ओरछा में सभी पर्यटन स्थल आसपास ही हैं। एक दिन में पांव फिराते हुए सब देखे जा सकते हैं। वैसे भी लोग घूमते हुए इमारतों को 'मौका मुआयना' वाले अंदाज में देख लेते हैं। जिन इमारतों को बनने में वर्षों लगे उनको मिनटों में निपटा देते हैं।
हम भी कोई अलग थोड़ी हैं। सुबह से शाम होने तक सारे मंदिर, महल और दीगर पर्यटन स्थल निपटा डाले।
सबसे पहले चतुर्भुज मंदिर देखा। मंदिर का निर्माण की शुरुआत बुंदेल राजा मधुकर शाह (1554 -1593 ई) ने अपनी रानी गणेश कुंवरि के आग्रह पर, रानी के आराध्य देव राजा राम की स्थापना के लिए शुरू किया था। पश्चिमी बुंदेलखंड पर मुगल आक्रमण और राजकुमार होरलदेव की मृत्यु के कारण यह पूरा नहीं हो सका। उस समय अकबर मुगलों का बादशाह था। रानी ने राजा राम की प्रतिमा अपने ही महल में स्थापित कर ली। मंदिर का निर्माण दूसरे चरण में महाराज वीरसिंह देव (1605-1627 ई) के शासन काल में हुआ।
मंदिर में भगवान विष्णु का प्रतिमा है। 105 मीटर ऊंचा मंदिर 4.5 मीटर नींव पर बना है। लगभग पांच सौ साल पुराने मंदिर की भव्यता देखकर अचरज और कौतूहल होता है कि कैसे इतने विशाल मंदिर बनाये गए होंगे।
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए एक परिवार फोटो खिंचाते हुए दिखा। बीच की उम्र की एक महिला अलग-अलग पोज देते हुए फोटो खिंचा रही थी। उसके साथ चल रही लड़की ने मजे लेते हुए कहा -" लगता है मामी अपनी फ़ोटो खिंचाने की सारी हसरतें आज ही पूरी कर लेंगी।"
मामी कुछ बोली नहीं। हंसते हुए फोटो खिंचाती रहीं।
मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति के पास बैठे पुजारी जी ने बताया कि छह पीढ़ियों से उनका परिवार यहाँ के पुजारी का काम देख रहा है। पीछे लगी एक महिला की फ़ोटो दिखाते हुए बताया इन्होंने (शायद पुजारी जी की माँ) ने वर्षों पुजारी का काम किया।
भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने ओरछा का राजमहल है। तकरीबन 200 मीटर की हवाई दूरी होगी। रानी ने प्रतिमा की स्थापना इस तरह कराई थी कि महल के अपने कक्ष से भगवान के दर्शन कर सकें। पूजारी जी इसे रानी के घमंड के रूप में देखते है कि अपने कमरे में बैठे-बैठे कोई भगवान के दर्शन करना चाहे।
बाद में महल में स्थित रानी के कक्ष के झरोखे से देखा तो वहां से मंदिर की प्रतिमा साफ दिख रही थी। पांच सौ वर्ष पहले के साधनों से इतनी उत्कृष्टता से निर्माण कार्य जिन लोगों ने किया होगा वे कितने कुशल कारीगर रहे होंगे। अफसोस उनके बारे में आज कोई जानकारी नहीं।
चतुर्भुज मंदिर से राजाराम मंदिर की तरफ आये। यह मंदिर रानी गणेश कुंवरि के आग्रह पर बनवाया गया। कहानी प्रचलित है कि रानी अपने आराध्य देव भगवान राम को लेने अयोध्या गयी। उनको लाने के लिए वहां तपस्या की। भगवान प्रकट नहीं हुए तो सरयू में कूद गईं। इस पर भगवान राम प्रकट हुए और रानी के साथ ओरछा चलने को राजी हुए लेकिन शर्तो के साथ :
1. रानी उनको अपने साथ ले चलेंगी।
2. वे ओरछा के राजा होंगे।
3. एक बार जहां उनको रख दिया गया वे वहीं स्थापित हो जाएंगे।
रानी ने अपने आराध्य की तीनों शर्ते मान लीं। उनको अयोध्या से ओरछा लाईं। तब तक मंदिर पूरा नहीं बना था तो प्रतिमा को अपने महल में रख लिया कि जब मंदिर बनेगा तो वहां स्थापना होगी। लेकिन बाद में कहते हैं कि मूर्ति इतनी भारी हो गई कि यहां से हटी नहीं। मजबूरन महल को ही मंदिर बनाना पड़ा।
रानी ने अपने आराध्य की दूसरी शर्त के अनुसार भगवान राम को ओरछा का राजा घोषित करवाया होगा। यह राम जी का अकेला मंदिर है जहां वे भगवान और राजा के रुप मे माने जाते हैं। भगवान के रूप में पूजा होती है। राजा के रूप में रोज सलामी जी जाती है।
मंदिर के प्रांगण में तमाम नवदम्पति अपने परिजनों के साथ पूजा करने आये थे। यहां की परंपरा है नए दूल्हे-दुल्हन पूजा करते हैं। थापे लगाते हैं। इसके बाद उनका दाम्पत्य जीवन आरंभ होता होगा। शायद भगवान के राजा स्वरूप के कारण इस प्रथा की शुरुआत हुई हो।
हमारे देखते-देखते एक नवयुगल अपने परिवार के साथ पूजा करने आया वहां। परिवार के लोग डांस भी कर रहे थे। सबसे ज्यादा उत्साह से दुल्हन डांस कर रही थी। सर पर मुकुट और उसके नीचे लम्बा घूंघट। घूंघट के अंदर होने के कारण चेहरा नहीं दिख रहा था दुल्हन का लेकिन उसका उल्लास और उत्साह उसके डांस से प्रकट हो रहा था। साथ में चलता हुआ दूल्हा सकुचाया सा मटकने की कोशिश करते हुए अपनी दुल्हिन को डांस करते हुए देख रहा था ऐसे जैसे अपन अपनी श्रीमती जी को घर-परिवार के कार्यक्रमों में डांस करते हुए देखते रहते हैं।
मंदिर में प्रांगण में भजन मंडली ढोलक की थाप पर अल्हैत वाले अंदाज में भजन गा रही थी। दूल्हा-दुल्हन उसके सामने ही डांस कर रहे थे। वहीं मंदिर परिसर में मौजूद एक बाबाजी भी साथ में ही मटक रहे थे। दूल्हे-दुल्हन के परिजन उनको कुछ भेंट देते जा रहे थे। इन सब को पीछे से देखते हुये भगवान राम अपना आशीष दे रहे होंगे।
मंदिर परिसर में फोटोबाजी मना थी फिर भी नवयुगल और उनके परिवारी जन को डांस करते देखकर और लोगों की देखादेखी कुछ फोटो वीडियो बना लिये। हड़बड़ी और डर में खींचे फोटो और वीडियो भी डर के मारे टेढ़े-मेढ़े हो गए हैं। लेकिन देखने पर अंदाज लग सकता है कि कैसे माहौल रहा होगा उस समय।
मंदिर से निकलकर राजमहल देखने के लिए आगे बढ़े। सामने एक पुरानी इमारत दिखी। उसमें लिखा था -टकसाल भवन। 17 वीं शताब्दी का टकसाल भवन आज बुजुर्ग और जर्जर हाल में है। कभी यहाँ कड़ा पहरा रहता होगा। आज कोई जाता नहीं।
टकसाल भवन के सामने ही तमाम तरह के सामान की भी कुछ दुकानें थी। एक में सामने नीचे तसलों में अलग-अलग आकार की सिलमें रखीं थी। पता चला कि सीकर में बनती हैं ये चिलम। पास बैठे कुछ लोग अलग-अलग अंदाज में चिलमों को टटोलते हुए मोलतोल कर रहे थे।
आगे एक जगह बोर्ड लगा था -"धीमे वाहन चलाओ, जानवरों की जान बचाओ।" हेल्प डाग सेन्टर की तरफ से लगाया गया यह बोर्ड जिस सड़क के बीच लगा था वह इतनी कम चौड़ी थी कि वहां तेज गाड़ी चलाने की गुंजाइश कम ही थी। लेकिन कम से कम इसे पढ़कर ही लोग जानवरों के बारे में कुछ दयालु हो सकें।
आगे सड़क पर दुकानें खुल गईं थीं। धूप तेज हो गयी थी। अपन ओरछा का राजमहल, जहांगीर महल और शीश महल देखने के लिए चल दिये।
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