Thursday, October 19, 2023

तुम बदल गये हो



आज सुबह की चाय धूप में पी। सामने सूरज भाई दिखे। पेड़ पीछे छिपे। लगता है सुंदर कांड पढ़े हैं हाल में। ‘तरु पल्लव माँ रहा लुकाई’ पढ़कर पेड़ के पीछे छिप गये। सोचे होंगे हनुमान जी बन जाएँगे। लेकिन ऐसा कहीं होता है दुनिया में। कौन समझाए। आजकल कैसी को समझाना भी बवाल है।
बहुत बाद मिले थे सूरज भाई। सोचा शिकायत करेंगे। कहेंगे -‘तुम बदल गये हो।You have changed.’
दोस्तों का प्यार जताने का अपना-अपना अन्दाज़ होता है। कोई पूछता है -‘कैसे हो?’कोई कहता है -‘क्या हाल?’ कोई कहता है -‘दिखते नहीं आजकल।’ ये सब आम अन्दाज़ होते हैं। बहुत अपनापे वाले मित्र के अपने ख़ास अन्दाज़ होते हैं। सिग्नेचर स्टाइल। ‘तुम बदल गये हो’ की शिकायत से बात शुरू होने पर लगता है कि कुछ भी नहीं बदला।
कुछ बोले नहीं सूरज भाई। चमकाते रहे धरती को। हमें भी कुछ सूझा नहीं तो बोल दिया -‘स्मार्ट लग रहे हो।’
कुछ न सूझे तो सामने वाले की किसी भी बात की तारीफ़ करके बात शुरू करना सबसे सुरक्षित होता है। तारीफ़ सुनकर पत्थर भी मुलायम हो जाता है। पानी बन जाता है। तारीफ़ ऐसा ब्रहमाष्त्र होता जिसकी मार से बचना असंभव होता है।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। लेकिन देखकर लगा लाज-लाल हो गये हैं। तारीफ़ सुनकर कुछ न बोलना भी एक अदा है। बड़े लोगों की हर हरकत एक अदा होती है। उनकी हर अदा पर उनके अनुयाई मरते हैं। ज़रूरी नहीं कि अदा अच्छी ही हो। लोग तो अपने नायकों की बुरी अदा पर भी मरते हैं। नायक की चिरकुटई पर मरते हैं। झूठ बोलने की अदा पर मरते हैं। उनकी कमीनगी पर मरते हैं।
ऐसा शायद इसलिए होता है कि लोग अपने नायक के माध्यम से अपनी उन इच्छाओं को पूरा होते देखते हैं जो उनकी ख़ुद की होती हैं लेकिन वो ख़ुद कर नहीं पाते। उनका नायक उसको करता है। अपनी इच्छा को नायक के माध्यम से पूरी होते देख वे तड़ से नायक के अनुयायी बन जाते हैं। उसकी अदा पर मर जाते हैं।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। काम से लगे रहे । हमने सोचा कितना ज़िम्मेदारी से काम करते हैं सूरज भाई। ये न हों तो दिन न निकले। नंदन जी कहते भी हैं:
‘जिसे दिन बताये दुनिया , वो तो आग का सफ़र है,
चलता तो सिर्फ़ सूरज है , कोई दूसरा नहीं है ।’
देखते -देखते सूरज भाई ऊपर होते गये। पूरी दुनिया में रोशनी और गरमाहट सप्लाई करने लगे। हमने भी इधर-उधर देखना शुरू किया।
जिस जगह बैठे थे वहाँ से घर के बाहर लॉन में खड़ा पेड़ दिखा। ऐसा लगा कि पेड़ घर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा है। सुबह की नमस्ते कर रहा हो। किसी बड़े नेता के चिल्लर चमचे की मुद्रा में उसका पत्ता -पत्ता कह रहा था -‘तुमको जो पसंद हो वही बात करेंगे/तुम दिन को कहो रात तो रात कहेंगे।’
यह गाना जब सुना था तो लगा था कितना लगाव वाला भाव है। लेकिन आज लगा कि लगाव नहीं यह ख़ुद का बचाव है। जैसे राजनीति में पार्टियां व्हिप जारी करती हैं। सब लोग पार्टी लाइन के हिसाब से चलते हैं। अलग हुए तो पार्टी बदर। इसी भाव के घराने का गीत है यह -‘तुमको जो पसंद है वही बात करेंगे।’
घर के सामने झुके खड़े पेड़ को देखकर यह भी लगा मानो आलाकमान के सामने कोई टिकटयाचक विनयवत चुपचाप मौन खड़ा हो। उसके मौन के रोम-रोम से चीत्कार निकल रही हो -‘ तू दयालु दीन हौ, तू दास हौ भिखारी।’
जनसेवा का काम आसान नहीं होता है। ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ घराने का काम होता है।
कुछ देर बाद पेड़ को फिर देखा तो उसकी शक्ल डायनाशोर सरीखी लगी। डायनाशोर तो निपट गये न जाने कितने पहले। अब पेड़ बेचारा खड़ा मकान के सामने विनय पूर्वक अपनी जान की अमान माँग रहा है। उसको लगता होगा कि यह चाहेगा तो वह बचा रहेगा। उसको क्या पता कि मकान तो बना ही बेजान चीजों से है। जबकि वह ख़ुद ज़िंदा है। लेकिन पेड़ को कौन समझाए। डरा हुआ है बेचारा। डरा हुआ जीव तो जो भी सामने दिखता है उसके सामने झुक जाता है। जान की भीख माँगने लगता है। उसको क्या पता कि सामने वाला भी उतना ही निरीह है। कैसी के मोहरे हैं। उसके कातिल तो कहीं और बैठे तमाशा कर रहे हैं।
पेड़ की बात सोचकर हमको दुनिया भर में अपनी ज़िंदगी की जंग लड़ते अनगिनत लोग याद आते हैं। वो न जाने किसके सामने झुककर अपनी ज़िंदगी बचाने की कोशिश में जुटे होंगे। उनके कातिल न जाने कहाँ बैठे उनके क़तल का इंतज़ाम पुख़्ता करते हुये उनके बचाव की योजनाएँ बनाने का दिखावा कर रहे होंगे। शातिर क़ातिलों की यही अदा है।
सुबह सुबह कहाँ क़त्ल और क़ातिलों का ज़िक्र आ गया बातचीत में। सूरज भाई आसमान से मुस्कराते हुए कह रहे हैं -‘ तुमने बेवक़ूफ़ी का दामन मज़बूती से थाम रखा है। अभी तक बदले नहीं ।’

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