्ला मचा तो अपनी बेबाक राय देत हुये कृष्णबिहारी ने लिखा-…आप तय करें कि जिसे आपने मोहब्बत के दो बोल कहे हैं उसे नंगा करते हुये आपको कैसा लगता है।..खुद को नंगा करना हिम्मत की बात है लेकिन दूसरों के कपड़े बाजार में बेचने के लिये उतारना चिबिल्लई है। …मैं चिबिल्लई का समर्थक कतई नहीं हूं।अखबार और रेडियो की दुनिया से जुड़े रहने के बाद पिछले सत्रह वर्षों से अध्यापक कृष्ण बिहारी से शब्दांजलि के लिये यह साक्षात्कार गोविंद उपाध्याय तथा अनूप शुक्ला ने लिया। साथ में कृष्ण बिहारी द्वारा लिखा लेख मेरा लेखन तथा कृष्ण बिहारी पर गोविंद उपाध्याय का लेख मैं कृष्णबिहारी को नहीं जानता।
अपने बचपन के बारे में कुछ बतायें।
‘मेरा बचपन’! आपने गोर्की की याद दिला दी । मध्यवगीर्य परिवार में पैदा हुआ । गोरखपुर के गांव कुण्डाभरथ में। परिवार समर्थ था । ननिहाल भी । मांगने से पहले चीज़ें मिल जाती थीं । परिवार में सबसे बड़ा लड़का था। मान-जान था । लेकिन वह सब तबतक ही रहा जबतक मैं बच्चा था। मेरे होश संभालते ही सबकुछ गड़बड़ हो गया। ननिहाल में भी और घर में भी । किसी का होश संभालना एक दुघर्टना है ।
आपने लिखना कब से ,कैसे शुरु किया?
लिखना सन १९६७-६८ में शुरू किया लेकिन तब कुछ भी स्पष्ट नहीं था कि मैं क्या लिखना चाहता हूं ।
आप पहले पत्रकारिता से जुड़े थे। अब अध्यापन से ।किस पेशे में ज्यादा सुकून मिलता है?
पत्रकारिता रही हो या अध्यापन , या फिर कोई और जरिया ही जीवन यापन के लिए अपनाया होता , यह तो तय था और तय है कि मैं कुछ भी कर सकता हूं । मैं इस मामले में ‘फसी’ नहीं हूं कि यही करना है और इसके अलावा कुछ नहीं। मैंने इनके अलावा भी कई काम किए हैं । मसलन ‘गोल्ड स्पाट’ कंपनी में एक दिन जूठी बोतलें ट्रक से उतारने और भरी बोतलें लादने का भी काम किया है । मैं कोई भी काम अरूचि से नहीं करता । सुकून एक ‘टर्म’ है और यह तब मिलता है जब आपने कोई काम मन से किया हो।
आपकी रचना प्रक्रिया क्या है?
‘ मेरी रचना प्रक्रिया’ क्या है ? यह तो वही सवाल हुआ कि आप जीते कैसे हैं ? जब जियूंगा तभी तो रचूंगा। बड़ा सीधा उत्तर है। जि़न्दगी से मुठभेड़ करता हूं । ठीक वैसे ही जैसे पुलिस वाले एनकाउण्टर करते हैं । निर्दय मुठभेड़। मैं छोड़ता किसी को नहीं , खुद को भी नहीं । तो , रचना की कमी कहां है ?
आपके लेखन में आपके परिवार का क्या योगदान रहा-खासतौर पर पत्नीश्री का कितना योगदान है?लगातार लेखन से आप अपने परिवार को समय कम दे पाते होंगे।क्या प्रतिक्रिया होती है परिवार के लोगों की?
शादी होने के १५ साल पहले से लेखन से जुड़ाव हो चुका था। होने वाली पत्नी को भी मालूम हो चुका था कि एक लेखक से शादी हो रही है। हां ,होने वाला पति अध्यापक भी है इस बात से सुकून ज्यादा था। बहरहाल यह कह सकता हूं कि लेखकों के बारे में प्राय: सुनी जाने वाली घर-परिवार के प्रति लापरवाही मेरे स्वभाव का अंग नहीं है।मैं अपनी जिम्मेदारियां निभाता हूं।जहांतक पत्नी के योगदान का सवाल है तो ऐसा शायद ही किसी लेखक की बीबी करती हो कि रात ९ बजे मोबाइल पर ‘रिमाइन्डर’ देकर कहे कि आपके लिखने का समय हो गया है।अबूधाबी में जब मैं रहता हूं तो हर हाल में रात ९ बजे तक लिखने की मेज पर आ जाता हूं लेकिन हिंदुस्तान में छुट्टियों के दौरान हर तरह के नियम टूट जाते हैं। हिंदुस्तान में घूमने और अपने दोस्तों से मिलने जाता हूं, बैठकर लिखने नहीं। लगातार लेखन का संबंध रोज और नियमित लिखने से है।पत्नी की ओर से मुझे सहयोग ही मिला है। हां,कभी-कभी शिकायतें भी मिलीं कि आपको तो लिखने से ही फुरसत नहीं किंतु ऐसा बहुत कम बार हुआ है। लिखना जिंदगी की गाड़ी के चलने में कभी रोड़ा नहीं बना। इसका कारण शायद यह भी हो सकता है कि मैं हमेशा अच्छी नौकरी में रहा और दूसरे लेखन से जो यश मिला उसके भागी सभी हुये।
आपकी कहानी ‘दो औरतें’ बहुचर्चित हुयी। इसके पहले भी आपकी तमाम रचनायें छपीं होंगी।उनके बारे में चर्चा क्यों नहीं होती?
‘ दो औरतें’ अक्टूबर सन १९९५ में ‘हंस’ में छपी थी । इससे पहले मेरी कहानियां’जागरण’, ‘रितम्भरा’ ‘कहानीकार’ और ‘मन्तव्य’ नामक पत्रिकाओं में छपीं । पहली कहानी १९७१ में प्रकाशित हुई थी । उन कहानियों में से कुछ की चर्चा भी हुई थी लेकिन वे चर्चा का वह मुकाम हासिल नहीं कर सकीं जो ‘दो औरतें ‘ को मिला । बात साफ है । चर्चा कहानियों की नहीं होती । आफ बीट कहानियों की होती है । एक बात और है । इस बात से भी फर्क पड़ता है कि आपकी कहानी ‘छपी’ किस पत्रिका में है। दूसरी बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । क्या आप अपनी चर्चा करा सकते हैं ? करने वाले हैं । न होते तो एक ही कहानी की बरसों विरूदावलियां गाईं जाती ? क्या आप आज के चारणों को नहीं जानते ? पिछले ६-७ साल की पत्रिकाएं पलट लें , नाम-पता सब मिल जाएगा ।
आपने प्रेम सम्बन्धों पर श्रंखलाबद्ध लेखन दैनिक जागरण में किया था। क्या है आपकी नजरों में प्रेम की परिभाषा?
जब मैंने प्रेम पर सीरीज़ लिखी या एक लम्बी कहानी ‘यह कोई कहानी नहीं’ तब मैं उम्र के उस भावुक मुका़म पर एक असफल आशिक था । प्रेम में मिली असफलता ने मुझे बहुत समय तक संज्ञा-शून्य कर दिया था।उस सीरीज़ ‘मेरी मोहब्बत दर्दे आम’ में टूटे दिलों की कहानी थी । आज जब आपने यह सवाल पूछा है कि मेरी नज़रों में प्रेम क्या है तो यह कहना चाहूंगा कि अपने विगत और वतर्मान के बीच बहुत कचरा गन्दे नाले और उससे ज्यादा गंगा नदी में बहते देख चुका हूं । समय के साथ प्रेम भी बदलता रहा है और आज तो प्रेम केवल व्यवहारजन्य मेल से उपजी मात्र एक स्थिति है । न प्रेम होने से किसी को फर्क पड़ता है और न उसके टूटने से । उस दौरान मैंने मुजफ्फरपुर की वेश्याओं पर भी एक सीरीज़ ‘घुंघरू टूट गए’ स्व०श्यामनन्दन वर्मा के सहयोग से लिखी थी और दूसरी सन १९८४ में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद ‘यह क्या हो गया देखते-देखते?’ दोनों कानपुर से प्रकाशित ‘आज’ में प्रकाशित हुई थीं । करीब एक साल बाद इसी शीषर्क से अमृता प्रीतम जी ने भी एक सीरीज़ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में लिखी । वही विषय, वही शीषर्क। मुझे न केवल खुशी मिली बल्कि सन्तोष भी कि रचनाकार कहीं भी रहें, आपस में मिलें या न मिलें किन्तु सोचते तो एक दिशा में हैं ।
‘दो औरतें’,संगात् संजायते काम: आदि कहानियों में नायक बुनी परिस्थितियों के मुकाबले काफी आदर्शवादी है । क्या आप भी मानते हैं ? यदि हां तो ऐसा क्या आपके संस्कारों के कारण है?
आदशर्वाद से आपका क्या आशय है ? मैं नैतिकता और अनैतिकता को उस रूप में देखता ही नहीं जिस रूप में यह ढपोरशंखी समाज देखता है । यदि मैं अपनी मां , बहन , बीवी के साथ पार्क में घूम रहा हूं तो आदशर्वादी हूं और अगर एक रण्डी के साथ घूम रहा हूं तो लम्पट ? कैसे ?जबकि घूमने की प्रक्रिया एक है । मैं ऐसे किसी आदशर्वाद में यक़ीन नहीं रखता और न मेरे पात्र ।
‘चिठिया हो तो…’,'दो औरतें,’ब-बाय’ और नातूर जैसी कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं तथा वे अपने कथानक से ज्यादा खुलेपन के कारण चर्चित रहीं हैं। कहीं आप ऐसा तो नहीं मानते कि जो वर्जित है उसकी मांग ज्यादा है तथा कहानियां इसी को ध्यान में रखकर गढ़ी गईं हैं।
‘चिठिया हो तो …’ या ‘ब-बाय’ या कोई अन्य कहानी मेरी कोई रचना अश्लील नहीं है । अगर है तो फिर यह पूरी दुनिया ही अश्लील है। खुलापन क्या होता है ? क्या यह बाथरूम में नंगा होना है ? अगर बाथरूम में नंगा होना है तो उसे खुलापन नहीं कहा जा सकता। और अगर दूसरे को नंगा देखने की इच्छा है तो वह भी खुलापन नहीं है । मेरा विश्वास ढंके और खुले होने में नहीं , सच का बयान करने में है। आपको झटके लगें तो मैं क्या करूं ? मैं मांग के आधार पर नहीं लिखता और किसी क्षेत्र को अपने लिए वर्जित नहीं समझता। एक सच्चाई यह भी है कि मेरा यथार्थ संवेदना विहीन नहीं है । यही दशा मेरे पात्रों की है। वे किसी भी प्रकार के चूतियापे में यक़ीन नहीं रखते। किसी से डरते भी नहीं ।मेरी कहानियां पाठकों को झकझोरती हैं , अश्लीलता की जुगुप्सा या नपुंसक आनन्द नहीं देतीं । यदि किसी को ‘मधुशाला’ में केवल शराब ही शराब दिखाई देती है तो उसकी समझ की बलिहारी है ।
जयप्रकाश आंदोलन से आप जुड़े रहे।८४ के सिखविरोधी दंगों के दौरान भी आप बहैसियत पत्रकार आपने बहुत कुछ देखा। आपकी कहानियों में इन दोनों घटनाओं के अनुभव नहीं मिलते?
जयप्रकाश आन्दोलन अपने समय का वह सच है कि उससे आंखें नहीं चुराई जा सकतीं। दुष्यंत ने लिखा था -
एक गुडि़या की कई कठपुतिलयों में जान हैऐसा ही कुछ कहा था दुष्यंत ने । लेकिन जयप्रकाश आन्दोलन के बाद का सच हिन्दुस्तान के नेताओं की बेईमानी का वह विद्रूप सच है जिसे सामने पाकर मैं जबरदस्त मोहभंग से गुज़रा । इसका जिक्र मैंने विस्तार से अपने उपन्यास ‘पारदर्शियां’ में किया है । १९८४ के दंगों पर मेरी एक कहानी है, ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ । इस कहानी पर बहराइच में डा० जयनारायन ने एक गोष्ठी भी कराई थी , ‘ रचनाकार के आमने सामने’ । जिन्होंने भी इस कहानी को पढ़ा है उनकी प्रतिक्रिया है कि १९८४ के तीन दिनों का जैसा चित्रण इस कहानी में है वैसा उन्हें किसी भी कहानी में पढ़ने को नहीं मिला । इसी शीषर्क से मेरा नया कहानी संगर्ह कुछ दिनों पहले ‘आत्माराम एण्ड संस’ से आया है । इन अनुभवों को मैं अपनी आत्मकथा के पहले भाग में जगह दे रहा हूं।
आज शाइर यह तमाशा देखकर हैरान है
एक बूढ़ा आज है इस मुल्क में या यूं कहो
कि इस अन्धेरी कोठरी में एक रोशनदान है ।
हिंदी कहानी का भविष्य क्या है?
हिन्दी कहानी के भविष्य के बारे में शंका किसलिए ? कहानी अपने किसी न किसी फार्म में चली आ रही है । जो लोग लिख नहीं सकते वे भी कहानियां सुनते सुनाते हैं । जब तक कहानी में रोचकता बनी रहेगी उसके चाहने वाले भी बने रहेंगे । हां, यदि कविता की तरह इसमें भी बौद्धिकता की अति होती जाएगी तो फिर इसका भी नामलेवा मिलना मुश्किल होगा ।
भारतीय लेखकों में विक्रम कोठारी,अरुन्धति राय जैसे लेखक अंग्रेजी में लिखकर दुनिया में चर्चित हुये लेकिन हिंदी में लेखक की हैसियत ‘बेचारा’ की ही बनी रहती है।हिदी लेखन आज पार्ट टाइम जाब बनकर रह गया है। ऐसा क्यों?
अंग्रेजी के जिन लेखकों या लेखिकाओं का आपने जिक्र किया है , निश्चित ही वे आथिर्क रूप से कुछ समृद्ध हुए हैं लेकिन ऐसे रचनाकारों की संख्या बहुत कम है जो केवल लिखने के बल पर अपना जीवन यापन ठीक ढंग से कर पा रहे हैं। हिन्दी का लेखक प्रकाशन की ग़लत नीति के कारण बेचारा बना हुआ है । इतनी बड़ी आबादी वाला देश और इतने अधिक हिन्दी भाषा भाषी लेकिन ३०० प्रतियों का एक एडीशन भी किसी लेखक का हाथो हाथ नहीं बिकता। पुस्तक का छप जाना ही एक लेखक के लिए बहुत बड़ी उपलबब्धि हो सकती है । हिन्दी के परम्परागत पाठक तो रहे नहीं , बड़े लेखक भी पुस्तकें और पत्रिकाएं खरीदकर नहीं पढ़ते । सच तो यह है कि वे मुफ्त में मिलने वाली पत्रिकाएं भी नहीं पढ़ते । लघु पत्रिकाएं हों या बड़ी पत्रिकाएं, रचनाकार को पारिश्रमिक देना तो दूर , यह बताना भी धर्म नहीं समझतीं कि रचना प्रकाशित की है। प्रकाशित रचना की प्रति देने में तो उनका दीवाला निकल जाता है । जहां तक मैंने जाना है उस आधार पर यह कह सकता हूं कि बहुत सी पत्रिकाएं निकालने वाले सम्पादक अपना पेट जिला रहे हैं। कुछ विज्ञापन मिल जाते हैं , कुछ लोग उन्हें जानने लगते हैं , प्रशासनिक अधिकारी उनके बहनोई हो जाते हैं । बस यही कुछ है जिससे एक ऒर उनका पेट भरने लगता है और दूसरी ओर यश का चस्का पूरा होता है। साला बनने का सुख तो अलग है ही लेखकों की दुदर्शा होती हो तो हो उससे इन तथाकिथत सम्पादकों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये ऐसे सम्पादक हैं जो लेखक के डाक टिकट को बेंचकर शाम के पौव्वे का जुगाड़ करते हैं । रचनाकार घर फूंककर तमाशा देखता है और भीतर ही भीतर फुंकता रहता है । कुछ गिनती के सम्पादक हैं जो लेखकों को ‘मनुष्य’ समझते हैं और उनकी रचनाओं का स्टेटस बताते हैं । इस लिहाज़ से भारतीय रचनाकार का जीवन एक थके हुए व्यक्ति का लेखन है।
आज आप प्रवासी हैं। प्रवासी लेखकों की रचनायें हिंदी पत्रिकाओं के लिये ‘इम्पोर्टेड’जैसा आकर्षण रखती हैं। पत्रिकाओं भी प्रवासी विशेषांक निकाल रही हैं। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
प्रवासी होने से पूर्व ही एक लेखक के रूप में मैं जाना जाने लगा था। उस समय की सबसे बड़ी पत्रिकाओं में ‘धमर्युग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ का नाम लिया जा सकता है। मैं उनमें सम्मान के साथ छप रहा था । धर्मवीर भारती जी से मैं कभी मिल तो नहीं सका लेकिन उनका स्नेह मुझे ज़रूर मिला । इसलिए प्रवासी लेखक होने के किसी अतिरक्त लाभ से मैं वंचित हूं । एक बात और है , लेखन के उस ग्लैमर से भी मैं दूर हूं जहां आए दिन मुलाकातें होती हैंऔर एक दूसरे को अच्छा कहने की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। मैं तो साल में बमुश्किल दो दिन दिल्ली और चार दिन कानपुर में होता हूं । लगभग २७ साल से तो यही चर्या है । लगभग ५ करोड़ भारतीय विदेश में हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो इनमें से १००-५० रचनाकार भी हों । सम्पादक अगर प्रवासी अंक निकाल रहे हैं और उनमें मेरी रचनाएं हैं तो इसे मात्र संयोग समझिए कि किसी प्रकार मुझे पता चल गया और मैंने रचना भेज दी वरना मुझे यह तक पता नहीं चलता कि कौन कैसा अंक निकाल रहा है। प्रवासी होने से सही रचनाकार को लाभ नहीं मिलता। हां , कुछ लेखिकाओं को ज़रूर मिल जाता है और सम्पादक उन्हें न जाने क्या देखकर आनन फानन में ‘जानी मानी’ लेखिका बना देते हैं । जहां तक एक स्पष्ट दृष्टि रखने वाले सम्पादक की बात है तो यह सुनिश्चित समझिए कि वह फालतू रचनाओं को मात्र इसलिए तो स्थान देगा नहीं कि वे प्रवासियों द्वारा लिखी गई हैं । कुछेक सम्पादकों को शायद किसी प्रवासी लेखिका से कुछ विशेष की प्राप्ति हो जाए तो हो जाए वरना बहुत से प्रवासी रचनाकार किसी की मदद कर पाने में हर तरह से अक्षम हैं ।
अध्यापन से जुड़े हुए तो तीस वर्ष होने को आए। मेरी कहानियों में ‘बच्चा’ बड़ा जीवन्त पात्र है। लगता है बहुत से लोगों की तरह आपकी नज़र से मेरी कई कहानियां नहीं गुज़रीं। बच्चों को पात्र बनाकर मैंने लगभग बीसेक कहानियां लिखी हैं और उनका एक संग्रह भी बहुत ज़ल्द प्रकाशित होने जा रहा है ।
आपकी कहानियों से लगता है कि आप कहानी विस्तार के मोह से बच नहीं पाते। कभी-कभी विस्तार गैरजरूरी भी लगता है। आपका मानना है-’मैं कहानी लिखता हूं चौपाइयां नहीं।’क्या अच्छी कहानी का बड़ा होना जरूरी है?
कहानी में अनावश्यक विस्तार क्या होता है ? रचना की अपनी ज़रूरत होती है। मैंने चार पृष्ठ में समाने वाली कहानियां भी लिखी हैं और बीस-पचीस पंक्तियों में लघुकथाएं भी । यह तो आसान सी बात है कि बैलगाड़ी अब आपको कहीं नहीं ले जाती। दोहे और चौपाइयां भी आपको कहीं नहीं ले जाएंगे। कबीर , रहीम , तुलसी , बिहारी , रसलीन के अलावा भी कुछ और नाम हैं जिन्होंने दोहे लिखकर न केवल नाम कमाया बल्कि ऐसा लिखा कि दूसरों के लिए कुछ बचा ही नहीं । आज भी कुछ लोग दोहे लिख रहे हैं लेकिन क्या नए लिखने वालों का एक भी दोहा आपकी ज़बान पर चढ़ सका ? मैं जो कहानियां लिखता हूं उनका अपना कलेवर होता है । किसी के कहने पर मैं जवाहर लाल नेहरू का कोट लालबहादुर शास्त्री को नहीं पहना सकता। सिर्फ़ इसलिए कि कहानी, कहानी है तो कोई भी आकार चलेगा यह बात बेमायने है । सीधी सी बात है कि आपके अनुभव का दायरा क्या है ?
आपकी कहानी के नायक कहीं न कहीं आपके भोगे हुये यथार्थ की प्रतिक्रिया लगते हैं-खासतौर पर प्रवासी कहानियों की प्रष्ठभूमि वाली कहानियां।क्या कहानी लिखने के लिये किसी लेखक को उस परिवेश को भोगना जरूरी है?
मैं भोगे हुए यथार्थ से भाग कैसे सकता हूं ? कोई तरीका है क्या ? किसी से मुझे सुख मिला , किसी से दुख , तो , दोनों को प्रकट करना मेरा धर्म है । अब यदि यह भोगा हुआ और ज्यादा प्रामाणिक लगता है तो अच्छी बात ही हुई न!कहानी लिखने के लिए प्रामाणिकता क्या होती है , इसे समझने के लिए यह उदाहरण काफी होगा । कैदी की कहानी लिखने के लिए कैदी का जीवन जीना ज़रूरी नहीं लेकिन जेल जीवन को न देखना भी ज़रूरी नहीं , यह तो कहीं नहीं लिखा। जेल जीवन कई तरह से देखा जा सकता है ।
आपको खाड़ी देश के माहौल में तथा देश के माहौल में क्या अन्तर लगता है?
आज इलेक्ट्रानिक युग है । इसके बावज़ूद हिन्दुस्तान और खाड़ी के देशों में जीवन और माहौल दोनों ही आज भी बहुत अलग हैं । हिन्दुस्तान में हर स्थिति को भुगतना पड़ता है लेकिन खाड़ी के देशों में सिर्फ़ एक तनाव है जो जब आता है , जान पर बन आती है । और तनाव से बचा कौन है ?अन्यथा यहां का माहौल हर दृष्टि से हिन्दुस्तान से बेहतर है।
आप मनमौजी,बादशाह तबियत के मालिक के रूप में जाने जाते हैं। यहां खाड़ी के अनुसासित बंधनों में कैसे गुजारा होता है?
मैं ‘मनमौजी’ या ‘बादशाह’ तबियत का जाना जाता हूं लेकिन शायद कुछ करीबी लोगों को छोड़कर बहुत से लोग यह नहीं जानते कि मेरे भीतर का फकीर ही सच्चा इनसान है । मैंने लगभग तीस साल पहले एक ग़ज़ल कही थी -
लाख होने दो मेरी तबाहीएक फकीराना किस्मत मेरे साथ हर कदम पर होती है । हो सकता है कि कुछेक पल पहले मेरी जेब भरी हो और कुछेक पल बाद ही मैं अप्रत्याशित रूप से खाली हो गया होऊं। मगर हर हाल में खुश रहना मेरी तबियत का स्थायी अंश है । रहा सवाल ‘खाड़ी’ के देश में स्वछंदता को बरकरार रखते हुए जीने का तो , भारतेन्दु के एक सवैये की एक पंक्ति हमेशा ध्यान में रहती है -
मेरी तबीयत तो है बादशाही।
‘समुझें जग की हर नीतिन्ह को उन्हें देस विदेस मनौं घर है’
जहां रिहए वहां के नियमों और कानूनों का पालन कीजए। कभी – कभी कानून टूटते भी हैं और यह तो सभी जानते हैं कि अपने बगीचे के अमरूदों से ज्यादा स्वादिष्ट दूसरों के बगीचों के अमरूद लगते हैं । तो , उन्हें बिना कानून तोडे कैसे पा सकते हैं! आपको हिम्मत करनी होगी और ज़ोखिम के लिए तैयार रहना होगा । मैं रहता हूं। इसलिए मनचाही जि़न्दगी जीता हूं ।
जैसा हम जानते हैं आप संबंधों में खुले,उदार और खास टाइप के तानाशाही अपनापे का व्यवहार करते हैं। क्या आप इसे सच मानते हैं? यदि हां तो क्या कारण हैं इस व्यवहार के?
तानाशाह नहीं हूं , न्यायप्रिय हूं । अन्याय मुझसे सहन नहीं होता। कहीं भी नहीं । न घर में न बाहर न कायर्क्षेत्र में । मेरी पिछली नौकरियां सिर्फ़ इसीलिए छूटीं या मुझे छोड़नी पड़ीं कि मैं समझौतापरस्त नहीं हो सका । यह नौकरी भी अबतक कभी की छूट गई होती । अगर बची हुई है तो सिर्फ़ इसलिए कि मेरी आवाज़ ग़लत नहीं उठी और इसलिए भी कि मैं अपने सब्जेक्ट में ठीक-ठाक रहा । बाकी , मैं हिटलर या स्टालिन नही हूं । किसी को भी मैं यह हक़ नहीं देता कि वह मेरा भविष्य तय करे । क्या ऐसा करना तानाशाही है ? मैं दुव्यर्वहार न तो किसी से करता हूं न बरदाश्त करता हूं । मुझसे बोलने वालों को सतर्क रहना चाहिए । न तो मैं स्वतंत्रता लेता हूं और न देता हूं ।
आपने अपनी आत्मकथा सागर के उस पार में कई जगह यह जाहिर किया है कि आपकी कहानियों को अपेक्षित तारीफ आलोचकों से नहीं मिली। क्या यह अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की स्थिति नहीं है?आलोचकों को आपसे क्या दुश्मनी है जो आपकी कहानियों को अपेक्षित तारीफ नहीं मिली? अपनी आत्मकथा में मैंने सच ही लिखा है । यदि सच नहीं लिखता तो क्या ज़रूरत थी आत्मकथा लिखने की ? नामवर आलोचकों ने मुझे पढ़ा नहीं और मैंने अपनी किताबें उन्हें पढ़ने के लिए दी नहीं। पत्रिकाओं में मुझे पढ़ने के बावजूद उन्होंने कुछ कहा या लिखा नहीं। लिखते कैसे ? उनकी छाती पर भाई मूंग दल रहा है कि मुझे स्थापित करो । अब वे क्या करें ? पुत्र-मोह या भ्राता-मोह से ऊपर उठना उनके बूते से बाहर है। वैसे भी कुछ दिनों के बाद वे वैशाखी के सहारे ही खड़े हो सकेंगे । मुझे किसी आलोचक की ज़रूरत नहीं है । मेरे आलोचक पाठक हैं । उनके पत्र आते हैं । उनसे बड़ा कोई नहीं। समकालीनों की तो आत्मा सुलगती है कि यह आदमी इतना अच्छा कैसे लिख रहा है ? इतना ज्यादा क्यों लिख रहा है ? जिनकी तारीफ मिलनी चाहिए , मिल रही है । जिनकी नहीं मिल रही है उनसे चाहिए भी नहीं । मैंने एक नहीं , अनेक कहानियां दी हैं जिनका मूल्यांकन ये कुकुरमुत्ते नहीं बल्कि समय करेगा ।
आपके कुछ चरित्र गजब के लगते हैं। जैसे लूला हैदर। आपको अपनी कहानियों के कौन से चरित्र बहुत पसंद हैं?क्यों? ‘लूला हैदर’ ही क्यों ? ‘नातूर’ का बादशाह खान , ‘संगात जायते कामः’ की सुदक्षिणा ,’दो औरतें’ की संक्रांति , ‘हरामी’ का हेनरी , ‘शराबी’ का शंकर नारायन, ‘मुजस्समां’ की अफशां , ‘सर्वप्रिया’ की सैली , ‘अन्ततः पारदर्शी’ की नायिका। मैं किसे याद करूं और किसका उल्लेख न करूं? मेरे चरित्र मुझे प्रिय न होते तो मैं उनपर लिखता ही क्यों? अभी कुछ दिन पहले ‘हंस’ में ‘इन्तज़ार’ प्रकाशित हुई है । उसकी ‘चाची’ को कौन भूल सकता है
कुछ कहानियों मेंआप अपने पात्रों से स्थानीय अरबी भाषा बोलवाते है।कभी-कभी तो पूरे के पूरे वाक्य। फिर अनुवाद। जैसे ड्राइविंग लाइसेंस। हिंदी पाठकों के लिये यह तो स्पीड ब्रेकर की तरह होते हैं।क्या कारण है इसका?
कहानी की कोई भाषा नहीं होती । भाषा लेखक की होती है और वह एक दिन में नहीं बनती। वह उसे अकेले भी नहीं बनाता । वह उसे लोगों के बीच मिलती है । मेरी कहानियों की भाषा उस ज़मीन और उन पात्रों की भाषा है जिनकी वह कहानी है। इसलिए अंग्रेजी ,अरबी, बांग्ला, भोजपुरी और नेपाली भाषा के शब्द मेरी कहानियों में मिलते हैं । मैं इन जगहों और इन लोगों के बीच बरसों रहा हूं तो इनसे बच कैसे सकता हूं । हां , बिना भाषा जाने मैं उसका हास्यास्पद प्रयोग नहीं कराता जैसा कुछ रचनाकार भोजपुरी से नावाकिफ़ होते हुए उसका मज़ाक अपनी रचनाओं में अनजाने उड़ाते हैं। यह बेहूदगी है जो मैं नहीं करता।
आप आमतौर पर अपनी रचना के कितने ड्राफ्ट करते हैं?
रचना को एक बार ही लिखता हूं । चूंकि, कई दिनों में रचना पूरी करता हूं इसलिए उसमें परिवर्तन हर दिन होता रहता है । मैं संडे राइटर नहीं हूं । मैं रचनाऒं की बिक्री से अपना और अपने परिवार का पालन नहीं करता । लिखता जीने के लिए हूं इसलिए रोज़ लिखता हूं, रोज़ जीता हूं । नहीं लिखूंगा तो परेशान रहूंगा और अपने साथ न्याय नहीं कर सकूंगा। कोई बात निरन्तर घूमती रहती है मेरे साथ । वही रचना बनती है।
आजकल नेट पर हिंदी में पत्रिकायें बढ़ रही हैं। आप कौन-कौन सी पत्रिकायें नियमित पढ़ते हैं?
मैं बीस साल से गल्फ़ में हूं । ज़ाहिर है कि मुझे हिन्दी की पत्रिकाएं मुश्किल से मिलती हैं । ‘हंस’ छोड़कर मुझे कोई पत्रिका समय से नहीं मिलती ,वे भी नहीं जिनमें मेरी रचनाएं होती हैं। जब ‘तदभव’ और ‘वागर्थ’ नेट पर आईं तो मुझे अच्छा लगा । ‘तदभव’ नेट से हट गई। ‘वागर्थ’ हटने बाद दुबारा लगी है किन्तु वह आधा महीना बीतने के बाद लगती है। इन्तजार करते-करते मन हार जाता है । हर महीने कालियाजी को याद दिलाना पड़ता है ।
आत्मकथा सागर के उस पार में लिखना स्थगित क्यों है?
आत्मकथा लिखना बन्द नहीं है । उसका प्रकाशन भी ‘प्रशांत ज्योति’ में धारावाहिक रूप से हर रविवार को हो रहा है । सुभाष सिंगाठिया बहुत अच्छे ढंग से उसको प्रकाशित कर रहे हैं। हां, नेट पर उसका प्रकाशन मैंने व्यक्तिगत कारणों से रोक दिया है। मुझे आत्मकथा पर हर सप्ताह कई पत्र, कई फोन और एस एम एस मिल रहे हैं । पाठकों ने पसन्द किया यही मेरी उपलब्धि है। मैं सुभाष का आभारी हूं कि उसने मुझे घर-घर पहुंचाया । नेट पर लिखता था । अच्छा भी लगा था । लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि सच्चाई की राह पर जो मेरे साथ नहीं है मैं उसके साथ नहीं हूं । मेरा एक गीत है -
यदि तू मेरे साथ दिखे तो मैं भी तेरे साथ दिखूंगाआपने वागर्थ के युवा विशेषांक देखे होंगे। किन लेखकों ने आपको प्रभावित किया? किस कारण?
नेट पर इसीलिए लिखना बन्द किया
युवा लेखन कोई नया शब्द नहीं है । युवा हरदम रहे हैं । संघषर्रत। उन्हें स्थान भी मिलता रहा है । नयी पीढ़ी का स्वस्थ जन्मना शुभ है। मुझे युवा रचनाकारों को पढ़ना अच्छा लगता है ।
आपके पसंदीदा रचनाकार कौन हैं?पसंदीदा कहानी,कविता,उपन्यास कौन हैं?
मैं वह सबकुछ पढ़ता हूं जो उपलब्ध हो पाता है । यह नशा है । एक वक्त भूखा रह सकता हूं मगर बिना पढ़े नहीं । देशी-विदेशी रचनाकारों को पढ़ता आ रहा हूं । मुझे रचना अच्छी लगती है रचनाकार का नाम नहीं ।
हंस में आत्मस्वीकृति का सिलसिला चला था। कितना सही था वह?
‘आत्मस्वीकृतियां’ ही तो हैं जिन्हें हम लिख रहे हैं । एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि साहित्य का प्लेटफार्म चरित्र हत्या का प्लेटफार्म न बने । रामशरण जोशी ने जो लिखा मैं उसका विरोधी कतई नहीं हूं। बस उस बारीक रेखा का ध्यान रखने की बात करता हूं । ‘हाट बर्ड’ चैनेल सरलता से मिल रहा है तो क्या करूं ? लगवा लूं ? उसपर दिन भर सबकुछ दिखता है ।
नेट पर न लिखने की कसम नहीं खाई है। समय मिलने पर लिखूंगा।हिंदी नेस्ट में अक्सर कहानियां देता हूं। अब तो हंस ,वागर्थ भी नेट पर ही हैं।
जब आपने कानपुर में लिखना शुरु किया था तब के तथा आज के परिवेश में कितना अंतर पाते हैं?
जब मैंने लिखना शुरू किया था तब कलम में स्याही भरकर लिखने का युग था , आज कम्प्यूटर पर लिखता हूं। बहुत कुछ बदल गया है । ३५-४० सालों में दुनिया ही बदल गई है। दुखद यह रहा कि सुविधाएं तो मिलीं किन्तु रिश्ते मर गए ।
आपको अपनी सबसे पसंदीदा रचना कौन सी लगती है?
रचनाएं मेरी सन्तान हैं । किसे अच्छा कहूं ? किसे बुरा? सब अपना किया-धरा है । सब स्वीकार है । सभी प्रिय हैं ।
आगे क्या लिखना आपसे छूट गया है जिसे लिखना चाहेंगे?
लिखने को अभी तो सबकुछ छूटा ही तो है । जो लिखा गया उससे अच्छा लिखना अभी बाकी है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी कमजोरी कौन सी है जो आपको कचोटती है? उससे छुटकारे का उपाय?
भारतीय समाज की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसका दोमुंहापन, दोगलापन है । वह कहता कुछ , सोचता कुछ और चाहता कुछ है।
जिन्दगी से प्यार है मुझे अतः असन्तुष्ट होने का प्रश्न ही नहीं।
आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत क्या है आपकी नजरों में?
आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है मेरी।
और सबसे बड़ी कमजोरी?
कमज़ोरियां ही कमज़ोरियां हैं मुझमें।
‘क्या करूं मैं मित्र मेरे!यह मेरे एक गीत का मुखड़ा है ।
देवता मैं बन न पाया’
शब्दांजलि के पाठकों के लिये संदेश?
शब्दांजलि के पाठक अच्छी रचनाएं पढ़ें और दूसरों को भी प्रोत्साहित करें । नया वर्ष आप सबके लिए शुभ हो।
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१. कृष्ण बिहारी परिचय
२. कृष्ण बिहारी के गीत
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लगता है कुछ गड़बड़ है स्वामी जी को फोन घुमाया जाय नही तो हमें भेजिये अभी नींद से उठाते हैं
अब तो स्तरीय प्रत्रिकाओं का ऎसा टोटा पड़ा है, कि मन क्षुब्ध हो जाता है ।
स्वदेश दीपक के विषय में यदि कोई जानकारी हो, तो वह भी यहाँ देखने की इच्छा हो रही है ।
लौट कर पूरा आलेख जुगाली ले ले कर पढ़ुँगा, अभी तो इतना ही !
कल से तड़प रहे थे टिप्पणी करने के लिए. अब जाकर ठीक लगा.