अक्सर अपने पुराने दिनों को याद करते हुए हम लोग कहते हैं , अब वे दिन कहाँ? अब वे खेल नहीं खेले जाते।
लेकिन अक्सर ही होता यह भी है कि हमारे परिवेश से निकल चुके वे दिन, खेल किसी दूसरी जगह ,भले ही बदले रूप में मौजूद होते हैं।
इतवार को एक फर्रुखाबाद किनारे गंगाघाट जाना हुआ। समाज विविध रूप में घाट पर मौजूद। लगा कि किसी को अपने समाज के बारे में जानना हो तो नदियों किनारे घाटों की यात्रा करनी चाहिए।
गंगा किनारे रेती पर बच्चे तरह-तरह के खेल खेलते दिखे। एक जगह गुल्ली-डंडा जैसा खेलते दिखे बच्चे। पास गए तो दिखा कि गुल्ली की जगह छुटकी प्लास्टिक की बोतल थी और डंडे की जगह वहीं कहीं पड़ी लकड़ी उठाकर खेल रहे थे बच्चे।
गुल्ली दोनों तरफ नुकीली होती है। बनाई जाती है। बिकती है। पैसे खर्च होंगे खरीदने में। लेकिन प्लास्टिक की बोतल गंगा किनारे ही कहीं पड़ी मिल गयी होगी। लोग इसमें गंगा जल ले जाते होंगे। सहज उपलब्ध बोतल और वहीं कहीं से मिल गए लकड़ी के डंडे को मिलाकर खेल शुरू हो गया।
बच्चे को खेलते देखा तो फोटो ले लिया। उसमें दूसरे बच्चे को चिल्लाते हुए बताया-'अबे ये फोटो ले लिहिस।'
हमने उनको फोटो दिखाया। वे देखकर फिर खेलने लगें।
पास ही कुछ और बच्चे घर बसाने जैसा कोई खेल रहे थे। कडकको जैसा। पैसे का भी लेन-देन हो रहा था। पैसा आजकल हर खेल में घुस गया है। जिस खेल में पैसा नहीं होता वह आगे नहीं बढ़ पाता।
चुनाव और समाजसेवा के खेल में भी पैसा हचक के घुस गया है। इसीलिए यह क्षेत्र बहुत गन्दा हो गया है। इससे गन्दगी दूर करने के लिए यहां से पैसे की लाइन काटनी होगी। लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं। अब तो पैसा हर जगह घुस रहा है, मुंडी उठाये हर हल्के में घुसकर उसको कब्जे में लेता जा रहा है।
दो साइकिल के टायर चलाते , भागते दिखे। उनका वीडियो बनाया लेकिन गड़बड़ा गया।
गंगा किनारे सामान बेचते लोग भी दिखे। एक जगह जादू टाइप दिखाते हुए एक आदमी मर्दानगी की दवाएं बेच रहा था। लगता है जादूगर ही अब मर्दानगी के होल सेल एजेंट बन गए हैं।
एक जगह ठेले पर एक बच्ची बैठी गमछे बेंच रही थी। पांच बेचे गमछे सुबह से। बताया स्कूल जाती थी। बन्द हो गए स्कूल । अब मदरसे जाती है। उर्दू सीख रही है। हमने पढा -'अलिफ, बे, ते....।' आइसा ने टोंका -'अलिफ , बे नहीं -बा होता है।'
हम कुछ और पूंछे तब तक वह ठेले से उतरकर कहीं चली गयी बहन के साथ लपकती हुई।
गंगा किनारे रेती पर राजनीति भी जबरदस्त चल रही थी। हर पार्टी के समर्थक अपने पक्ष के इतने चुटीले बयान जारी कर रहे थे, बिना किसी प्रांप्टर के, कि लगा नेताओं को भाषण देना सीखने के लिए घाटों पर पहुंचना चाहिए।
एक भाई मजे से कह रहे थे-' वोट हम नहीं देंगे। देंगे तो उसको ही लेकिन सरकार उसकी ही बनेगी।' जिस पार्टी को वोट न देने की कसम खा रहे हों, उसी के जीतने की भविष्यवाणी कर रहे थे भाई जी। यह अपने यहां ही दिख सकता है।
एक नाई उस्तरे से लोगों के बाल मूँड़ रहा था। जिनके घर में गमी हुई थी उस घर के लोग बाल बनवा रहे थे। जिस आदमी ने बाल कटवाने का उद्घाटन किया वह गंगा की रेती पर ही पड़े एक अध्दधे पर बैठने की कोशिश में लड़खड़ाया , फिर कोशिश की और अंततः बैठ ही गया। मुझे कविता याद आई-'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।'
नाई ने उसके बाल बनाने शुरू किए। बने हुए बाल वहीं रेती पर जमा होते गए। इस बीच दूसरे आदमी ने अपने बाल गीले करने शुरू कर दिए। दो-तीन घण्टे में नाई ने 25-30 लोगों के बाल मूढ़ने के बाद पैर फैलाते हुए बीड़ी सुलगाई। बीड़ी पीते हुए निस्संग भाव से सामने बहती गंगा को देखता रहा। यह भी हो सकता है कि देख कुछ और रहा हो, सोच कुछ और रहा हो लेकिन हमें गंगा की ही याद आई।
पैसे मिल जाने के बाद नाई ने अधजली बीड़ी गंगा की रेती के हवाले की। अपना उस्तरा, कैंची और पानी की कटोरी एक कपड़े में लपेटी और खरामा-खरामा टहलता हुआ चला गया।
घाट पर अंत्येष्टि के लिए आते लोग आवाज लगा रहे थे -'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है।'
इन सबसे निर्लिप्त गंगा जी चुपचाप बह रहीं थीं। न जाने कितनी सदियां बीत गई उनको यही सब देखते हुए।
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