धूप सड़क , मैदान, छत, बरामदे में अलसाई सी लेटी है। उसको आज न दफ़्तर जाना है, न कचहरी न इस्कूल। ऊपर सूरज जी गर्म हो रहे हैं। लगता है धूप को डांट रहे हैं उसके आलस के लिये। शायद कह रहे हों -उठ जा बिटिया ब्रश करके नास्ता कर ले उसके बाद थोड़ा पढ़ ले। एक्जाम आने वाले हैं। धूप लाड़ली अपने पापा के गले में बांहे डालकर फ़िर कुनमुनाती हुई सो जाती है। सूरज उसको प्यार से निहारते हुये अपनी ड्यूटी बजाने निकल पड़ते हैं।
लेबल
अमेरिका यात्रा
(75)
अम्मा
(11)
आलोक पुराणिक
(13)
इंकब्लॉगिंग
(2)
कट्टा कानपुरी
(119)
कविता
(65)
कश्मीर
(40)
कानपुर
(305)
गुड मार्निंग
(44)
जबलपुर
(6)
जिज्ञासु यायावर
(17)
नेपाल
(8)
पंचबैंक
(179)
परसाई
(2)
परसाई जी
(129)
पाडकास्टिंग
(3)
पुलिया
(175)
पुस्तक समीक्षा
(4)
बस यूं ही
(276)
बातचीत
(27)
रोजनामचा
(896)
लेख
(36)
लेहलद्दाख़
(12)
वीडियो
(7)
व्यंग्य की जुगलबंदी
(35)
शरद जोशी
(22)
शाहजहाँ
(1)
शाहजहाँपुर
(141)
श्रीलाल शुक्ल
(3)
संस्मरण
(48)
सूरज भाई
(167)
हास्य/व्यंग्य
(399)
Sunday, February 03, 2013
सूरज जी लगता है धूप को डांट रहे हैं
धूप सड़क , मैदान, छत, बरामदे में अलसाई सी लेटी है। उसको आज न दफ़्तर जाना है, न कचहरी न इस्कूल। ऊपर सूरज जी गर्म हो रहे हैं। लगता है धूप को डांट रहे हैं उसके आलस के लिये। शायद कह रहे हों -उठ जा बिटिया ब्रश करके नास्ता कर ले उसके बाद थोड़ा पढ़ ले। एक्जाम आने वाले हैं। धूप लाड़ली अपने पापा के गले में बांहे डालकर फ़िर कुनमुनाती हुई सो जाती है। सूरज उसको प्यार से निहारते हुये अपनी ड्यूटी बजाने निकल पड़ते हैं।
Labels:
सूरज भाई
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment