Tuesday, April 25, 2017

लालबत्ती


सुना तो बहुत था लेकिन लालबत्ती का जलवा हमने साल भर पहले ही महसूस किया। महसूस क्या ये समझिये कि फ़ील किया। फ़ील इसलिये कि फ़ील में जो फ़ीलिंग है वो महसूस में कहां।
तो हुआ यह कि हमको कलकत्ता में जहाज पकड़ना था। अपने हिसाब हम से निकले थे। लेकिन शायद पूजा का मौका था सड़कों पर भीड़ बहुत थी। हर सड़क अपनी छाती पर वाहनों का बोझ संभालते हुये हमको देरी से निकलने के लिये हड़काती सी लगी।
एयरपोर्ट के पास आते-आते लगा अब तो फ़्लाइट छूट जायेगी। हमको पहली बार नावों के किनारे पर डूबने वाले शेरों का मतलब पता चला चला। हमने सोचा अब थोड़ा उदास हो लिया जाये। कुछ छूटने पर उदास होने का रिवाज है। रिवाज का तो पालन करना ही होता है न ! रिवाज के नाम पर ही हम लोग तमाम काम न चाहते हुये भी करते रहते हैं - ’लड़कियों को मारना है, मरे को और मारना है, घूस लेना है। सब आदमी रिवाज के चलते ही करता है।’
ड्राइवर को हमारी उदास होने की साजिश पता चल गयी। अनुभवी ड्राइवर शातिर नेता की तरह होता है। नेता को पता चल जाता है कि देश की भूखी जनता को अन्न नहीं देशभक्ति की एंटीबॉयटिक डोज चाहिये। काम नहीं बयान चाहिये। वह बयान देता रहता है, मीडिया कृपा से जबरियन जनप्रिय बना रहता है।
बहरहाल हमारी उदासी की भनक लगते ही ड्राइवर ने गाड़ी की मुंडी के ऊपर लगी लालबत्ती जलाई। गाड़ी अपनी लेन की उल्टी तरफ़ की और हूटर बजाते हुये सड़क पर सरपट दौड़ा दी। हमको लगा ड्राइवर शिवओम अम्बर की कविता का नाट्यरूपान्तरण करने पर तुल गया है:
अपनी तो उल्टी तैराकी है,
धारा में मुर्दे बहते हैं।
सामने से आने वाली गाड़ियां लालबत्ती के सम्मान में उसी तरह रास्ता देने लगीं जिस तरह तमाम विकास योजनायें भ्रष्टाचार के स्वागत में बिछ-बिछ जाती हैं। चौराहे पर खड़े सिपाही ने जिस तेजी से हाथ उठाया उससे हम दहलने को हुये कि अब यह रोककर हमको रगड़ ही देगा कि लालबत्ती कैसे लगाये हो। लेकिन उठे हुये हाथ से हमारी गाड़ी के रास्ते में आने वाली गाड़ियों को रोका और हमको निकाल दिया।
जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो सब जहाज उड़ने के लिये तैयार हो चुका था। हम आखिरी यात्री थे। बस यही लगा कि वह हमारे ही इंतजार में पलक पांवड़े बिछाये खड़ा था। लगता है उसको भी पता चल गया कि हम लालबत्ती वाली गाड़ी से आये हैं।
लालबत्ती की गाड़ी का सड़क पर जलवा ही अलग लगता है। ऐसे तो सब जानवर बराबर होते हैं लेकिन कुछ जानवर ज्यादा बराबर होने की तर्ज पर लालबत्ती वाली गाड़ियां ज्यादा बराबर होती हैं। खाड़ी सड़क पर ऐसे तेज बढती हैं कि देखकर लगता है कि चुनाव जीतने के बाद की सम्पत्ति चली जा रही हो।
अभी लालबत्ती का चलन बन्द हुआ। लोगों का कहना है कि इससे वीआईपी कल्चर खत्म हुआ। तमाम लोगों ने खुद अपनी लालबत्ती उतारी। फ़ोटो खिंचवाये। लगाये। जो नौकरशाह लालबत्ती के हकदार नहीं थे वे भी ’लालबत्ती उतरन यज्ञ’ में अपनी आहुति देते पाये गये। दुखी लोगों ने खुशी-खुशी वाली मुद्रा में इस त्याग का प्रदर्शन किया। एक अच्छी शुरुआत का नारा लगा।
लेकिन अन्दर की बात जानने का दावा करने वालों ने नाम न बताने की शर्त के साथ जानकारी दी कि लालबत्ती हटाने का निर्णय लेने के कारण कुछ और हैं। हमारे पूछने पर कुछ कारण उन्होंने गिनकर बताये :
1. लालबत्ती में खाली सड़क पर तेज भागने की क्षमता तो है लेकिन जाम फ़लांगकर आगे निकलने की औकात नहीं। जाम में सबके बीच खड़ी गाड़ी गुंडों के बीच फ़ंसी रजिया की तरह हो जाती है इसलिये लालबत्ती हटाना ही बेहतर।
2. जनप्रतिनिधियों को लगता है कि लालबत्ती के चलते जनता उनको दूर से पहचान लेती है। उनसे चुनावी वादों को पूरा करने की मांग करती है। पूरा न करने पर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद और हाय-हाय की आशंका लगी रहती है। इसलिये लालबत्ती को ’अन्तिम सलाम’ कर दिया।
3. जनप्रतिनिधियों की राय में लालबत्ती का त्याग करने के बाद वे सच्चे त्यागी के सिंहासन पर बैठकर ’गदर गड़बड़ी’ कर सकते हैं। पकड़े जाने पर कह देंगे - ’हमने लालबत्ती त्याग किया है। जो नेता लालबत्ती का त्याग कर सकता है वह चिरकुट गड़बड़ियां क्यों करेगा?’
4. अगले चुनाव में जब जनता पूछेगी कि आपने हमारे लिये क्या किया तो जनप्रतिनिधि गर्व से कहेंगे-’ हमने लालबत्ती छोड़ी है।’ [ भावुक जनता गब्बर सिंह तो होती नहीं जो उनसे कह सके - 'अब आप हमारा पिंड़ छोड़ दे। ]
पता नहीं सच क्या है लेकिन गाड़ी वाली लालबत्ती के वियोग में हमारे शहर के चौराहे की सारी लालबत्तियां विक्षिप्त सी हो गयी हैं। काम करना बन्द कर दिया है उन्होंने। हाल यह है कि लाल बत्ती और हरी बत्ती एक साथ जल रही हैं। लग रहा है सत्तापक्ष और विपक्ष एक होकर सरकार चला रहे हैं और चंदा देने वाले कारपोरेट के समर्थन में कानून बना रहे हैं।

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