Wednesday, May 27, 2020

साहित्य जीवन की तरह है

 पिछले दिनों कुछ व्यंग्य बतकहियों से रुबरु हुआ। कुछ व्यंग्य पाठ। कुछ बातचीत। कुछ में व्यंग्य की चिंता। कुछ में व्यंग्य लेखन कैसे बढ़िया हो सकता है। कुछ में अच्छी रचनाओं के कमजोर पहलू उजागर करती हुई बातें, कुछ में खराब मान ली गयी रचनाओं के उजले पक्ष।

अधिकतर में संकोच के मारे शिरकत नहीं कर पाए। हमको हमेशा लगता है कि व्यंग्य के इलाके में हमारी ऐसी कोई समझ नहीं जिससे हम यहां कह सकें। हमारी नजर ऐसी कसौटी से युक्त नहीं है जिसके सहारे हम किसी रचना को व्यंग्य बता सकें या कह सकें यह व्यंग्य नहीं है। पता नहीं कभी ऐसी समझ आएगी भी क्या ?
एक बात जो मैंने आम तौर पर देखी है इन बातचीतों में । लोग व्यंग्य के प्रति चिंतित बहुत हैं। व्यंग्य के शुभचिंतक हैं। व्यंग्य को प्यार करते हैं। व्यंग्य का स्तर उठाना चाहते हैं (जोर लगाकर हईसा वाले अंदाज में)। इतनी शिद्दत से व्यंग्य के बारे में साथियों/वरिष्ठों/परम वरिष्ठों को व्यंग्य के बारे में चिंता करते देखता हूँ तो बड़ा भला लगता व्यंग्य के बारे में कि उसकी चिंता के लिए लोग इतनी प्रतिबध्दता से जुटे हैं।
लेकिन फिर मुझे परसाई जी की कही बात याद आती है -'आज जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है वही उसको नष्ट कर रहा है।'
मुझे लगता है कि क्या सही व्यंग्य के बारे में इतना चिंतित होने की जरूरत है? मुझे व्यंग्य की चिंता में डूबे लोग व्यंग्यकार देश की चिंता में डूबे हुए जनसेवक जैसे लगने लगते हैं। गनीमत यही है कि व्यंग्य चिंतक भले जैसे लोग हैं।
व्यंग्य के माध्यम से ख्याति पा चुके लोगों की अनेक चिंताओं में से एक प्रमुख चिंता यह रहती है कि नए लेखक लिखते/छपते/पहली किताब आते ही अपने को खलीफा समझने लगता है। यह चिंता एक बड़े बुजुर्ग की चिंता होती तो अलग बात है। अक्सर यह चिंता जिस अंदाज में होती है उसका टोन यह होता है कि नये लोग जिनको लिखना नहीं आता, पढ़ा नहीं है जिन्होने, जिनको व्यंग्य का ककहरा नहीं आता वे भी बस लिखना शुरू करते ही अपने को तीसमार खां समझने लगते हैं।
अलग-अलग तरह से बड़े लोग इस भाव को व्यक्त करते हैं। कोई बताता है कि व्यंग्य लिखना आसान नहीं है, कोई कहता है पैदा होते ही उड़ने लगे, कोई किसी और तरीके से।
वसीम बरेलवी का शेर याद आता है :
'नए जमाने की खुद मुखतारियों को कौन समझाए,
कहाँ से बच निकलना है, कहां जाना जरूरी है।'
जब भी किसी बड़े के मुंह इस तरह की सामान्यीकरण जैसी बातें सुनता हूँ तो मुझे अपने गुरु जी याद आते हैं। बात आज से 39 साल पहले की है। हम इंटर में पढ़ते थे। कक्षा 6 में एबीसीडी सीखे लोग सोचते थे इंटर में पास कैसे होंगे। हमारे गुरु जी ने हमसे दिसम्बर में कहा -'तुम लिख कर लाओ, हम चेक करेंगे। तुम सीख जाओगे।'
हम गए। गुरु जी जांचते। हमारी कमी बताते। हम फिर लिख कर ले जाते। गुरु जी फिर ठीक करते। कभी यह नहीं कहा कि तुम यह नही कर सकते। बल्कि हौसला बंधाते थे -'दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं जिसे कोई दूसरा कर सकता है और तुम नहीं कर सकते हो। तुम कर सकते हो।'
गुरु जी की दो-तीन महीने की संगत का असर यह हुआ कि हम लोग जिनके पास होने के लाले पड़े थे उनमें से तीन लोगों के मेरिट में नाम आये। गुरु जी ने तीन महीने के समय में ही जो हौसला हम लोगों को दिया वह आज तक नहीं खत्म हुआ। कोई भी काम हो, लगता है कि हम भी इसे कर सकते हैं। कोई भी कर सकता है।
हम लोगों की अंग्रेजी वाकई बहुत माशाअल्लाह थी। स्पेलिंग मिस्टेक, ग्रामर चौपट, कुछ की राइटिंग भी दाएं-बाएं, लेकिन गुरुजी ने कभी यह नहीं कहा -'तुम लोग नाकारा हो। तुमसे नहीं होगा।' उन्होंने किसी बीते जमाने के छात्र से तुलना करके यह नहीं कहा -'उसके जैसा बनो।' जब बताया तो ऐसे कहा -'उसकी हालत तुमसे भी खराब थी। लेकिन उसने मेहनत की और टॉप किया और वह फलानी जगह। ' हमको लगता कि वह कर सकता है तो हम भी कर सकते हैं। किया भी।
गुरुजी के प्रोत्साहन का अंदाज मेरे दिमाग में इतना पुख़्तगी से जमा हुआ है कि आज जब किसी भी महान को अपने क्षेत्र के नए लोगों को खारिज करते देखता हूँ तो फौरन गुरुजी से तुलना करके उसको खारिज कर देता हूँ। जरूरी भी नहीं कि एक बड़ा लेखक , लेखन का अच्छा शिक्षक भी हो।
बात व्यंग्य की हो रही थी। इतवार को एक ऑनलाइन गोष्ठी में मैंने सुभाष जी से Subhash Chander सवाल पूछा -' आप तो अब बुजुर्ग पीढ़ी में शामिल हो गए। क्या जब आपने लिखना शुरू किया था तो आपके समय की बुजुर्ग पीढ़ी भी इसी तरह अपने समय के युवा/नवोदितों के 'अपने आप को तीसमारखां समझने' वाले रवैये से इसी तरह आक्रांत रहती थी कि बात कोई भी हो लेकिन यह जरूर कहे कि आजकल के नए लेखक शुरुआत से ही खुद को बड़ा , खलीफा मानने लगे हैं?'
सुभाष जी ने ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया। यह जरूर बताया कि व्यक्तिगत बातचीत में त्यागी जी जैसे लोग लेखकों का ग्रेड बताते थे -' अलां बी ग्रेड का है, फलाँ सी ग्रेड का।' सुभाष जी के अनुसार जिन लोगों को त्यागी ने उस समय बी, सी ग्रेड का बताया था वे आज व्यंग्य के शिखर पर विराजमान हैं और नए लोगों का अपने-अपने हिसाब से ग्रेडिकरण कर रहे हैं। यह अलग बात है कि नए जमाने के लोग भी बिना त्यागी जी जैसी स्थिति तक पहुंचे ऐसे शिखर पुरुषों का भी ग्रेडिकरन करते रहते हैं और अपने-अपने हिसाब से उनको स्वीकार/खारिज करते रहते हैं।
कुछ साल पहले व्यंग्य के एक ग्रुप में एक महिला लेखिका के बारे किसी साथी का बयान था -'व्यंग्य लिखना तुम्हारे बस का नहीं। तुमको लिखना बन्द कर देना चाहिए।' आज वे महिला लेखिका , अच्छा-खराब , कैसा भी लिख रहीं हैं , लेकिन लगातार लिख रहीं हैं। उनके बारे में यह बात कहने वाले साथी अलबत्ता 'लेखन क्वाराइंटेंन' में चले गए हैं।
इतना सब लिखने के बाद मुझे यह याद ही नहीं रहा कि मैं कहना क्या चाहता था। हमारा हाल भी उन सिद्ध लेखकों सरीखा हो गया जो किसी युवा लेखक की किताब के विमोचन में, किसी के सम्मान समारोह में आधा से ज्यादा समय अपने संघर्षों के किस्से, अपने को समुचित महत्व न मिलने के रोने और अपनी पहली रचनाओं की प्रसिद्धि के किस्से सुनाने में जाया कर देते हैं। फिर अचानक याद आने पर लेखक को शुभकामनाएं देकर बैठ जाते हैं।
मैं शायद कहना यह चाहता था कि जब लोग अपनी विधाओं की नई पीढ़ी के लोगों को , शायद कुछ लोगों के व्यवहार के चलते, यह कहकर खारिज करते हैं कि आज लोग पहली किताब छपते ही खलीफा समझने लगते हैं तो उन तमाम लोगों को भी अपमान करते हैं जो तमाम किताबें छपने के बावजूद ' भूमि प्रणाम' की मुद्रा तक विनम्र हैं।
मेरी समझ में किसी भी समय में साहित्य की किसी भी विधा में बहुत अच्छा लिखने वाले लोग कम संख्या में ही होते हैं। खराब लिखने वाले बहुतायत में होते हैं। बेहतर हो कि हम समय के खराब लेखन का रोना रोने की बजाय , अच्छा क्या लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है उसकी बात करें। अच्छे लेखन की चर्चा करें। बढ़िया लिखाई को वायरल करें। इससे शायद वे लोग भी कुछ सीखें जो उतना अच्छा नहीं लिख पाते।
लेकिन यह भी बात सही है कि हर एक को अपनी नजर से दुनिया देखने का हक है। इसी के तहत बड़े-बुजुर्गों को यह पूरा हक है कि वे अपनी नई पीढ़ी को किस तरह देखते हैं। जो कुछ अच्छे लोग हैं उनकी उपस्थिति को मोहब्बत के साथ रेखांकित करते हुए अच्छा महसूस करते हैं या तमाम तथाकथित खराब लोगों से आक्रांत होते हैं। वैसे बुजुर्गियत के इम्तहान में पास होने के लिए अपने बाद के लोगों को नाकारा बताने पर अच्छे नम्बर मिलने का रिवाज बहुत पहले से है।
नए लोगों से, जिनमें मैं खुद अपने को भी शामिल करता हूँ, यही कहना है कि बुजुर्गों के कोसने को आशीर्वाद की तरह लेने का रिवाज रहा है अपने यहां। सबको अनदेखा करते हुए लिखना उससे ज्यादा पढ़ना और उससे भी ज्यादा देखना और महसूस करना जारी रखें। क्या पता कल को आप भी अपने से बाद वाली पीढ़ी के बारे में कुछ कहने के लिए माइक के सामने बुलाये जाएं।
आम तौर पर इस तरह की बातें लिखने के बाद मुझे अफसोस होता है कि बेफालतू में लिखा यह सब। लेकिन अब जो लिख गया तो उसको पोस्ट न करना भी ठीक नहीं इसलिए इसे पोस्ट कर रहा हूँ। इसके बाद अफसोस कर लेंगे।
अपनी बात का खात्मा अपनी ही कही-लिखी बात से:
"साहित्य जीवन की तरह ही है। यहां खूबसूरत , बेहद खूबसूरत फूल भी खिलते हैं तो कम खूबसूरत माने जाने वाले रंगबिरंगे फूल भी। अच्छा-खराब भी हमेशा सापेक्ष ही होता है। तथाकथित अच्छे लिखने वाले तथाकथित खराब लिखने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं यह गली-मोहल्लो वाली छुटभैयों की गुंडई जैसी हरकत है। अनगिनत स्तर होते हैं समाज के। उसी के अनुरूप उस स्तर के लोगों की अभिव्यक्ति भी। जो किसी स्तर के लिए शानदार, जबरदस्त , जिंदाबाद हो सकता है वही दूसरों के कूड़ा, फालतू, बकवास हो सकता है।
साहित्य कोई बतासा नहीं है जो खराब लेखन (जिसे नवांकुरों द्वारा लिखा बताया गया) की बारिश मे घुल जायेगा। सबको खिलने, खुलने, पनपने का एकसमान हक़ है यहाँ।"

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219879118101822

No comments:

Post a Comment