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कविताओं के बीच में एक दिन
By फ़ुरसतिया on September 5, 2012
सितम्बर का महीना देश में हिन्दी का महीना होता है। हिन्दी नहीं, राजभाषा
का। देश भर में राजभाषा माह, पखवाड़ा, सप्ताह, दिवस मनाया जाता है। श्रद्धा
और औकात के हिसाब से। क्या पता कल को राजभाषा घंटा, मिनट या फ़िर सेकेंड भी
मनाया जाने लगे। नेशनल लैंगुयेज को रिच बनाया जाता है। अपन के यहां भी कल राजभाषा पखवाड़े का फ़ीता कटा।
हम जिधर बैठे थे उधर ही दीप प्रज्ज्वलित हुआ था। दीप बुझ न जाये इसलिये अपन की तरफ़ का पंखा बन्द कर दिया गया था। इसलिये दूरी के बावजूद दीप की गर्मी हमें महसूस हो रही थी। हम फ़ुल गर्मजोशी के साथ राजभाषा प्रसार की कार्यवाही के गवाह बने।
उद्घाटन भाषण में दक्षिण भारतीय महाप्रबंधक ने मिली-जुली लेकिन समझ में आ जाने वाली हिन्दी में हिन्दी की महत्ता बतायी। जिस शब्द की हिन्दी उनको नहीं आई उसका अंग्रेजी शब्द बोला। जनता ने उसकी हिन्दी बताई। उसको उन्होंने बोला और अपनी बात कही। यह भी बताया कि पहले उनको लगता था हिन्दी कविता में हर पांचवी लाइन के बाद वाह-वाह बोला जाता है।
उद्धाटन के बाद कवियों की बारी थी। शुरुआत हास्य कवि से हुई। कवि चुटकुले शुरु करें उसके पहले महाप्रबंधक ने अपना हिन्दी के बारे में एक अनुभव बताया। एक कवि ने अपनी किसी कविता में ’कड़ी’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसको ’कढ़ी’ समझकर ग्रहण किया और कल्पना करते रहे कि क्या स्वादिष्ट कल्पना है। हमको अपने बी.एच.यू. के मित्र यादव जी याद आये जिनको मैंने जब एक कविता सुनाई थी:
सूजन में दर्द का होना जरूरी है।
वे शायद कवि से ज्यादा सटीक थे। सृजन में दर्द हो या न हो लेकिन सूजन में दर्द की सौ प्रतिशत गारंटी होती है।
कवि लोग शुरु हुये तो मां भारती के चरणों में कई कवितायें निवेदित करते गये। एक हास्य कवि ने नेता पहाड़ा पढ़ा। नेता एकम नेता, नेता दूनी चोर, ….। इसके बाद पुलिस पर भी एक हास्य कविता पढ़ी। मुझे लगा कि आज अगर नेता, पुलिस पर कविता लिखना बैंन हो जाये तो आधे हास्य कवि या तो बेरोजगार हो जायें। या फ़िर वे आपातकाल के कवियों की तरह बतायें ये देखो ये सूरज नहीं नेता है, ये फ़ूल नहीं गुंडा है, चांद यहां दरोगा का प्रतीक है, चांदनी का मतलब जनता है आदि-इत्यादि, वगैरह-वगैरह। सुना है आपातकाल में तमाम लोगों ने इस तरह की कवितायें लिखीं जिनके व्यापारियों के खातों की तरह दो मतलब होते थे। एक जो सारी जनता समझती थी दूसरा वह जिसे सिर्फ़ वे समझते थे। अपना मतलब उन्होंने दुनिया भर को आपातकाल के बाद बताया और अपने लिये क्रांतिकारी कवि का तमगा गढ़कर खुदै ग्रहण कल्लिया।
इरफ़ान झांस्वी रिटायर हो गये हैं। वे भी आये थे। उनकी ये पंक्तियां मुझे याद हैं:
एक कवियत्री ने कुछ सुन्दर गीत सुनाये। सोचा कि उनका मोबाइल वीडियो बना लूं लेकिन फ़िर यह सोचकर कि मोबाइल हिलेगा, ज्यादा दिखेगा कम आइडिया मटिया दिये।
सिद्ध कवियों के बाद काव्य पाठ प्रतियोगिता शुरु हुयी। बीस-बाइस प्रतिभागी थे। वे अपनी या अपने पसंदीदा कवियों की रचना सुना रहे थे। पसंदीदा कवि की रचनायें तो याद होनी चाहिये लेकिन यहां सारी पसंद कागजों पर थी। प्रतिभागी लोग राष्ट्राध्यक्षों के संबोंधन की तरह कवितायें प्रसारित कर रहे थे। आधे के विषय थे कि हिन्दी हमारी राजभाषा है। इसको सम्मान दिला के रहना है। कुछ बच्चों ने दहेज की बुराई की। कुछ ने पाकिस्तान को भी गरियाया। पाकिस्तान को गरियाते हुये एक ने तो इत्ती जोर से कविता पढ़ी कि मुझे लगा कि अगर पाकिस्तान कहीं उसको सुन लेता तो एकाध फ़ुट अफ़गानिस्तान की तरफ़ सरक जाता। मुझे अपने शाहजहांपुर के ख्यालबाज लल्लनजी याद आये जो कहते हैं:
इस बीच पांच बजे वाला हूटर बजा। सारी महिला श्रोता अपने-अपने झोले उठाकर घर की तरफ़ चल दीं। इससे एक बार फ़िर सिद्ध हुआ कि कविता का श्रोता कविता केवल फ़ुरसत में ही सुनता है। उनकी छुट्टी हो गयी वे चलीं गयीं। कुछ देर बाद आदमियों वाला हूटर बजा वे भी चल दिये। हाल में केवल हम और कवि बचे थे। कवि अपनी कवितापाठ के परिणाम सुनने थे। हमें सुनाने थे। हमारी कापी में सभी कवियों के लगभग एक जैसे नंबर थे। वो तो भला हो हमारे हिंदी अधिकारी का जिन्होंने कुछ मूल्यांकन सरीखा कर रखा था। एक कविता हमें कुछ ठीक सा लगी लेकिन वो इनाम से गायब थी। हमने अपने प्रभाव का उपयोग करके उसके दो नंबर बढ़वाये और उसको तीसरे नंबर का संयुक्त विजेता घोषित किया। हर जगह इनाम इसी तरह से बंटते हैं। अपनी पसंद को कोई निर्णायक कैसे उपेक्षा कर सकता है।
परिणाम सुनते ही हाल खाली हो गया।
वापस आकर पता चला कि हमारी अनुपस्थति के बावजूद वह मीटिंग संपन्न हुई जिसमें हमारी भागेदारी जरूरी थी। न सिर्फ़ मीटिंग हुय़ी बल्कि निर्णय भी हुये। हम होते तो शायद बहसबाजी में समय बिता देते।
इस तरह कविताओं के बीच में बीता एक दिन।
सूचना: ये दोनों चित्र फ़्लिकर से। ऊपर वाला चित्र राकेश खंडेलवाला जी का है-साथ में कवि कुंवर बेचैन। नीचे वाला चित्र नेट पर मिला जिसमें आज से शायद पांच साल पहले की सूचना है जिसमें कहा गया है नेट पर हिंदी ब्लागरों के भरोसे है।
स्साला टीन के डिब्बे सा खाली दिन
फिर आ गया
सूरज को भी साथ लाया है!
फिर वही
गर्मी, खालीपन और घुटन
धीरे-धीरे
दिन और सूरज
दोनों चढ़ आये
मैंने भी
तापमान नियंत्रित कर परदे गिरा
दोनों को हटा दिया।
यह कविता और फ़ोटो मनोज अग्रवाल का है। मनोज हमारे तीस साल से भी ज्यादा पुराने दोस्त हैं। इतने साल बीतने के बाद भी वे हमको उतना ही गैरजिम्मेदार और नाकारा मानते हैं जितना कालेज के दिनों में समझते थे। यह सच्ची दोस्ती है जिसमें समय के साथ दोस्त बदलते नहीं। अकल से जहीन, शकल से हसीन मनोज ने अपनी कुछ कवितायें मुझे कुछ दिन पहले भेजी देखने के लिये। हमने उनमें से एक यहां सटा दी। पहले भी एक कविता पोस्ट की थी उनकी। आगे भी करने का इरादा है।
हम जिधर बैठे थे उधर ही दीप प्रज्ज्वलित हुआ था। दीप बुझ न जाये इसलिये अपन की तरफ़ का पंखा बन्द कर दिया गया था। इसलिये दूरी के बावजूद दीप की गर्मी हमें महसूस हो रही थी। हम फ़ुल गर्मजोशी के साथ राजभाषा प्रसार की कार्यवाही के गवाह बने।
उद्घाटन भाषण में दक्षिण भारतीय महाप्रबंधक ने मिली-जुली लेकिन समझ में आ जाने वाली हिन्दी में हिन्दी की महत्ता बतायी। जिस शब्द की हिन्दी उनको नहीं आई उसका अंग्रेजी शब्द बोला। जनता ने उसकी हिन्दी बताई। उसको उन्होंने बोला और अपनी बात कही। यह भी बताया कि पहले उनको लगता था हिन्दी कविता में हर पांचवी लाइन के बाद वाह-वाह बोला जाता है।
उद्धाटन के बाद कवियों की बारी थी। शुरुआत हास्य कवि से हुई। कवि चुटकुले शुरु करें उसके पहले महाप्रबंधक ने अपना हिन्दी के बारे में एक अनुभव बताया। एक कवि ने अपनी किसी कविता में ’कड़ी’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसको ’कढ़ी’ समझकर ग्रहण किया और कल्पना करते रहे कि क्या स्वादिष्ट कल्पना है। हमको अपने बी.एच.यू. के मित्र यादव जी याद आये जिनको मैंने जब एक कविता सुनाई थी:
अजब सी छटपटाहट,यादव जी को कविता पसन्द आ गयी तो उन्होंने सुनकर लिख ली। तीन दिन बाद मुझे सुनायी जिसकी अंतिम पंक्ति थी-
घुटन,कसकन ,है असह पीड़ा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है।
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है।
सूजन में दर्द का होना जरूरी है।
वे शायद कवि से ज्यादा सटीक थे। सृजन में दर्द हो या न हो लेकिन सूजन में दर्द की सौ प्रतिशत गारंटी होती है।
कवि लोग शुरु हुये तो मां भारती के चरणों में कई कवितायें निवेदित करते गये। एक हास्य कवि ने नेता पहाड़ा पढ़ा। नेता एकम नेता, नेता दूनी चोर, ….। इसके बाद पुलिस पर भी एक हास्य कविता पढ़ी। मुझे लगा कि आज अगर नेता, पुलिस पर कविता लिखना बैंन हो जाये तो आधे हास्य कवि या तो बेरोजगार हो जायें। या फ़िर वे आपातकाल के कवियों की तरह बतायें ये देखो ये सूरज नहीं नेता है, ये फ़ूल नहीं गुंडा है, चांद यहां दरोगा का प्रतीक है, चांदनी का मतलब जनता है आदि-इत्यादि, वगैरह-वगैरह। सुना है आपातकाल में तमाम लोगों ने इस तरह की कवितायें लिखीं जिनके व्यापारियों के खातों की तरह दो मतलब होते थे। एक जो सारी जनता समझती थी दूसरा वह जिसे सिर्फ़ वे समझते थे। अपना मतलब उन्होंने दुनिया भर को आपातकाल के बाद बताया और अपने लिये क्रांतिकारी कवि का तमगा गढ़कर खुदै ग्रहण कल्लिया।
इरफ़ान झांस्वी रिटायर हो गये हैं। वे भी आये थे। उनकी ये पंक्तियां मुझे याद हैं:
संपेरे बांबियों में बीन लिये बैठे हैं,उन्होंने संचालन किया और कुछ एक गीत सुनाया। जिसमें कल्पना के पत्ते पर शब्दों के दोने में कुछ भाव परोसने की बात थी। कवि की भूख इन्हीं से मिटती है भाई।
सांप चालाक हैं दूरबीन लिये बैठे हैं।
एक कवियत्री ने कुछ सुन्दर गीत सुनाये। सोचा कि उनका मोबाइल वीडियो बना लूं लेकिन फ़िर यह सोचकर कि मोबाइल हिलेगा, ज्यादा दिखेगा कम आइडिया मटिया दिये।
सिद्ध कवियों के बाद काव्य पाठ प्रतियोगिता शुरु हुयी। बीस-बाइस प्रतिभागी थे। वे अपनी या अपने पसंदीदा कवियों की रचना सुना रहे थे। पसंदीदा कवि की रचनायें तो याद होनी चाहिये लेकिन यहां सारी पसंद कागजों पर थी। प्रतिभागी लोग राष्ट्राध्यक्षों के संबोंधन की तरह कवितायें प्रसारित कर रहे थे। आधे के विषय थे कि हिन्दी हमारी राजभाषा है। इसको सम्मान दिला के रहना है। कुछ बच्चों ने दहेज की बुराई की। कुछ ने पाकिस्तान को भी गरियाया। पाकिस्तान को गरियाते हुये एक ने तो इत्ती जोर से कविता पढ़ी कि मुझे लगा कि अगर पाकिस्तान कहीं उसको सुन लेता तो एकाध फ़ुट अफ़गानिस्तान की तरफ़ सरक जाता। मुझे अपने शाहजहांपुर के ख्यालबाज लल्लनजी याद आये जो कहते हैं:
फ़ूंक देंगे पाकिस्तान लल्लन,मुझे पक्का यकीन हैं कि पाकिस्तान में भी हिन्दुस्तान के विरोध में वीर रस की कवितायें लिखीं और चिल्लाई जाती होंगी। सोचता हूं कि क्या ही अच्छा हो कि दोनों देश की वीर रस की कविताओं की ऊर्जा को मिलाकर अगर कोई टरबाइन चल सकता तो इत्ती बिजली बनती कि अमेरिका चौंधिया जाता। ऐसा हो सकता है। दोनों देशों के वीर रस के कवि जिस माइक से कविता पाठ करें उसके आवाज बक्से के आगे टरबाइन फ़िट कर दी जाये। इधर कविता शुरू हो उधर टरबाइन के ब्लेड घर्र-घर्र करके चलने लगें और दनादन बिजली उत्पादन होने लगे। बिजली के तारों पर सूखते कपड़े जलकर खाक हो जायें। हर तरफ़ रोशनी से लोगों की आंखें चमक जायें।
दो सौ ग्राम पीकर देखो।
इस बीच पांच बजे वाला हूटर बजा। सारी महिला श्रोता अपने-अपने झोले उठाकर घर की तरफ़ चल दीं। इससे एक बार फ़िर सिद्ध हुआ कि कविता का श्रोता कविता केवल फ़ुरसत में ही सुनता है। उनकी छुट्टी हो गयी वे चलीं गयीं। कुछ देर बाद आदमियों वाला हूटर बजा वे भी चल दिये। हाल में केवल हम और कवि बचे थे। कवि अपनी कवितापाठ के परिणाम सुनने थे। हमें सुनाने थे। हमारी कापी में सभी कवियों के लगभग एक जैसे नंबर थे। वो तो भला हो हमारे हिंदी अधिकारी का जिन्होंने कुछ मूल्यांकन सरीखा कर रखा था। एक कविता हमें कुछ ठीक सा लगी लेकिन वो इनाम से गायब थी। हमने अपने प्रभाव का उपयोग करके उसके दो नंबर बढ़वाये और उसको तीसरे नंबर का संयुक्त विजेता घोषित किया। हर जगह इनाम इसी तरह से बंटते हैं। अपनी पसंद को कोई निर्णायक कैसे उपेक्षा कर सकता है।
परिणाम सुनते ही हाल खाली हो गया।
वापस आकर पता चला कि हमारी अनुपस्थति के बावजूद वह मीटिंग संपन्न हुई जिसमें हमारी भागेदारी जरूरी थी। न सिर्फ़ मीटिंग हुय़ी बल्कि निर्णय भी हुये। हम होते तो शायद बहसबाजी में समय बिता देते।
इस तरह कविताओं के बीच में बीता एक दिन।
सूचना: ये दोनों चित्र फ़्लिकर से। ऊपर वाला चित्र राकेश खंडेलवाला जी का है-साथ में कवि कुंवर बेचैन। नीचे वाला चित्र नेट पर मिला जिसमें आज से शायद पांच साल पहले की सूचना है जिसमें कहा गया है नेट पर हिंदी ब्लागरों के भरोसे है।
मेरी पसंद
खाली दिनस्साला टीन के डिब्बे सा खाली दिन
फिर आ गया
सूरज को भी साथ लाया है!
फिर वही
गर्मी, खालीपन और घुटन
धीरे-धीरे
दिन और सूरज
दोनों चढ़ आये
मैंने भी
तापमान नियंत्रित कर परदे गिरा
दोनों को हटा दिया।
यह कविता और फ़ोटो मनोज अग्रवाल का है। मनोज हमारे तीस साल से भी ज्यादा पुराने दोस्त हैं। इतने साल बीतने के बाद भी वे हमको उतना ही गैरजिम्मेदार और नाकारा मानते हैं जितना कालेज के दिनों में समझते थे। यह सच्ची दोस्ती है जिसमें समय के साथ दोस्त बदलते नहीं। अकल से जहीन, शकल से हसीन मनोज ने अपनी कुछ कवितायें मुझे कुछ दिन पहले भेजी देखने के लिये। हमने उनमें से एक यहां सटा दी। पहले भी एक कविता पोस्ट की थी उनकी। आगे भी करने का इरादा है।
Posted in बस यूं ही | 38 Responses
सांप चालाक हैं दूरबीन लिये बैठे हैं।
gazab…
sonal rastogi की हालिया प्रविष्टी..नीला उजास
ये लाइने मुझे अक्सर याद आती हैं। हालांकि उस दिन सुनाई नहीं उन्होंने।
हिंदी पखवाड़े का सहज हास्य के साथ जो उद्घाटन आपने किया है, वह बड़ा ही रोचक लगा। बीच-बीच में ली गई आपकी कल्पना की उड़ान ने इस लेख में जान फूंक दी है।
मुझे यह लेख आला दर्ज़े का लगा। पर्रफ़ेक्ट!!
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..ख़्वाजा हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया
शुक्रिया। बोर्ड में भी तो हुआ होगा हिन्दी भाषा पर कार्यक्रम। उसके बारे में लिखिये।
…कवियत्री को कवयित्री पढ़ा जाय.
सन्तोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..गुरु,चेला और गुरुघंटाल !
धन्यवाद!
हमने इस तरह की कई बातें बताई हैं अपने ब्लॉग पर लेकिन कोई ध्यान ही नहीं देता।
धन्यवाद! हमें तो अपना मित्र और उसकी कविता दोनों पसन्द आये। आपौ करिये पसंद।
आप को तो सब पता है। यहां जलपान का जिक्र हमसे छूट गया।
‘कढ़ी ‘और ‘कड़ी’वाला किस्सा मजेदार लगा….वैसे अमूमन आम आदमी यही समझता है कि सम्मेलनों में हर ४-५ पंक्तियों के बाद वाह-वाही करनी होती है या वाह-वाही-करने की रवायत है.
राजभाषा पखवाड़े के उद्घाटन की अच्छी लगी रिपोर्ट.
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कुंवर बैचेन जी को देखकर अच्छा लगा.मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं.
वे दिन याद आये जब एक कविता प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए उनका मार्गदर्शन लिया था.
……………………
‘सारी महिला श्रोता अपने-अपने झोले’
!झोले?मुझे लगा आज कल झोलों का रिवाज़ खतम हो गया है.
‘पर्स’ का ही चलन है ऐसा ज्ञान था और झोले पर कवि /लेखक /पत्रकार का एकाधिकार होता है.
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Alpana की हालिया प्रविष्टी..दुनिया की सबसे बड़ी ……..
धन्यवाद! झोले का चलन अभी चालू है। वैसे पर्स भी इत्ते बड़े हो गये हैं कि अब वे भी झोले जैसे ही दीखते हैं।
आपके यहां हिन्दी दिवस के अच्छे आयोजन के लिये शुभकामनायें।
Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- ना, नहीं दूँगा..
सही है। सूज गयी है जगह-जगह हिन्दी!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..हे प्रसन्नमना, प्रसन्नता बाँटो न
पहले तो हम समझ नहीं पाये आपकी टिप्पणी का मतलब। अब समझे तो कह रहे हैं धन्यवाद!
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..छूटी काशी, अब ब्लागिंग के ब्रह्मचर्य की ओर …….
आपकी राहत की बात जानकर राहत मिली।
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संसकीरित के पर्हाई (पटना १५)
कान्सेप्ट तो मस्त है लेकिन कोई अमल में नहीं लाता न ऐसे ऊर्जासंकट से निपटने वाले कान्सेप्ट को।
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." हँसना मना है…….."
हूटर के संकट की रक्षा कारखाना अधिनियम करेगा जिसके अनुसार महिलाओं को एक नियत समय के बाद कारखाने से घर भेजे जाने की अनिवार्यता है।
पोस्ट सच में अच्छी है. कुछ लाइनें तो एकदम ‘हँसी का बम’ हैं….
-”उन्होंने संचालन किया और कुछ एक गीत सुनाया। जिसमें कल्पना के पत्ते पर शब्दों के दोने में कुछ भाव परोसने की बात थी। कवि की भूख इन्हीं से मिटती है भाई।”
-”दोनों देश की वीर रस की कविताओं की ऊर्जा को मिलाकर अगर कोई टरबाइन चल सकता तो इत्ती बिजली बनती कि अमेरिका चौंधिया जाता।” इ वाला पैराग्राफ पढ़कर तो हम इत्ता हँसे कि हमारी गोली आकर हमें सूँघने लगी कि कहीं कोई दौरा तो नहीं पड़ गया है
aradhana की हालिया प्रविष्टी..Freshly Pressed: Editors’ Picks for August 2012
हमने मजाक को मजाक की तरह ही लिया।
हंसी के बम अच्छे लगे इसके लिये धन्यवाद! गोली बहुत केयरिंग है।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..‘स्वर्ग’ में भी मैगी !
प्रणाम.
इधर कविता शुरू हो उधर टरबाइन के ब्लेड घर्र-घर्र करके चलने लगें और दनादन बिजली उत्पादन होने लगे। बिजली के तारों पर सूखते कपड़े जलकर खाक हो
……पढ़ कर आनंद आ गया |
इसको पढ़के कल हम मेट्रो में इत्ती जोर से हँसे कि आसपास वाले मुझे ही देखने लगे…
दो सौ ग्राम पीकर देखो।
भौकाल है !!!!
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..अजनबी, तुम जाने पहचाने से लगते हो !!!
अरविन्द मिश्र जी ने क्या खरीदा होगा?
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..खजूरी, खड़ंजा, झिंगुरा और दद्दू
और वे कविता के भाव रचना और शैली के आधार पर मूल्याकन करने के लिए आये थे जो परिणाम श्रोता के तौर पर हमने सोचा था वास्तविक परिणाम उसके उलट आया था शायद हमारे यहाँ पर भी आपके यहाँ वाला ही तरीका आमल मई लाया गया होगा
घुघूतीबासूती
ghughutibasuti की हालिया प्रविष्टी..टु सर, विद लव
सांप चालाक हैं दूरबीन लिये बैठे हैं।
रोचक अभिव्यक्ति … आभार