25 दिन हो गए सरकारी सेवा से रिटायर हुए । तमाम काम सोचे थे करने के लिए कि ये करेंगे, वो करेंगे। बस एक बार रिटायर भर हो जाएँ। सारे के सारे काम, सिवाय निठल्लेगीरी के, उलाहना दे रहे हैं कि हम पर अमल नहीं हुआ, हमारे साथ 'इरादाखिलाफ़ी' हुई। कोई-कोई तो यह भी कह रहा है कि तुम भी बदल गए। हमें तुम से ये उम्मीद नहीं थी।
मैं रोज़ मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था,
मगर सफ़र न कभी एख्तियार (शुरू) करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैं ज़िंदगी पर बहुत ऐतबार (भरोसा) करता था।
पिछले दिनों मेरा बेटा अपने कजाकिस्तान गया था। वहाँ के किस्से, फ़ोटो, विडीयो लगाए अपने यहाँ तो किया कि फ़ौरन निकल लें। पहुँच जाएँ कजाकिस्तान। घूमें आसपास। बग़ल में समरकंद है जहां से बाबर आए थे। लेकिन फिर आलस्य ने और बगलिया के रोक लिया। सोचा जाएँगे तसल्ली से। कौन समरकंद और कजाकिस्तान कहीं भागे जा रहे हैं।
पढ़ने के लिए तमाम किताबें सोची थीं कि एक-एक कर पढ़ी जाएँगी। अभी तक शुरुआत नहीं हुई है। रिटायरमेंट पर तमाम दोस्तों ने किताबें भेंट की हैं। कुछ पहले की पढ़ी, कुछ नई, कुछ पसंदीदा।कुछ मित्रों ने मुझे रामायण, गीता भी भेंट की। कई प्रतियाँ हों गयीं। उन दोस्तों की शायद सलाह यही होगी कि लोक की बात ख़त्म हयी, अब परलोक सुधारने के प्रयास किया जाए।
इरादा यह भी थी कि उर्दू और स्पेनिश सीखेंगे। उर्दू सीखने की तमन्ना तो वर्षों से है। तमाम बार अलिफ, बे, ते लिखना सीखा भी लेकिन फिर छूट गया अभ्यास। स्पेनिश सीखने का चस्का पिछले साल तब लगा था जब मारखेज साहब की 'एकांत के सौ वर्ष' पढ़ी। डूओलिंगो एप से कई दिन स्पेनिश का अभ्यास भी किया। लेकिन बाद में वह भी ठहर गया। डुओलिंगो एप काफ़ी दिन तक हमारी बेवफ़ाई के संदेशे भेजता रहा। बाद में आजिज़ आकर वह भी शांत हो गया। दोनों इरादों पर से धूल झाड़कर अमली जामा पहनाने का विचार है अब।
लिखाई-पढ़ाई के तमाम छूटे हुए काम तय किए थे पूरे करने के लिए। अमेरिकी यात्रा के संस्मरण पर किताब 'कनपुरिया कोलंबस' फ़ाइनल कई बार चुके हैं । अब बस छपानी है। अलावा इसके कश्मीर, लेह-लद्धाख और दीगर घुमक्कड़ी के किस्से छाँटकर/लिखकर छपाने का इरादा है। 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के सिलसिले में लिखे गए तमाम दोस्तों के लेख भी छाँटकर प्रकाशित करने का मन बनता है अक्सर। सबको इकट्ठा करना भी बड़ा काम है। देखते हैं कितना हो पाता है। किताब छपाने के तमाम हसीन लफड़े होते हैं। उनसे गुजरना भी रोचक अनुभव होता है।
अपने सेवाकाल के अनुभव भी लिखने के मन है। जिन लोगों के साथ काम किया उनके बारे में लिखने का विचार है। इस विचार पर अमल करने में हिचक भी है। पता नहीं कौन अपनी 'तारीफ़' पर ख़फ़ा हो जाए।
समाज सेवा में भी कुछ योगदान करने का मन है। कैसे कर पाते हैं, कितना कर पाते हैं -समय बताएगा।
सरकारी सेवा से रिटायर भले हो गए हैं लेकिन जड़त्व के नियम के हिसाब से सेवा की मन:स्थिति से अलगाव पाने में समय लगेगा। विनोद जी Vinod Srivastava की कविता याद आती है:
जैसे तुम सोच रहे साथी ,
वैसे आज़ाद नहीं हैं हम
पिंजड़े जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे संवाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आज़ाद नाहीं हैं हम।
सरकारी सेवा में 36 साल बिताने के बाद पिंजड़ा खुल गया है लेकिन आदतन अभी भी मन उसी हिसाब से बना हुआ है। सोच के स्तर पर उससे मुक्त होने में कुछ समय लगेगा।
लेकिन यह तय है कि सेवाकाल पूरा करने की बहुत ख़ुशी है। आने वाले समय में तमाम नए काम काम करने की तमन्ना है। ज़िंदगी जितनी हसीन अभी तक रही, आगे की उससे भी खूबसूरत होगी ऐसा मुझे लगता है।
रिटायरमेंट के मौक़े पर हुई विदाई पार्टी के विडियो हमने यूट्यूब पर अपलोड किए हैं। इनमें हमारे कुछ मित्रों के और हमारे परिवार के लोगों और अपन के भी उद्गार हैं। जिन साथियों को देखने का मन हो वो कमेंट में दिए लिंक पर जाकर देख सकते हैं।
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