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कल सुबह दक्षिण भारत की तबाही के सीन टेलिविजन पर देखे। जगह-ए-तबाही से
इत्ती दूर फ़िर भी देखकर हड़क गये। लगा कि कुदरतजी भन्नाई हुई है। कोई
भन्नाया हुआ आका तबादले में किसी को कहीं किसी को कहीं पटक देता है।
तबादलित कर देता है। वैसे ही प्रकृति भी मनमौजी है। पानी मांग रहे थे लेव
पानी। जी भर पानी। हर तरफ़ पानी ही पानी। याद आ गयी नानी। अब न कहना हमने
करी बेमानी।
२०० सौ लोग निपट गये बाढ़ में। पौने दो लाख घर बह गये। सर्वांग सुन्दरी प्रकृति को कौन सुनाये ये शेर बशीर साहब का घुमा-फ़िराकर:
कमरे से बाहर निकले तो देखा तो कुदरत यहां तो मेहरबान है। खुला-खिला आसमान है। कुछ देर देखा, कुछ देर निहारा। जित्ता देख पाये देखा बाकी थोड़ी देर में देखने के लिये कहकर गाड़ी का पंक्चरित पहिया खोलने में जुट गये।
पहिया खोलते समय कुछ देर यह सोचने में लगायी कि जोर ऊपर लगायें या नीचे। नहीं समझ में आया तब बारी-बारी से दोनों तरफ़ लगा दिया। फ़िर जब देर हो गयी तो जिधर लगाना था उधर ही लगाते हुये बोल्ट के कस-बल ढीले कर दिये। इस बीच यह भी सोच डाला कि कहीं नट जाम तो नहीं हो गये। जाम हो गये तो एक और झाम। बड़का बच्चा भी इस बहाने याद आया। पढ़ने न गया होता तो भला ये समय देखना पड़ता। दो घंटे बाद खुलता लेकिन पहिया उसी से खुलता।
पंचर बनाने वाले ने बताया कि टायर अब वरिष्ठ टायर हो गया है। इसके तार निकल आये हैं। ये ट्यूब को काट देता है। कटखना हो गया है। मैंने सोचा। क्या वरिष्ठ की नियति/परिणति कटखना हो जाना ही है। यह सोचा गया कि पड़ा रहेगा अब स्टेपनी में कुछ दिन बदले जाने के पहले।
पंक्चर बनवाने के दौरान केदारनाथ सिंह का लेख पढ़ा। उन्होंने शरद कालीन समय में लिखी कविताओं का जिक्र किया था। एक थी- फ़ूल खिले,खिले फ़ूल।इसके अलावा कुमुदनी का जिक्र करते हुये भी एक कविता थी। लेख पढ़ते ही हमारे तथाकथित दिमाग में तड़तड़ कुछ पंक्तियां बिना मे आई कम सर कहे घुस गईं और फ़ड़फ़ड़ करते हुये उल्टे पैरों वापस हो गयीं। जो समझा हो उन्होंने लेकिन बिना पूछे आईं और बिना बताये चली गयीं। शायद वे हमारी बेबहर इमेज से बाकिफ़ हो गयीं हों अकल-दरवज्जे में घुसते ही।
लौटते में देखा कि एक कौआ कड़क्को सा खेलने वाले अंदाज में एक पैर और फ़िर दूसरे पैर पर उचक रहा था। उचकते-उचकते शायद वह थक गया या फ़िर बोर गया। क्योंकि थोड़ी देर में सरपट दोनों पैरों पर भागता चला गया। इससे मुझे लगा कि उचकने के लिये भले ही एक पैर पर आप उचक लें लेकिन सरपट भागने के लिये दोनों पैरों में तालमेल होना आवश्यक है।
घर लौटकर देखा तो दो मोरनियां ऊपर-नीचे दो तारों पर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दिशा में मुंह किये बैठीं थीं। शायद दो मोरनियां भी आपस में एक-दूजे को पसंद न करती हों। पक्षियों में समलैंगिकता जैसी बात तो होती नहीं कि वे बेसबब आपस में ही एक-दूजे के लिये होकर निहार-क्रिया में जुटी रहें। वैसे यह हो सकता है कि वे आपस में पक्की सहेलियां हों और आपस में मिलकर किसी पंखधारी मोर का इंतजार कर रही हों। मैं इधर देखती हूं तू उधर को ताक स्ट्रेटेजी के तहत वे एक-दूसरे के विपरीत मुंह किये बैठी हों। शायद मोर के काव्यात्मक स्वागत के लिये पंक्तियां भी गढ़ रही हों:
शाम को पत्नीश्री को भेजने स्टेशन गये। उनकी एक सहेली मिली। साथ में उनका बच्चा और गुरुजी। बाद में पत्नीश्री बता रहीं थीं कि गुरुजी उनको बता रहे थे कि उनके पति उत्ती उमर के नहीं लगते जित्ती उमर के वे बता रही थीं (कुछ ज्यादा लगते हैं)। शायद उनका कहने का आशय रहा हो कि वे उतनी उमर की नहीं लगतीं जितनी कि वे हैं। कम लगती हैं। वैसे मैंने अक्सर देखा कि जब भी बात उमर की चलती है तो हमारे मन में या तो कोई डंडी मार दुकानदार बैठ जाता है जो घट-गिनती करता है या फ़िर कोई ग्वाला जो सामने वाले की उमर नापते समय कुछ उमर-दूध घाते के रूप में डाल देता है। सही हो या गलत लेकिन मामला असलियत से दूर रखने का मजा ही कुछ और है।
कुल जमा हजार से पार अक्षर हो गये। इसी तरह गिनते रहे तो देर नहीं लगेगी और हो जायेंगे दो हजार पार। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। जल्दी ही।
स्कूल जाते
बच्चे के बस्ते में
चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ
इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन
विजय कांत
तुम कौन सी शाख के मोर हो जी
By फ़ुरसतिया on October 5, 2009
२०० सौ लोग निपट गये बाढ़ में। पौने दो लाख घर बह गये। सर्वांग सुन्दरी प्रकृति को कौन सुनाये ये शेर बशीर साहब का घुमा-फ़िराकर:
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने मेंउधर इंडोनेशिया में तबाही में न जाने कित्ते लोग मर गये। तबाही के न जाने कित्ते मंजर। लोग कह रहे हैं इंडोनेशिया के नये चुने गये राष्ट्रपति ही अभिशप्त हैं। पुराना रिकार्ड रहा हैं उनका अभिशप्त होने का। प्रकृति ने पुरानी रिपोर्ट देखकर थमा दिया एक ठो और भूकंप इंडोनेशिया को। लेओ थामो।
आप हिचकती नहीं इत्ते घर बहाने में।
कमरे से बाहर निकले तो देखा तो कुदरत यहां तो मेहरबान है। खुला-खिला आसमान है। कुछ देर देखा, कुछ देर निहारा। जित्ता देख पाये देखा बाकी थोड़ी देर में देखने के लिये कहकर गाड़ी का पंक्चरित पहिया खोलने में जुट गये।
पहिया खोलते समय कुछ देर यह सोचने में लगायी कि जोर ऊपर लगायें या नीचे। नहीं समझ में आया तब बारी-बारी से दोनों तरफ़ लगा दिया। फ़िर जब देर हो गयी तो जिधर लगाना था उधर ही लगाते हुये बोल्ट के कस-बल ढीले कर दिये। इस बीच यह भी सोच डाला कि कहीं नट जाम तो नहीं हो गये। जाम हो गये तो एक और झाम। बड़का बच्चा भी इस बहाने याद आया। पढ़ने न गया होता तो भला ये समय देखना पड़ता। दो घंटे बाद खुलता लेकिन पहिया उसी से खुलता।
पंचर बनाने वाले ने बताया कि टायर अब वरिष्ठ टायर हो गया है। इसके तार निकल आये हैं। ये ट्यूब को काट देता है। कटखना हो गया है। मैंने सोचा। क्या वरिष्ठ की नियति/परिणति कटखना हो जाना ही है। यह सोचा गया कि पड़ा रहेगा अब स्टेपनी में कुछ दिन बदले जाने के पहले।
पंक्चर बनवाने के दौरान केदारनाथ सिंह का लेख पढ़ा। उन्होंने शरद कालीन समय में लिखी कविताओं का जिक्र किया था। एक थी- फ़ूल खिले,खिले फ़ूल।इसके अलावा कुमुदनी का जिक्र करते हुये भी एक कविता थी। लेख पढ़ते ही हमारे तथाकथित दिमाग में तड़तड़ कुछ पंक्तियां बिना मे आई कम सर कहे घुस गईं और फ़ड़फ़ड़ करते हुये उल्टे पैरों वापस हो गयीं। जो समझा हो उन्होंने लेकिन बिना पूछे आईं और बिना बताये चली गयीं। शायद वे हमारी बेबहर इमेज से बाकिफ़ हो गयीं हों अकल-दरवज्जे में घुसते ही।
लौटते में देखा कि एक कौआ कड़क्को सा खेलने वाले अंदाज में एक पैर और फ़िर दूसरे पैर पर उचक रहा था। उचकते-उचकते शायद वह थक गया या फ़िर बोर गया। क्योंकि थोड़ी देर में सरपट दोनों पैरों पर भागता चला गया। इससे मुझे लगा कि उचकने के लिये भले ही एक पैर पर आप उचक लें लेकिन सरपट भागने के लिये दोनों पैरों में तालमेल होना आवश्यक है।
घर लौटकर देखा तो दो मोरनियां ऊपर-नीचे दो तारों पर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दिशा में मुंह किये बैठीं थीं। शायद दो मोरनियां भी आपस में एक-दूजे को पसंद न करती हों। पक्षियों में समलैंगिकता जैसी बात तो होती नहीं कि वे बेसबब आपस में ही एक-दूजे के लिये होकर निहार-क्रिया में जुटी रहें। वैसे यह हो सकता है कि वे आपस में पक्की सहेलियां हों और आपस में मिलकर किसी पंखधारी मोर का इंतजार कर रही हों। मैं इधर देखती हूं तू उधर को ताक स्ट्रेटेजी के तहत वे एक-दूसरे के विपरीत मुंह किये बैठी हों। शायद मोर के काव्यात्मक स्वागत के लिये पंक्तियां भी गढ़ रही हों:
तुम कौन सी शाख के मोर हो जी, इत आये कितै से कितै को धाये हो,आगे की पंक्तियां अंतरग होने और निजता के उल्लंघन से बचने के लिहाज से हम यहां नहीं दे रहे हैं। वैसे कुछ लोग शाख का कापीराइट उल्लू के साथ होने की बात कहकर कहें कि मोर की जगह उल्लू कहने की जिद करें। लेकिन अब किसी की जिद का क्या किया जाये। लोग तो कुछ भी जिद कर बैठते हैं। करने के बाद जिस चीज के लिये जिद करते हैं उस तक को बैठा देते हैं। आप तो ऐसे नहीं हैं न!वैसे अगर हैं भी तो कोई गलत बात नहीं- अपनी चीज की तरफ़दारी करना सहज बात है।
पंख तो बढ़िया झकास धरै हो जी, मनो कोई साबुन नया सा लगाये हो,
आओ नगीच पे बैठ के बताओ जी, काहे को इत्ता बेवजह हकबकाये हो,
कछु हाल कहो, कछु चाल चलो जी, काहे को हमसे शरमाये हुये हो।
शाम को पत्नीश्री को भेजने स्टेशन गये। उनकी एक सहेली मिली। साथ में उनका बच्चा और गुरुजी। बाद में पत्नीश्री बता रहीं थीं कि गुरुजी उनको बता रहे थे कि उनके पति उत्ती उमर के नहीं लगते जित्ती उमर के वे बता रही थीं (कुछ ज्यादा लगते हैं)। शायद उनका कहने का आशय रहा हो कि वे उतनी उमर की नहीं लगतीं जितनी कि वे हैं। कम लगती हैं। वैसे मैंने अक्सर देखा कि जब भी बात उमर की चलती है तो हमारे मन में या तो कोई डंडी मार दुकानदार बैठ जाता है जो घट-गिनती करता है या फ़िर कोई ग्वाला जो सामने वाले की उमर नापते समय कुछ उमर-दूध घाते के रूप में डाल देता है। सही हो या गलत लेकिन मामला असलियत से दूर रखने का मजा ही कुछ और है।
कुल जमा हजार से पार अक्षर हो गये। इसी तरह गिनते रहे तो देर नहीं लगेगी और हो जायेंगे दो हजार पार। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। जल्दी ही।
मेरी पसन्द
ब्लाग जगत में कवितायें तमाम लोग लिखते हैं। कविताओं पर बहुत कम लोग लिखते हैं। लेकिन ऐसे लोगों की कविताओं के बारे में और कम लोग लिखते हैं जिनकी रचनायें महत्वपू्र्ण होते हुये पाठकों तक पहुंच नहीं पाती। देहरादून के हमारे साथी विजय गौड़ इस कमी को पूरा करने का प्रयास करते हैं। मैंने विजय गौड़ से अनुरोध किया है कि वे ब्लाग जगत में लिखी जा रही कविताओं के बारे में भी कभी-कभी लिखा करें। विजय गौड़ के बारे में विस्तार से फ़िर कभी! फ़िलहाल आज विजय गौड़ के माध्यम से ही प्रदीप कांत की ये रचना आपको पढ़वा रहे हैं। दूसरी रचना आप विजय गौड़ के ब्लाग पर ही पढ़ सकते हैं।बच्चे के बस्ते में
चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ
इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन
विजय कांत
Posted in बस यूं ही | 33 Responses
पुनश्च – आपके ब्लॉग पर (भी) विज्ञापन देख कर भला लगा…
कविता लाजवाब है… शुक्रिया…
हमारे यहां भी कई मरीजो की उम्र तीस से पैतीस से बीच कित्ते सालो से अटकी पड़ी है …कभी कभार कोई उसे धकेलने की कोशिश करता है तो धमका दिया जाता है ….खैर आज की पोस्ट की बाबत कई सवाल है दिमाग में …मसलन ….बशीर बद्र की जो टांग आपने तोडी है जी…मसलन नीचे जो फोटू देकर आप परिचय छापे है …मसलन इधर बाए हाथ में दो तें विज्ञापन जो है..
बहुत लाजवाब लिखा, बहुत आनंद आया, शुभकामनाएं.
रामराम.
Think Scientific Act Scientific
और बाद में हवा उतर गई – वरिष्ठ टायर को मुंह लटकाए देख कर:)
और हां, महिलाएं झूठ नहीं बोल रहीं जब वे अपनी उम्र कम बताती हैं……क्योंकि वे ईश्वर से सदा यही दुआ मांगती है “मेरी उम्र भी इन्हें लग जाय” परसों करवा चौथ है… सभी सुहागिनों को शुभकामनाएं॥
कछु हाल कहो, कछु चाल चलो जी, काहे को हमसे शरमाये हुये हो।
इन दोनों पंक्तियों को तो १०० लम्बर
बाकी विजय गौड़ जी बढ़िया लिखेले है..
पंख तो बढ़िया झकास धरै हो जी, मनो कोई साबुन नया सा लगाये हो,
हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा रोचक और मजेदार ये तो आप ही लिख सकते हैं हा हा
regards
२०० सौ लोग निपट गये बाढ़ में ..
तक पढ़ लिया जी ।
मोरनियों की फोटो नहीं लगाई आपने -ऊपर तो नर मोर बैठा है !
आप हिचकती नहीं इत्ते घर बहाने में।”
so sad na, sir ?
aapki pasand behad khoobsurat hai.
बच्चे के बस्ते में
चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी पोस्टें
इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन
और ठेलेगा
अपने ब्लॉग पर!
पंख तो बढ़िया झकास धरै हो जी, मनो कोई साबुन नया सा लगाये हो,
अनूप जी
पढ़कर आनंद गया. बहुत सुन्दर रोचक प्रस्तुति.
आभार
क्या कनेक्शन बिठा के बात पेश करते हो सर, आप। मालिक ऐसा लेखन और लेखन की समझ सबको दे। आज न जाने क्यों उदास मन से मगर आपके लिए दुआ के साथ !
विज्ञापन का क्या रेजेल्ट निकला-आगे कभी जरुर बताईयेगा.
विजय कांत जी कविता बहुत गहरी है और आपकी मोर मोरनी वाली चौचक. बधाई.
देखो तूफ़ान आ गया
प्रकृति को भी आन्दोलन भा गया …..
लेख शाम को पढ़कर फिर टिपियाएंगे।
चलेगा?
वैसे आप पूछ सकते है किया दिन के बाद क्यों ?
तो अब क्या कहें लम्बी कहानी है
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“एक महीने से नेट का मू नहीं देख पाए ठ ”
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बस जी यही कहानी थी
क्या पता आपने महीने भर में कुछ लिखा भी है,,,, नहीं कल देखा जायेगा
जय राम जी की
आपका वीनस केसरी
सही कहा ,कभी तो बिन पानी सब सून था और अब पानी में सब गुम हो गया..
“..शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़
जल राशि राशि पर चढ़ता खाता पछाड़
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष ..”
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कौवा और मोर पर कछु कहूँगा तो आप और बिद्वान जन कहेंगे कि देखो कउवा मोरों के आगे नाचने की कोशिश कर रहा है। मैं एक और मुहावरे के पैदा होने का कारण नहीं बनना चाहता।
- प्रदीप कांत