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सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता है
By फ़ुरसतिया on September 29, 2012
उस
दिन इतवार को जरा जल्दी उठ गये। अब जब उठ गये तो नहा-धोकर तैयार भी हो
लिये। अब जब तैयार हो गये तो सोचा कमरे में बैठ के कपड़ों की क्रीज काहे
खराब करें सो नगर भ्रमण पर निकल लिये। गंतव्य डूबे जी का ठिकाना।
डूबेजी कार्टून बनाते हैं। कुछ दिन अखबारों के लिये बनाये कार्टून। लेकिन अखबार वाले बेचारे बहुत गरीब होते हैं। उनको कार्टून के पैसे नहीं दे पाते थे। सो परिवार चलाने के लिये दुबेजी को नौकरी करनी पड़ रही है। सोचा दुबेजी से कार्टून कला की कुछ जानकारी ली जाये। सो निकल लिये फ़टफ़टिया पर बैठकर!
अभी ’व्हीकल’ मोड़ से निकले ही थे कि सामने से एक ने हाथ दिया। हम रुक गये। उसने लिफ़्ट टाइप मांगी। हमने दे दी। चल दिये। उसको भी उधर ही जाना था जिधर हमको। दोनों फ़ुरसत में थे सो बातचीत होने लगी।
पता चला लिफ़्टित जवान का नाम दीपक है। उमर उन्तीस-तीस साल। दर्जी का काम करते हैं। रोज सबेरे जाते हैं। देर रात लौटते हैं। कटिंग का काम करते हैं। मास्टर दर्जी। रोज की तीन सौ की आमदनी। महीने में करीब दस हजार। पत्नी घर में सिलाई का काम करती है। खुद हाईस्कूल पास। पत्नी इंटर। दोनों की कमाई से गुजारा चलता है। कभी-कभी घुमाने भी ले जाते हैं पूरे परिवार को।
दीपक के दो बेटियां हैं। खुद कम पढ़े हैं लेकिन बेटियों को खूब पढ़ाना चाहते हैं। पिता भी दर्जी का काम करते थे लेकिन नहीं चाहते थे कि लड़का भी कैंची थामे। लेकिन लड़के ने उनसे छिपाकर टेलरिंग का काम सीखा। पिता के गुजरने के बाद वही रोजी का साधन बना।
वैसे तो दीपक साइकिल से जाते हैं काम पर लेकिन उस दिन पंचर हो गयी साइकिल सो हमसे लिफ़्ट ली। हम न मिलते तो राझीं मोड़ तक पैदल या किसी और से लिफ़्ट लेकर आते। उसके बाद आटो से काम की जगह तक।
बात करते हुये पेट्रोल पम्प तक आ गये। आजकल जब भी किसी पेट्रोल पम्प के पास गुजरते हैं तो मन करता है तेल भरवा लें। न जाने कब दाम बढ़ जायें। वहां रुके। पेट्रोल भरवाया।
तेल भरवाते हुये हम सोच रहे थे कि तेल की लगातार बढ़ती कीमतों के चलते जल्दी ही शहरों में ’मकान किराये की लिये खाली है’ की तर्ज पर दोपहिया वाहनों में – पीछे की सीट लिफ़्ट के लिये खाली है, किराया दो रुपया प्रति किलोमीटर, पैसे छुट्टे दें की तख्तियां लगने का चलन शुरु हो सकता है। हो सकता है कोई किसी के लिये किराये में कुछ डिस्काउंट भी ऑफ़र करे। कोई आसान किस्तों पर भुगतान की सुविधा प्रदान करे। कोई वस्तु विनिमय वाले हिसाब के लिये कुछ और कुबूल करने की सूचना सटायें।
तेल भरवाने के बाद और बातें होने लगीं। सवाल-जबाब। अचानक सवारी ने पूछा – क्या आप बिजनेस मैन हैं?
हमने कहा- न तो। हम तो यहां व्हीकल में नौकरी करते हैं।
सच अपने अनुमान से अलग पाकर सवारी चुप हो गयी। हमने पूछा – क्या हम बिजनेस मैन लगते हैं?
वो बोला – हां। बिजनेस मैनई लगते हैं।
हमने पूछा- क्यों नौकरी वाले काहे नहीं लगते।
इस पर दीपक ने जबाब दिया। आप जिस तरह बात कर रहे हैं उस तरह सरकारी आदमी बात नहीं करते। इसलिये हमें लगा कि आप बिजनेस मैने होंगे।
हमने फ़िर पूछा- सरकारी आदमी कैसे होते हैं? हम उनसे कैसे अलग लगते हैं?
उसने बताया- सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता है। वो आप की तरह ’तरीके से’ बात नहीं करता। इसीलिये हमें लगा कि आप सरकारी आदमी नहीं हो सकते।
हमने फ़िर बताया कि हम सरकारी नौकरी ही करते हैं। अब तुमको ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ नहीं लग रहे तो इसमें हमारा क्या कसूर?
बाद में हमें लगा कि शायद हो सकता है उस दिन इतवार होने के कारण ऐसा लग रहा हो। दूसरे दिन शायद हम भी वैसे ही लगते हों।
काफ़ी देर की बातचीत के बाद उसने हमको सरकारी आदमी मान लिया लेकिन इस शर्त के साथ कि ’फ़िर आप बड़े आफ़ीसर होंगे’। उसका मानना है कि आम तौर पर सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता ही होता है। हम अलग दिख रहे हैं इसका मतलब हम बड़े अधिकारी होंगे।
इस बीच और भी बहुत सारी बातें होती रहीं। दीपक हमको अंकल कहने लगा। एक अजनबी सवारी पांच किलोमीटर की दूरी में भतीजा बन गयी।
दीपक को उसके ठीहे के पास उतार कर उसकी फोटो खींचे। ऊपर की फोटो दीपक की है।
आज फ़िर उसी मोड़ के पास से गुजरे तो दीपक की बात याद आ गयी- सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता है!
डूबेजी कार्टून बनाते हैं। कुछ दिन अखबारों के लिये बनाये कार्टून। लेकिन अखबार वाले बेचारे बहुत गरीब होते हैं। उनको कार्टून के पैसे नहीं दे पाते थे। सो परिवार चलाने के लिये दुबेजी को नौकरी करनी पड़ रही है। सोचा दुबेजी से कार्टून कला की कुछ जानकारी ली जाये। सो निकल लिये फ़टफ़टिया पर बैठकर!
अभी ’व्हीकल’ मोड़ से निकले ही थे कि सामने से एक ने हाथ दिया। हम रुक गये। उसने लिफ़्ट टाइप मांगी। हमने दे दी। चल दिये। उसको भी उधर ही जाना था जिधर हमको। दोनों फ़ुरसत में थे सो बातचीत होने लगी।
पता चला लिफ़्टित जवान का नाम दीपक है। उमर उन्तीस-तीस साल। दर्जी का काम करते हैं। रोज सबेरे जाते हैं। देर रात लौटते हैं। कटिंग का काम करते हैं। मास्टर दर्जी। रोज की तीन सौ की आमदनी। महीने में करीब दस हजार। पत्नी घर में सिलाई का काम करती है। खुद हाईस्कूल पास। पत्नी इंटर। दोनों की कमाई से गुजारा चलता है। कभी-कभी घुमाने भी ले जाते हैं पूरे परिवार को।
दीपक के दो बेटियां हैं। खुद कम पढ़े हैं लेकिन बेटियों को खूब पढ़ाना चाहते हैं। पिता भी दर्जी का काम करते थे लेकिन नहीं चाहते थे कि लड़का भी कैंची थामे। लेकिन लड़के ने उनसे छिपाकर टेलरिंग का काम सीखा। पिता के गुजरने के बाद वही रोजी का साधन बना।
वैसे तो दीपक साइकिल से जाते हैं काम पर लेकिन उस दिन पंचर हो गयी साइकिल सो हमसे लिफ़्ट ली। हम न मिलते तो राझीं मोड़ तक पैदल या किसी और से लिफ़्ट लेकर आते। उसके बाद आटो से काम की जगह तक।
बात करते हुये पेट्रोल पम्प तक आ गये। आजकल जब भी किसी पेट्रोल पम्प के पास गुजरते हैं तो मन करता है तेल भरवा लें। न जाने कब दाम बढ़ जायें। वहां रुके। पेट्रोल भरवाया।
तेल भरवाते हुये हम सोच रहे थे कि तेल की लगातार बढ़ती कीमतों के चलते जल्दी ही शहरों में ’मकान किराये की लिये खाली है’ की तर्ज पर दोपहिया वाहनों में – पीछे की सीट लिफ़्ट के लिये खाली है, किराया दो रुपया प्रति किलोमीटर, पैसे छुट्टे दें की तख्तियां लगने का चलन शुरु हो सकता है। हो सकता है कोई किसी के लिये किराये में कुछ डिस्काउंट भी ऑफ़र करे। कोई आसान किस्तों पर भुगतान की सुविधा प्रदान करे। कोई वस्तु विनिमय वाले हिसाब के लिये कुछ और कुबूल करने की सूचना सटायें।
तेल भरवाने के बाद और बातें होने लगीं। सवाल-जबाब। अचानक सवारी ने पूछा – क्या आप बिजनेस मैन हैं?
हमने कहा- न तो। हम तो यहां व्हीकल में नौकरी करते हैं।
सच अपने अनुमान से अलग पाकर सवारी चुप हो गयी। हमने पूछा – क्या हम बिजनेस मैन लगते हैं?
वो बोला – हां। बिजनेस मैनई लगते हैं।
हमने पूछा- क्यों नौकरी वाले काहे नहीं लगते।
इस पर दीपक ने जबाब दिया। आप जिस तरह बात कर रहे हैं उस तरह सरकारी आदमी बात नहीं करते। इसलिये हमें लगा कि आप बिजनेस मैने होंगे।
हमने फ़िर पूछा- सरकारी आदमी कैसे होते हैं? हम उनसे कैसे अलग लगते हैं?
उसने बताया- सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता है। वो आप की तरह ’तरीके से’ बात नहीं करता। इसीलिये हमें लगा कि आप सरकारी आदमी नहीं हो सकते।
हमने फ़िर बताया कि हम सरकारी नौकरी ही करते हैं। अब तुमको ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ नहीं लग रहे तो इसमें हमारा क्या कसूर?
बाद में हमें लगा कि शायद हो सकता है उस दिन इतवार होने के कारण ऐसा लग रहा हो। दूसरे दिन शायद हम भी वैसे ही लगते हों।
काफ़ी देर की बातचीत के बाद उसने हमको सरकारी आदमी मान लिया लेकिन इस शर्त के साथ कि ’फ़िर आप बड़े आफ़ीसर होंगे’। उसका मानना है कि आम तौर पर सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता ही होता है। हम अलग दिख रहे हैं इसका मतलब हम बड़े अधिकारी होंगे।
इस बीच और भी बहुत सारी बातें होती रहीं। दीपक हमको अंकल कहने लगा। एक अजनबी सवारी पांच किलोमीटर की दूरी में भतीजा बन गयी।
दीपक को उसके ठीहे के पास उतार कर उसकी फोटो खींचे। ऊपर की फोटो दीपक की है।
आज फ़िर उसी मोड़ के पास से गुजरे तो दीपक की बात याद आ गयी- सरकारी आदमी ’डिफ़ॉल्टर टाइप’ होता है!
Posted in बस यूं ही | 42 Responses
डूबे जी से क्या गुर सीखे ये भी बताइए !!!!
और हाँ नए भतीजे की शुभकामनायें
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..जुगलबंदी..बोले तो दो तीर से एक शिकार!!!!
डूबेजी से सीखे गुर बतायेंगे कभी।
भतीजा फ़िर मिलेगा तो शुभकामनायें का असर होता दिखेगा।
हंसी जब छूट गयी सो छूट गयी क्या किया जा सकता है। सबको बांध के भी तो नहीं रखा जा सकता है।
लिफ़्ट जो जब कोई मांगता है हम दे ही देते हैं।
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." १९ जुलाई से २८ सितम्बर तक ……"
sanjay @ mo sam kaun…..? की हालिया प्रविष्टी..मुरारी लाल …?
हाँ, ई बढ़िया बोला कि ‘तब आप बड़े अफसर होंगे’ बेचारे के दिमाग में ही नहीं आया होगा कि बड़े अफसर ड्राइवर समेत गाड़ी से चलते हैं और खुद शान से पीछे बैठते हैं
कुल मिलाकर ये सिद्ध होता है कि आप ना सरकारी आदमी हैं, न बिजनेसमैन और न ही बड़े अफसर, आप तो फ़ुरसतिया हैं, जो बेचारे दीपक का फोटू खींचकर एक ठो पोस्ट लिख डालते हैं
aradhana की हालिया प्रविष्टी..New Themes: Gigawatt and Pinboard
बाकी बातचीत जैसे करना आता है वैसे ही तो करेंगे न!
प्रणाम.
और शुरुआत में उस दिन लिखा ,फिर लिखा इतवार -दोनों में एक ही लिखना था
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..अथातो लंगोट जिज्ञासा!
उस दिन इतवार था। यह बताने का और कोई सुगम उपाय समझ में नहीं आया इसलिये ऐसा लिखा। सीख रहे हैं धीरे-धीरे लिखना।
धन्यवाद!
एक बात तो समझ में आ गयी आज कि रविवार को आदमी का सरकारी व्यक्तित्व भी छुट्टी पर रहता है!! वैसे ‘डूबे जी’ का क्या हुआ?????
सलिल वर्मा की हालिया प्रविष्टी..मैं हूँ ना!!
डूबेजी के बारे में लिखा जायेगा।
रामराम.
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..बच्चों की खिलती मुस्कान
वाह ! क्या कहने मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता था ! रोज का वास्ता जो है
वाह ! क्या कहने मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता था ! रोज का वास्ता जो है
http://vranishrivastava1.blogspot.in/
‘पोस्ट तो फुरसतिया ही है बट बाई डिफाल्ट वाली मौज नहीं ली गई’ ……. जो लिया जाना था…………..
“अब ये काम भी क्या हम-सब अमरीकी आउट-सोर्स वालों से करेंगे”…………………………………………
प्रणाम.
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..शहरी भैंसें
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संसकीरित के पर्हाई (पटना १५)
दरअसल आजकल ढंग के कपड़ों में पढ़ा-लिखा टाइप आदमी आत्मीयता से बात करने लगे तो लोग कनफुजिया जाते हैं..
हमने पोस्ट को उलटे क्रम में पढ़ा.. दुबे जी से मुलाक़ात वाली पोस्ट पहले पढ़ ली.. ये बाद में..
सतीश चंद्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..हिन्दी दिवस से नयी शुरुआत
ajit gupta की हालिया प्रविष्टी..चतुर्थ खण्ड – स्वामी विवेकानन्द कन्याकुमारी स्थित श्रीपाद शिला पर