कल शहर जाना हुआ। गाडी की सर्विसिंग करानी थी। सर्विस सेंटर में काम करने वाले एक गोल घेरे में खडे हुये सुबह की सभा जैसी कर रहे थे। क्रिकेट मैदान में खिलाडी मैच की शुरुआत में एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर टीम भावना का प्रदर्शन करते हुये खडे होते हैं। बराबरी का मामला रहता है वहां। इसलिये गले मिलते हैं। यहां बॉस और अधींनस्थ का हिसाब था इसलिये एहतियातन इस तरह खडे थे लोग कि कहीं कोई किसी को छू न जाये। कोरोना का प्रोटोकाल चल रहा हो मानो। बॉस से सुरक्षित दूरी ,है नौकरी के लिये जरूरी।
सर्विस वाले ने पटापट गाडी के ढेर सारे फोटो अपने टैब में ले डाले। गाडी भी नयी माडल की तरह खडे-खडे पोज देती रही। फोटू देखने पर पता चला कि एक चिडिया के पंख इंजन में फंसे हुये थे। शायद नीचे से घुसी होगी छिपने के लिये जब गाडी खडी रही होगी। फिर इंजन में फंस गयी होगी। उसकी ह्ड्डियां तक सूख गयीं थीं। चिडिया के घरवालों को पता भी न चला होगा कि कहां गयी। कोई खबर भी न छ्पी होगी किसी अखबार में। एक जीवन का गुमनाम अंत। दुनिया में ऐसे न जाने कितने लोग रोज गुमनामी की मौत मर जाते होंगे।
गाडी के सर्विसिंग में करीब तीन घंटे लगने थे। वहीँ बैठे-बैठे इंतजार करने के बजाय मैंने सोचा मेट्रोबाजी की जाये। मोतीझील मेट्रो स्टेशन करीब डेढ किलोमीटर दूर था। चल दिये। पैदल।
रास्ते में सडक के सहज नजारे देखते हुये आगे बढे। एक किनारे दो लडकियां सडक किनारे जमीन पर अपनी चाय की दुकान जमाये थीं। छुटका सिलिंडर धरे एक भगौने में चाय बनाते हुये आपस में बतिय-खिलखिला रहीं थी। बगल में तीसरी लडकी मोबाइल स्क्रीन पर उंगलियां चलाती हुई ‘रील दर्शन’ करते हुये मुस्करा रही थी। ग्राहक शायद चाय का इंतजार कर रहे थे। बैठे थे।
एक साइकिल वाला साइकिल पर तीन गैस सिलेंडर लादे चला जा रहा था। सिलेंडर के वजन और चढाई के कारण वह साइकिल पर एकदम झुककर ,जोर लगाकर साइकिल खींच रहा था। सिलेंडर कैरियर पर जिस तरह रखे हुये थे उससे लगा कि विजय का उल्टा वाला निशान बना रहे हों। साइकिल सवार की असलियत बयान कर रहे हों।
गूगल जो रास्ता बता रहा था हम उससे अलग दूसरी गली में मुड गये। यह वीरता दिखाते हुये हमको कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित ’घोडे वाले’ की कही बात याद आयी :
“चलो न मिटते पद चिन्हों पर
अपने रस्ते आप बनाओ।“
अपने रास्ते पर जाने का फायदा भी हुआ। आगे हमको शानदार स्पोर्ट्स क्लब दिखा। यह हमने पहली बार देखा था। तमाम खेल की ट्रेनिग का जिक्र था। कई गेट दिखे। विवरण पता करने पर दरबान ने बताया कि उसको कुछ पता नहीं क्लब के बारे में। उसको तो बस चौकीदारी से मतलब। दुनिया के तमाम चौकीदार ऐसे ही बिना कुछ जाने तमाम पैसेवालों के दिहाडी के नौकर बने हुये हैं।
आगे एक एक बुजुर्ग व्हील चेयर पर गोद में पतंग लिये बैठे थे। हमने पूछा-‘पतंग उडाओगे क्या?’ वो बोले-‘ चलने-फिरने से मोहताज हम क्या पतंग उडायेंगे? एक भाई जी दे गये हैं । किसी बच्चे को दे देंगे।‘ पतंग में कई चिप्पियां लगी हुई थीं। सेलो टेप की। कोई बच्चा उस पतंग को उडा रहा होगा कहीं।
बेनाझाबर के पास मोड के पास एक बच्ची अपनी छुटकी साइकिल के साथ दौडती दिखी। हमारे देखते-देखते उसने साइकिल नुक्कड पर एक साइकिल बनाने वाले की दुकान पर लिटा दी। साइकिल की चैन उतर गयी थी। उलझी हुई ,उतरी चैन को चढाना नही आता होगा बच्ची को। साइकिल लिटाकर वह खडी होकर सुस्ताने लगी। साइकिल वाले ने चुपचाप उसकी साइकिल को हाथ में ले लिया और चैन चढाने लगा।
आगे एक चाइनीज रेस्तरा दिखा। आजकल जब चीनी कब्जे के किस्से चलन में हैं तब शहर में खाने-पीने की नयी दुकाने चीनी नाम से खुले यह मजेदार है। मेट्रो स्टेशन के नीचे भी कई चमकते-दमकते खाने के अड्डे दिखे।
मेट्रो स्टेशन पर भीड बिल्कुल नहीं थी। अपन अकेले टिकट लेने वाले। तीस रुपये का टिकट मोतीझील से आई.आई.टी. तक का। काउंटर बालिका हमको टिकट देकर वापस ‘मोबाइल समुद्र’ में गोता लगाने लगी। सुरक्षा से गुजरकर स्टेशन पर आये। मेट्रो भी आ गयी कुछ देर में। बैठ गये। चल दी मेट्रो। कुल जमा तीन यात्री थे मेट्रो में। ट्रेन चली भी नहीं थी कि अगला स्टापेज आ गया। गाडी कुछ देर खडी रही। फिर चल दी।
ट्रेन की खिड्की से शहर का नजारा देखते रहे। एक जगह खूबसूरत मंदिरनुमा आकृति वाली इमारत दिखी। हमने सोचा कि यह मंदिर कब बना ? बाद में पता चला कि यह तो अपना जे.के.मंदिर है। तमाम छतों पर सोलर पैनल दिखे एंटीना की तरह।
आई.आई.टी. स्टेशन पर मेट्रो रुकी तो हम उतरे। लिफ्ट से। साथ में ट्रेन की ड्राइवर बालिका थी। एक छुटका सा सूटकेस लिये वह नीचे रेस्ट रूम में जा रही थी। बताया उसने की चालीस मिनट का रेस्ट मिलता है हर ट्रिप के बाद। उतनी देर वह सुस्ता लेती है। ट्रेन में भीड नहीं है के जवाब में उसने बताया कि जब सेंट्रल तक जाने लगेगी मेट्रो तब यात्री बढेंगे।
स्टेशन पर उतरकर एक दुकान पर बैठकर लस्सी पी। जब आर्डर दिया था तो सोचा था हुंडे में आयेगी। मलाई ऊपर होगी। लेकिन लस्सी आई ग्लास में। चुसनी पाइप के साथ। तमाम बर्फ के टुकडे सहित। साथ में लाल मीठा रस। आहिस्ते-आहिस्ते लस्सी पी। दुकान में भीड नही थी। शाम को होती है लडकों की जमघट।
वापसी में देखा कि एस्केलटर बंद था। सूचना लगी थी बिजली बचाने के लिये एस्केलेटर बंद है। सीढियों से या लिफ्ट से जायें। हमको लगा कि कहीं मेट्रो वाले अपने स्टेशन पर न लिख दें –‘ बिजली की खपत कम करने के लिये मेट्रो सेवायें स्थगित हैं। आप कृपया आटो/ओला/उबर से निकल लें।‘
ट्रेन में बैठते हुये देखा वही बालिका मेट्रो ड्राइवर अपना सूटकेस लुढकाते हुये इंजन की तरफ चली जा रही थी। इस बार थोडे यात्री थे ट्रेन में। सामने की सीट पर दो लडकियां किसी बच्चे से मोबाइल पर विडियो काल करते हुये अपना वात्सल्य उडेल रही थीं।
मोतीझील स्टेशन पर उतरे तो यहां भी बिजली की बचत के चलते स्वचालित सीढियां बंद थीं। लिफ्ट की तरफ बढे तो लिफ्ट में वही दो बच्चियां दिखीं जो मेट्रो में मिली थी। लिफ्ट चलने वाली थी। हमको लिफ्ट की तरफ आता देखकर एक बच्ची ने अपना हाथ लिफ्ट के बाहर कर दिया। ऐसा लगा मानो लिफ्ट के बाहर खडे इंसान से हाथ मिलाने का आह्वान कर रही हो। लिफ्ट उसके हाथ बाहर करते ही थम गयी। हम लिफ्टायमान हुये। लिफ्ट चलने के पहले हमने बच्ची को धन्यवाद बोल दिया।
लिफ्ट में कोरोना काल के अवशेष के रूप में केवल दो व्यक्तियों के खडे होने के लिये चौकोर खाने बने हुये थे। बहुत दिन लगेंगे उन यादों को विसराने में।
स्टेशन पर किताबों की दुकान है। वहां रखी किताबों को देखते हुये वापस चल दिये। पैदल ही।
रास्ते में एक मुल्लाजी जनरल स्टोर दिखा। बोर्ड के ऊपर ‘ अमूल गाय दूध’ भी लिखा था। दुकान पर मौजूद बच्चे ने बताया –‘यह नाम लोगों ने दिया है। इसलिये बोर्ड भी उसी तरह का लगा।‘ वैसे मुल्ला जी का नाम मकसूद है। बेटा जो दुकान पर था उसका नाम ताहिर। बीकाम की पढाई कर रहा है। पिता जी बाजार गये हैं, कालेज अभी बंद है, इसलिये दुकान पर बैठे हैं ताहिर।
सर्विस स्टेशन के पास एक खाने-पीने के दुकान का नाम दिखा –‘फूड कैसीनो’ मने खाने का जुआघर। दीवार पर ताश के पत्ते वाले चिडी के बादशाह की फोटो लगी है।
फोटो देखकर लगा कि दुनिया में आजकल खाना मिल जाना भी एक जुआ ही है। जुये में एक जीतता है, हजार लोग लुट जाते हैं। खाने के भी वही हाल हैं। हजारों की रोटियां चंद लोग खा जाते हैं। कुछ लोग मुटाते हैं,हजारों भूखे रह जाते हैं।
सर्विस सेंटर पहुंचकर पता चला कि गाडी की सर्विसिंग हो गयी है। अपन भुगतान करके, गाडी उठाकर घर आ गये।
गाड़ी की सर्विसिंग के बहाने रिटायरमेंट के बाद पहली मटरगस्ती हुई ।
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