Tuesday, May 19, 2020

जैसे भी हैं, हम सुंदर हैं

 



पेड़ सामाजिक दूरी से बेपरवाह हैं।

टहलने निकले। धूप निकल आई थी। निखर गई थी। ससुराल पहुंचते समय लाजवंती शुरुआत करने वाली बहुरिया ससुरालियों के ताने सुनते, व्यवहारिक घात-प्रतिघात सहते तीखी, कर्कशा और मुंहफट हो जाती है। उसी तरह धूप भी दोपहर की तरफ बढ़ते हुए तीखी हो गयी थी।
पार्क में लोग कम हो गए थे। एक पितानुमा आदमी अपनी बच्ची को गोद में लिए झूला झूला रहा था। सामाजिक दूरी के नियम की अवहेलना हो रही थी लेकिन वह ममता का मास्क लगाए था, इसलिए अपराध क्षम्य था।
कुछ बच्चे पार्क में कसरत कर रहे थे। बाकी मोबाइल में।
पार्क के दूसरे सिरे पर अमलतास के पेड़ के नीचे एक बाबाजी अपने कुल सामान के साथ आकर विराज गए। एक बैग, मने झोला साथ में। पानी की बोतल साथ। पास से ब्रेड का पैकेट निकालकर खाते दिखे।
बाबा जी बात करने की इच्छा से उनके पास गए। ब्रेड का पैकेट आधा था। साथ में कुछ सब्जी। इसके अलावा उनके झोले में कुछ रोटियां रखी थीं। सड़क पर पैदल घर जाते प्रवासियों की आंखों की तरह रोटियां सूख गईं थीं। बीच में छेद था। छेद इस तरह था कि उसमें सुतली घुसाकर बांधकर लटकाया जा सकता था। फिर जब मन आये खाया जा सकता। भूखे के पास की रोटी कभी फेंकने भर की खराब नहीं होती।
पता चला बाबा जी फैजाबाद के पास किसी गांव के रहने वाले हैं। प्रेमदास नाम था, साधु बनने पर गुरु जी ने नाम कर दिया प्रेमप्रिय। उम्र करीब 45 साल। शाहजहांपुर में कुछ दिन रेलवे स्टेशन के पास के मंदिर में डेरा रहा। लाकडाउन के समय पुलिस वाले के कहने पर इस्टेट के पास पीपल के पेड़ के नीचे मंदिर में डेरा डाल लिया। तबसे वहीं जमे हैं। पढ़ाई नहीं की। गुरु ज्ञान ही पाया।
गुरु जी की बात चली तो बताया -'गुरु हरामी निकल गये।उनको छोड़ दिया।'
'गुरु हरामी कैसे ?' पूछने पर बताया -' वो दारू पीते हैं, नशा करते हैं। हमको यह पसन्द नहीं इसलिए छोड़ दिया।'
घर क्यों नहीं बसाया पूछने पर बोले -'हमको बंधन पसन्द नहीं। इसलिए नहीं की शादी।'
बंधन की व्याख्या करते हुए बताया कि अब जैसे हम यहां पार्क में बैठे हैं। मेरा मन करे तो शाम तक, रात तक बैठे रहें। कोई चिंता नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। शादी हुई होती तो टोंकती घरवाली। यही बंधन है।
खाना कहाँ से मिलता है? पूछने पर बताया कि महिला थाने से खाना मिल जाता है। पुलिस खाना खिला रही है। साधु उसकी तारीफ कर रहे हैं। यह कोरोना काल की घटना है।
पार्क के बाहर पुलिस की जीप में ड्रॉइवर स्टीयरिंग पर सर रखे ऊंघ रहा है। एक दीवान साहब पुलिया के पास खड़े दाएं-बाएं देखते हुए सामने भी देखकर समय काट रहे हैं। बीच-बीच में सर झुकाकर मोबाइल भी देख लेते हैं।
एक और सिपाही जी मुंह पर मास्क लगाए मुस्तैद खड़े हैं। किसी से फोन पर बतियाते हुए मास्क उन्होंने एक तरफ से खोल लिया है। खुला हुआ मास्क मूंछो बाल मुंह पर किसी पहलवान के लंगोट की तरह फहरा रहा था।
सड़क पर दो महिला पुलिस बतियाती हुईं गस्त कर रहीं हैं। खाकी वर्दी में पुलिस कम सहेलियां ज्यादा लग रहीं हैं। कुछ आपसदारी की बातें कर रहीं हैं। धीमे-धीमे बतियाते हुए टहल रहीं हैं। धीमे बातचीत के चलते उनके बीच की सामाजिक दूरी कम हो गयी है।
कोरोना काल में सबसे ज्यादा संकट फुसफुसाहट पर आ गया है। सामाजिक दूरी बनाये रखने के चलते कनफूसियां बातें करना जुर्माने को न्योता देना है। यह संकट बना रहा तो आने वाले समय आमने-सामने में धीमी आवाज में, फुसफुसाते हुए बतियाना कम हो जाएगा। बचेगा भी तो केवल फोन पर।
सड़क के दोनों तरफ पेड़ सड़क की चौड़ाई के बराबर दूरी बनाए हुए हैं लेकिन ऊपर पहुंचकर उनकी पत्तियां सहेलियों की तरह एक-दूसरे के गलबहियां करती हुई इठलाती हुई झूम रहीं हैं। आगे जाकर पेड़ भी एकदम सट से गये हैं। उनको न सामाजिक दूरी की चिंता न , कोरोना का डर।
पेड़ों की मस्ती देखकर एकबारगी लगा-'काश हम भी पेड़ होते।'
फिर लगा -'पेड़ होते तो क्या पता अब तक कहीं कट गए हो गए। किसी चूल्हे या चिता की आग में जल गए होते।'
फाइनली यही तय हुआ कि जो हैं वही ठीक हैं। वीरेंद्र आस्तिक की कविता याद आई :
हम न हिमालय की ऊंचाई
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी ही छाया के बाढ़े हम
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं।
वीरेंद्र आस्तिक जी की कविता
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हम ज़मीन पर ही रहते हैं
अम्बर पास चला आता है
अपने आस-पास की सुविधा
अपना सोना अपनी चांदी
चाँद-सितारों जैसे बंधन
और चांदनी-सी आजादी
हम शबनम में भींगे होते
दिनकर पास चला आता है
हम न हिमालय की ऊंचाई
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढ़े हम
जैसे भी हैं हम सुन्दर हैं
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है
अपनी बातचीत रामायण
अपने काम-धाम वृन्दावन
दो कौड़ी का लगा सभी कुछ
जब-जब रूठ गया अपनापन
हम तो खाली मंदिर भर हैं
ईश्वर पास चला आता है।

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