कल रात नया सपना देखा। देखा कि एक लंबी यात्रा पर निकले हैं। अकेले। शायद साइकिल पर। तीन-चार महीने की यात्रा। पहले दिन की यात्रा के बाद शाम को याद आता है कि अरे, अभी इस साल के इम्तहान तो दिए ही नहीं। यात्रा पर आगे बढ़े तो इम्तहान छूट जाएंगे। डिग्री नहीं मिलेगी। तीन साल की मेहनत बेकार जाएगी।
सपना टूट गया। अभी भी चल रहा होता तो पूछता कि जब लौटना सही था तो जाने क्यों दिया? वैसे अगर पूछता भी तो लोग यही कहते -'हम तो पहले ही समझा रहे थे। तुम ही जिद्द पर अड़े थे।'
सामान्य से अलग कुछ भी करने में ऐसा ही होता है। कुछ लोग टोंकते हैं, कुछ समझाते हैं, कुछ हौसला बंधाते हैं। निर्णय खुद को ही लेना होता है। फायदा-नुकसान खुद झेलना होता है। कुछ लोग फायदे-नुकसान का आंकलन कर पाते हैं। कुछ नहीं। लेकिन कहानी अलग ही होती है।
1983 में जब हम लोग साइकिल से भारत यात्रा के लिए निकले थे तो ऐसे ही झटके में चले गए थे। हम लोग हॉस्टल में थे। घर वाले दूर थे। कम्युनिकेशन के साधन ज्यादा थे नहीं। कुछ ज्यादा टोंके नहीं गए। आजकल का समय होता तो मार वीडियो कॉलिंग के नसीहतों के मिसाइल से घायल हो गए होते।
दोस्तों ने हौसला बढ़ाया तो निकल लिए। घूम आये। दल का नाम अज्ञेय जी की कविता पंक्ति -'अरे यायावर, रहेगा याद' से प्रभावित रखा था -'जिज्ञासु यायावर।'
एक एक हजार रुपये के तीन ट्रेवलर्स चेक लेकर गए थे। उतने में ही तीन महीने का साइकिल टूर करके लौट आये।
उस समय की कुछ यादें लिखी हैं। बाकी बिसर गईं। धुंधला गईं। कभी लिखेंगे टटोल-टटोल कर।
घुमाई की बात से याद आई हाल की यात्राएं। उनके किस्से भी लिखने बाकी हैं।
पिछले दिनों दिसम्बर महीने में महाबलीपुरम और पांडिचेरी जाना हुआ। महाबलीपुरम में समुद्र किनारे पल्लव कालीन पंचरथ स्मारक देखने गए। तमिलनाडु के चेंगलपट्टू जिले में बंगाल की खाड़ी के कोरोमण्डल तट पर महाबलीपुरम में यह स्मारक स्थित है। पल्लव राजाओं द्वारा बनाया गया यह स्मारक 630 से 725 ईपूर्व के समय के बने हैं। ये पांच रथ पांच पांडवों के नाम पर बने हैं।
इन स्मारकों की विशेषता यह है कि ये एक पत्थर पर बने हैं। बड़ी शिलाओं को छेनी हथौड़ी से काटते हुए बनाये गए हैं ये स्मारक तभी कई दशक लगे होंगे इनको बनाने में।
इनके निर्माण में कई दशक लगने का कारण यह भी होगा कि उस समय राजाओं का शासन उनके जिंदा रहने तक चलता था। राजा के बाद राजकुमार गद्दीनशीन हो जाता था। आजकल की तरह चुनाव तो होता नहीं था उन दिनों जो किसी राजा को फटाफट कोई स्मारक बनवाकर उसके नाम पर वोट मांगने की मजबूरी हो।
पंचरथ परिसर में घुसने पर स्थानीय गाइड पीछे लग लिए। हमने कुछ को मना किया। लेकिन अंततः एक बुजुर्ग गाइड ने अपनी बातों से मजबूर कर दिया कि हम उसकी सेवाएं लें।
पंच रथ परिसर में हर रथ अलग आकार का था। सबसे छोटा रथ दौप्रदी का है जिसमें देवी दुर्गा की प्रतिमा है। युधिष्ठिर का रथ सबसे बड़ा तिमंजला है। नकुल-सहदेव का एक ही रथ है।
रथों के आकार पल्लव काल में पांच पांडवो की स्थिति के बारे में बताते हैं।
हमारे गाइड ने करीब आधे घण्टे में सारे रथ दिखा डाले और उनके बारे में संक्षेप में बता दिया। तमिल लहजे की हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू बोलने वाले गाइड की उम्र लगभग साठ साल की रही होगी। पता चला कि वो हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल, तेलगु , मलयालम के अलावा थोड़ी थोड़ी फ्रेंच और जर्मन भी जानते हैं। फ्रेंच, जर्मन पता नहीं जानते हों या न जानते हों लेकिन हमको तो यही बताया। लेकिन भारतीय भाषाएं तो कामचलाऊ जानते ही हैं।
उनकी पढ़ाई के बारे में पता किया तो बताया कि कक्षा पांच तक पढ़े हैं।
हमको थोड़ा ताज्जुब हुआ कि इतने कम पढा इंसान इतनी भाषाएं जनता है। लेकिन फिर ताज्जुब को समेट लिया यह सोचकर कि भाषाओं का स्कूली पढ़ाई से कोई ताल्लुक नहीं होता। यह तो जिंदगी के मदरसे में सिखाई जाती है। जिसको मन होता है सीख लेता है। पेट की आग भी बहुत कुछ सिखा देती है।
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