ओरछा के जिस राजमहल में शादी के कार्यक्रम हुए मुझे लगा वह बहुत पुराना होगा जिसे शादी के लिए किराए पर उठाने लगे होंगे। लेकिन जानकारी ली तो पता हुआ कि तथाकथित राजमहल दस साल पुराना है। मतलब होटल ही समझिए। होटल को राजमहल के रूप में बनवा कर किराए पर उठाया जाता है। लोगों को यहां आकर राजसी एहसास होता होगा। लाख-दस लाख खर्च करके राजा बन जाएं तो क्या बुराई। आजकल तो लोग राजा-महाराजा से बढ़कर अपने को भगवान साबित करने में अरबों-खरबों खर्च करने में लगे हैं।
शादी में भी आजकल दूल्हे जिस तरह सजते हैं उससे दूल्हा कई शताब्दियों की गठबंधन सरकार लगता है। इस पर पहले कभी लिखा था:
" जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी के किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।"
विवाह कार्यक्रम के अगले दिन हम फिर ओरछा गए घूमने। ओरछा में सभी दर्शनीय स्थल आसपास ही हैं। दो-तीन किलोमीटर के दायरे में।
सबसे पहले राजाराम मंदिर देखने गए। यह अकेला मंदिर है जिसमे भगवान राम की पूजा राजा के रूप में होती है। मंदिर के रास्ते मे तमाम मिठाई/प्रसाद की दुकानें हैं लाइन से। दुकानों में पेड़े बर्फी धूप, धूल का मुकाबला करते हुए प्रसाद के रूप में बिकने का इंतजार कर रहे थे।
लगभग सभी दुकानों में देखा कि कुछ पेड़े एक के ऊपर एक रखे थे। उसके अलावा तमाम पेड़े खड़े-खड़े लगे थे। चुस्त-सतर्क जवानों की तरह। दुकानों के आगे से गुजरते हुए दुकानदार प्रसाद खरीदने का आग्रह करते लेकिन जबरदस्ती टाइप नहीं कर रहा था कोई। हम आगे बढ़ते गए।
राम मंदिर के पास कई बच्चे-बच्चियां एक डब्बे में चंदन का घोल लिए और दूसरे हाथ में 'राम' की मोहर लिए दिखे। आने-जाने वाले लोगों के माथे, गालों पर राम नाम की मोहर लगा रहे थे। तमाम लोगों के गाल और माथे पर राम नाम की मोहर लगी दिखी।
मंदिर की तरफ बढ़ते हुए एक महिला दिखी। किनारे बैठे एक कटोरा सामने रखे। कटोरे में कुछ सिक्के रखे थे। उसकी आंखे की जगह पलकों का पर्दा सा पड़ा था। आंखों को स्थायी रूप से ढंक दिया गया हो जैसे।
पूछा तो बताया कि :
"जब हम छोटे हते तो माता आई हतीं। उसई में आँखी चली गईं। हमाई अम्मा ने सबहन दिखाओ। कहां-कहां नहीं कोशिश करी। भीख तलक मांगी कि भगवान आँखी ठीक कर देंय। लेकिन नाई ठीक भई। अब तौ बेऊ नाई हैं। कउनउ नाइ है। हीनइँ माँगत खात हैं। जैसी भगवान की इच्छा।"
हमने कुछ पैसे उसकी कटोरी में डाले। तो पूछा उसने -"भैया पैसा दए?"
हमने हमारे हां कहने पर पूछा -"कितै ते आये भैया?"
हमने बताया कानपुर से आये हैं तो उसने कहा -"खूब भला करे भगवान तुम्हारा।"
थोड़ी देर और बात करने पर मुन्नी ने कहा -"कानपुर वाले भैया, नेक गन्ना का रस पिवाय देते। पूड़ी लाय देते।"
कानपुर वाले भैया वापस लौटकर गन्ने का रस लेने गए। रस दस रुपये और बीस रुपये के ग्लास मिल रहे थे। हमने सोचा दस रुपये वाला ले लें। लेकिन आर्डर करने तक परसाई जी का लेख -'सड़ी सुपाड़ी की संस्कृति याद आ गया।' इस लेख में परसाई जी ने उन लोगों की लानत-मलानत की है जो पूजा, दान आदि में दोयम दर्जे की चीजें चढ़ाते हैं।
परसाई जी से डर के हमने बड़े वाले ग्लास में गन्ने का रस लिया और वापस आये। मुन्नी को दिया तो बोली -"कानपुर वाले भैया हौ आप न?"
हमने कही -"हौ।"
गन्ने के रस का ग्लास पकड़कर मुन्नी ने फिर पूड़ी खाने की इच्छा जताई। तो हमने कहा अभी आते। इसके बाद हम इधर उधर टहलने लगे।
मंदिर के सामने कड़ी धूप थी। दो बच्चियां कड़ी धूप में एक दुपट्टे को साझे रूप में सर के ऊपर ओढ़े हुए मंदिर के सामने खड़ी थीं। दुपट्टे से उनके ऊपर पड़ने वाली धूप से कोई बचाव नहीं हो पा रहा था। दुपट्टा उन बच्चियों के धूप से बचाव से ज्यादा उनका आपस में पक्की सहेलियों, गुइयाँपने के उद्घोष की तरह लग रहा था।
बच्चियों से बातचीत करने के लालच में और पूछकर फोटो लेने की मंशा से मैने उनसे कहा -"बहुत अच्छी लग रही तो बिटिया लोग।"
हमारी बात सुनकर एक बच्ची तमतमा के बोली -"अच्छे लग रहे हैं तो तुम्हे का करने?"
हम चुपचाप आगे बढ़ गए। सामने एक दुकान में पूड़ी बिक रही थी। सामने तिवारी की कुटिया के नाम की दुकान थी। दुकान में खाने-पीने का सामान बिक रहा था। कुछ लोग बैठकर खा रहे थे।
तिवारी जी की दुकान से चार पूड़ी ली। तिवारी जी अपनी गद्दी पर बैठे अपनी दाईं कलाई एक कपड़े की थैली में डाले पैसे का लेन-देन करते जा रहे थे। लेन-देन के साथ-साथ दायां हाथ भी इधर-उधर हो रहा था।
हमने कहा -"काम के साथ माला भी जपी जा रही है। कमाई और पूजा साथ-साथ।"
तिवारी जी मुस्कराते हुए बोले -"कोशिश है। यह भी एक धोखा है तो अपने को दे रहे हैं। दिखावा है, कर रहे हैं। लेकिन मुक्ति का इंतजाम करने का प्रयास चल रहा है।"
मुक्ति का प्रयास के बारे में बताया कि बेटा अभी 13 साल का है। बड़ा हो जाएगा तो उसको दुकान सौंपकर फिर भगवद्भजन करेंगे बिना नाटक और दिखावे के। कुछ और दुनिया-जहान की बाते करते हुए हम वापस लौटे।
पूड़ी दी मुन्नी को तो वो फिर बोली -"कानपुर वाले भैया हौ?" पूड़ी लेकर पूछा -"अचार नाई लाए? आचार ला देते तो पूड़ी खा लेते उसई के संग।"
पलट के तिवारी जी की दुकान से अचार लाये। मुन्नी खुश हुई और प्रेम से आभार व्यक्त किया। इस बीच उनके पास ही सीढ़ियों पर एक आदमी बैठ गया था आकर। उसने मुन्नी के बारे में कुछ कहा तो मुन्नी ने पूछा -"कौन सुरेश?"
सुरेश ने मुन्नी के बारे में बताना शुरु किया -"इनकी भीतर की आंखे बहुत तेज हैं। एक जन का लड़का खो गया था। महीनों खोजते रहे। नहीं मिला। फिर मुन्नी के पास आये। मुन्नी ने बताया -"बेतवा किनारे फलानी जगह जाओ। मिल जाएगा। गए। वहीं मिला।"
आगे और जोड़ते हुए सुरेश ने बताया कि यहां जिस दुकान वाले के बारे में मुन्नी कह देती हैं कि आज इत्ती कमाई होगी तुम्हारी तो समझ लेव उत्ती होती ही है कमाई।
अपनी तारीफ सुनकर मुन्नी चमक गई। उनकी बिना रोशनी वाली आंखे फड़कने लगी। उनकी दीनता तिरोहित हो गयी। वे भी अपनी तारीफ में जुट गईं। कई किस्से सुना डाले अपने। हर किस्से का उपसंहार करते हुए वे मानो कह रही थी -"ये मुन्नी की गारंटी है। जो कह देती हूँ ,पूरी होती है।"
इस बीच सुरेश ने बताया कि वे जिस जगह पर बैठे थे वहीं के पुजारी जी से अपने पैसे लेने आये थे। पुजारी जी ने उनसे मूर्ति लेकर राममंदिर के पास ही एक छुटका मंदिर डाल लिया था। मंदिर के लिए मूर्ति सुरेश से ली थी। छह महीने हो गए। मंदिर में चढ़ावा आने लगा था ये तो नहीं पता लेकिन तमाम तकादे के बावजूद अभी तक पुजारी जी ने मूर्ति के पैसे नहीं दिए थे। एक बार फिर तकादे के लिए सुरेश सीढ़ियों पर बैठे थे।
मुन्नी से और बात हुई तो पता चला कि उनकी उम्र चालीस के करीब है। मंदिर के ही आसपास रहती हैं। वहीं के लोग खिला-पिला देते है। गुजारा होता रहता है।
बातचीत के दौरान जब पता लगा कि हम कानपुर से गाड़ी से आये हैं तो हम "कानपुर वाले भैया से गाड़ी वाले भैया हो गए।"
मुन्नी के हाथ में पुड़िया देखकर हमने पूछा -"ये पुड़िया काहे खाती?"
मुन्नी ने बताया -"भैया ये दांत बहुत पिरात हैं। तम्बाकू खा लेत हैं तौ आराम मिल जात है।"
हमको अनायास अपनी अम्मा याद आईं। उनको भी चूने वाली तंबाकू की आदत इसी तरह पड़ी थी। तमाम लोग इसी तरह के बहानों सहारे अपनी तमाम लतों का बचाव करते हैं। व्यक्ति से आगे बढ़कर देश/समाज भी अपनी तमाम खराबियों की रक्षा इसी तरह के शुतुरमुर्गी तर्कों से करते हैं।
मुन्नी से फिर आने की बात कहकर हम आगे बढ़े।
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