Tuesday, April 04, 2017

नये इलाके की पहली सुबह






आर्मापुर से कैंट की तरफ़ आये कल। सुबह टहलने निकले। निकलते ही चाय की दुकान मिली। मन किया बैठ जायें बेंच पर। लेकिन आगे बढ गये। अधबने ओवरब्रिज के बगल में वीरेन्द्र स्वरूप का पब्लिक स्कूल का बोर्ड चमक रहा है। लाल बल्ब। पुल लगता है कि स्कूल में भर्ती की अर्जी लगाकर स्कूल के गेट पर धरना देकर बैठ गया है।
नुक्कड़ पर अधबने से मंदिर में भजन बज रहा है। फ़ूल वाला माला बना रहा है। बगल में दूसरा लड़का मोबाइल में घुसा हुआ है। कोने के प्लॉट की तरह कोने के मंदिर का भी अलग जलवा होता है। भगवान लोग चाहते होंगे कि उनको कोने का मंदिर एलॉट हो जाये।
सड़क के दोनों किनारों पर सोये थे लोग। कुछ जगहर हो गयी थी। एक कुत्ता भागता हुआ आया। एक पंजे से तेजी से उसने अपनी पीठ खुजाई। फ़िर मुंडी हिलाकर दोनों कान फ़ड़फ़डाये। इसके बाद तेजी से भागता हुआ वापस चला गया। लगता है पीठ खुजाने ही आया था सड़क पर।
आगे एक दिव्यांग कुत्ता दिखा। एक पैर चुटहिल है। शायद फ़्रैक्चर हो। चोट वाले पैर को ऊपर उठाये हुये तीन टांग पर उचकते हुये सड़क पार कर रहा था।
वहीं एक गाय सड़क पर बिछी पालीथीन पर जमा पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रही है। गाय बेचारी को पता भी नहीं होगा कि समाज में उसके लिये हल्ले-गुल्ले हो रहे हैं। उनके नाम पर सरकार बन रही है। गिर रही है। उनका ख्याल रखा जा रहा है।
सामने से तीन-चार बच्चियां टहलती हुई आईं। एक लड़की चलते-चलते चुटिया करती जा रही थी। मन में यह भाव आया जब तक लड़कियां सड़क चलते चुटिया करती रहती हैं, बड़ी होती रहती हैं। फ़िर बड़ी हो जाती हैं। सड़क पर चलते हुये चोटी करना भूल जाती हैं। बाद उनकी शादी हो जाती है। वे पराये घर चली जाती हैं।
ई रिक्शा रिपेयरिंग के बोर्ड के आसपास लोग सोते दिखे। आगे गंगापुल मिला। जिसके बारे में बचपन से सुनते आये थे:
कानपुर कन्कैया
जंह पर बहती गंगा मईया
नीचे बहती गंगा मईया
ऊपर चले रेल का पहिया
चना जोर गरम।
पुल के मुहाने पर ही फ़ूल-मालाओं की गन्दगी पसरी हुई थी। ऊपर कंगूरे पर विधानसभा की जीत पर खुशी व्यक्त करते बोर्ड लगे हुये थे।
हमारे पुल पर पहुंचते ही न जाने कैसे सूरज भाई को खबर लग गयी। बादलों के बीच से मुंडी निकालकर मुस्कराते हुये बतियाने लगे। गुडमार्निंग के जबाब में हंसने जैसा लगा। उनके साथ पूरा रोशनी का कुनबा खिलखिलाने लगा।
पुल पर खरामा-खरामा टहलते हुये विकास पांडेय आते दिखे। बतियाये। बताया इलाहाबाद से आये हैं। उमर करीब 45 साल। अविवाहित हैं। यहीं मंदिर में सो जाते हैं। पुल किनारे ककड़ी-खीरा वालों को हैंडपंप से पानी भरकर दे देते हैं। बदले में कुछ मिल जाता है। गुजारा हो जाता है। जेब में बीड़ी की बंडल मय माचिश दिख रहा था। बताया -’जा रहे हैं गंगापार, वहां लोग चाय पिला देते हैं।’
पांव में बिवाई हैं। काली पड़ गयी हैं। फ़ट गया है पैर। कपड़े कई दिन के पुराने बिना धुले होंगे। चेहरे पर बेचारगी, दैन्य का स्थाईभाव। हांफ़ते हुये धीरे-धीरे चले गये।
हमने पूछा-’शादी कब होगी?’
बोले-’कोई करेगा तो कर लेंगे।’
हमने पूंछा-’ 45 की उमर हुई। अभी तक कुंवारे। किसी के साथ सोये कि नहीं?’
’ अरे न भैया, यहां परदेश में पिट जायेंगे। वहीं मंदिर में सो जाते हैं। ’ कहते हुये पांडेय जी चले गये।
हम गंगा की शोभा निहारते हुये थोड़ी देर खड़े रहे। नीचे रेती पर लोग टहलते हुये दिखे। अंग्रेजों के जमाने के पुल के बगल में दूसरा पुल दिख रहा था।
लौटते में एक जगह कुछ लोग खटिया पर अंगड़ाई लेते हुये चुहलबाजी करते दिखे। उनसे बतियाने लगे। पता चला वे रिक्शा चलाने का काम करते हैं। एक ने बताया- ’हरदोई से आये हैं रिक्शा चलाने। पचास रुपये रोज किराये के पड़ते हैं। खटिया भी किराये पर। एक खटिया का किराया दस रुपया रोज।’
करीब दस-पन्द्रह रिक्शे बंधे थे। बतियाते हुये उसके मालिक सुरेश साइकिल पर आ गये। बताया -’पन्द्रह रिक्शे चलते हैं। लेकिन आजकल रिक्शे कम लोग चलाते हैं। बैटरी वाले रिक्शों ने धंधा चौपट कर दिया है। आजकल केवल 5-6 लोग रिक्शा किराये पर लेने आते हैं।’
रिक्शे रिपेयरिंग का काम खुद करते हैं सुरेश। बताया उन्नाव के रहने वाले हैं। करीब 35 साल से यह काम कर रहे हैं।
’उधर उन्नाव की तरफ़ यह काम क्यों नहीं किया?’ पूछने पर बताया -’ उधर सवारी कहां? जहां सवारी वहां रिक्शा। इसके अलावा उधर का आदमी नम्बरी है।’
’इन रिक्शे वालों में से कोई कहीं रिक्शा लेकर फ़ूट लिये तो क्या करोगे’- हमने बतियाने के लिहाज से मजे लेते हुये पूंछा।
’अरे कित्ते लोग भागेंगे, कहां तक भागेंगे?’ -सुरेश बोले।
रिक्शे वाले भी मजे और बतकही में शामिल हो गये। बताया खाने के लिये होटलबाजी करते हैं। पहले बनाते थे। बहुत बढिया खाना बनाते थे। सड़क पर ईंटा लगाकर चूल्हा बनाया हाथ से रोटी पाथ ली। दोनों हथेलियों को आपस में चिपकाकर दांये-बांये घुमाते हुये बताया रिक्शेवाले ने।
मजे से हंसते हुये बात करते रिक्शे वालों को देखकर लगा इनकी जीविका असुरक्षित है लेकिन हंसी-मजाक स्थगित नहीं हुआ है।
आगे एक खटिया पर दो बच्चे लेटे-बैठे दिखे। बैठा बच्चा हाथ में भुजिया का पैकेट लिये मुट्ठी भरते हुये खाता जा रहा था। भुजिया उसके मुंह में चिपकती जा रही थी। साथ का बच्चा लेटा हुआ अपनी टांग से उसके गुदगुदी मचा रहा था। भुजिया खाता हुआ बच्चा सत्ता पक्ष की तरह, लेटा हुआ बच्चा विपक्ष की तरह और खटिया सदन की तरह लगने का बिम्ब आया दिमाग में। लेकिन मैंने उसको भगा दिया। ऐसे खतरनाक बिम्ब को दिमाग में पनाह देना ठीक नहीं।
फ़िर सोचा अगर यह बालक आगे चलकर प्रसिद्ध टाइप बने तो क्या पता कल कोई उसके लिये पद लिये जब बालक अपनी मां से कहता हुआ मिले:
मैया मोरी मैं नहीं भुजिय खायो,
यार, दोस्त सब बैर परे हैं
बरबस मुख चपकायो।
दोनों बालक मजे करते हुये सुबह का स्वागत टाइप कर रहे। उनकी मां बगल में बैठी कुल्ला कर रही थी।
मंदिर के पास एक बुजुर्ग धूप का चश्मा हीरो वाले अंदाज में सर पर टिकाये बैठा बीड़ी फ़ूंक रहा था। फ़ेसबुक पर खाता होता तो इस पोज की सेल्फ़ी पर खूब लाइक-कमेंट मिलते। जल्दी-जल्दी बीड़ी सुलगा रहा था। हड़बड़ाते हुये बीड़ी पीते-पीते बताया उसने कि हूलागंज में रहते हैं। शुक्लागंज जा रहे हैं। हमने पूछा -शुक्लागंज किस लिये जा रहे हो?
बुजुर्गवार थोड़ा झल्लाये हुये से बोले-’मांगने।’
इसके बाद झोला उठाकर वे शुक्लागंज की तरफ़ चले गये। शुक्लागंज अपने घर की तरफ़ टहल लिये।
नये इलाके की पहली सुबह थी ये आज।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10211015652200714

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