पिछली बार अमेरिका आए थे तो न्यूयार्क उतरे थे। न्यूयार्क से फ़िलाडेलफ़िया, वाशिंगटन,पोर्टलैंड आदि-आदि होते हुए सैनफ्रांसिसको पहुँचे थे। एक तरह से पूरा अमेरिका नाप लिया था दौड़ते-भागते । इस बार आए हैं तो मौसम की मार ऐसी कि फ़ोस्टर सिटी तक सिमट के रह गए हैं।
एक जगह रह जाने का फ़ायदा भी हुआ कि क़ायदे से आसपास को देख रहे हैं। जमकर आराम कर रहे हैं। मज़े में घूमते हुए टहल रहे हैं। तसल्ली से किस्से लिख रहे हैं।
अमेरिका के क़िस्से पढ़ते हुए कई दोस्तों ने लिखा कि हमारे साथ वो भी अमेरिका घूम रहे हैं। मज़ेदार बात है यह। लेकिन सच तो यह है कि हम खुद बहुत छोटा हिस्सा देख पा रहे हैं। जितना देख पा रहे हैं उसमें से कुछ के बारे में ही लिख पा रहे हैं। फ़ोटो,वीडियो से किसी जगह को देखकर उतना महसूस कर पाना सम्भव नहीं होता जितना रूबरू होकर।
अमेरिका घूमते हुए यह भी लगा कि हमारे अपने शहर के ही न जाने कितने हिस्से अनदेखे हैं। कई जगह तो आजतक नहीं गए। पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है जिस शहर में रहते हुए उसको भी क़ायदे से नहीं देख पाते। यहाँ घूमते हुए सोचा कि लौटकर अपने आसपास को और तसल्ली से देखेंगे।
फ़ेसबुक पर हमारी पोस्ट्स पढ़कर देवास के ओमवर्मा जी Om Varma ने हमको संदेश भेजा कि वे पास में ही सनीवेल में हैं। 16 जनवरी को वापस भारत लौटेंगे। ओमवर्मा जी पहले भी एक मुलाक़ात भोपाल में हुई थी जब हम दोनों पहले ज्ञान चतुर्वदी सम्मान में शिरकत करने पहुँचे थे जिसमें कैलाश मंडलेकर जी को सम्मानित किया गया था।
ओमवर्मा जी व्यंग्यकार हैं। लेकिन उनकी ख्याति श्रेष्ठ दोहाकार के रूप में है। ओम जी समसामयिक घटनाओं पर नियमित चुटीले दोहे लिखते रहते हैं। उनके हाल में दो दोहा संग्रह आए हैं- ‘गांधी दौलत देश की’ और ‘ख़त मौसम का बाँच।’
‘गांधी दौलत देश की’ गांधी जी की आत्मकथा ‘ मेरे सत्य के प्रयोग’ का दोहा रूपांतरण है। ‘ख़त मौसम का बाँच’ में विभिन्न विषयों पर लिखे दोहे संकलित हैं। आजकल की सर्दी के हाल उनके इस दोहे में बयान हैं :
बदन धँसाती ठंड ने, ठिठुरा दिए शरीर
इक टुकड़ा भर धूप को, तरसें शाह फ़क़ीर।
हम लोगों का परिचय का सिलसिला जबलपुर के समय से शुरू हुआ। ओम वर्मा जी हमारे जबलपुर के रोजनामचों को हमारा अच्छा लेखन मानते हैं। ‘पुलिया पर दुनिया’ की रंगीन प्रति अपने पिता जी के पढ़ने के लिए ख़रीदी थी। उस पर उनके पिताजी की हस्तलिखित प्रतिक्रिया मेरे लिए उस किताब पर सबसे आत्मीय उपलब्धि है।
ओम वर्मा जी पास ही में थे इसलिए उनसे मिलने की बात हुई। बस मौसम की हरी झंडी का इंतज़ार था। 12 जनवरी को उनका संदेश आया - ‘आज मौसम बिल्कुल साफ़ है।’ मतलब मुलाक़ात की जाए।
संदेशे के मुताबिक़ हम फ़ौरन तैयार होकर निकल पड़े। नक़्शे के मुताबिक़ हमारे ठिकाने 25.7 मील (41.12 किमोमीटर) दूर थे। टैक्सी के दो विकल्प आए हमारे पास। फ़ौरन के लिए 42 डालर के क़रीब। 15 मिनट तक आने के लिए 37.83 डालर। समय की कोई तंगी थी नहीं हमको। हमने पंद्रह मिनट वाला विकल्प चुन कर टैक्सी बुक की। इंतज़ार करने लगे। सोचा आएगी आराम से 15 मिनट में। लेकिन हमारे बुक करते ही हमारा मोबाइल थरथराते हुए बताने लगा -‘गाड़ी तीन मिनट में आ रही है। बाहर निकलकर खड़े हो जाएँ।’ बाहर तो हम खड़े ही थे। संदेश के बाद सावधान भी हो गए।
तीन मिनट होते-होते गाड़ी आ गयी। गाड़ी स्टार्ट होते ही ड्राइवर सैंटियागो (Santiago) से बातचीत भी शुरू हो गयी। मूलतः ब्राज़ील के रहने वाले सैंटियागो 2015 में अमेरिका आए। 40 साल की उमर है। 40 साल की बाली उमर में पाँच बच्चों के पिता बन चुके सैंटियागो की पत्नी भी साफ़-सफ़ाई आदि के काम करती हैं। अभी वर्किंग वीज़ा पर हैं। गाड़ी चलाते हैं। आगे रहने के जुगाड़ के लिए एक कम्पनी में काम करते हैं जो साफ़-सफ़ाई, घर बदलने की सेवा और मरम्मत आदि के काम करती है। कोई ज़रूरत हो तो सेवा के लिए अपनी कम्पनी का कार्ड भी थमा दिया सैंटियागो ने।
पाँच बच्चों का भरण-पोषण, पढ़ाई-लिखाई मुश्किल काम है। इन बच्चों में दो जुड़वा हैं। अमेरिका में पैदा हुए। बाक़ी बच्चे ब्राज़ील की पैदाइश हैं।
’40 की उमर में पाँच बच्चे, कोई परिवार नियोजन का उपाय नहीं अपनाया? ‘ यह सवाल हमारे मुँह से निकलते ही गाड़ी धीमी हो गयी। हमको लगा कि अगला -‘यह पूछने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?’ कहकर गाड़ी से उतार देगा। लेकिन गाड़ी धीमी होने का कारण आगे का ट्रैफ़िक था। थोड़ा आगे गाड़ी थी इस लिए गाड़ी धीमी की थी ड्राइवर ने। गाड़ी की स्पीड बहाल होने पर ड्राइवर ने पूछा -‘क्या पूछा आपने मैं समझ नहीं पाया?’ हमने सोचा अच्छा हुआ नहीं समझ पाए। कभी-कभी भाषा की दूरी भी बचाव का काम करती है।
हमने कहा -‘मैं पूछ रहा था कि ब्राज़ील के हाल कैसे हैं?’
उसने तल्ख़ी से कहा -‘बहुत भ्रष्टाचार है वहाँ। जीना मुश्किल है। इसीलिए हम यहाँ भटक रहे हैं।’
हमें लगा कि शायद हर जगह के कमोबेश यही हाल हैं। कहीं कम, कहीं ज़्यादा। जहां तानाशाही है वहाँ के तो सही हाल ही नहीं मिलते।
बातचीत करते हुए कब रास्ता पूरा हो गया पता नहीं चला। 41. 12 किलोमीटर की दूरी 36 मिनट में तय हो गयी। हम ओमवर्मा जी के ठिकाने पर थे। ड्राइवर हमको छोड़कर चला गया।
वर्मा जी ठिकाने पर पहुँचकर उनको फ़ोन किया तो वे बाहर आए। उनकी बिटिया संघमित्रा का काम घर से चल रहा था। दामाद जी आफिस गए थे। पहुँचते ही समोसा, चाट, चाय आदि का शानदार नाश्ता हुआ। इसके बाद बातों की पतंगे उड़ी। तमाम यादें साझा हुईं।
वर्मा जी नोट छापने के कारख़ाने बैंक नोट प्रेस देवास से 2014 में रिटायर हुए थे। 93 की उम्र के पिताजी की देखभाल के चलते कहीं निकलना नहीं हो पाता था। इस बार निकले तो बेटे के पास आस्ट्रेलिया और बिटिया के पास अमेरिका आ गए। पिताजी छोटे भाई के साथ देवास में हैं।
खाने-पीने-बतियाने के बाद चलने का समय भी आया। चलने से पहले ओम वर्मा जी ने अपने दोहा संग्रह ‘गांधी दौलत देश की’ और ‘ख़त मौसम का बाँच’ भेंट किया। मैं अपने साथ अशोक पांडेय Ashok Pande की धूम मचाऊँ अनूठी क़िस्सागोई से लबरेज़ से उपन्यास लपूझन्ना उनके लिए ले गया था। हम लोगों ने किताबें एक-दूसरे को देते हुए फ़ोटो खिंचाई -ताकि सनद रहे।
इस बीच हमारे कालेज के मित्र संजीव अग्रवाल Sanjeev Agrawal वहाँ आ गए। संजीव हमारे बैच के इलेक्ट्रिल इंजीनियरिंग के टापर थे। शरीफ़ बच्चों जैसी इमेज। लेकिन हर शरीफ़ इंसान की बदमाशियाँ भी होती हैं जो उनके ख़ास दोस्तों को पता होती हैं। यह दोस्तों की उदारता ही होती है कि इंसान बाद में भी शरीफ़ माना जाए। संजीव से अमेरिका आने के बाद से संदेशबाज़ी हुई लेकिन बात नहीं हो पायी थी।
संजीव से मिलना पहले से तय नहीं था लेकिन जब पता चला कि हम सनीवेल में हैं तो पास ही होने के कारण अपना घर से चलने वाला आफिस छोड़कर आ गए। कुछ उसी तरह जैसे कालेज में मूड न होने पर क्लास से फूट लेते थे। संजीव ने कहा -‘चलो कहीं चाय पीते हैं।’
हमने कहा -‘चाय पीना है तो घर चलो।’
संजीव चाय पीने के लिए 41.12 किलोमीटर दूर हमारे घर तक आए। चाय पी और रात होने से पहले वापस लौटे। इस दौरान कालेज, घर-परिवार, दुनिया जहान की बाते हुईं। इधर-उधर की, न जाने किधर-किधर की। इतनी सारी बातें हुईं कि सब गड्ड-मड्ड होकर ज़ेहन में सुरक्षित हो गयीं।
https://www.facebook.com/share/p/KhwDKxthQLDVktBA/
No comments:
Post a Comment