Monday, September 12, 2016

तलवार की जगह एटीएम कार्ड

कल इतवार था। कई सारे कामों की लिस्ट लटकाये हम ऐसे निकले जैसे कभी राजा महाराजा लोग दिग्विजय के लिये निकलते थे। राजाओं को उनकी पत्नियां तलवार थमाकर टीका करके भेजती थीं। हमें तलवार की जगह एटीएम कार्ड थमा दिया गया। जो काम युद्ध में तलवारें करतीं रहीं होंगी वो काम बाजार में पैसे वाला कार्ड करता है। खाते में पैसा तलवार की धार सरीखा चमकता है।
घर से निकलते ही साइकिल पर एक आदमी तमाम सामान लादे जाते दिखा। साइकिल पर मिनी माल सरीखा। सब सामान प्लास्टिक के। पता नहीं कहां बेचने जा रहा होगा। पीछे से फ़ोटो लिया। सामने से लेने के बारे में सोचते ही फ़िर नहीं लिया यह सोचकर कि बोहनी का समय काहे खराब किया करें उसका।
खरीद के लिये निकले थे तो सोचा कुछ पैसे भी निकाल लिये जायें। हर एटीएम खाली दिखा। कार्ड डालते ही पैसा न होने के लिये माफ़ी मांगने लगा। मन किया हडका दें कि माफ़ी मांगने से हमारा काम हो जायेगा क्या? लेकिन फ़िर छोड़ दिये। उस बेचारे का क्या दोष। वह तो हुकुम का गुलाम है। जिसने मांगा पैसा उसने उगल दिया। हमने माफ़ कर दिया एटीएम को।
एक एटीएम को माफ़ करके निकले ही थे कि एक रद्दी वाला दिख गया। उसने हमको पहचाना और कहा-’ बहुत दिन बाद दिखे आप।’ हम बतियाने लगे। उसने कहा-’ आपका बनवाया हुआ पास अभी तक चल रहा है। कई बार कैंसल होने की बात हुई लेकिन किसी ने किया नहीं।’
ह्मने सोचा कि आठ साल पहले किसी को खाली इस्टेट में आने-जाने की अनुमति मिल जाने मात्र से वह आदमी सालों तक याद रखता है। हमारे लिये कोई बात बहुत छोटी भले हो लेकिन किसी के लिये बहुत मायने रखने वाली हो सकती है। सोचा तो यह भी कि कई लोग ऐसे भी होंगे जो हमको देखकर कोसने लगते होंगे जिनके काम हमारे कारण बिगड़े होंगे। यह ख्याल आते ही हम सर झटककर आगे चल दिये। आदमी अपने बारे में खराब बात नहीं सुनना चाहता।
सड़क पर धूप के फ़व्वारे से चल रहे थे। पूरी सड़क धूप में नहाई हुई थी। धूप स्नान के लिये पसरी सड़क पर आते-जाते वाहन उसको रौंदते हुये निकलते जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ पौधे वाहनों को गुजरता देखते अपनी फ़ूल पत्तियां हिलाकर उनका स्वागत कर रहे थे। छोटी गाडियों के गुजरने पर तो धीरे-धीरे हिलाते। लेकिन ट्रक या बस जब गुजरता तो बड़ी तेज-तेज हिलते। कोई ट्रक जब तेजी से निकलता तो कोई-कोई पेड़ तो अपने सर की पत्तियां तेजी से हिलाते हुये एकदम चीयरबालाओं की तरह ठुमकने लगता।
सब्जी की ठेलिया पर धनिया बेचने वाले बुजुर्ग का मुंह एकदम धनिया की ही तरह सूखा हुआ था। बड़ी हुई दाढी। सांस भी धीरे-धीरे चल रही थी। क्या जाने कौन सी परेशानियां होंगी उनके घर में। सब्जी कहां से लेकर बेंचते होंगे यहां यह भी नहीं पता लेकिन उनकी उदासी देखकर पांच रुपये की धनिया और खरीद लिये।
पांच रुपये की धनिया खरीदकर हम ’परदुखकातर’ का खिताब अपने लिये खुदई उठा के सीने पर सजा लिये। आजकल का यही चलन है भईये। तारीफ़ के मामले में आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। सरकारें तक यही कर रही हैं। जित्ता पैसा विकास में खर्चती हैं उससे डेढ गुना अपनी तारीफ़ में फ़ूंक देती हैं। न फ़ूंके तो सरकार कैसे चले, विकास कैसे हो? काम से ज्यादा काम का हल्ला जरूरी है भाई।
काकादेव में चिलचिलाती धूप में तीन महिलायें सर पर लकड़ी लादे सरपट चली जा रहीं थी। हमको जबलपुर में जंगली लकड़ी लादे महिलाओं की याद आ गयी। यहां की लकड़ी जंगली नहीं थी। शहरी लकड़ी थी। सनमाइका के टुकड़े, कुर्सी की टांग, मेज का पेट जैसी लकड़ी थी। एकाध दिन बाद सब लकड़ियां एक साथ जल जायेंगीं पेट की आग बुझाने के लिये।
लकड़ी ले जाती महिलाओं को जाते देखकर ख्याल आया कि अगर इनके पास भी स्मार्ट फ़ोन होता तो क्या ये अपनी सेल्फ़ी डालतीं किसी सोशल मीडिया में? डालती तो क्या लिखतीं? शायद लिखतीं -’ काकादेव चौराहे पर सुलगती सड़क पर। आज लकड़ी खूब मिल गयीं- फ़ीलिंग रिलैक्स्ड।’ लेकिन हमने इस बेहूदे ख्याल को इत्ता तेज हड़काया कि सरपर पैर धरकर फ़ूट लिया।
आगे एक बोर्ड में घुटने रिपेयर कराने का बोर्ड लगा था। बढिया क्वालिटी के बोर्ड की बात कही गयी थी। मन किया कि कल को लोगों के दिमाग बदलने का भी काम होने लगा। जनप्रतिनिधियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते ही उनके दिमाग में देश सेवा की भावना और ईमानदारी का साफ़्टवेयर डाउनलोड कर दिया जायेगा। लेकिन लफ़ड़ा है कि ऐसा होने पर उनका सिस्टम ही बैठ जाये। जनसेवक के दिमाग की हार्डडिस्क ईमानदारी और जनसेवा के साफ़टेवयर से मैच न होने के कारण लोड ही न हो पाये। देशसेवा और ईमानदारी के प्रोग्राम अनईस्टाल करने पड़े और स्वयंसेवा और बेईमानी के ओरिजनल साफ़्टेवयर से काम चलाना पड़े।
आगे एक मोड़ पर मुन्नूगुरु मार्ग का बोर्ड लगा था। मुन्नू गुरु की याद ताजा होते ही वह घटना याद आई जब मुन्नू गुरु कानपुर के रेलवे स्टेशन पर अपनी मुंह बोली बहन को भेजने गये थे और बहन जी का टिकट उनके ही पास रह गया था। किस्सा ऐसा था:
" मुन्नू गुरू सबंधों की मर्यादा का हमेशा पालन करते थे। कानपुर में फूलबाग में किसी साल प्रसिद्ध गायिका निर्मला अरुण(स्टार गोविंदा की मां) बुलाई गयीं। गुरू रोज फूलबाग जाते-मित्र मण्डली के साथ। गुरू,निर्मलाजी की गायिकी पर मुग्ध हो गये। आग्रह करके कानपुर में दो -चार दिन के लिये रोक लिया।क्योंकि सुनने वालों का मन तो भरा न था। निर्मलाजी से ठुमरी की एक बंदिश- ‘ना जा पी परदेश’ खूब सुनी जाती। रोज सुनी जाती,पर किसी का दिल न भरता।
मुन्नू गुरू तो इसे सुन कर रो पड़ते।कई दिनों बाद निर्मलाजी को कानपुर कानपुर से बिदा किया गया।संगी साथी उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। विदा करते समय सबकी आंखें नम। ट्रेन चली गई।
स्टेशन से बाहर आकर गुरू को याद आया कि निर्मलाजी का टिकट तो उनकी जेब में ही पड़ा रह गया। गुरू बोले-‘यार, बहिनियाँ क्या सोचेगी! कनपुरिया कितने गैरजिम्मेदार हैं। परेशानी में पड़ जायेगी प्यारे ,बम्बई तक का सफर है।’
सोचा गया,अब क्या हो? गुरू ने तत्काल फैसला किया। बोले- ‘तुरन्त टैक्सी बुलाओ,चलते हैं पुखरायाँ तक गाड़ी पकड़ लेंगे और टिकट निर्मला जी के हवाले कर देंगे।’
गाड़ी का पीछा करते-करते झाँसी पहुंच गये। प्लेटफार्म पर जा खड़े हुये। टिकट निर्मलाजी के हवाले करके भूल सुधारी गई और ठहाका लगा।"
यह बात जब अभी लिख रहे थे तब ही याद आया कि घरैतिन अपना मोबाइल तो घर में ही भूल गयीं। हमें लगा कि दिन भर बिना मोबाइल के कैसे रहेंगी। हम फ़ौरन भागे बाहर। ख्याल रखने के नंबर ज्यादा मिलें इसलिये ’पच्चल’ बिना पहने भागे। खैरियत रही कि वे घर के मोड़ पर ही आटो का इंतजार करतीं मिल गयीं। लेकिन ख्याल रखने के नंबर मिलने के बजाय इस बात नंबर कट गये कि नंगे पैर क्यों बाहर आये?
इसी जगह पर मुझे याद आया गज की पुकार पर उसको बचाने के लिये भगवान का नंगे पांव भागना। मुझे लगता है भगवान जी अपनी स्क्रीन पर गज को ग्राह द्वारा पकड़े जाने का सीन आराम से देख रहे होंगे। सोचते होंगे जब गज पुकारेगा चिल्लाते हुये तब चले जायेंगे बचाने के लिये। यमराज से पहले ही सेटिंग हो गयी होगी कि इसको मारना नहीं है, बचाना है। स्पीड से निकलने वाले होंगे तब तक उनका पब्लिसिटी आफ़िसर आया होगा और चप्पल उतरवा दिया होगा कि भगवन इससे ज्यादा पब्लिसिटी मिलेगी। भगवान अपने पब्लिसिटी आफ़ीसर की बात कैसे मना करते ? लिहाजा चप्पल उतार के गये होंगे और बचाया होगा गज को।
अब फ़िलहाल इतना ही। आप मजे कीजिये। हम भी चलें दफ़्तर वर्ना हमको लेट होने से कोई बचाने नहीं आयेगा।
आपका हफ़्ता चकाचक शुरु हो।

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