आज सुबह नहाने गये। जैसे ही पानी मग में भरा तो देखा कि सूरज भाई भी घुस खिड़की के रास्ते। हमने कहा -’ भाई जी आप भी न पक्के स्टिंगर की तरह हरकतें करने लगे। क्या वीडियो बनाओगे। वायरल करने का इरादा है?’
सूरज भाई बड़ी तेज हंसे। उनके साथ आई किरणें भी खिलखिलाने लगीं। कुछ तो पेट पर चढकर उछलने कूदने सा लगीं। मानो हमारा पेट न हुआ उनकी फ़िसलपट्टी हो गयी। सूरज की किरणों की धमाचौकड़ी से हाथ, पेट पर तरह-तरह की आकृतियां बनने लगीं। आयत, वर्ग, वृत आदि के बेतरतीब गठबंधन टाइप। आकृतियां देखते ही एक बार फ़िर मन किया कि उन आकृतियों की लंबाई-चौड़ाई नापकर उनका क्षेत्रफ़ल निकाल दें।
आकृतियों के क्षेत्रफ़ल निकालने की बात इसलिये याद आई कि पढाई के दिनों में दिनों में यह काम हम खूब किया करते थे। अच्छा लगता था। पढाई के दिन बीत गये लेकिन मन करता है कि अगर कभी खूब सारा समय मिले इफ़रात तो हम तरह-तरह की आकृतियों के क्षेत्रफ़ल निकालने बैठ जायेंगे। यह तमन्ना इस कदर है कि मानों अगर सड़क पर कहीं सौ-पचास आदमी मर जायें और हम घटनास्थल पर पहुंचे तो सबसे पहला सवाल मन में यह उठेगा कि जिस रकबे में लाशें पड़ी हैं उसका क्षेत्रफ़ल कितना है या फ़िर जहां-जहां खून बिखरा है उसका कुल एरिया कितना है।
मुझे पता है कि यह बेवकूफ़ी की बात है। लेकिन यह सहज स्वभाव है। जिसका जिसमें हुनर होता है वह हर मसले को अपने हुनर के हिसाब से ही देखता है। आज भी देखिये कोई घटना होती है तो लोग अलग-अलग तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते हैं। बयानवीर बयान देेते हैं, ट्वीटवीर ट्विट करते हैं, गाली गलौज के एक्सपर्ट ’गाली गरारा’ करते हैं। कहीं दंगा होता तो कुछ लोग दुखी होते हैं इत्ते इंसान मर गये, कुछ गिनती करते हैं इत्ते हिन्दू-मुसलमान मर गये। और ऊपर से देखने वाले अलग नजरिये से देखते हैं- ’अब इस इलाके के वोट अपने हुये, अब यह सीट गयी हाथ से।’
जब हम सोचने से उबरे तो देखा कि सूरज भाई आसमान पर चमकने लगे थे। किरणें भी पानी से भीगने के डर से टाटा, बाय-बाय करके चली गयीं। हम भी पानी गिराकर वापस गये।
खैर छोडिये ई सब किस्सा आइये आपको कल का किस्सा सुनाते हैं। हुआ क्या कि कल जब हम दफ़्तर से छूटकर घर आ रहे तो स्पीड में थे। दफ़्तर से घर लौटता आदमी कांजीहाउस से छूटे जानवर की तरह भागता है ( जिनको घर भी कांजीहाउस सरीखा लगता वे अपने लिये कोई अलग उपमा खोज लें) । तो अचानक सामने कुछ गायें दिख गयीं। वे सभा टाइप कर रहीं थीं सड़क पर। हम फ़ौरन रुक गये।
रुके तो देखा कि सामने एक बुजुर्ग मस्ती में टहलते चले जा रहे थे। उनके गले पर कन्धे पर अंगौछा ऐसे लटक रहा था मानो गला तराजू की डंडी हो। अंगौछे के दोनों तरफ़ कुछ सामान तराजू के पलडे की तरह लटक रहा था। बुजुर्ग खरामा-खरामा टहलते जा रहे थे।
हम ठहर-ठहरकर बुजुर्ग को देखते रहे। हमको बार-बार रुकता देखकर लोग हमको देखने लगे। हम फ़िर कार में बैठगये। सोचा कि शीशे में देखकर फ़ोटो ले लें। नहीं बना तो आगे निकलकर , किनारे गाड़ी खड़ी करके उनके आने का इंतजार किया। जब तक वे पास आते तब तक फ़ोटो खैंच लिये।
पास आये बुजुर्ग तो पूछा -’ ये क्या लादे लिये जा रहे हो दादा? वे बोले- ’फ़ूल हैं। लोगों के यहां देने जा रहे हैं।’
पता चला कि उनके कंधे में को पुटलियां सरीखी बंधी थीं वे फ़ूल की पुडियां थीं। वे घर-घर , जहां बंधी हैं पुडिया , देते चले जा रहे थे। दो रुपये की एक पुडिया है फ़ूल की। रोज करीब डेढ सौ पुडिया पहुंचा देते हैं घरों में। शाम को करीब चार बजे निकलते हैं। रात नौ बजे तक ’फ़ूल पुडिया’ सप्लाई करते हैं। जहां बात हुई बोले- ’इधर के सब हो गये। अब उधर के देने जा रहे हैं।’
करीब सात बजा था उस समय। दो घंटे और टहलना था उनको अभी फ़ूल बांटने के लिये।
70 साल उमर है बुजुर्ग की। नाम बताया प्रहलाद। दांत ऐसे मानों गेरू से रंगाये हों। मसाला मय। हम और कुछ बतियाये तब तक वे आगे बढ गये। हम भी घर की तरफ़ चल दिये।
अरे बबा, आठ बजने वाले हैं। भागते हैं अब घर से दफ़्तर के लिये। आप मजे से रहो ।
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