Monday, September 19, 2005

आओ बैठें , कुछ देर साथ में

http://web.archive.org/web/20110101200636/http://hindini.com/fursatiya/archives/50



आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में। गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।
बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।
चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।
मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।
इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

19 responses to “
आओ बैठें , कुछ देर साथ में

  1. जीतू
    अमां ये बताओ, आजकल किसकी संगति मे बैठ रहे हो, इत्ती जबरद्स्त कविता रच डाले.शुरु के कुछ छ्न्द पढ्कर लगा कि भाभी के लिये लिखे हो.
    बाकी की लाइने ब्लागर भाइयों के लिये दिख्खे है मने.
  2. sarika
    बहुत अच्छी कविता लिखी है। शुरु की पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं
  3. eswami
    फुर्सतिया जी,
    छायावाद, यथर्थवाद, अकवितावाद, के बाद अब फुर्सतवाद का नँबर आगया लगता है. :)
  4. भोला नाथ उपाध्याय
    वाह-वाह | आज के व्यस्त मानव के अन्तर्मन में दबे-छिपे उद्वेलन को बडे सटीक ढंग से चित्रित किया है |इतने गम्भीर विषय को भी अपनी चिर परिचित “बिन्दास” शैली में प्रस्तुत करने पर बधाइयाँ |
  5. आशीष
    बहुत खूब शुक्ला जी, आपसे सही में बतियाने का मन है।
  6. पद्मनाभ मिश्र
    क्यों जनाब प्रोत्साहित करके याद करना ही भूल गये. आपके कहने से मैने लिखने को दिनचर्या मे शामिल कर लिया. कृपया मेरे चिट्ठा का समय समय पर अवलोकन करते रहिए. मेरी अनवरतता बनी रहेगी
    मौका मिले तो उपर दिए लिँक का दौरा जरुर करे.
  7. kali
    Malik kabhi milo google talk per bhaat baji karenge.
  8. Laxmi N. Gupta
    फुरसतिया जी,
    आपकी कविता सुन्दर है। सीधी सादी भाषा में बड़ी गहरी बात कह दी है। जीवन की भागदौड़ में मित्रों और स्वजनों के साथ बिताये हुये कुछ क्षण ही बहुमूल्य होते हैं।
    लक्ष्मीनारायण
  9. फ़ुरसतिया » …अथ लखनऊ भेंटवार्ता कथा
    [...] कनपुरिया अनूप भी इनाम पाये:-जब प्रदेश की राजधानी में गन्ना शोध संस्थान के सभागार में अनूप भार्गव सम्मानित हो रहे थे ,इनाम पा रहे थे ऐन उसी समय नाम महात्म्य के कारण और सितंबरी सुयोग वश कानपुर में अपनी फॆक्ट्री के सभागार में अनूप शुक्ल भी पैसे और उपहार बटोर रहे थे। कुल जमा सात सौ रुपये और पानी की दुइ लीटरिया बोतल मिली। कुल चार इनामों में से ३००/-मिले लेखन प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने के लिये,२००/- मिले भाषण प्रतियोगिता में स्थान पाने के लिये और पूरे दो सौ मिले लेख भारत एक मीटिंग प्रधान देश है और कविता आऒ बैठें कुछ देर पास में के लिये जो हमारी निर्माणी की पत्रिका स्रवन्ती में छपी थी। पानी की बोतल मिली निर्णायक की हैसियत से काम करने के लिये। हमने उसी समय संकल्प पढ़कर सारे पैसे नारद उद्धार के लिये दान कर दिये। तो इस तरह हम दोपहर तक काम भर का इनाम पा चुके थे। [...]
  10. फ़ुरसतिया » कान से होकर कलेजे से उतर जायेंगे
    [...] इसके बाद मैंने अपने बारिश के मौसम के बारे में लिखे अपने हायकू सुनाना शुरू किया और सारे नहीं सुना पाये कि पब्लिक हक्का-बक्का से रह गये| हमने तुरंत मौके की नजाकत को देखते हुये हायकू-कतरन समेट लिया और कविता का पूरा थान फैला दिया| कविता पढ़ी:- आओ बैठे कुछ देर पास में, कुछ कह लें,सुन लें बात-बात में| [...]
  11. संजय बेंगाणी
    चलिए फिर कभी बैठेंगे.. तो बाते भी होगी. फिर कुछ कह लेंगे,सुन लेंगे बात-बात में.
  12. फुरसतिया » दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं
    [...] अपने गले की तकलीफ के बावजूद उपेंन्द्रजी ने एक गीत वहां किंचित हिचकिचाहट के साथ पढ़ना शुरू किया। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता गया , उनके चेहरे पर चमक और आवाज में उत्साह और मुस्कराहट आती गयी। कुछ लाइनों को सुनते हुये मैं अपनी कविता पंक्तियां आऒ बैठें कुछ देर पास में याद करने लगा। यहां प्रस्तुत है उपेंन्द्रजी गीत जिसका शीर्षक है-कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें। [...]
  13. anita kumar
    बहुत ही सुन्दर कविता है । मजा आ गया
  14. जीवन अपने आप में अमूल्य है
    [...] अनूप शुक्ल [...]
  15. ई कोई नया फ़ैशन है का जी?
    [...] अनूप शुक्ल [...]
  16. हमका अईसा वईसा न समझो…
    [...] तो इस पर कवितागिरी भी कर दिये थे :) : ये दुनिया बड़ी तेज [...]
  17. बतरस लालच लाल की …
    [...] आओ बैठें , कुछ देर साथ में, कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में। अनूप शुक्ल [...]
  18. navneet
    मजा आ गया
  19. वन्दना अवस्थी दुबे
    हां, पूरी ज़िन्दगी तो बस घर-गृहस्थी को संवारने और अधिक संवारने की चिन्ता और उसके लिये किये जाने वाले प्रयासों में ही गुज़र जाती है……….फुरसत से बैठना, गप्पें करना…..सचमुच बहुत सुन्दर कविता…कवि बनते जा रहे हैं आप फुरसतिया जी…..

Saturday, September 17, 2005

संगति की गति


http://web.archive.org/web/20110101202609/http://hindini.com/fursatiya/archives/49

Akshargram Anugunj
चौपाल के ऊपर छाये छतनार वृक्ष की सबसे ऊपर की डाल पर बैठा कौवा,कौवी को बहुत देर तक निहारता रहा। कौवी प्रकट रूप में पल-प्रतिपल चौपाल पर बढ़ते सदस्यों की संख्या को निहार रही थी लेकिन कनखिंयों से कौवे की हरकतों पर निगाह रखे थी। कौवे ने उसकी नजर बचाकर उसे चूम लिया और चेहरे पर मजनूपना लपेट लिया। चुम्बनाहत कौवी ने कनखियों को तहा के रख लिया और आवाज को गहरा करते हुये बोली:-
यार,इस तरह के लिविंग रिलेशनशिप कब तक चलेंगे? कब तक हम-तुम डाल-डाल घूमते रहेंगे? तीन दिन हो गये हमें-तुम्हें चोंच लड़ाते हुये लेकिन तुमने मुझे अभी तक प्रपोज भी नहीं किया। लिविंग रिलेशनशिप न हुआ ‘हुक अप’ हो गया जहां संयोगवश हमारा-तुम्हारा जोड़ा लगातार बन रहा है। तीन दिन में कुछ भी तो नहीं बदला -सिवाय पेड़ की डालों के। तुम कुछ तय क्यों नहीं करते?
कौवे ने लंबी सांस ली । दुनिया में आक्सीजन के करोड़ों अणु कम हो गये। लंबी सांस छोड़ी । कैटरीना की लहरें ऊपर को उचकीं। आवाज को गहरा करके बोला-
यार,तुम्हें पता नहीं मैं कितना ‘पजल्ड’ हूं! मैंने आज तक सैंकड़ों को ‘प्रपोज’ किया है । मेरी जिंदगी में यह पहला मौका है जब मैं इतना किंकर्तव्यविमूढ़ हूं। कौवी ने आंखें कौवे की आंख में धंसा ली( कौवे ने अपनी मूंद लीं)
बोली:- तुमने जो ये किं.. (जो भी तुमने अभी बोला) वो क्यों हो? कहों न। व्हाई डोन्ट यू शेयर विथ मी?
कौवा उवाचा- मैं चाहता हूं कि दो-चार कोयलों के घोसले कब्जिया लूं। दस-बीस दिन का दाना-पानी जुगाड़ लूं । तब प्रपोज करूं। कौवे की गंभीरता के झांसे में आकर कौवी ने प्यार से उसे चोंचियाते हुये कहा-ओके डार्लिंग ,यू टेक योर ओन टाइम। लेकिन यह सारी देरी गड़बड़ियां हमारे साथ ही क्यों होती है? लव अफेयर हमारा तब शुरु हुआ जब मेरी सहेलियां अंडे दे चुकीं थीं। तीन दिन में लोग तलाक देकर नया साथ खोजते हैं और मैं लिविंग रिलेशनशिप में ही उलझी रही।एनी वे शायद यही जीवन है।
कौवा बोला-हां प्रिये, यहीं संगति की गति है।
संगति,गति जैसे स्त्रीलिंग शब्द सुन पूरी की पूरी कौवी सी.बी.आई. में तब्दील हो गई। मिसाइल दागी-ये संगति,गति कौन हैं? किस पेड़ पर रहती हैं? वर्चुअल हैं या रियल?इनकी यूजर आई.डी. क्या हैं? किस चैट रूम में मिले इन चुड़ैलों से? किस आई.डी. से चैट करते हो तुम इनसे? तुम्हारी सारी आई.डी. के डिटेल मेरी पास हैं। उनमें तो ये मुंहझौंसियां हैं नहीं!तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे बिना बताये नया अकाउंट खोलने की?
कौवी के पिघले सीसे से अमृत वचन सुन कौवे का मनमयूर नृत्य कर उठा। तीन दिन तक लगातार भाड़ झोंकते रहने का उसका अहसास समाजवादी ब्लाग की तरह हवा हो गया। वह बल्ले-बल्ले करते हुये नाचने लगा। डाल से गिरते-गिरते बचा।उसे कौवी के रूप में आदर्श पत्नी मिल गयी थी। कौवी के, मुझे चोंच मत लगाना ,की उपेक्षा करते हुये जबरियन लड़ियाते हुये बोला- तुम ही मेरी सपनों की रानी बन सकती हो।
इसी गुट के तमाम उल्टे-सीधे डायलाग भांजने के बाद वह बेचारा होश खो बैठा और बेसुधी के आलम न जाने किन कमजोर क्षणों में कांपते हुये बोला-मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं। अपने दिल की रानी बनाना चाहता हूं।मैं तुम्हारा पंजा मांगता हूं।
मादाओं की सहज बुद्धि बहुत तगड़ी होती है। इसका मुजाहरा करते हुये कौवी ने कौवे का पंजा थाम लिया ताकि वो उड़ न जाये। चेहरे पर सपाट प्यार का फेशपैक लगाकर बोली- तुम्हारे प्रपोजल पर मेरा निर्णय सुरक्षित है। लेकिन हां बोलने से पहले मैं ये ‘संगति’ और ‘गति’ के बारे में जानना चाहती हूं।
कौवी को घरेलू अदालत के रूप में तब्दील होते देख कौवे मन में तमाम लड्डू फोड़े और उचकते हुये बोला। ये संगति और गति कुछ नहीं हैं।मात्र दो शब्द हैं। जिनको ‘और’ के पुल से किसी सिरफिरे ठाकुर ने जोड़ दिया है। अब ये शब्द समूह सब लोगों को किसी वायरस की तरह डंस रहा है। लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं क्या करें?
कौवी ने चेहरे पर आश्चर्य चिपकाते हुये पूछा-रियली? दिस इज समथिंग इंटरेस्टिंग! कहां है वो वीर पुरुष जिसने मच्छर की तरह दुनिया को हिला के रख दिया है ? मैं उसे देखना चाहती हूं।
कहां रहता है वो ? देखना चाहती हूं मैं उसे! कौवे ने चोंच के इशारे से बताया कि देखो जो सबसे तगादा सा कर रहा है लिखने का वही है ठाकुर राजेश कुमार सिंह। पठ्ठे ने आज तक कुल जमा एक लेख लिखा है वह भी विषय बदल के लेकिन लोगों से दो-दो लेख मांग रहा है। कौवी बोली तो लोग लिखते क्यों नहीं? वो बोला-लोगों की समझ में नहीं आ रहा है क्या लिखें? तो ये खुद लिख कर बताये कि कैसा लिखना है? कौवा बोला -अब तुम पूरी गृहस्थिन हो गई हो।तुम्हें इतना भी नहीं पता कि इसे पता होता तो यह विषय देकर तकादा काहे करता?किस्तों में काहे लिखता? कौवी बोली तो फिर कौन लिखेगा? कौवा बोला-देखो, फुरसतिया जुटे हैं लिखने में।
कौवी ने देखा कि एक शरीफ से लगने वाले व्यक्ति को घेरे हुये हैप्पी बर्थ डे जैसा कुछ गा रहे हैं। खुशी का इजहार करने की कोशिश में बेचारे को रोना आ रहा है। लोग तारीफों से उसे लगातार घायल कर रहे हैं। जो आता है चौपाल में वो तारीफ के दो बाण मारकर और घायल कर रहा है उसे। उससे न हंसते बन रहा है न रोते।
वे यह दृश्य देखकर कौवी का हृदय द्रवित हो गया। उसने कौवे से कहा ये सब क्यों इसे इतना घायल कर रहे हैं तारीफास्त्र से? ये तो ऐसे ब्रम्हास्त्र हैं जिनकी काट ब्रम्हा के पास भी नहीं है।
कौवा बोला- जैसा करेंगे वैसा भरेंगे। ये कम थोड़ी हैं ।इन्होंने कम अनाचार थोड़ी ही किये हैं। मार तारीफ के लोगों का जीना मुहाल कर दिया । अब झेलें। शायद यही संगति की गति है।
लेकिन कौवी से रहा नहीं गया । उसने सोनपरी से जादू की छड़ी मांगी और रूप बदलकर महिला पत्रकार में तब्दील हो गयी। मटकते हुये चौपाल पर पहुंची। उसके वहां पहुंचते ही हल्ला मच गया।अफरा-तफरी के माहौल में लोग न जाने क्या-क्या कहने लगे। कोई एकदम सट के बोला आप बहुत अच्छा लिखती हैं कोई जरूरत हो तो बताना हम आपसे सिर्फ एक मेल की दूरी पर हैं। कोई बोला ये तो चिट्ठाजगत की शहजादी हैं। किसी ने यूजर आई.डी. तथा पासवर्ड थमा दिया कि आप इधरिच लिखें। बंदा आपको परेशान करने में तथा परेशानी दूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। कोई आंखे फाड़के घूरते हुये बोला – जो नहीं दिखना चाहिये वो दिख रहा है और दिखना चाहिये वो नहीं दिख दिख रहा। आप अपना शर्ट खोंस लें और फीड ठीक कर लें।
कन्या एक साथ इतने जमूरों को देख कर इठलाने लगी। अचानक उसे लगा कि वह कन्या होने के साथ कुंवारी भी है। यह बोध होते ही वह अंगारा हो गयी। शर्म नहीं आती इस तरह की बात करते हुये।आपके घर में पत्नी महिलायें नहीं हैं क्या? अभी -अभी तो बड़ी मुश्किल से प्रपोज किया गया। ये फीड-वीड मैं क्या जानूं रे। दहाड़ सुनते ही सन्नाटा छा गया।
कुछ बोले -घर में पत्नी है तो लेकिन आपकी बात ही अलग है। कुछ बोले मैं इसी लिये तो कुंवारा हूं कि मुझे लग रहा था आप जरूर आयेंगी। चलिये नया घर लिया है,बसा भी लें।
कन्या मोहित हो ही गयी थी तबतक उसे याद आया कि वो तो फुरसतिया को बचाने आयी थी। वह इठलाती हुयी उधर बढ़ी जिधर लुटे-पिटे फुरसातिया बैठे थे।
वह लोगों को डांटते हुये बोली-ये क्या हाल बना दिया है आप लोगों ने इस भले आदमी का तारीफ कर-कर के? आप लोगों में कोई शरीफ आदमी नहीं है क्या? सब बोले -हम सब शरीफ हैं। वो बोली- अरे भाई जो शक्ल से भी शरीफ,जिम्मेदार दिखता हो ऐसा है कोई? लोग बोले है तो लेकिन लंदन गया है दो दिन बाद आयेगा। तब तक तो तुम लोग इसका कबाड़ा कर दोगे। ठीक है मैं ही देखती हूं इसका हाल।
फुरसतिया को अपने तरफ बढ़ती हर पदचाप घंटियां बजा रही थी। पास आने तक तमाम कल्पनाओं की खेती कर ली। लेकिन कन्या ने पास आते ही बिना कुछ कहे उनके मुंह में माइक ठूंस दिया। लगी दनादन सवाल पूछने :-
सवाल:- आपकी इस हालत के लिये आप खुद जिम्मेदार हैं। लेकिन अगर किसी एक आदमी को दोष देना चाहते हों तो किसका नाम लेंगे?
जवाब:- ये पोस्ट देख लीजिये। आपको खुद समझ में आ जायेगा।
सवाल:- ये अतुल कौन हैं।
जवाब:- ब्लागर हैं। पिछली बार सबसे बढ़िया ब्लागर चुने गये हिंदी के।बहुत तेज गाड़ी में चलते हैं।
सवाल:- ये भाई साहब में बड़े काहे जोड़ा है ? क्या इनको पता नहीं भाई साहब का मतलब ही बड़े भाई साहब होता है?
जवाब:- पता है तभी तो जोड़ा है। काहे से कि इनके छोटे भाई का नाम भी अनूप है। दो अनूप के बीच में अतुल फंसे हैं सो गलतफहमी से बचने के लिये लिखा।
सवाल:- ये जीतू ने खुद क्यों नहीं लिखा इसे?
जवाब:- क्योंकि ये सोच रहा था लिखने के लिये। ये लिखने का काम कर पाते हैं या सोचने का । दोनो एक साथ नहीं कर पाते इसलिये नहीं लिखा।
सवाल:-ई स्वामी कौन है?
जवाब: बताया तो है आलसी/नालायक/उत्पाती/शगूफ़ेबाज ।तमाम ब्लागर को पकड़ की तरह रखे है। फिरौती में लेख मांगता है। जोंक है चिपक जाता है तो पीछा नहीं छोड़ता। सारी हरामखोरी चूस लेता है।
सवाल:- ये माला वाला कौन है?
जवाब:- एक सेठ है है। मिर्ची बेंचने वाले खानदान से है। पता नहीं क्या हुआ आजकल चौपाल पर खुशबू फैलाता है।
सवाल:- और ये प्रत्यक्षा,सारिका,शशि सिंह, अनुनाद,तरुण ,रमण और राजेश सिंह?
जवाब:- सब उसी प्रशंशा ब्रिगेड के हल्ला बोल ब्लागर हैं। देख रहीं हैं गरदन विनम्रता से झुकी है सबेरे से। लग रहा है कट गई। इसीलिये कहा गया है कि किसी शेर की गरदन पकड़नी हो तो माला पहना दो।फिर चाहे काट लो सिवा धन्यवाद के कुछ बोल नहीं पायेगा।
सवाल:- लेकिन ये जीतू, स्वामी,आशीष तो कहते हैं कि आपका आशीर्वाद ,स्नेह,कृपा इनके ऊपर है।
जवाब:- अरे ये सब गुंडई करते हैं। जबरियन सब गरदन पकड़ के ले जाते हैं। बताते हैं देखो फुरसतिया जी ने प्रेम से दिया है। इनसे तो प्रेम रखना मजबूरी है नहीं तो ये मारे तारीफ के जिंदा नहीं छोड़ते। आप खुद देख रही हैं हालत मेरी।
सवाल:- आपका जन्मदिन तो १६ सितम्बर को पड़ता है। बधाई १५ को क्यों दी गयी?
जवाब:- अरे आप नहीं समझोगी लंबा चक्कर है।
सवाल:- बतायें तो सही ।
जवाब:- असल में ये जो अतुल हैं न उनकी डा.झटका से कुछ सांठ-गांठ है। उनकी दुकान आजकल ठप्प चल रही है। काहे से कि दूसरे काबिल डाक्टर आ गये जो कि पढ़े-लिखे भी हैं। एक दिन के लिये जहां वो डाक्टर बाहर गये इन्होंने फुरसतिया की नार्मल डिलीवरी की जगह एक दिन पहले सीजेरियन करवा दिया। कुछ हाथ जीतू का भी है। उनका केक सड़ रहा था। सिंधी आदमी अपना माल बरबाद होते देख नहीं सका । इधर अतुल से कहकर प्रिमैच्योर डिलीवरी करा दी। उधर बचा केक सबको बांट दिया यह कहकर कि भारत से अनूप भाई साहब ने भेजा है। दूरी के कारण कुछ महक आ रही है लेकिन मैंने तो आधा खा लिया। बाकी आप लोग खाओ। दिमाग बढ़ेगा। दिमाग के लालच में लोग दिमाग ताक पर रख कर खा रहे हैं।
सवाल:- और ये संगति की गति।
जवाब:- यही है संगति की गति। जैसी संगति वैसी गति।अच्छी संगति,अच्छी गति। शुकुल जी बोले भी हैं-कुसंग का ज्वर भयानक होता है। साधुओं की संगति से तमाम पाप नष्ट हो जाते हैं।
सवाल:-लेकिन गति से तो नकारात्मक बोध होता है। संगति की गति से लगता संगति का यही हश्र होता है।गति ,दुर्गति का बोध कराती है।
जवाब:- अब यह ठाकुर की मति। उसकी यही निष्पत्ति।
सवाल:- लेकिन अनुगूंज की यह गति कैसे? कोई लिख ही नहीं रहा है।
जवाब:- यह भी संगति की गति है। लिखाने वाला खुद कभी लिखेगा नहीं।लोगों को उकसायेगा नहीं। उसके ब्लाग पर टिप्पणी नहीं करेगा। दूसरे के मूड की परख नहीं करेगा तो कैसे लोग लिखेंगे? ब्लागरों के भी नखरे होते हैं। अपने मन से चाहें जो कूड़ा फैलाते रहें लेकिन अनुरोध करने पर कालजयी लिखने का बोध पाल लेते हैं। तमाम झांसे देने पड़ते हैं लोगों को । झूठ बोलना पड़ता है -आपके लेख के बिना सब कुछ सूना है। पचास छल-छंद करने पर लिखते हैं लोग लेख। इसे हर वह जानता है जिसने आयोजन किया है अनुगूंज का। संगति की गति पर लेख लिखना अलग बात है।उसका गणित बहुत जटिल है। संगति को ,अच्छी या बुरी, बनाना आसान होता है। निभाना कठिन होता है।
सवाल:-आपके लिखे को लोग बहुत पसंद करते हैं। ऐसी क्या खास बात है आपके लिखने में?
जवाब:- बात हमारे लिखने में नहीं लोगों के पढ़ने में है। कुछ लोग तो समझ के हंसते हैं। ज्यादातर लोग देखा-देखी हंसते हैं। जो देखा-देखी हंसते हैं वे समझ में आने पर दुबारा हंसते हैं। समझदार लोग यह देखकर हंसते हैं। इसी गफलत में लोग हंसते रहते हैं । दुनिया समझती है कि हमारा लिखा पढ़के लोग हंस रहे हैं। मैं यही सब सोच के हंसता हूं । समझदार और कम समझदार के बीच की हंसा-हसौव्वल ही शायद संगति की गति है।
सवाल:- क्या आप अपने समझदार और कम समझदार पाठकों में भेद कर पाते हैं।
जवाब:- इसको पहचानने का कोई साफ्टवेयर अभी नहीं बना।समझदार और कम समझदार पाठक को अलग करना कूडे़ में से काम का कूड़ा तलासना होता है। मैं तो मानता हूं कि मेरे सारे पाठक कम से कम मेरे से तो ज्यादा समझदार हैं जो कि मेरे उस लिखे को पढ़कर भी हंसने का बहाना तलाश लेते हैं जिसको पढ़कर अक्सर मूझे रोना आता है।
सवाल:- आप ये लेखकीय लटके-झटके क्यों फेकने लगे? सारा माहौल भारी कर रहे हैं।क्यारोने का मनकर रहा है।
जवाब:- देवी ,शायद यही (आपकी )संगति की गति है।
सवाल:- तुम बड़े ‘नाटी’ हो। फिलहाल मैं चलती हूं। मैं भी लिखूंगी चिट्ठा । कैसे लिखते हैं? पूछूंगी बाद में।टिल देन ,बाय!टेक केयर।
कन्या अपने सारे लटके-झटके अपने जुगराफिये में समेट कर विदेशी मुद्रा की तरह मटकती हुयी चली जा रही थी। जन्मदिन की सारी कीर्तन मंडली कन्या के पीछे हिंदी में चिट्ठा लिखने की तरकीबों के लिंक दिखाते हुये साथ-साथ सटते हुये चलने की कोशिश करते हुये अपने-अपने पन्ने पर लिखने का अनुरोध कर रहे थी।
कल तक चहल-पहल में घिरे में फुरसतिया अपने लैपटाप पर अकेले बैठे खुटुर-खुटुर कर रहे थे।
शायद संगति की यही गति है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

10 responses to “संगति की गति”

  1. Vinay
    आप अगले महीने फिर जन्मदिन मनाने और एक ऐसा ही इंटर्व्यू देने का वादा करें तो कौवी माने कन्या को फिर बुला लेते हैं. क्या कहते हैं?
  2. आशीष
    अनुप भैया
    वो कन्या हमारी ओर आ रही थी, पूरी चिठ्ठाकार बिरादरी मै इकलौता काबिल क्वांरा हुं. , नया नया घर भी लिया है, आपने हमसे वो मौका क्यों छीन लिया ? :-(
    अगली बार वो कन्या नजर आ जाये, आप URL हमारी ओर redirect कर दिजिए.
    आशीष
  3. भोला नाथ उपाध्याय
    भाई साहब,
    जन्म दिन की शुभकामनाएं (क्षमा चाहता हूं ट्यूब लाइट की तरह मेरा दिमाग देर में चलता है)| लेख पढ कर बस मज़ा आ गया इतना ही कहूँगा कि “ये दिल माँगें मोर”|
  4. k.p.gairola
    फुरसतिया जी लेकिन यह तो बताओ कि १७ ता. को विश्वकर्मा जयन्ती के अवसर पर तुम्हारे साथ कौन सी कौवी थी?
  5. जीतू
    फ़ुरसतिया के लेख तो सुपर रिन की जमकार होते है, सबको धो डालते है.
    लगे रहो मियाँ……….
    लेकिन ये तो बताओ, इस लेख मे संगति तो थी नही, और गति का क्या हुआ? हम तो अभी भी कन्फ़्यूजिया रहा हूँ, का लिखूँ, कैसे लिखूँ. कही बेलगाम लिख डाला तो शायद आर्गेनाइजर की समझ मे ही ना आये.
  6. फ़ुरसतिया
    गैरोलाजी,आप लेख फिर से पढेँ.’हुकअप’ का जमाना है आज.आपका चलन पुराना हो गया जब आपने चंद नामों की यादें सहेजकर जीवन बिता दिया. कौन था साथ मेँ यह जानने का जमाना बीत गया.यहां तो रात गई बात गई.लेख पढने की अच्छी आदत शुरु करने के लिये बधाई.जीतू,लेख तो लिख ही दिये बढिया.बधाई.
  7. anitakumar
    हम हंस रहे हैं देखा देखी अब आप ही सोच लो समझदार हैं कि कम समझदार्…ही ही ही
  8. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 9.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन) 10.संगति की गति 11.आओ बैठें ,कुछ देर साथ में 12.राजेश [...]
  9. वन्दना अवस्थी दुबे
    “…………………….. तुम्हारा पंजा मांगता हूं।”
    कमाल का कल्पना लोक है आपका! और अनूठी वाक्य-सृजन क्षमता. आपको पढते हुए मुझे हमेशा लगता है कि यदि आप कहानियां लिखें, तो वे बेजो़ड़ साबित हो सकती हैं.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..नंदन जी के नहीं होने का अर्थMy ComLuv Profile

Thursday, September 15, 2005

हम तो बांस हैं-जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे

आज हिंदी दिवस था .उसका उपहार हमें यह मिला कि पता चला कि किसी ने हमारी जमीन पर अपना तम्बू गाड़ लिया है. चिट्ठाचर्चा जिसे हमने बड़े मन से शुरु किया था उस पर किन बचकानी हरकतों या गफलतों के कारण ऐसा हुआ मैं इस विवरण में नहीं जाना चाहता.न उसकी जरूरत समझता हूं.खाली नाम उडा़ने से लिखना होता होता तो सारे उठाईगीर लेखक/ कवि होते. तम्बू जिसने भी गाडा़ हो लेकिन यह सच है कि किसी भी तम्बू के लिये बम्बू(बांस) की दरकार होती है.बम्बू तो बिना किसी तम्बू के गड़ सकता है लेकिन कोई भी तम्बू बिना बम्बू के नहीं खडा़ हो सकता.

इसी क्रम में याद आ रही है अपने शाहजहांपुर के साथी राजेश्वर दयाल पाठक की कविता जो हमारी बात कहती है:-

हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे.

हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.

बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे.

जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे.

हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे.


तो भइया, हमें जब लिखना होगा तो किसी खास ब्लागनाम के तंबू की दरकार नहीं होगी.हम तो बांस हैं,जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.

हिंदी दिवस के अवसर पर हमारे यहां कविसम्मेलन भी हुआ.तमाम कवियों ने कवितायें पढ़ीं.एक साथी जय नारायन सक्सेना ने जो कविता पढ़ी़ वो काफ़ी पसंद की गयी.कविता यहां जस की तस प्रस्तुत है:-

तन खा कर तनखा मिलती है,तनखा को तन खा जाता है,
तनखा जब कर में आती है,तन खा से मन अन खा जाता है.

तनखा के मिलने से पहले,अधिकार आरक्षित होते हैं,
कर्तव्य आहें भरता है,आश्वास्सन बाधित होते हैं .

तनखा के कर में आते ही,मांगों की पुकारें आती हैं,
मांग न हो पातीं पूरी,पुकारें तन खा जाती हैं .

तनखा वह श्रम की खेती है,सीमित बोऒ सीमित काटो,
इस मासिक फसल के कटते ही,प्रसाद सा सबको बांटो.

नववर्ष की पावन बेला पर,पत्नी ने की कुछ फरमाइस,
चलो पिया तुम हमें दिखा दो,फूलबाग में लगी नुमाइश.

जब से बजट हुआ है घोषित,कभी न की कोई फरमाइस,
कल शादी की वर्षगांठ है,करो पिया तुम पूरी ख्वाइस .

राजदूत से जाना होगा,मेघदूत में खाना होगा ,
प्रेमनगर का पान चबाकर,प्रेमदूत बन जाना होगा.

पेंग बढ़ाकर झूले होंगे, आसमान को छूते होंगे,
ऊंचा वाला झूला झूलेंगे,क्षण भर को दुखड़े भूलेंगे.

कुआं मौत का देखेंगे हम,उड़ता हुआ धुआं देखेंगे,
चारो ओर हों खेल तमाशे,बैठ खायेंगे चाट-बतासे.

पंजाबी एक सूट सिला दो,हाई हील का बूट दिला दो,
जयपुर वाला लंहगा ले दो,सस्ता नहीं कुछ मंहगा ले दो.

पप्पू की जिद पूरी कर दो,ले दो,दो पहिये की गाड़ी,
कब से आस लगाये हूं मैं,पिया दिला दो सिल्क की साड़ी.

कल शादी की वर्षगांठ पर,मुझको क्या दोगे उपहार,
या फिर मुझको बहला दोगे,डाल गले में बाहों का हार.

बन्द करो अपनी फरमाइस,ना जाना है हमें नुमाइस,
जितनी पूरी करते आओ,उतना बढ़ती जाती ख्वाइस.

नयावर्ष हैं वही मनाते,जिनका साल गया उन जैसा,
वर्षगांठ हैं वही मनाते ,जिनकी गांठ में होता पैसा.

अपनी तो है श्वेत कमाई,दो नंबरी मत बात करो तुम,
चादर से मत पैर निकालो,आडंबर की मत बात करो तुम.

लक्ष्मण रेखा सी बंधी हुई, है मेरी तनखा सीता .
मत आमंत्रण दो मंहगे रावण को,अपहृत हो जायेगी सीता.

प्यार भाव वाचक संज्ञा है,एहसासों की पावन गंगा है,
मत आंको इसे उपहारों से,दूषित होगी मनभावन गंगा है.

मेरे पास न सोना-चांदी,न है धन खान रतन ,
मैं तो केवल प्रेम पुजारी,अर्पित तुझ पर निर्मल मन.

कोई भौतिक चाह नहीं है,न मन में कोई और लगन,
बस यही कामना ईश्वर से,साथ रहें हम जनम-जनम.

अंतिम बात तुम्हें समझाता,ओ मेरे दिन की रानी ,
याद रखो तुम'जय'की बानी,उतना उतरो जितना पानी.


इसमें फूलबाग,मेघदूत,प्रेमनगर आदि कानपुर की जगहों मोहल्लों के नाम हैं.

यह पोस्ट खासतौर से भोलानाथ उपाध्याय के लिये बतौर इनाम लिखी जा रही है.

Wednesday, September 14, 2005

आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन)

http://web.archive.org/web/20110101191715/http://hindini.com/fursatiya/archives/48


जिन भोलानाथ उपाध्याय को इनाम देने के लिये खासतौर से ये संस्मरण टाइप किये मैंने वे इन संस्मरणॊं के पप्पू हैं। उन्होंने संस्मरण के पहले दो भाग पढ़े । मैंने उनको जीमेल का सदस्य बनाने के बाद की सूचनार्थ आयी मेल के जवाब में पूछा -इनाम कैसा लगा भोला भाई? भोला भाई का जवाब अभी-अभी मिला-
भाई साहब,
मैनें तो ईनाम मांगा था आपने तो कौन बनेगा करोड़पति के अंतिम पड़ाव पर पहुंचा दिया । अकल्पनीय खुशी हुई है प्रस्तुति देख कर । शायद अगले कुछ अंक बेचैनी भरे भी होंगे क्योंकि जिस दर्द को बरसों पहले जिया था और भुला दिया था वह एक बारगी पुनः जीवित हो उठा है । पर आज के परिवेश में उन लम्हों को पुनः जीना शायद कुछ बेहतर करने की प्रेरणा दे जाय । भैया को पुनः लेखन के लिये प्रेरित करने के लिये कोटिशः धन्यवाद ।
—-पप्पू—–
बेचैनी से जिन अंकों की भोला भाई प्रतीक्षा कर रहे हैं मैं उनको तुरंत पोस्ट कर रहा हूं। बचपन के मीत श्रंखला के संस्मरणों की उनकी यह अंतिम कडी़ है । दूसरे पहलुओं पर वे लिख रहे हैं जो जल्दी ही सामने आयेगा]

किस्सा तोता मैना बनाम चरवाहों की लंठई

मैं अब चरवाहा बन गया था। कोइली व उसके पड़वे को सुबह-शाम चराने ले जाने में अलौकिक सुख प्राप्त होता। चरवाहों में हर उम्र के लोग थे । आज सैंतीस वर्ष बाद मुझे सिर्फ दो लोगों के नाम ही याद हैं। एक तो महातम भइया दूसरे परानपत काका। परानपत काका की उम्र पचास साल के लगभग रही होगी, लेकिन बीमारी ने उन्हें काफी जर्जर बना दिया था। भैंस भी उनकी उतनी ही जर्जर थी। उनको वायु रोग हो था और हर दस-पन्द्रह मिनट पर जांघ उठाकर मुंह बनाकर गैस छोड़ते -धड़ाम। सच पूछो तो वे चरवाहों की टोली के चरते-फिरते बम थे। शुरु में मुझे बहुत हंसी आती फिर सब सामान्य हो गया।
महातम भइया उन चरवाहों के सरगना थे तो परानपत काका मंत्री। बीस भैंसों व आठ चरवाहों वाले इस झुंड की न तो कोई जाति-पांत थी न ही कोई धर्म। जब तक वे भैंसों के साथ थे सिर्फ चरवाहे थे। महातम भइया के अतिरिक्त मैं ही था जिसने रेल या बस से यात्रा की थी। बाकी सब लोग गांव व उसके आसपास से ज्यादा की जानकारी नहीं रखते थे। मैं महातम भइया का छोटा भाई था और उस मंडली का सबसे योग्य व्यक्ति । महातम भइया के अनुसार,”पढ़ाओ न लिखाओ,शहर में बसाओ।”
मैं शहर से आया था। भोजपुरी की जगह खड़ी बोली बोलता था। धोती या गमछा की जगह हाफ पैंट पहनता था। सिर पर गमकउआ तेल लगाता था।मैं भी शहर के उल्टे-सीधे किस्से उन्हें सुनाने लगा जिनका कोई सिर पैर न होता और जो मेरी कल्पना की उपज होते। जब वो उत्सुकता में ज्यादा सवाल पूछते तो मैं महातम भइया की तरफ देखता और वे घुड़क देते,”अबे ससुरे,जब तुमही लोग सब समझ जाओगे तो भैंसवा कौन चरायेगा!”
महातम भइया अब मेरे लिये संसार के सबसे ज्ञानी गुरु थे। उनके पास ज्ञान का भंडार था। उन्होंने हाथी का दुर्लभ अंडा देखा था। हाथी को अंडा देते देखा व उस अंडे से बाद में बच्चा निकलते देखा। उन्होंने इमली वाली काली मैया के भी साक्षात दर्शन किये थे। वे अयोध्या जी भी गये थे। गोरखपुर तक ट्रेन से फिर बस से।महातम भैया बताते,”जब तक आदमी अजोध्याजी के दर्शन नहीं कर लेता तबतक उसका मानुस जीवन सफल नहीं होता। ना ही सुरग (स्वर्ग)में जगह मिलती है।
महातम भइया अब मेरे लिये संसार के सबसे ज्ञानी गुरु थे। उनके पास ज्ञान का भंडार था।
इस हिसाब से उनकी सीट स्वर्ग में पक्की थी। वो तीन बार अयोध्याजी हो आये थे और अब चौथी बार जाने का जुगाड़ कर रहे थे। अयोध्याजी में सरजू नदी में स्नाना करके पापी से पापी आदमी का पाप धुल जाता है। मैंने निश्चय किया कि जब कभी मेरा जुगाड़ लगेगा तो मैं भी अयोध्या जी जाऊंगा।
महातम भइया के पास किसी पुरैनी के मेले का भी एक किस्सा था।जहां उन्होंने पहली बार रसगुल्ला खाया था। बकौल महातम भइया,”क्या रसगुल्ला था भयवा कि बस पूछ मत।चार ठो में ही दोना भर गया।खूब बड़े-बड़े…छिलका इतना पतला कि मलमल जैसा और बीजा बस मकईके दाने जैसा। छीलते जाओ और गटकते जाओ। बहुत बड़े पेटू हुये तो भी चार ठो में ही अघा जाओगे।नटई (गले)तक आ जायेगा रसगुल्ला।
भैंस चराना भले आज निकृष्ट कार्य लगे पर आसान यह तब भी नहीं था और आज भी नहीं है।
परानपत काका और महातम भइया को देश-दुनिया के बारे में भले कोई जानकारी न हो लेकिन भैंसों के बारे में पी.एच.डी. हासिल थी। भैंस कब गाभिन होगी, कब बियायेगी ,पड़वा या पड़िया के पैदा होने होने की भविष्य वाणी भी शतप्रतिशत सही होती थी। किसी के आम के बगीचे में चलते-चलाते आम तोड़ लेना। मकई के रखवाले की आंखों में धूल झोंक कर भुट्टा तोड़कर एक हुनर था। भैंस के ऊपर बैठे-बैठे गन्ना चूसना और साथ में यह ध्यान रखना कि भैंस सिर्फ दो खेतों के बीच बनी मेड़ों पर ही घास चरे। यह भी एक कला थी। भैंस चराना भले आज निकृष्ट कार्य लगे पर आसान यह तब भी नहीं था और आज भी नहीं है।
वास्तव में हर श्रम एक कला होती है जिसका अहसास उससे जुड़ने पर ही हो पाता है।
भैंस चराते हुये मुझे कई रहस्यमयी जानकारियां मिलीं। गांव के दक्खिन में दो महुए के विशाल पेड़ थे। उसमें दो सगी चुड़ैल बहनें रहा करती थीं और वो पूर्णमासी की रात को बउली(पोखरी) में स्नान कर नंगी ही नाचती थीं -रातभर। पकड़ी का लगभग सूखता पेड़ था। उस पेड़ पर सिरकटहा भूत था जो दिन दुपहरिया कई लोगों को पटक चुका था। अकेले पा जाता तो कुश्ती के लिये ललकारता …

शहर को वापसी/लौट के बुद्धू….

चार महीने में ही मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो चुका था। जैसे कोई परी आयी और अपनी तिलस्मी छड़ी से छोटे से राजकुमार को जवान बना दिया। पर यथार्थ की दुनिया में मेरे लिये वो सारी जानकारियां वीभत्स थीं। मुझे उसी चरवाहों की पाठशाला में स्त्री-पुरुष संबंध की जानकारी मिली। स्त्री के गर्भ धारण का इतिहास तथा बिना औरत के भी स्त्री सुख प्राप्त करने की कला के बारे में भी इन्हीं चरवाहों ने बताया।
पिताजी का आगमन हुआ। मां ने मेरे भविष्य के लिये चिंता जताई। गांव में रहकर मैं सिर्फ आवारा बन सकता था। पिता को मेरे लिये देखे स्वप्न बिखरते नजर आये- और यह सच भी था। मैं ठेठ, जाहिल और अभद्र चरवाहा बन गया था। कोइली को बउली ले जाकर रगड़-रगड़कर नहलाना। उसके दुहाने का प्रबंध करना। फिर फेने वाला एक गिलास दूध पीना। बहन-भाई ही नहीं, मां पर भी, रोब झाड़ना। किसी भी बात की परवाह न करना। मेरे भविष्य में सिर्फ अंधकार ही अंधकार था। अंत में पिताजी ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये- मुझे अपने पास रखेंगे , कोइली को बेंच देंगे।
मैं शहर आ गया और फिर कोइली से कभी नहीं मिला।
पिताजी मुस्कराना नहीं जानते थे। लोहा छीलते-छीलते उनका दिल भी लोहे का हो गया था। मैं हमेशा उनके सामने सहमा-सहमा सा रहता था। मेरा मन एक लम्बेसमय तक उदास रहा। पढ़ाई में कभी मन नहीं लगा। खुले आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दिया गया ।
पिताजी मुस्कराना नहीं जानते थे। लोहा छीलते-छीलते उनका दिल भी लोहे का हो गया था। मैं हमेशा उनके सामने सहमा-सहमा सा रहता था।
मैं आज भी उस पिंजड़े में ही कैद हूं। गांव में अब सड़क भी है,बिजली भी है,भैंसे भी हैं,महातम भैया भी हैं। वो सत्तर के आसपास के हो गये हैं। अब भैंसे नहीं चराते। मेरी अब गांव जाने की इच्छा नहीं होती।
गुलाम अली की इस गजल के साथ जिंदगी के इन आवारा पन्नों को फिलहाल यहीं छोड़ता हूं:-
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया,
इसका रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम है बहुत देर में बरबाद किया।

गोविंद उपाध्याय

16 responses to “आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन)”

  1. भोला नाथ उपाध्याय (पप्पू)
    भाई साहब,
    हिन्दी के उत्थान के लिये जो अथक प्रयास आप कर रहे हैं वह जरूर रंग लायेगा | इंटरनेट पर हिन्दी “चिट्ठों” के इतिहास में आपका प्रयास स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा, यह तो निश्चित है| वैसे एक बात जरूर कहना चाहूँगा कि जिस मर्मिक ढंग से प्रथम किस्त की शुरुआत हुई थी अन्त कुछ हल्का रहा | सिलसिला कुछ और आगे बढ्ना चहिए | वैसे प्रसंशक तो मै हूँ ही आपका लेकिन अब लती बनाते जा रहें है मुझे “चिट्ठों” का |
  2. Atul
    मुझे लगता है आवारा पन्ने मे गोविंद जी ने बचपन की कहानी उड़ेल दी है। शायद इससे ज्यादा और कुछ जोड़ने लायक न समझा होगा उन्होनें। पर आवारा पन्ने को न हम पूरी आत्मकथा मानकर संतुष्ट होंगे न ही अन्य पाठक। सबको गोंविद जी की लेखनी का इंतजार रहेगा। अब जब गोविंद जी मैदान में आ ही गये हैं तो विधिवत उनका भी ब्लाग बन ही जाना चाहिए। वैसे तो अनूप जी को ब्लागर के सारे अवयव पता है पर फिर भी किसी सहयोग की आवश्यकता हो तो हम सब “बस एक मेल की दूरी” पर ही हैं।
  3. eswami
    भोला भाई,
    आपकी ब्लाग खोली ( कोईली ) तैयार हो गई समझिये!
    ये होगा आपका नया पता – कोइली
    आप बस ऐसे ही महुआ पिलाते रहेंगे वादा करना होगा बस्स.
    कैसे प्रयोग करना है वो अनूप भाई बता देंगे. तब तक मै इसका रंग रोगन ठीक कर के आपके रहने लायक कर देता हूं!
    और अनूप जी को कोई भी धन्यवाद नहीं बल्की शिकायत की ये सब पोस्ट करने का काम पहले क्यों नही किया गया?
  4. भोला नाथ उपाध्याय
    फुरसतिया भाई साहब,
    यह तुच्छ प्राणी शायद अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाया । असल में मेरी टिप्पणी रचना की गुणॅवत्ता को लेकर नहीं थी । मेरे विचार (और भी शायद इससे सहमत हों) से जिस तरह से संस्मरण की शुरुआत हुई थी उससे लगता था कि यह काफी बृहद होगी । पर यह बीच में ही ऐसे खतम हो गई जैसे कोई जोरदार फुलझडी खत्म होने से पहले ही अचानक बुझ गयी हो । उम्मीद है जिस तरह से हम फुलझडी में दुबारा सुलगा लेते हैं वैसे ही सिलसिला पुनः चमक उठेगा ।
    स्वामी जी, “कोइली” का निर्माण स्थल देखा । निर्माण कार्य के लिये साधुवाद । दरवाजे पर एक तस्वीर भी लगा दिजियेगा “कोइली” का ।
  5. आशिष
    अच्छा लगा पढकर !मन को गहरे से छु गया यह लेख. आशा है कि आगे और भी काफी कुछ पढने मिलेगा. मेरा बचपन भी एक ऐसे ही पिछडे गाँव मे बिता है.बचपन की याद ताजा हो गयी.
    आशीष
  6. Tarun
    Shuru se lekar is ank tak parke lekh man ko gehrai tak kahin chu gaya, Aasha hai aage bhi kaafi kuch parne ko milega.
    Atul bahi ‘Ek mail ki duri’ wali line kahe ko chura li….Jeetu bhai ab kya likhenege ;)
  7. Tarun
    anup bhai ko janamdin ki bahut bahut shubkaamnayen, sirf lekh hi nahi enke to comment bhi majedaar hote hain…me to itna hi kahoonga ki fursatiya ko fursat me hi parne ka asli maja hai kyonki tab aap baar baar par sakte hain.
  8. Atul
    चाहे “एक मेल की दूरी हो” चाहे “माले मुफ्त दिले बेरहम”, मेरे हिसाब से यह सारे वाक्यांश चिठ्ठा जगत की सामूहिक थाती है। कारण मेरा पन्ना पर कोई भी कॉपिराईट नोटिस नही चस्पां है। क्या कहते हो जीतू भाई?
  9. फुरसतिया » अपनी फोटो भेजिये न!
    [...] हमारे कुछ फरमाइशी पाठक भी हैं। इनमें सबसे पहले आये भोला नाथ उपाध्याय। वे चुपचाप हमारे लेख पढ़ते रहे। एक लेख में गलती पकड़ लिये तो टिपियाये और अपने बारे में बताये। हमने अपने सजग पाठक की सजगता का इनाम दिया और उनके भैया गोविन्द उपाध्याय के लगातार तीन संस्मरण उनको पढ़वाये। गोविंद जी सालों पहले अपने लिखना-पढ़ना छोड़ चुके थे लेकिन हमारी संगति में वे फिर से इस जंजाल में आ फंसे। अब हालत यह है कि महीने में चार-पांच कहानियां घसीट देते हैं। बाकायदा चार्ट बना रखा है कि कौन कहानी कहां भेजी,कहां से वापस आयी, किस अंक में कौन सी छप रही है। इसे मैं अपने ब्लागिंग की एक उपल्ब्धि मानता हूं कि इसके चलते एक स्थापित कहानीकार में दुबारा लिखने की ललक जगी। [...]
  10. anita kumar
    फ़ुरसतिया जी
    आप का धन्यवाद कि आप ने हमें गोविंद जी के दर्शन करा दिये। हम शहर में रहने वाले गांव के बारे में कुछ कम ही जानकारी रख्ते हैं। सिर्फ़ फ़िल्मों से वो जानकारी आती है,और वो तो पूर्णरुपेन सही हो ही नही सकती। गांव की जिन्दगी की इतनी सजीव प्रस्तुती के लिए धन्यवाद गोविंद जी को भी
  11. फुरसतिया » रद्दी
    [...] लोटा पाड़े का चरित्र भी बेजोड़ था । पांच फुटिया गोल मटोल से ..रंग पीली गोराई वाला. ..सिर के आगे के बाल उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते साथ छोड़ चुके थें । लगातार सुर्ती के सेवन ने दांतो को अनुशासन हीन बना दिया था, वे गंदे व कमजोर हो चुके थे । उपर व नीचे के दो-दो दांत भाग चुके थें । शेष दांतो की विश्वासनियता पर भी संदेह था ..न जाने कब साथ छोड़ दें । पाड़े जी के पास एक तांबे का लोटा था । वह लोटा क्या था उनके पूर्वजों के सम्मान का प्रतीक था । यह लोटा गांव से चलते समय अपने साथ लाये थें । कभी वह बहुत भारी रहा होगा लेकिन आज समय की मार ने उसे बेढंगा बना दिया है । मिल में चाय टाइम के समय पाड़े का लोटा चाय वाले के सामने सबसे पहले आ जाता । पूरे चार कप चाय लेते थें पाड़े महराज । जब कभी बहुरिया के हाथ के खाने से उबिया जाते तो इसी लोटवे में दो मुठ्ठी चावल डाल कर डभका लेते । कोई टोकता, “ का हो पाड़े जी आज बहुरिया से फिर झगड़ आये हैं का..” सशक्त युवा कथाकार गोविंद उपाध्याय का जन्म ५ अगस्त, १९६० को हुआ। देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी लगभग १५० रचनायें प्रकाशित हुई हैं, कथा संग्रह “पंखहीन” शीघ्र प्रकाश्य। जाल पर आप उनकी कथायें यहाँ , यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। सम्प्रति- आयुध निर्माणी में कार्यरत हैं। [...]
  12. मैं कृष्ण बिहारी को नहीं जानता
    [...] के पन्ने आप चाहें तो यहां , यहां और यहां पढ़ सकते हैं। [...]
  13. Sokoloff
    Да уж… Тут как в поговорке: Апрель с водой, а май с травой :)
  14. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] से(भाग दो) – गोविंद उपाध्याय 9.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन) 10.संगति की गति 11.आओ बैठें ,कुछ देर साथ