शाम को सड़क पर टहलने निकले। घर के पास की सड़क पूरी भरी। इंसानों की भीड़ से गदराई सड़क। सड़क भरी-पूरी ही जमती है। खूबसूरत लगती है।
भीड़ दरगाह के पास थी। मुझे लगा मुस्लिमों का कोई त्योहार हैं। अपनी अज्ञानता पर गुस्सा भी आया कि हमको त्योहार के बारे में पता नहीं। त्योहार पर भी झल्लाहट कि बिना हमको बताये मन रहा है।
चौराहे पर खड़ी एक महिला से पूछा-' कौन त्योहार है आज?'
'बसंत पंचमी का उरस है आज। उसई का मेला है।'-उसने बताया।
हमें लगा बसन्त पंचमी के साथ उर्स भी है कोई। लेकिन जब पूछा तो पता चला कि दरगाह में बसन्त पंचमी के दिन मेला लगता है। लोग घरों से खाना लेकर आते हैं। वंचितों को बांटते हैं। एक बुजुर्ग ने बताया -'जमाने से होता आ रहा है बसन्त पंचमी का मेला। पचास साल तो हमको देखते हो गए।'
दरगाह के बाहर भीड़ थी। ज्यादातर मुस्लिम महिलाएं, बच्चे दरगाह की तरफ जा रहे थे। कई तरह की दुकाने ठेलियों पर लग गई थीं। छोटे गमलों में गेंदे के पौधे बिक रहे थे।
कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सिपाही चौराहे पर तैनात थे। उनसे पूछा तो उन्होंने इसे कोई 'मुस्लिमों का त्योहार बताया।' बसंत पंचमी से सम्बंध काट दिया। जानकारी नहीं होगी।
बहरहाल यह जानकर अच्छा लगा कि दरगाह जो आमतौर पर मुस्लिमों से जुड़ी मानी जाती है में, चाहे जिस रूप में हो, बसन्त पंचमी मन रही थी। खराब यह लगा कि इतनी पास होती घटना की खबर अपन को नहीं। यह आमतौर पर अपने शहरी होते समाज का सच है। दूसरी दुनिया की अफवाहें हौलनाक उस तक तेजी से पहुंचती है, सुकून देने वाली खुशनुमा खबर घोंघे की रफ्तार से पहुंचती है।
सड़क पर दो बच्चे एक दूसरे की गलबहियां किये टहल रहे थे। एक जगह दो बच्चे मोटर साइकिल को शायद मोबाइल से चार्ज करने की कोशिश कर रहे थे। मोटर साइकिल को टांग के बीच दाबे चैट टाइप कुछ कर रहे थे।
शाम होते होते मेला खत्म होने लगा- 'बसंत पंचमी का उरस का मेला।'
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