सफेद घोड़ा काला सवार और अन्य तमाम रचनाओं के लेखक, कहानीकार हृदयेश जी का घर। |
सुबह साइकिल से निकले। लोग सड़क पर आ चुके थे। कुछ पार्क में जमे हुए थे। मिलिट्री कैंट से जवान घर जा रहे थे। गेट से बाहर निकलते ही आजाद अंदाज में हो गए। किसी दबी हुई स्प्रिंग से दबाव हटा लेने पर उछलती स्प्रिंग सरीखे लग रहे थे जवान।
अधिकतर लोग मास्क लगाए थे। जो लगाए नहीं थे , वो लटकाए थे। कुछ बाईक पर लोग हेलमेट भले न लगाए हों लेकिन मुस्कका जैसा मास्क जरूर लगाएं थे। मास्क के सेंसेक्स ने हेलमेट के सेंसेक्स को पछाड़ दिया था।
गोविंद गंज रेलवे क्रासिंग के पास एक नए मंदिर के पास कुछ बाबा टाइप लोग बैठे थे। सामने एक पक्का माँगने वाला बैठा था। सब लाकडाउन आसन में थे। कोई देने वाला नहीं, सब मांगने वाले।
क्रासिंग पार दुकानें बन्द थीं। कुछ लोग झाड़ू लगा रहे थे, कुछ लोग कूड़ा जला रहे थे। सड़क सबसे निर्लिप्त तसल्ली से लेटी थी।
कुछ हलवाईयों की दुकानें खुल गयी थीं। कुछ पर जलेबियां छन रहीं थीं। कुछ पर समोसे तले जा रहे थे। दूध वाले अपने पीपों को साइकिल पर लटकाए दूध दे रहे थे। सामाजिक दूरी की ऐसी-तैसी हो रही थी लेकिन इतनीं भी नहीं कि देखने में साफ-साफ असामाजिक लगे।
एक घर के बाहर एक बिस्कुट वाला अपनी साइकिल पर बिस्कुट का बक्सा लादे बिस्कुट बेंच रहा था। घर के बाहर महिला की थाली में गिनकर कुछ बिस्कुट रखे। बिस्कुट थाली पर पूजा के दिये जैसे लगे। हमने खड़े होकर उसको देखा तो बोला -'दस के चार हैं। चाहिये?' हमारी 'न' सुनकर उसने भड़ से सन्दूक बन्द किया और चल दिया।
एक खड़खड़े वाला कुछ गैस के सिलिंडर लादे गैस की डिलीवरी कर रहा था। बीच के सिलिंडर सर उठाये खड़े थे, किनारे वाले सिलिंडर सरेंडर मुद्रा में पस्त पड़े हुए थे।
मोड़ पर ठेलियों पर सब्ब्जी वाले सब्जी लगाए खड़े थे। खीरा, ककड़ी , खीरा बिना सामाजिक दूरी की परवाह किये , बिना मास्क लगाए एक के ऊपर एक पड़ी हुईं थीं। किसी को कोरोना की चिंता नहीं थी। शायद सब्जियों को कोरोना नहीं होता।
चौक के पास एक जगह तमाम मजदूर रोजी के इंतजार में खड़े थे। उनको ले जाने के लिए कोई मिला नहीं। पास खड़े हो गए तो कई लोग मेरे पास आ गए। बोले -'क्या काम है? कित्ते लोग चाहिए?'
हमने बताया कि मजदूर नहीं चाहिए। हम तो ऐसे ही निठल्ले टहल रहे थे। वे उदास हो गए। बातचीत हुई तो लोगों ने बताया -'कोरोना और लाकडाउन के कारण मजदूरों की रेढ़ लगी हुई है। सौ मजदूरों में से बमुश्किल दो को काम मिलता है। तीन सौ देने की बात कहकर ले जाते हैं , दो सौ देते हैं। मजदूरों की आफत है।'
पास ही दुकान खोले दो लोग बैठे थे। मजदूरों से बतियाते देखकर हमसे बोले -'दस मिनट में किसी से बातचीत करके समस्या समझना आसान नहीं।' बातचीत से अंदाजा लगा कि मजदूरों से चोट खाये होंगे। बोले -'इनको पैसा चाहिए, दारू चाहिए, सब करेंगे , लेकिन काम भी बिगाड़ देंगे।' आगे बात बढ़ाते हुए बताया -'काम न करो, कम करो , मंजूर है लेकिन काम बिगाड़ो तो न।'
शायद उन्होंने जिन लोगों को काम पर रखा होगा, उन्होंने उनका काम बिगाड़ दिया होगा।
उनकी बात सुनकर मुझे हार्वर्ड फ्रास्ट की 'आदि विद्रोही' में एक गुलाम सौदागर की अपने गुलामों के बारे में कही बात याद आई-'मैं अपने गुलामों से बहुत अच्छे से व्यवहार करता हूँ। क्योंकि मूड खराब होने पर आप गुलाम की जान ले सकते हो लेकिन गुलाम को काम बिगाड़ने से नहीं रोक सकते।'
साथ में बैठे सरदार जी के पुरखे पाकिस्तान से आये थे। आदमी की फितरत के बारे में बताते हुए जो कहा उन्होंने उसका लब्बोलुआब यह कि -'ईश्वर ने दो पैरों का जानवर बनाया। इस जानवर मंदिर-मस्जिद, गीता -कुरान सब बेंच दिए। गनीमत है कि ईश्वर दिखता नहीं वरना यह उसको भी बेंच देता।'
आगे सर्राफा दुकान की बन्द दुकानों के बाहर नाली के कीचड़ को छानकर लोग उससे सोना-चांदी पाने की कोशिश कर रहे थे। वे बड़ी तसल्ली से कीचड़ छान रहे थे। हमने उनसे फोटो लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। हमने भी उनकी निजता की इज्जत करते हुए फोटो नहीं लिए।
सड़क किनारे एक कबाड़ी की दुकान में रद्दी की किताबें पड़ी हुई थीं। आटोमोबाइल इंजीनियरिंग की किताब औंधे मुंह पड़ी थीं। लाकडाउन में इंजीनियरों और इंजीनियरिंग कॉलेजों की वाट लगी हुई है। टीचर निकाले जा रहे। किसी के लिए कोई काम नहीं।
इस बीच नुक्कड़ पर एक पतंग आकर गिरी। एक बुजुर्गवार ने अपने साथ के बच्चे का हाथ छोड़कर पतंग लपकी। बचा हुआ मंझा चौआ करके हथेली में समेटकर पतंग कब्जे में कर ली। पतंग लपकने के लिए गली से भागते एक बच्चे ने अपने कदम वापस क्रीज पर खींच लिए। उदास सा वापस लौट लिया।
आगे गांधी लाइब्रेरी दिखी। उसके आगे हृदयेश जी का घर। लोगों ने बताया -'अब वहां कोई रहता नहीं।'घर के बाहर सामने की दीवार पर लिखा था -'देखो हरामी मूत रहा है।' लेकिन हमको कोई दिखा नहीं। लगता है सब लाकडाउन में फंसे हुए हैं।
खरामा-खरामा चलते हुए शहर पार करके लौट लिए। सड़कों पर दुकानें आबाद हो गई थीं। लोग खरीदारी के लिए उमड़ रहे थे।
सड़क किनारे एक गाड़ी से भूसा उतर रहा था। वहीं एक सुअर अपने बच्चों के साथ बिना सामाजिक दूरी की परवाह किये सटे-सटे चला जा रहा था। कोई उनको टोंकने वाला नहीं था। कोई नहीं टोंक रहा था तो हम ही क्यों टोंके। आजकल कोई किसी को किसी बात के लिए टोंकता नहीं। सब डरते हैं कि टोंकने पर कहीं अगला उसको ठोंक न दे।
चौराहे पर पुलिस तैनात थी। मास्क लगाए पुलिस वाले लोगों को साफ नहीं दिखते। जो दिखते भी वे मोबाइल में डूबे । मास्क और मोबाइल के गठबंधन ने पुलिस का डर कम कर दिया है। इसे जब- तब डंडे के बल पर पुलिस फिर से काबिज करती है।
चौराहे पर साबुन और पानी की व्यवस्था थी। पैर से दबाने पर साबुन जो निकलना शुरू हुआ तो फिर निकलता ही गया। लीवर छोड़ने पर भी निकलना बंद नहीं हुआ। हाथ से बन्द करना पड़ा। जिस मतलब से रखा गया था साबुन वह पूरा नहीं हुआ। ऐसे ही जुगाड़ जगह-जगह लगे हुए हैं। साबुन और पानी मिलकर सड़क गीला करते दिखे।
ईद के दिन होने के बावजूद सड़के आम दिनों की तरह ही सुनसान थीं। एक दुकानदार सेवई बेच रहा था। पुलिस के नौजवान आये। डंडा फटकार कर बोले -'दुकान खुलने का समय नौ बजे है। अब्बी बन्द करो।' दुकानदार ने चुपचाप सुन लिया। पुलिस वाले सुनाकर चले गए। दूकान बदस्तूर खुली रही।
पुल के पास एक नौजवान मास्क बेंच रहा था। दस रुपये का एक। सुनील नाम। बताया कि फोटोग्राफी का काम था। कोरोना के कारण बन्द हो गया। अब मास्क बेंचता है। दो -तीन घण्टे बेंचता है। तीन-चार सौ बच जाते हैं। मन किया कहें -'जिसका काम बंद हो गया हो, वो मास्क बेंचे।' लेकिन कहने की हिम्मत नहीं।
बाद में बात करते हुए पता चला कि सुनील को मुंह का कैंसर है। डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन ऑपरेशन नहीं कराया। इलाज कराएंगे तो देखभाल कौन करेगा। जबकि उसके पास मुफ्त इलाज वाला आयुष्मान कार्ड है। फिलहाल आयुर्वेद से इलाज चल रहा है। दाना बढ़ा नहीं है।
लौटते हुए देखा फलों की दुकान सज गयीं थीं। एक तरबूज कैरियर पर रखवाया। लौट आए। अभी काटा तरबूज तो फीका निकल गया। एक बार फिर तय हुआ कि अपन को फल लाने की तमीज नहीं।
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