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बरसात की सुबह और नाके पर बादल
By फ़ुरसतिया on July 9, 2012
सुबह जगे तो बाहर से पानी बरसने की आवाज सुनाई दी। आंख मूंदे हुये ही
उठे। सोचा बरामदे में चलकर बादल- मुआयना किया जाये। सोच के साथ अलसाई आवाज
में ’चाय ले आओ भाई’ कहने का खुफ़िया प्लान भी नत्थी था।
दरवाजे तक पहुंचने के पहले ही जो हुआ उससे मुझे बत्तीस साल पहले की अपनी
कक्षा ग्यारह की अंग्रेजी कक्षा की याद आ गयी।
बत्तीस साल पहले की अंग्रेजी कक्षा में हुआ यह कि गुरुजी ’वर्षा का एक दिन’ पर अंग्रेजी में निबन्ध लिखवा रहे थे। हम हाई स्कूल में पोस्टमैन, भारतीय किसान, गाय आदि के निबन्ध रट के आये लोग क्लास में तुरंत कैसे लिख डालते लेख ’वर्षा का एक दिन’ पर। इसके बाद गुरुजी ने लिखवाना शुरु किया। पहली बार पता चला कि मूसलाधार बारिश के लिये ’कैट्स एंड डाग’ कहा जाता है। फ़िर एक जगह बारिश के चलते कीचड़ में फ़िसलकर गिरने का किस्सा था। हमें लगा कि शायद ’स्लिप्ड एंड फ़ेल डाउन’ जैसा कुछ लिखायेंगे लेकिन गुरुजी ने फ़िर हमें चौंकाया और कहा लिखो-’फ़ेल डाउन विद अ थड’। हमको उस समय भी लगा कि ’भड़ से गिरा’ की जगह जबरियन गुरुजी ने अंग्रेजी लिखायी है। लेकिन हम कुछ कह नहीं सकते थे काहे से कि सवाल वहां अंग्रेजी में नहीं करते तो क्लास-हंसाई होती और जित्ती देर में सवाल की अंग्रेजी होती उत्ती देर में उत्सुकता, आत्मविश्वास और पीरियड तीनों निपट जाते।
अब आपको अंग्रेजी कक्षा की अंग्रेजी याद आने का कारण पता चल ही गया होगा। मतलब जैसे ही दरवज्जे के पास पहुंचे वैसे ही बरामदे से अनधिकृत रूप अंदर आये पानी पर पैर पड़ा। पानी पर पैर पड़ते ही हाईस्कूल में पढ़े घर्षण के सिद्धांत के अधीन हमारे और जमीन के बीच के घर्षण कम हो गया और हम भड़ से जमीन से जुड़ गये। जमीन से जुड़ते ही पहले तो हड्डियों की चिंता की। वे सलामत थीं। फ़िर पसली देखी। वह भी ठीक थी। लेकिन पीठ में भयंकर खिंचाव महसूस हुआ। बहुत देर बिस्तर पर लेटे रहे। लेकिन दर्द बोला हम आपको अकेले छोड़कर न जायेंगे। एकाध दिन साथ देंगे। हमने भी मान ली उसकी बात। सोचा कन्हैयालाल बाजपेयी गलत नहीं कहते थे:
सुबह तक तो पानी बरसते हुये कई घंटे हो गये थे। क्या पता जब बादल ने सबसे पहली खेप पानी की गिरायी हो तो धरती ने जमकर अपना गुस्सा जाहिर किया हो बादल के देरी से आने से। उसके गुस्से से पानी की शुरुआती बूंदे धरती के तवे पर छन्न सी गिरकर वापस हुईं हों। धीरे-धीरे धरती का गुस्सा शान्त हो गया हो और वह बादल अपना पूरा पानी उड़ेलने लगा हो।
क्या पता धरती ने जब बादल को देरी के लिये कसकर हड़काया हो तो बेचारा सिटपिटाया सा बोला हो कि क्या करें हम तो कब के पानी लिये खड़े थे लेकिन आने के लिये कोई ट्रेन ही न मिली। सब फ़ुल थीं। तत्काल तक में रिजर्वेशन न मिला। आज भी किसी तरह ले-देकर आ पाये हैं। सब जगह दलालों का कब्जा है।
हो तो यह भी सकता है कि धरती ने किसी बदली का नाम लेकर ताना भी मारा हो कि जल्दी कैसे आते उससे बतियाने से फ़ुर्सत मिले तब न! इस पर शायद बादल ने किसी मल्टीनेशनल कम्पनी के मुलाजिमों की तरह मिमियाते हुये मल्टीनेशनल कम्पनियों वाले बहाने बताये हों- तुम तो हमेशा शक करती हो। वहां इत्ते बादल और बदलियां काम करती हैं। सबके प्रोफ़ेशनल रिश्ते हैं। इसके अलावा सब तुम्हारे दिमाग की उपज है। इस पर शायद धरती ने कुछ और कड़क कहा हो जिसको अनदेखा करके बादल पानी बरसाकर धरती को ठंडा करने में जुट गया हो।
वैसे हो यह भी सकता है कि बादल ने कहा हो कि मैं शहर के नाके पर तो समय पर पहुंच गया था लेकिन नाके पर सिपाही ने रोक लिया। बोला अभी ’नो इंट्री’ है। इस पर बादल ने कहा होगा कि काहे की नो इंट्री भाई हमारी फ़र्म के सब बादलों की मंथली रकम आर.टी.ओ. के यहां जमा करा दी गयी है। इस पर नाके के सिपाही ने रकम जमा कराने के बाद बताया जाने वाला ’कोड वर्ड’ पूछा होगा जो धरती की याद में डूबे बादल को बिसरा गया होगा। इस पर उसे नाके पर ही रोक लिया गया हो। हफ़्ते पर बाद किसी तरह से उसका संपर्क अपनी कंपनी के हेडक्वार्टर से हुआ होगा इसके बाद कोड बताकर वह आगे निकल पाया होगा।
धरती की तरह पानी जब नदी में सीधे वर्षा होगा तो शायद नदी ने बारिश की बूंदों को कसकर डांटा हो। कहां आवारगी करके आयी हो। भेजा था साफ़-सुथरा, पवित्र। आई हो तो कहां-कहां की गंदगी लपेटे, मटमैली। बूंदे सहम कर नदी की गोद में सिमटकर गयी हों शायद- मम्मी बहुत गंदगी है बाहर! नदी ने फ़िर प्यार से अपने आंचल में समेट लिया होगा शायद।
इस समय बाहर झींगुर कीर्तन कर रहे हैं, दादुर टर्रा रहे हैं। कुछ लय-ताल में लग रहा है मामला। क्या पता कि वे कोई कविता सुना रहे हों आपस में एक दूसरे को। वाह-वाह, वल्लाह-सुभानल्लाह कर रहे हों। कविता की बात सोचते ही याद आया कि कविता के लिये तो दर्द चाहिये होता है, पीड़ा का इंतजाम होना चाहिये। ये बारिश के मौसम में झींगुरों, कीड़े-मकोंड़ों के पास दर्द कहां से आया। पहले तो मन किया कि निकल कर पूछें लेकिन फ़िर निकला नहीं कमरे से। यह भी डर था कि कहीं कोई झींगुर बयान न जारी कर दे:
हम तो आपके दर्द को अपना स्वर दे रहे हैं।
यह सोचते ही हमारा दर्द बढ़ गया। हमें लगा कि दुनिया बड़ी जालिम है। दर्द तक लूट के ले जाती है।
इससे अच्छा तो अपना दर्द फ़ेसबुक अकाउंट में जमा करा दिया होते। अब तक दूना रिटर्न मिल जाता।
लेकिन अब पछताये होत क्या जब दर्द गया है फ़ूट!
बिन बरसे मत जाना।
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
झुकी बदरिया आसमान पर
मन मेरा सूना।
सूखा सावन सूखा भादों
दुख होता दूना
दुख का
तिनका-तिनका लेकर
मन को खूब सजाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
एक अपरिचय के आँगन में
तुलसी दल बोये
फँसे कुशंकाओं के जंगल में
चुपचुप रोए
चुप-चुप रोना भर असली है
बाकी सिर्फ़ बहाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।
पिसे काँच पर धरी ज़िंदगी
कात रही सपने!
मुठ्ठी की-सी रेत
खिसकते चले गए अपने!
भ्रम के इंद्रधनुष रंग बाँटें
उन पर क्या इतराना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
कन्हैयालाल नंदन
बत्तीस साल पहले की अंग्रेजी कक्षा में हुआ यह कि गुरुजी ’वर्षा का एक दिन’ पर अंग्रेजी में निबन्ध लिखवा रहे थे। हम हाई स्कूल में पोस्टमैन, भारतीय किसान, गाय आदि के निबन्ध रट के आये लोग क्लास में तुरंत कैसे लिख डालते लेख ’वर्षा का एक दिन’ पर। इसके बाद गुरुजी ने लिखवाना शुरु किया। पहली बार पता चला कि मूसलाधार बारिश के लिये ’कैट्स एंड डाग’ कहा जाता है। फ़िर एक जगह बारिश के चलते कीचड़ में फ़िसलकर गिरने का किस्सा था। हमें लगा कि शायद ’स्लिप्ड एंड फ़ेल डाउन’ जैसा कुछ लिखायेंगे लेकिन गुरुजी ने फ़िर हमें चौंकाया और कहा लिखो-’फ़ेल डाउन विद अ थड’। हमको उस समय भी लगा कि ’भड़ से गिरा’ की जगह जबरियन गुरुजी ने अंग्रेजी लिखायी है। लेकिन हम कुछ कह नहीं सकते थे काहे से कि सवाल वहां अंग्रेजी में नहीं करते तो क्लास-हंसाई होती और जित्ती देर में सवाल की अंग्रेजी होती उत्ती देर में उत्सुकता, आत्मविश्वास और पीरियड तीनों निपट जाते।
अब आपको अंग्रेजी कक्षा की अंग्रेजी याद आने का कारण पता चल ही गया होगा। मतलब जैसे ही दरवज्जे के पास पहुंचे वैसे ही बरामदे से अनधिकृत रूप अंदर आये पानी पर पैर पड़ा। पानी पर पैर पड़ते ही हाईस्कूल में पढ़े घर्षण के सिद्धांत के अधीन हमारे और जमीन के बीच के घर्षण कम हो गया और हम भड़ से जमीन से जुड़ गये। जमीन से जुड़ते ही पहले तो हड्डियों की चिंता की। वे सलामत थीं। फ़िर पसली देखी। वह भी ठीक थी। लेकिन पीठ में भयंकर खिंचाव महसूस हुआ। बहुत देर बिस्तर पर लेटे रहे। लेकिन दर्द बोला हम आपको अकेले छोड़कर न जायेंगे। एकाध दिन साथ देंगे। हमने भी मान ली उसकी बात। सोचा कन्हैयालाल बाजपेयी गलत नहीं कहते थे:
संबध सभी ने तोड़ लिये,तो उसी दर्द को साथ लिये-लिये धीमें-धीमें कांखते हुये बाहर बारिश का मुआयना किया। देखा बादल झमाझम बरस रहे थे। पानी सड़क पर गिर रहा था। बूंदे सड़क पर टकराने के बाद थोड़ा उचक फ़िर गिर रही थीं। लगा कि शायद धरती बादल से कह रही हो कि हमें नहीं चाहिये तुम्हारा पानी ले जाओ यहां से। लेकिन बादल फ़िर धरती के आंचल में पानी डाल देता हो। धरती पहले उसको सड़क पर फ़िर सरकाकर किनारे नालियों में सहेज लेती हो।
चिंता ने कभी नहीं तोड़े,
सब हाथ जोड़ कर चले गये,
पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े।
सुबह तक तो पानी बरसते हुये कई घंटे हो गये थे। क्या पता जब बादल ने सबसे पहली खेप पानी की गिरायी हो तो धरती ने जमकर अपना गुस्सा जाहिर किया हो बादल के देरी से आने से। उसके गुस्से से पानी की शुरुआती बूंदे धरती के तवे पर छन्न सी गिरकर वापस हुईं हों। धीरे-धीरे धरती का गुस्सा शान्त हो गया हो और वह बादल अपना पूरा पानी उड़ेलने लगा हो।
क्या पता धरती ने जब बादल को देरी के लिये कसकर हड़काया हो तो बेचारा सिटपिटाया सा बोला हो कि क्या करें हम तो कब के पानी लिये खड़े थे लेकिन आने के लिये कोई ट्रेन ही न मिली। सब फ़ुल थीं। तत्काल तक में रिजर्वेशन न मिला। आज भी किसी तरह ले-देकर आ पाये हैं। सब जगह दलालों का कब्जा है।
हो तो यह भी सकता है कि धरती ने किसी बदली का नाम लेकर ताना भी मारा हो कि जल्दी कैसे आते उससे बतियाने से फ़ुर्सत मिले तब न! इस पर शायद बादल ने किसी मल्टीनेशनल कम्पनी के मुलाजिमों की तरह मिमियाते हुये मल्टीनेशनल कम्पनियों वाले बहाने बताये हों- तुम तो हमेशा शक करती हो। वहां इत्ते बादल और बदलियां काम करती हैं। सबके प्रोफ़ेशनल रिश्ते हैं। इसके अलावा सब तुम्हारे दिमाग की उपज है। इस पर शायद धरती ने कुछ और कड़क कहा हो जिसको अनदेखा करके बादल पानी बरसाकर धरती को ठंडा करने में जुट गया हो।
वैसे हो यह भी सकता है कि बादल ने कहा हो कि मैं शहर के नाके पर तो समय पर पहुंच गया था लेकिन नाके पर सिपाही ने रोक लिया। बोला अभी ’नो इंट्री’ है। इस पर बादल ने कहा होगा कि काहे की नो इंट्री भाई हमारी फ़र्म के सब बादलों की मंथली रकम आर.टी.ओ. के यहां जमा करा दी गयी है। इस पर नाके के सिपाही ने रकम जमा कराने के बाद बताया जाने वाला ’कोड वर्ड’ पूछा होगा जो धरती की याद में डूबे बादल को बिसरा गया होगा। इस पर उसे नाके पर ही रोक लिया गया हो। हफ़्ते पर बाद किसी तरह से उसका संपर्क अपनी कंपनी के हेडक्वार्टर से हुआ होगा इसके बाद कोड बताकर वह आगे निकल पाया होगा।
धरती की तरह पानी जब नदी में सीधे वर्षा होगा तो शायद नदी ने बारिश की बूंदों को कसकर डांटा हो। कहां आवारगी करके आयी हो। भेजा था साफ़-सुथरा, पवित्र। आई हो तो कहां-कहां की गंदगी लपेटे, मटमैली। बूंदे सहम कर नदी की गोद में सिमटकर गयी हों शायद- मम्मी बहुत गंदगी है बाहर! नदी ने फ़िर प्यार से अपने आंचल में समेट लिया होगा शायद।
इस समय बाहर झींगुर कीर्तन कर रहे हैं, दादुर टर्रा रहे हैं। कुछ लय-ताल में लग रहा है मामला। क्या पता कि वे कोई कविता सुना रहे हों आपस में एक दूसरे को। वाह-वाह, वल्लाह-सुभानल्लाह कर रहे हों। कविता की बात सोचते ही याद आया कि कविता के लिये तो दर्द चाहिये होता है, पीड़ा का इंतजाम होना चाहिये। ये बारिश के मौसम में झींगुरों, कीड़े-मकोंड़ों के पास दर्द कहां से आया। पहले तो मन किया कि निकल कर पूछें लेकिन फ़िर निकला नहीं कमरे से। यह भी डर था कि कहीं कोई झींगुर बयान न जारी कर दे:
हम तो आपके दर्द को अपना स्वर दे रहे हैं।
यह सोचते ही हमारा दर्द बढ़ गया। हमें लगा कि दुनिया बड़ी जालिम है। दर्द तक लूट के ले जाती है।
इससे अच्छा तो अपना दर्द फ़ेसबुक अकाउंट में जमा करा दिया होते। अब तक दूना रिटर्न मिल जाता।
लेकिन अब पछताये होत क्या जब दर्द गया है फ़ूट!
मेरी पसंद
बिन बरसे मत जाना रे बादल!बिन बरसे मत जाना।
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
झुकी बदरिया आसमान पर
मन मेरा सूना।
सूखा सावन सूखा भादों
दुख होता दूना
दुख का
तिनका-तिनका लेकर
मन को खूब सजाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
एक अपरिचय के आँगन में
तुलसी दल बोये
फँसे कुशंकाओं के जंगल में
चुपचुप रोए
चुप-चुप रोना भर असली है
बाकी सिर्फ़ बहाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।
पिसे काँच पर धरी ज़िंदगी
कात रही सपने!
मुठ्ठी की-सी रेत
खिसकते चले गए अपने!
भ्रम के इंद्रधनुष रंग बाँटें
उन पर क्या इतराना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
कन्हैयालाल नंदन
Posted in बस यूं ही | 26 Responses
धरती,बादल,नदी,बूँद ,हड्डी-पसली,झींगुर,मेढक कुल मिलाकर बारिश में पूरा महाभारत का इंतजाम कर दिया है,बड़े दिनों बाद सो के उठे हो !
बाजपेईजी और नंदन जी दोनों की कविता अच्छी लगी !
…अबकी बार बारिश में बाहर निकलना तो पूरे शरीर पर लोहे का हेलमेट ओढ़ लेना,पसली चटकने का डर नहीं रहेगा !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..प्रणय-गीत
अभी इत्ता बड़ा लिखा था,गायब हो गया न जाने कहाँ ?
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..प्रणय-गीत
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..त्याग भोग के बीच कहीं पर
ऊपरी माले पर रहने का एक फायदा है कि कीचड़ सने पैर घर तक आते-आते कुछ साफ हो जाते हैं।
गनीमत है कि भड़ से गिरने का कार्यक्रम कानपुर में बना जहाँ जमीन से ऊपर उठाने के लिए दो हाथ मिल गये होंगे। कहीं यह भौतिकी जबलपुर में घटित हुई होती तो न्यूटन के दूसरे नियम के अनुसार जहाँ जुड़े थे वहीं जुड़े रह जाते जबतक कि अपने हाथ पैर खुदई न चलाते।
मजा आ गया वर्षा का एक दिन देखकर।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..मत तोल! बस बोल बच्चन…
करनी भरनी यहीं है जी
आह से उपजा होगा गान से आगे बढ़कर ‘आह से उपजा व्यंग्य’ यानी आह से अहा तक ..
संजय अनेजा की हालिया प्रविष्टी..सड़क पार
प्रणाम.
कितना विशाल हृदय है नदी का। हर गंदी, मटमैली, मैली-कुचैली को अपने दामन में सहेज कर न सिर्फ़ रखती है बल्कि उसकी गंदगी भी दूर कर देती है।
इस को पढ़कर लगा – अनूप शुक्ल इज़ बैक!!
आलेख के व्यंग्य के पीछे का दर्शन खुल कर नीचे दिए नंदन जी की कविता में स्पष्ट होता है –
एक अपरिचय के आँगन में
तुलसी दल बोये
फँसे कुशंकाओं के जंगल में
चुपचुप रोए
चुप-चुप रोना भर असली है
बाकी सिर्फ़ बहाना रे बादल!
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..ज़ुलू-विद्रोह घायलों की सेवा
कहाँ से आते हैं आपको ऐसे जबरदस्त ख़याल..
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..हनी जैसी स्वीट, मिर्ची जैसी हॉट (पटना १४)
जमीन से जुड़े रहना अच्छी बात है! जमीन से जुड़ा लेखक और जमीन से जुड़ा लेख!
आशीष श्रीवास्तव की हालिया प्रविष्टी..हिग्स बोसान मिल ही गया !
एक कालजाई कविता लिखी जा सकती है…(आदत से मजबूर)
कारे बदरा आय गए , सबके मन को भाय गए !!!!
झींगुर बोले मस्ती में, मेढक भी टर्राय गए |
बिजली कड़की, पानी बरसा, और छा गया अँधेरा,
पकोड़े छान कर चाय के संग , हम सब कुछ गटकाय गए !!!! (ज़हर है भाई ज़हर है)
अच्छा अगर बारिश मूसलाधार न हो तो क्या उसे बोलेंगे… It’s raing “ants and mice” ??? बोले तो चींटी चूहों की बारिश
देवांशु निगम “चाय वाले” की हालिया प्रविष्टी..मेलोंकॉली
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..तुमि तो ठेहेरे परदेसी , साथि क्या निभावोगे…