रिक्शे में गेंद हैं |
कवि यहां यह नहीं कहना चाहता कि जो देश दुनिया की चिंता करते हैं वे सब निठल्ले होते हैं। उसका मतलब शायद यह है कि जब आदमी निठल्ला होता है तो देश और दुनिया के बारे में चिंतन करने लगता है।
खुले में खड़े थे।आसमान साफ़ था। जमीन पर जगह-जगह बारिश का पानी टाइप जमा था। जहां पानी संगठित था, ज्यादा जमा था वहां तो जमा रहा। लेकिन जहां जमीन पर पानी पाउडर की पर्त सरीखा बस नाम को था उसे सफाई पसंद सूरज भाई किरणों की गर्मी के लाठी चार्ज से तितर-बितर कर दे रहे थे। वहाँ जमीन सूख रही थी।
इसीबीच देखा कि एक लाल चीटा अपने से कई गुना बड़ा लगभग गोल आकार का एक
बोझा इधर-उधर धकिया के ले जा रहा था। गोल बोझे का व्यास चीटे की कुल लम्बाई
से कुछ ज्यादा ही रहा होगा। आयतन तो कई गुना रहा होगा उसके शरीर से। लेकिन
लगता है वजन उतना नहीं था क्योंकि उसको वह इधर-उधर ठेले चला जा रहा था।
वजन ठेलता हुआ चीटा वजन को दो-चार इंच एक तरफ ले जाता। थक जाता तो ठहर जाता। थोड़ी देर रुकता। फिर दूसरी तरफ ठेलने लगता। मने जैसे दुनिया भर की सरकारें करती हैं। एक सरकार से एकदम उलट काम दूसरी सरकार करने लगती है।
बीच-बीच में चीटा उस वजन पर उचककर चढ़ जाता। उसकी इधर-उधर घूमती गर्दन देखकर लगता उस वजन को मंच समझकर भाषण दे रहा है। शायद भाइयों और बहनों भी कह रहा हो। क्या पता यह भी कह रहा हो कि पिछले कई दिनों से यह बोझ यहां रखा था लेकिन किसी को चिंता नहीं कि इसे आगे ले जाए। यह कहकर वह उस वजन से उतरता और फिर उसको उस दिशा की उलटी दिशा में ठेलने लगता जिधर वह थोड़ी देर पहले ठेल रहा था।
दस मिनट तक देखते रहे। वजन जहां था लगभग वहीं बना
रहा। लेकिन चीटा लगातार पसीने-पसीने होता रहा। यह भी हो सकता है कि चीटे ने
इस काम को कोई नाम दिया हो। हर बार रुक कर इसका नाम बदल दिया हो। हर बार
नाम बदलकर हल्ला मचाता कि हमने बहुत बदलाव कर दिया।
यह कुछ ऐसे ही जैसे लोकतांत्रिक देशों में सरकारें जिलों,प्रदेशों , परियोजनाओं के नाम बदलकर बिना कुछ काम किये अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटती हैं।
खैर छोड़िये चीटे को । आइये आपको आदमी के किस्से सुनाते हैं। कल देखा कि एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे से कई गुना ज्यादा लम्बा बोझ लादे चला जा रहा था। रिक्शा मारे वजन के हिल रहा था । पता चला कि रबर वाली रिक्शे में रबर वाली गेंदें लदी हुई थीं। दादानगर के किसी कारखाने में बनी थी। नौघड़ा की किसी दुकान में जा रही थी बिकने के लिए।
आकार देखकर लगा कि कोई ' रबर फ्लोट' रिक्शे पर लदा चला जा रहा हो।
रिक्शा वजन के बोझ से हिल रहा था। उसको देखकर मुझे दो दिन पहले अपने से कई गुना बड़ा वजन ढोता चीटा याद आया। बस फर्क यही दिखा कि चीटा बहुत फुर्ती से यह काम कर था। जबकि रिक्शेवाला बड़े बेमन से किसी तरह बोझ ढो रहा था।
यह भी मजे की बात कि फ़ैक्ट्री में चीटे को जिस जगह देखा था उस जगह 'रबर फ्लोट' बनते हैं और रिक्शे पर जो आकृति बनी थी गेंद के बोझ की वह भी एक रबर फ्लोट सरीखी ही लग रही थी।
चींटे और आदमी की तुलना करना ठीक नहीं। दोनों में कोई तुलना नहीं लेकिन याद पर क्या बस। आ गई तो आ गई। क्या किया जाए। याद पर बस भी तो नहीं चलता।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208640614146247?pnref=story
वजन ठेलता हुआ चीटा वजन को दो-चार इंच एक तरफ ले जाता। थक जाता तो ठहर जाता। थोड़ी देर रुकता। फिर दूसरी तरफ ठेलने लगता। मने जैसे दुनिया भर की सरकारें करती हैं। एक सरकार से एकदम उलट काम दूसरी सरकार करने लगती है।
बीच-बीच में चीटा उस वजन पर उचककर चढ़ जाता। उसकी इधर-उधर घूमती गर्दन देखकर लगता उस वजन को मंच समझकर भाषण दे रहा है। शायद भाइयों और बहनों भी कह रहा हो। क्या पता यह भी कह रहा हो कि पिछले कई दिनों से यह बोझ यहां रखा था लेकिन किसी को चिंता नहीं कि इसे आगे ले जाए। यह कहकर वह उस वजन से उतरता और फिर उसको उस दिशा की उलटी दिशा में ठेलने लगता जिधर वह थोड़ी देर पहले ठेल रहा था।
लग रहा है कोई रबर का पुल लिए जा रहा है रिक्शेवाला |
यह कुछ ऐसे ही जैसे लोकतांत्रिक देशों में सरकारें जिलों,प्रदेशों , परियोजनाओं के नाम बदलकर बिना कुछ काम किये अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटती हैं।
खैर छोड़िये चीटे को । आइये आपको आदमी के किस्से सुनाते हैं। कल देखा कि एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे से कई गुना ज्यादा लम्बा बोझ लादे चला जा रहा था। रिक्शा मारे वजन के हिल रहा था । पता चला कि रबर वाली रिक्शे में रबर वाली गेंदें लदी हुई थीं। दादानगर के किसी कारखाने में बनी थी। नौघड़ा की किसी दुकान में जा रही थी बिकने के लिए।
आकार देखकर लगा कि कोई ' रबर फ्लोट' रिक्शे पर लदा चला जा रहा हो।
रिक्शा वजन के बोझ से हिल रहा था। उसको देखकर मुझे दो दिन पहले अपने से कई गुना बड़ा वजन ढोता चीटा याद आया। बस फर्क यही दिखा कि चीटा बहुत फुर्ती से यह काम कर था। जबकि रिक्शेवाला बड़े बेमन से किसी तरह बोझ ढो रहा था।
यह भी मजे की बात कि फ़ैक्ट्री में चीटे को जिस जगह देखा था उस जगह 'रबर फ्लोट' बनते हैं और रिक्शे पर जो आकृति बनी थी गेंद के बोझ की वह भी एक रबर फ्लोट सरीखी ही लग रही थी।
चींटे और आदमी की तुलना करना ठीक नहीं। दोनों में कोई तुलना नहीं लेकिन याद पर क्या बस। आ गई तो आ गई। क्या किया जाए। याद पर बस भी तो नहीं चलता।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208640614146247?pnref=story
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिन : मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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