Monday, December 19, 2005

जाग तुझको दूर जाना!

http://web.archive.org/web/20110101192826/http://hindini.com/fursatiya/archives/91

[जैसारविरतलामीजी नेआग्रह किया हम हर हफ्ते कम से कम एक पोस्ट अपनी यायावरी के किस्से की लिखने का प्रयास कर रहे हैं- सोमवार को । इसके अलावा अनाम जी का आग्रह है कि प्रतिदिन लिखा जाय तो प्रतिदिन लिखना थोडा़ मुश्किल सा है। हमारे और पाठक दोनों के प्रति अनाचार होगा। हम नहीं चाहते कि जितने लोग अभी पढ़ने के लिये लालायित हैं उससे ज्यादा लोग इसे बंद करने के लिये चिल्लाने लगें। फिलहाल आइये आगे की कहानी सुनायी जाये।]

रवि,अनूप,फ़िराक,अवस्थी,आजाद,गोलानी,धावला
रवि,अनूप,फ़िराक,अवस्थी, आजाद,गोलानी,धावला
प्रतापगढ़ ५० किमी की दूरी पर है इलाहाबाद से। यह सोचा गया कि आने-जाने में १०० किमी हो जायेंगे। पता नहीं था उन दिनों कि राजा भइया प्रतापगढ़ के भइया हैं नहीं तो उनसे भी चंदा वसूल लाते।

प्रतापगढ़ यात्रा तय होने के बाद हमने एक दिन किराये की साइकिलें ली तथा पैडलियाते हुये फाफामऊ का पुल पार गये- प्रतापगढ़ की लिये।
हम तीन लोगों के अलावा संजय चांदवानी तथा बिनोद गुप्ता भी साथ में थे।

रास्ते में कोई परेशानी नहीं आई। कुछ देर हम हंसी-मजाक करते हुये साथ-साथ चलते रहे। फिर आगे-पीछे होते गये। जहां चाय की दुकान दिखी वहां ‘मस्ती ब्रेक’ लिया गया। हम आराम से प्रतापगढ़ पहुंच गये। पहुंचने में करीब चार घंटे लगे।

प्रतापगढ़ को कुंडा के नाम से जाना जाता है। उन दिनों पता नहीं था कि यहां का राजा भी है तथा उसका महल भी है वर्ना शायद महल,तालाब देखकर आते।

चाय-चौपाल
चाय-चौपाल
हम कुछ ही देर रहे प्रतापगढ़ में । चाय-नास्ता करके तुरंत वापस लौट आये।लौटते समय कुछ गर्मी तथा कुछ पानी की कमी के कारण कुछ साथियों को उल्टी हुयी। लेकिन बिना किसी खास यादगार परेशानी के हम सकुशल वापस हास्टल लौट आये।

जैसे-जैसे शाम होने लगी , पांव-भारी तथा बकौल स्वामीजी पिछाड़ी-पस्त होने लगी।लेकिन १०० किमी की सफल यात्रा के अहसास ने सारे दर्द को डांट के चुप करा दिया।


होते-करते समय सरकता रहा। हमारी तैयारियां चलती रहीं। परीक्षायें भी होती रहीं।

पैसा काम भर का हो गया था। उन दिनों एटीएम का चलन तो था नहीं लिहाजा हमने कुछ पैसे नकद लेकर बाकी के ट्रैवेलर्स चेक बनवा लिये थे।

जून के महीने में कुछ ही दिन बचे थे जब परीक्षायें समाप्त हो गईं। सारे दोस्त लोग अपने-अपने घर जाने लगे। जो जाता वो मिलता और अपना ख्याल रखने की बात कहकर शुभकामनायें थमा कर चला जाता।
कुछ दोस्तों को समझ में नहीं आया कि क्या कहें । वे भावुक होते गये तथा हमें भी भावुकता के पाले में घसीट लिया लेकिन हम बहुत जल्द इसके आदी हो गये। कुछ लोगों ने हमसे ऐसे बिदा ली कि मानों हम महाप्रयाण पर जाने वाले थे।

हालांकि हमारे आसपास न तितिलियां थीं न मोम के बंधन लेकिन हम उन दिनो अक्सर महादेवी वर्मा जी की पंक्तियां दोहराते थे:-

बांध लेंगे क्या तुझे
ये मोम बंधन सजीले,
पंथ की बाधा बनेंगे
तितलियों के पर रंगीले,
तू न अपनी छांह को
अपने लिये कारा बनाना

जाग तुझको दूर जाना!

संजय अग्रवाल,गोलानी,विनय अवस्थी
संजय अग्रवाल,दिलीप गोलानी,विनय अवस्थी
हमारे कुछ दोस्त जो समझदारी के लिये भी बदनाम थे वे भी अपना चरित्र बदल कर भावुकता की गोद में दुबके रहे काफी देर। संजय अग्रवाल भी इनमें से एक थे।संजय ,अवस्थी के लिये खासतौर से परेशान थे। कह रहे थे- जहां ज्यादा परेशानी दिखे वहां से लौट आना। तुम्हें बहादुरी का खिताब मिल ही गया है।

कुछ दोस्तों ने अपने घर के किराये के पैसे बचा के बाकी सारे पैसे हमें थमा दिये-चुपचाप। यह पैसे उसके अलावा थे जो वे पहले ही हमें चंदा अभियान के दौरान दे चुके थे।उनकी चुप्पी में दाता का अभिमान तो कहीं नहीं था वरन् और अधिक सहयोग न कर पाने का संकोच था।

ऐसे ही तमाम अनुभव आगे भी,यात्रा के दौरान हुये। ये अनुभव इतने गहरे धंसे हैं मन में कि लाख बुराइयों के वावजूद अच्छाईंयों पर भरोसा साला अइसा हो गया है कि हिल के नहीं देता।

हास्टल से मेन गेट का रास्ता
हास्टल से मेन गेट का रास्ता
देखते-देखते जून का महीना भी विदा हो गया। १ जुलाई को सबेरे हमें यात्रा पर निकलना था। सारे साथ के दोस्त घर जा चुके थे। हम हास्टल में अकेले थे। साथ में केवल अंतिम वर्ष वाले सीनियर बचे थे। फिराक साहब ,राकेश आजाद,त्रिनाथ धावला भी उनमें से थे। राकेश आजाद मुंबई के रहने वाले थे। हमें लौटते में उनके घर रुकना था मुंबई में।


इस बीच दिलीप गोलानी अपने घर कानपुर जाकर घर वालों से मिल भी आये थे। हमने सोचा कि सारी मिला-भेटी लौटकर ही करेंगे।

३० जून को हम हिंदी दैनिक अमृत प्रभात तथा अंग्रेजी अखबार नार्दन इंडिया पत्रिका के दफ्तर में जाकर अपने अभियान की खबर दे आये। एक कालम का यह संक्षिप्त समाचार बहुत दिनों तक हमारे पास रहा।

३० जून की रात को देर तक हम बतियाते रहे। फिर भी १ जुलाई को हम सबेरे जल्दी उठ गये। यात्रा पर निकलने का उत्साह चरम पर था।मेस खुली नहीं था उस समय तक। हम चाय की दुकान पर ही नाश्ता करके कालेज के मेन गेट की तरफ बढ़े। हमारी विंग में रहने वाले चारो सीनियर साथ में थे। वे हमें गेट तक छोड़ने आये।कालेज के कुछ अध्यापक भी साथ थे।

प्रस्थान स्थल
यहीं से शुरु की आवारगी हमने
हम लोग चलने के पहले की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान कर ही रहे थे कि फाफामऊ पुल की तरफ से एक कार तेजी से आकर हमारे बगल में रुक गई। कार में से वृद्ध दम्पति बाहर निकले तथा हमको आशीर्वाद दिया व कुछ रुपये भी दिये राह खर्च के लिये दिये। हम उनकोजानते नहीं थे। वे भी अखबार में छपी खबर पढ़कर ही आये थे।वे तुरन्त जिस तरह आये थे उसी तरह तेजी से तीर की तरह चले गये।

हमारे बीच से किसी ने ठहाकों के बीच कहा-यह तो तय हो गया कि यायावर भूखे नहीं मरेंगे।

इन्हीं ठहाकों के बीच हमने साइकिल के पैडल पर पैर रखे तथा शेरशाह सूरी राजमार्ग संख्या २ बनारस की तरफ चल पड़े।सामने से ट्रक जा रहे थे। एक पर लिखा था:-

मुसाफिर हैं हम भी मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।


मेरी पसंद

पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।

पुस्तकों में है नहीं
छापी गयी इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी,
अनगिनत राही गये इस
राह से ,उनका पता क्या,
पर गये कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ ,पंथी,
पंथ का अनुमान कर ले।

पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा,
व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव,छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा या कि समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी, यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने
चित का अवधान कर ले।

पूर्व चलने के ,बटोही
बाट की पहचान कर ले।
-हरिवंशराय बच्चन

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “जाग तुझको दूर जाना!”

  1. प्रत्यक्षा
    बटोहियों की तस्वीर अच्छी लगी।लेख भी।
  2. आशीष
    अनुप भैया की साईकिल चली पम पम….
    बाजु……
    बाबु समझो इशारे फौरन पूकारे पम पम पम…..
    यहां चलती को ‘साइकिल’ कहते है प्यारे पम पम पम …..
    री बाबा री बाबा री बाबा
    सौ बातों की एक बात यही है
    क्या भला तो क्या बूरा कामयाबी मे जिन्दगी है
    टूटी फुटी सही चल जाये ठीक है
    सच्ची झुठी सही चल जाये ठीक है
    आडी चला चला के झुम….
    तिरछी चला चला के झुम….
    बाजु……
  3. सारिका सक्सेना
    बहुत सुन्दर लिखा है।
    आपकी पसंद की कवितायें भी बहुत अच्छी हैं।
  4. Manoshi
    आगे का इन्तज़ार है…
  5. kali
    bahut bhiadiya sansmaran hai lagatar agli pravishthi ka intazaar rehta hai.
  6. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] गुरु’ अविस्मरणीय व्यक्तित्व 9.जाग तुझको दूर जाना! 10.मजा ही कुछ और है 11.इलाहाबाद से बनारस [...]

Sunday, December 18, 2005

‘मुन्नू गुरु’ अविस्मरणीय व्यक्तित्व

http://web.archive.org/web/20101229042718/http://hindini.com/fursatiya/archives/90

[अतुल की एक पोस्ट के जवाब में मैंने कानपुर के बारे में लेख लिखा था- झाड़े रहो कलट्टरगंज। उसे बाद में विस्तार देना हो नहीं पाया। इधर काफी दिन से हमें लग रहा था कि अपने शहर में बहुत कुछ है जो नेट पर आना चाहिये।मेरा विचार है कि कानपुर के व्यक्तित्वों का परिचय दिया जाये।कानपुर के तमाम लोग दुनिया में प्रसिद्ध हैं उनके बारे में परिचय देने के साथ-साथ मैं ऐसे लोगों के बारे में भी बताने का प्रयास करूंगा जिनको लोग कम जानते हैं मगर उनकी स्मृति लोगों के दिलों में बसी है। शुरुआत करता हूं 'मुन्नू गुरू 'से ।]
‘मुन्नू गुरु’
'मुन्नू गुरु'
कानपुर शहर की हर अदा को अगर कोई एक शब्द ध्वनित करता है तो वह है -’गुरु‘। यह शब्द यहां के जीवन की अमिधा भी है,लक्षणा भी और व्यंजना भी। ‘गुरु’ शब्द के मायने अनगिनत हैं।यह मायने शब्दकोश में नहीं मिलते बल्कि बोलने वाले की अदा ,आवाज,भंगिमा तथा सुनने वाले से उसके संबंध के अनुसार अर्थ ग्रहण करता है।
कानपुर का यह अनेकार्थी शब्द जो आदर से लेकर हिकारत तक हर भाव व्यक्त करने के काम आता है और इस्तेमाल करने वाले के मनोभाव व्यक्त करता है। चिकहाई करने वालों से लेकर श्रद्धाविनत होने वालों तक हर किसी का काम निकाल देने वाला यह कनपुरिया शब्द काल की सीमायें लांघ कर अभी तक यथावत प्रचलित है।
‘गुरु’ शब्द की इस यात्रा में जिन कुछ व्यक्तित्वों ने इसे अपने जीवन की कुछ सिद्धियों का प्रसाद सौंपा है उनमें हमारे ‘मुन्नू गुरु’ अद्वितीय हैं। अद्वितीय इसलिये कि उन जैसा अभी तक कोई दूसरा नहीं हुआ कि जिसमें कानपुर का बांकपन अपनी बोली-बानी के साथ झलकारी मारता हो।
गुरु से पूछ भर लेव कि गुरु क्या रंग है? गुरु हरा ,केसरिया, सफेद की छटा तिरंगे से उतार कर कहेंगे-‘ट्राई कलर है बाबू! हरी(भांग) छानते हैं,लाल(आंखें) दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं। धन्य है ये रंग! अरे अपने तो झोरी झंडे से हैं।
यह पंडित जितेंद्र नाथ मिश्र ‘मुन्नू गुरू’ का टकसाली रंग था-तिरंगा।
‘ट्राई कलर है बाबू! हरी छानते हैं,लाल दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं।.
पंडित नरेशचन्द्र चतुर्वेदी (सांसद कानपुर लोकसभा)जिन्हें,वे ‘नरेज्जी’कह कर ही संबोधित करते रहे थे, से उनकी खा़सी छनती थी। कहते थे-‘नहीं ठीक है ,अरे वारे नरेज्जी! संग साथ की बात दूसरी है, नहीं तो जहां रख दिये जाव,वहां से अंधियारा डिरा के भाग जाय। पब्लिक पर भी यही कलर है।अपने राम तो फक्कड़ कमान के आदमी हैं।अपन तो नरेशों का साथ करते हैं।पैसों वालों का अपने ऊपर कोई कलर नहीं। अपना जायका दूसरा है।बाबू हम तो मीठे दो बोल के गुलाम हैं।बापू की लाइन पर चलते हैं। बापू का कहना था:-गोली खाओ ,बापू ने खाई,हम भी गोली खाते हैं। जो गोली नहीं खाता वह बापू की लाइन का नहीं है। लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं। जनता तो भेड़ बकरी है ,जिधर चाहो हाँक देओ। भाई हम तो पब्लिक हैं,जनता पर तो रंग चढ़ता है मगर पब्लिक पर तो कलर होता है।’
लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं।
अभिव्यक्ति की यह भाषा और शैली ‘मुन्नू गुरू’ के व्यक्तित्व को समझने की कुंजी है। शाम को भांग और ठंडाई का सेवन उनकी पहचान थी। जिसमें उनका आतिथ्य सत्कार अपनी बाँहें पसार कर आगन्तुक का स्वागत करता था। देखने सुनने में भद्दर किसान होने का भान हो। ठिगना कद,रंग गोरा और चेहरे पर काली घनी मूँछें, मुँह में दबे पान से रँगे लाल होंठ- आँखें जिस पर भंग की नशीली रंगत झांकती हुई,घुटनों तक ऊँची धोती जिसके फेंटे का छोर लटकता हुआ। मिर्जई के कुछ बन्द खुले,कुछ कसे। हाथ में एक खूबसूरत सी छड़ी। भाव प्रदर्शन में अंग-प्रत्यंग की फड़कन ,बातचीत का मौलिक मुहावरा। नरेश जी के शब्दों में -मस्ती और बांकपन की संस्कृति जैसे पुंजीभूत हो गयी हो।
बात करने और कहने की कला ‘मुन्नू गुरु’ की अपनी खुद की थी। तमाम शब्द मुहावरे उनकी टकसाल से निकलते और जनता में प्रचलित होते रहे।जब किसी को उनको बुद्धू कहना होता तो कहते- ‘गौतम बुद्धि हैं भाई जान।’ अपने निकटस्थ लोगों से मजाक करते हुये कहते- ‘सेवा से इन्सान बड़ा है। कथा बैठाओ-पंजीरी बँटवाओ।’
लेखकों की खिंचाई करते हुये कहते-‘सफेदी पर स्याही लग रही है,मनो रद्दी तैयार होके निकल रही है स्वामी।’
मुहावरे गढ़ने में भी वे कम नहीं थे- ‘जकी आन फुट है’,'तलवार पुरानी मगर काट नई है’,'भक्ति भावना का प्रभाव है,नहीं तो जगन्नाथ जी की सवारी मंदिर में धरी रह जाती’।….इत्यादि फिकरे उनके पेटण्ट थे।
अपने शब्दों का प्रयोग वे जिस ध्वनि में करते थे उसको लिखकर बताना मुश्किल है। फिर भी,उनके साथ के लोग उनकी बातों का उन्हीं के शब्दों में दिये बिना नहीं रहते और कोई मित्र उनकी ठीक नकल कर देता तो वे पूरे शरीर को घुमा के कहते-आइ डटी रह,बड़े सच्चे प्रयोग हैं स्वामी।
उनके कुछ शब्दों के अर्थ इतने विचित्र और भीषण हैं कि यदि अपरिचित जान जाय तो झगड़ा अवश्य हो । परन्तु उनके प्रयोग का कौशल ऐसा था कि झगड़े की नौबत नहीं आती।यदि किसी अनाधिकारी व्यक्ति ने उनके शब्दों का प्रयोग किया तो वे डांटकर कहेंगे- हमारे शब्दों को तुम न उनारो,प्रयोग में तनिक चूक हुई गई तो बस,खोपड़ी पर कबूतर उड़ने लगेंगे और छत्रपती बनने में देर नहीं लगेगी।
उनकी गालियां भी अपनी मौलिकता लिये रहती थीं। रेजर हरामी,लटरपाल आदि का प्रयोग वे अक्सर करते। उनके मित्र कहते- गुरू अपने शब्दों का कोष छपवा दीजिये तो वे गम्भीरता पूर्वक उत्तर देते- ‘सरकार ने कई बार बुलाकर कहा,मगर हमने मंजूर नहीं किया। बिना छपे प्रयोग बढ़ रहा है,छपने से बेपर्दगी का डर है।’
जब किसी को जाने को कहना होता तो कहते-जाव,अब बिहारी हुइ जाव। जिससे मन न मिलता उसके लिये कहते- तुम्हें का बताई,ई कानपुर के ‘खड़दूहड़’हैं,अब हमार मन तुमसे मिला है,ई मूसर चंद आइगे अब इनको हटाना ही ठीक था।
कविता सुनने के बहुत शौकीन थे। कवि सम्मेलनों में रात-रात भर जमे रहते। कवियों की हर पंक्ति पर वे अपनी मार्मिक टिप्पणी किये बिना नहीं रहते। कविता यदि जंच जाये तो जोर से ‘वाह’ कहने से उन्हें कोई नहींरोक सकता ।यदि नहीं जंची तो भी मनचाहा शब्द जरूर बाहर आता। कोई पंक्ति जमजाती तो कहते- ‘बात तत्व की कह रहा है।‘यदि कोई पंक्ति समझ न आयी तो बैठे ही बैठे कई आसन बदलते तथा कहते अपच्च हो रहा है।..घिना गया।.. नाजायज बात कह रहा है।…आदि। यदि कोई कवि राजनीतिक पार्टी का हुआ तो कहते- ये कमीनिस्ट है। ये खोखलिस्ट है।
हर पढे लिखे विद्वान का वे बेहद आदर करते थे।डा.कृपा शंकर तिवारी ने अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुये लिखा:-
मुन्नू गुरु ने पूछा- भाई साहब ,बुरा न मानियेगा आप चीर-फाड़ वाले डाक्टर हो या पढ़ाई -लिखाई वाले ?
रघुनाथ (मुन्नू गुरू के मित्र) ने बताया- अरे यार क्राइस्ट चर्च कालेज में हैं।
‘अच्छा तो अपनी कम्पनी में भर्ती लायक हैं।’
डा.तिवारी को उन्होने नामलेकर कभी नहीं पुकारा।जब पुकारा आदर से डाक्टर कहकर पुकारा।जिसे प्यार करते थे अपार करते थे। डाक्टर को भी करने लगे। जिसे वे अपने स्नेह-मण्डल में शामिल कर लेते उसके लिये वे कहते थे कि यह उनकी मण्डली का आदमी है। उस मंडली में नये-नये विद्वान,कवि,कलाकार,संगीतकार भर्तीकिये जाते रहते थे।
वे प्राय: कहते थे कि ‘भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं। इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।’
‘भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं।इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।’
उनका उठना-बैठना पढ़े-लिखे लोगों के बीच ही अधिक था जिसे वे ‘कम्पनी आफ किंग्स’कहते थे। एक बार मैं(डा.तिवारी) दुकान गया तो देखा गुरु नदारद हैं और दुकान पड़ोसी को तका गये हैं। लौट ही रहा था कि देखा गुरु रिक्शे से उतर रहे हैं। सर्राफे की दुकान को ऐसे लापरवाही से खुली छोड़कर जाने पर टोंका तो बोले-,“ऐ डाक्टर वो तो पत्थर (हीरे,पन्ने,मूंगे आदि) हैं,अपनी झोली में तो एक से एक रतन(पढ़े लिखे लोगों का साथ )है। “
रतन जतन के पारखी वे ऐसे लोगों से हमेशा दस हाथ का फासला रखते जिन्हें हमेशा गम्भीरता की मोटी चादर ओढ़े रहने का फोबिया हो चुकता था।
वे कहा करते थे-हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये।
यह तो ठीक है गुरु लेकिन उन दंगलबाजों की हरकतों का क्या इलाज होगा जो चारे की एक गोली फेंककर कभी-कभी बड़े-बड़े कुरीजों की पेटियां खुलवा लेते हैं?- सिद्धेगुरु ने पूछा।
अरे नहीं-नहीं हमारे मजमें में ऐसे किसी कलर की कोई आमद नहीं है। बुलबुल को तो फड़कना ही होगा वरना अड्डे पर मनहूसियत छा जायेगी।” गुरु ने जवाब दिया।
बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की मृत्यु पर भैरोघाट की शोकाकुल भीड़ के बीच भी मुन्नू गुरू की प्रतिक्रिया सबसे अलग थी। बोले- उनके लिये शोक कैसा? जब तक दुनिया में थे,अगल-बगल घूमती थीं अब स्वर्ग में भी घेरे होगीं।
‘हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये। ‘
एक दिन मुन्नू गुरू ने किसी राहगीर को देखा जिसके होंठों पर बीड़ी सुलग रही थी तथा दूसरी कान में खुँशी थी। यह देखते ही पहले तो वे कहकहे से दोहरे हुये फिर कह उठे- “वाह,एक रिजर्व फण्ड में दूसरी चालू है।”
रामप्रकाश शुक्ल ‘शतदल’ को ‘मुन्नू गुरू’ सद्दल कहते। एक बार की मुलाकात का जिक्र करते हुये शतदल जी को गुरू जी ने अपने घर के पास पान की दुकान पर बेंच कब्जियाये रंजन अधीर,विजय किशोर मानव के साथ पकड़ लिया। पूछा- क्या रंग पानी है?
सब ठीक ,आपका आशीर्वाद है।
ये नई भरती कउन है तुम्हारी मंडली मा?
गुरू ये कानपुर की नई पीढ़ी का नगीना है,असली पानीदार।
गुरु ने अब सीधा सवाल किया – का नाम है?
‘विजय किशोर मानव।’
‘कउन आस्पद?’
‘तिवारी।’
पान लग चुके थे। खाये गये। गुरु चबूतरे से उतर कर फुटपाथ पर आ गये। बोले-‘यो अगर नगीना है तो जरा घरै चलि के फड़काओ। हियां ठण्ड मा काहे सिकुड़ि रहे हौ?
घर की तरफ चलते हुये गुरू बोले- ‘अभी जब तुम लोग उधर सुना सुनाई कर रहे थे तो हमारे कान फड़क रहे थे।’
घर पहुंच के बोले- ‘हाँ बेटा मानव,अब जरा फुल वालूम मा चालू हुइ जाव।’
मानव को सुनते हुये गुरू तारीफकरते रहे-’ कमाल है बेटा। … बहुत अच्छे शाबास।…और क्या,कानपुर का मिट्टी -पानी है। और सुनाओ।
मानव के बाद गुरू बोले-‘हां अब आओ बेटा सद्दल !ऊँट पहाड़ के नीचे आवै। ..अपनेहो गीत फड़काओ।’पांच सात गीत सुनने के बाद बोले- ‘जियो बेटा, बहुत गहिरे जा रहे हो।’
रात काफी हो गयी थी। तारीख बदल चुकी थी। घड़ी देखने पर गुरू बोले-’ देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।
फिर दूसरा चक्र चला।
दूसरे चक्र के बाद जब इधर -उधर बातें घुमाने के बाद निकले तो गुरू बोले- आज मइदान छोड़ गए तुमलोग,किसी दिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
बाहर आकर शेर याद आया:-
मकतबे-इश्क का दस्तूर निराला देखा,
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।

‘देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।’
मुन्नू गुरू सबंधों की मर्यादा का हमेशा पालन करते थे। कानपुर में फूलबाग में किसी साल प्रसिद्ध गायिका निर्मला अरुण(स्टार गोविंदा की मां) बुलाई गयीं। गुरू रोज फूलबाग जाते-मित्र मण्डली के साथ। गुरू,निर्मलाजी की गायिकी पर मुग्ध हो गये। आग्रह करके कानपुर में दो -चार दिन के लिये रोक लिया।क्योंकि सुनने वालों का मन तो भरा न था। निर्मलाजी से ठुमरी की एक बंदिश- ‘ना जा पी परदेश’ खूब सुनी जाती। रोज सुनी जाती,पर किसी का दिल न भरता।
मुन्नू गुरू तो इसे सुन कर रो पड़ते।कई दिनों बाद निर्मलाजी को कानपुर कानपुर से बिदा किया गया।संगी साथी उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। विदा करते समय सबकी आंखें नम। ट्रेन चली गई। स्टेशन से बाहर आकर गुरू को याद आया कि निर्मलाजी का टिकट तो उनकी जेब में ही पड़ा रह गया। गुरू बोले-‘यार, बहिनियाँ क्या सोचेगी! कनपुरिया कितने गैरजिम्मेदार हैं। परेशानी में पड़ जायेगी प्यारे ,बम्बई तक का सफर है।’
सोचा गया,अब क्या हो? गुरू ने तत्काल फैसला किया। बोले- ‘तुरन्त टैक्सी बुलाओ,चलते हैं पुखरायाँ तक गाड़ी पकड़ लेंगे और टिकट निर्मला जी के हवाले कर देंगे।’
गाड़ी का पीछा करते-करते झाँसी पहुंच गये। प्लेटफार्म पर जा खड़े हुये। टिकट निर्मलाजी के हवाले करके भूल सुधारी गई और ठहाका लगा।
उसी दिन से मुन्नू गुरू और निर्मला जी एक दूसरे को भाई-बहन का दर्जा देने लगे। जिसका निर्वाह मुन्नू गुरू आजीवन करते रहे तथा मुन्नू गुरू के परिवार वाले आज भी करते हैं।
मुन्नू गुरु के बारे में अटल बिहारी बाजपेयी जी ने लिखा है:-
पंडित जितेन्द्र कुमार मिश्र उर्फ मुन्नू गुरू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य एवं काव्य में उनकी गहरी रुचि थी। व्यवसाय से जौहरी होते हुये भी संगीत एवं काव्य सम्मेलनों में हमेशा दिखाई देते थे। कानपुर नगर के बुद्धिजीवी वर्ग में पहचाने जाने वाले मुन्नू गुरू राजनीति में भी रुचि रखते थे। वे जीवन पर्यन्त कांग्रेस से जुड़े रहे। इंदिराजी के समर्थकों ने जब कानपुर में सत्याग्रह किया तब वे भी जेल गये।कानपुर वासियों को मुन्नू गुरू की कमी खलती रहेगी।
‘मुन्नू गुरू’ से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।
२८ फरवरी,१९२६ को हटिया ,कानपुर में जन्में ‘मुन्नू गुरु’ का देहावसान २७ अक्टूबर १९८० को हुआ।उनके निर्वाण पर उनके एक स्नेही ने कहा- “डा.साहब चला गया हरियाला बन्ना।”
मुन्नू गुरू के निर्वाण पर जब लोगों ने नरेशचन्द्र चतुर्वेदी से उनके बारे में आगे लिखने को कहा तो उनका कहना था- ‘मुन्नू गुरू’ पर जो कुछ लिखा जाना चाहिये उसे लिखना जितना कठिन है उतना ही कठिन है उसको सराहना। इस कठिन काम को मेरे उस स्वर्गवासी मित्र के अलावा और कौन कर सकेगा? उनकी जो स्मृतियां जो हमारे पास हैं उन्हें संजोये रखना ही उचित है।
‘मुन्नू गुरू’ से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।
कानपुर में स्मृति संस्था प्रतिवर्ष ‘मुन्नू गुरू ‘ की याद में कवि सम्मेलन तथा संगीत सम्मेलन करती है। यह संस्मरण स्मृति के २००५ में हुये आयोजन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के आधार पर लिखा गया।
मेरी पसंद
लहर ने समंदर से उसकी उम्र पूछी
समंदर मुस्करा दिया।
लेकिन,
जब बूंद ने
लहर से उसकी उम्र पूछी
तो लहर बिगड़ गई
कुढ़ गई
चिढ़ गई
बूंद के ऊपर ही चढ़ गई
और मर गई।
बूंद ,
समंदर में समा गई
और समंदर की उम्र बढ़ा गई।
-अशोक चक्रधर


फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

9 responses to “‘मुन्नू गुरु’ अविस्मरणीय व्यक्तित्व”

  1. indra awasthi
    चकाचक रहे मुन्नू गुरू, ऐसी ही विभूतियो से मुलाकात करवाते रहो तो जीवन सफल हो जाय
  2. प्रत्यक्षा
    बढिया लिखा और खूब लिखा
  3. kali
    Kya sansmaran likhe ho, humein aisa laga ki munnu guru se humari pehchan rahi. Jiya. Aab alaali chodo aur aksar aise chamkadar post chaape raho.
  4. मैथिली
    का गुरू, चकाचक लिखे हो. आपका लिखा पढते पढते हमारी तो ससुरी जबान बदलती जारही है. घर वाले परीशान हैं.
    अब कानपुर देखने की इच्छा होने लगी है.
    मैथिली
  5. alok puranik
    बढ़िया है।
  6. फुरसतिया » झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद
    [...] ऐसा माना जाता है कि कनपुरिया बाई डिफ़ाल्ट मस्त होता, खुराफ़ाती है, हाजिर जवाब होता है।(जिन कनपुरियों को इससे एतराज है वे इसका खंडन कर दें , हम उनको अपवाद मान लेंगे।) मस्ती वाले नये-नये उछालने में इस् शहर् का कोई जोड़ नहीं है। गुरू, चिकाई, लौझड़पन और न जाने कितने सहज अनौपचारिक शब्द यहां के माने जाते हैं। मुन्नू गुरू तो नये शब्द गढ़ने के उस्ताद थे। लटरपाल, रेजरहरामी, गौतम बुद्धि जैसे अनगिनत शब्द् उनके नाम से चलते हैं। पिछले दिनों होली पर हुयी एक गोष्ठी में उनको याद करते हुये गीतकार अंसार कम्बरी ने एक गजल ही सुना दी- समुन्दर में सुनामी आ न जाये/ कोई रेजर हरामी आ न जाये। [...]
  7. लिनक्स शैडो
    बढिया लिखा है। वाह वाह।
  8. anitakumar
    वे कहा करते थे-हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये।
    हमें भी अफ़सोस है कि हम मुन्नु गुरु से क्युं न मिल सके इतने तिरंगी शखिस्यत से न मिल पाना हमारा दुर्भाग्य है। खैर आप से सुन कर अच्छा लगा। कानपुर के बारे में जितना जान रहे हैं उतना ही इसे मोहक पा रहे है।
  9. फुरसतिया » …वर्ना ब्लागर हम भी थे बड़े काम के
    [...] अनीता जी ने कहा कि कानपुर जुमलों का शहर है। मेरा मानना है कि हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो नित नये शब्द गढ़ते हैं। कुछ के मतलब बताये जा सकते हैं कुछ् के मतलब केवल समझे जा सकते हैं। ऐसे केवल समझे या महसूस किये जाने वाले शब्द गूंगे के गुड़ होते हैं। कानपुर के मुन्नू गुरू के उछाले गये जुमले आप केवल महसूस कर सकते हैं उसकी सम्यक व्याख्या करना न आसान है और न जरूरी। रेजरपाल, लटरहरामी, कुरीजों, आन फ़ुट ये सब ऐसे शब्द हैं जो केवल बूझे जा सकते हैं। [...]

Friday, December 16, 2005

क्षितिज ने पलक सी खोली

http://web.archive.org/web/20110101191849/http://hindini.com/fursatiya/archives/89

तो इस तरह हमने तय किया कि इस बार जाना है- साइकिल यात्रा पर। यह किया हुआ तय अपने मन में समेटे हुये हम खरामा -खरामा चलते हुये छात्रावास आये तथा अपने-अपने कमरों में घुसकर सो गये। रास्ते में हमें कोई नहीं मिला जिससे हम बताते कि हम ऐतिहासिक अभियान पर निकलने वाले हैं। वैसे भी भयंकर गर्मी में सारे बच्चे परीक्षाओं के बुखार से तपते हुये कमरों में पढ़ रहे थे या सो रहे थे।

शाम को उठे तो अपनी विंग के सीनियर ‘फिराक़ साहब’ के सामने पेश किया गया साइकिल यात्रा का संकल्प। फिराक़ साहब का नाम अशोक श्रीवास्तव था लेकिन गोरखपुरी तथा साहित्यिक रुचि होने के कारण वे फिराक़ के नाम से मशहूर थे। वे, त्रिनाथ धावला तथा राकेश आजाद फाइनल ईयर में थे। राजेश कुमार सिंह उर्फ बबुआ हमसे एक साल सीनियर थे। हमारे , विनय अवस्थी के बीच में बिनोद गुप्ता का कमरा था। बिनोद ,इन्द्र अवस्थी की कलकतिया ,स्कूली खुराफातों के चश्मदीद गवाह,हमसे एक साल बाद आये थे कालेज को कृतार्थ करने मय अवस्थी के। सभी ने मिलजुल कर मामले पर गौर फरमाया। गौर फरमाने के मजे में इजाफा करने के लिये हम लोग आगे के विचार के लिये चाय की दुकानों की शरण में गये।

चाय की दुकानें चौपाल टाइप की होती हैं। कुछ ही देर में हमारे विचार/अभियान की खबर काम भर के लोगों को हो गई थी। लोगों की प्रतिक्रियायें भी आने लगीं:-



  • इन लोगों को कुछ और तो काम है नहीं कोई न कोई सगूफा पेलते रहते हैं।
  • अवस्थी कैसे जायेगा? उसको तो सांस की तकलीफ है।
  • तीन महीने कालेज गोल करेंगे ये लोग?
  • अरे देखते जाओ ये कहीं नहीं जायेंगे यहीं बाते मारेंगे। कहना अलग है करना अलग।
  • ये साले आवारा हैं। घूमते रहते हैं।जायें हमसे क्या मतलब?
  • अरे ज्यादा जवानी जोर मार रही है तो दुनिया घूमें। यहां भारत में क्या धरा है । लेकिन होते करते शाम तक यह तय हो गया था कि हम जायेंगे घूमने। अब कहां जायेंगे? किधर से जायेंगे? कैसे जायेंगे? कितना पैसा लगेगा? कौन देगा? कैसे तैयारी होगी ये सारी गौण बातें तय करनी थीं।
      
  • अचानक हमारा भला चाहने वालों की संख्या अप्रत्यासित रूप से बढ़ गई। हम पर सुझावों ,हिदायतों के बम बरसने लगें। हमने पाया कि तमाम बेवकूफ समझे जाने वाले लोगों ने काम की बातें सी लगने वाली वाली बातें बतायीं। विद्वान लोगों ने जो सलाहें दीं वे हम पहले ही जान चुके थे। कुछ दोस्त भावुक भी थे कि हम लोग अनजान रास्ते पर जानबूझ कर भटकने के लिये जा रहे हैं। हमारे घर वालों की प्रतिक्रिया घर वालों की तरह ही थी। अवस्थी के घर में जब खबर पहुंची तो घर वाले सोच के परेशान हुये -ये कौन सा तरीका है कि पढ़ाई छोड़ कर जान जोखिम में डाल रहे हैं। वैसे ही तबियत ठीक नहीं रहती। उस पर ये आफत मोल लेने की क्या जरूरत है?लेकिन फिर उनकी माताजी ने सोचा कि बेटा जब जाने का तय ही कर चुका है तो अब उसे रोकना ठीक नहीं होगा।बीमारी की खास चिंता थी लेकिन बेटे के निश्चय ने उसे पीछे कर दिया।
                                                                                                                                                                                                                    मेरे घर में भी कुछ ऐसा सा ही हुआ। घर वालों ने सोचा -वहां ये पढ़ने गया है कि घूमने,आवारागर्दी करने? लेकिन हमारेगुरुजी फिर हमारे लिये सहायक सिद्ध हुये। हमारे घर वाले हमारे बारे में सारे निर्णय के लिये हमारे गुरुजी की राय को अंतिम मानने लगे थे। गुरुजी बोले-उसको रोकने की कोई जरूरत नहीं है। जाने दीजिये। नया अनुभव होगा।
                                                                                                                                                                                                                  घर वालों की सहमति के बाद हमारे रास्ते खुल गये। हम पंख फैलाकर तैयारियों के आसमान में उड़ने लगे।
    इसके पहले हमारे पास यात्रा के अनुभव के नाम पर केवल कानपुर से इलाहाबाद तक की यात्रा का कुछ बार का अनुभव था। यह अनुभव हीनता ही थी जिससे हमेंलग रहा था कि यह साइकिल यात्रा भी कुछ ऐसी ही होगी। कुछ ज्यादा कठिन नहीं होगी।
                                                                                                                                                                                                            सबसे पहले तो यह तय किया गया कि जाना कहां है तथा रास्ता क्या रहेगा। कुछ दोस्तों की बुजुर्गाना सलाह थी कि पहले एकाध हफ्ते की यात्रा करके देखा जाये। अगर सब कुछ ठीक रहा तो आगे की लंबी यात्रा का विचार बनाया जाये। लेकिन हम जवानी के जोश में थे। हमारा मानना था कि बेवकूफी जब करनी ही है तो कायदे से की जाये। अभी नहीं तो कभी नहीं।
                                                                                                                                                                        बहरहाल तय हुआ कि हम बिहार, बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, पांडीचेरी, तमिलनाडु होते हुये कन्याकुमारी तक जायेंगे तथा लौटते में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश होते हुये वापस इलाहाबाद लौटेंगे। यह भी तय किया गया कि पंद्रह अगस्त का झण्डा हम कन्याकुमारी में फहरायेंगे। फिर अगले ढेड़ महीने में वापसी यात्रा करके गांधी जयन्ती के दिन वापस लौट आयेंगे।
                                                                                                                                                                                                                                               रास्ता तय होने के बाद हम ठहरने के जुगाड़ तय करने में लग गये। हमारा कालेज रीजनल इंजीनियरिंग कालेज था। हर प्रदेश के छात्र वहां पढ़ते थे। हमने रास्ते में पड़ने वाले सारे प्रमुख शहरों के लड़कों के पते तलाशे। हर लड़का हमें खुशी-खुशी अपने घर का पता दे रहा था। हम पते के साथ-साथ चंदा भी जमा करते जा रहे थे। जो जितना दे दे। लगभग ९० दिन का प्रोग्राम था।इस हिसाब से हमने अंदाजा लगाया कि लगभग आठ-नौ हजार रुपये खर्चा होंगे। हमारे घर वालों ने एक-एक हजार दिये। बाकी के सारे पैसे हमारे दोस्तों ने अपने-अपने खर्चों में कटौती करके दिये।                                             
                                                                                                                                                                                                             उसी समय से हमें यह आभास हुआ कि अगर आप पूरे मन से कोई काम करना चाहते हैं तो पैसा कभी बाधा नहीं बनता। यह चंदा उगाहने का अभ्यास अभी दो साल पहले फिर काम आया जब इन्द्र अवस्थी के आवाहन /उकसावे पर हम लोगों ने ,अपनी दोनों टांगे एक दुर्घटना में खो चुके,एक साथी के लिये देसी-विदेशी दोस्तों के सहयोग से करीब चार लाख रुपये जुटाये। केवल दो माह में।
                                                                                                                                                                                                 ऐसे समय में जब पूरे कालेज के बच्चे परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे,हम साइकिल यात्रा की तैयारी में भी जुटे थे। अगर परीक्षाओं के बीच का गैप चार दिन का होता तो हम तीन दिन साइकिल यात्रा की तैयारी करते,एक दिन परीक्षाओं की।
                                                                                                                                                                                                       तैयारी में सबसे अहम काम था यह प्लान करना कि हम कहां कितने दिन रुकेंगे। उन दिनों गूगल अर्थ तो था नहीं।हम भारत का बड़ा वाला नक्शा ले आये थे। सारे रास्ते तय किये। सारे राष्ट्रीय राजमार्गों के रास्ते मुख्य रास्ते रखे हमने। जिन शहरों के बीच की दूरी दी थी वो हमने नोट की तथा बाकी के लिये ‘फुटे-परकार’ की मदद ली गई। रात के पड़ाव के लिये वे जगहें तय की गईं जहां हमारे कालेज का कोई लड़का रहता था। यह तय हुआ कि प्रतिदिन हम करीब १०० किमी चलेंगे।
                                                                                                                                                                                                                        इस बीच कुछ साथियों की सलाह पर हमने टटोलने शुरु किया कि कोई हमारे इस जुनून को स्पांसर कर दे। लेकिन कुछ ज्यादा सफलता नहीं हासिल हुई। केवल हीरो साइकिलवाले हमें साइकिल पर कुछ छूट देने के लिये राजी हो गये। शायद चार सौ की साइकिल २७५ रुपये में मिली हमें उन दिनों।
                                                   
  •   हमारी तैयारियां जब जोर शोर से चलने लगीं तो यह भी सलाह उछली कि इस यात्रा का कुछ नाम रखा जाये। तमाम नाम उछले,ठहरे,खो गये। अंत में नाम तय हुआ -जिज्ञासु यायावर।
     
  • यह नाम शायद इंटरमीडियट में पढ़े लेख राहुल सांकृत्यायन अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा से प्रेरित था। लेकिन बहुत बाद में कुछ दोस्तों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि नामकरण के पीछे राहुल सांकृत्यायन का लेख नहीं वरन्‌ अज्ञेय की कविता थी:-
    क्षितिज ने पलक सी खोली,
    दमककर दामिनी बोली,
    अरे यायावर,
    रहेगा याद।
    जब से यह सच उजागर हुआ ,हम पता कर रहे हैं कि कविता अज्ञेयजी ने कब लिखी? हमारे यायावरी अभियान के पहले या बाद में! क्या उनको हमारे अभियान से कुछ सूत्र मिले इसे कविता को लिखने के या अपने मन से ही इतनी ऊंची चीज लिख गये!

  • अब यह भी बताते चलें कि दामिनी हमारे क्लास की सहपाठिका थी जिसका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं।
    लेकिनजिक्र तो हम गोलू का भी कर चुके हैं। गोलू को नहीं जानते आप लोग? अरे यार, तब तो फिर बताना पड़ेगा। ये तो सबसे जरूरी चीज छूट रही थी। अच्छा हुआ याद आ गई सही समय पर।
                                                                                                                                                                                                                             गोलू यानि कि दिलीप गोलानी हमसे एक साल जूनियर थे। हमारे कालेज में। कानपुर के रहने वाले। संगीत टाकीज के पास घर था है। हमारा घर गांधी नगर में था पास ही। कालेज में भी हमारे गुट के चक्कर में फंस गये। और जब यह साइकिल टूर की बात हवा में बह रही थी तब वे इसी हवा में बह गये। तथा बोले हम भी चलेंगे साइकिल यात्रा पर।
                                                                                                                                                                                                 वैसे कहा तो बहुत लोगों ने लेकिन कुछ दिन बाद सभी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। गोलू ने ऐसा नहीं किया। इस तरह हम साथियों की संख्या दो से बढ़कर तीन हो गयी।
                                                                                                                                                                                                                         गोलानी की तरफ से हम कुछ सशंकित थे क्योंकि ये ज्यादातर काम दूसरों की मर्जी से करते थे। जनभावना का आदर करते हुये गोलू ने उस कन्या से प्रेम करने की महती जिम्मेदारी भी उठाई जिसके बारे में लोगों ने बताया कि वह इनको चाहती थी। यह प्रेमालाप तीन चार साल चला। तब तक जबतक गोलू के ही एक लंगोटिया यार ने इनकी यह अस्थाई जिम्मेदारी अपने कंधों पर स्थाई रूप से नहीं उठा ली।
                                                                                                                                                                                                                                          बहरहाल हमारी तैयारियां परवान चढ़ती रहीं। हम चंदा,दोस्तों के पते,शुभकामनायें,जगहों-रास्तों के विवरण सहेजते-समेटते रहे। हमारे इरादे पक्के होते रहे। कभी-कभी भयंकर गर्मी तथा तेज लू में दोपहर हमसे पूछती -कहां चक्कर मेंपड़े हो बालकों! इतनी गर्मी में झुलसने के अलावा और कुछ करो। छुट्टी में ऐश करो। लेकिन हम ऐसे विचारों के झांसे में नहीं आये। जितनी तैयारी हम कर चुके थे उसके बाद हम अपना इरादा मुल्तवी करने की स्थिति में नहीं थे। हम अपना और तमाम दोस्तों का भरोसा तोड़ने तोड़ कर कौन सा मुंह दिखाते अपने को।
    इस बीच किसी समझदार ने सलाह दी कि जरा अपनी ताकत आजमा लो। जिस लंबी यात्रा पर जा रहे हो उसके लिये एक १००-५० किमी की यात्रा कर लो साइकिल से। कुछ अंदाजा भी हो जायेगा रास्ते की परेशानियों का। हम उस दिनों सलाहों की बहुतायत से आजिज आ गये थे तथा सलाहों पर अमल करने के पहले काफी विचार करते थे।लेकिन यह ‘टेस्ट रन ‘ वाली सलाह हमने बिना सोच-विचार के मान ली।
    हमने तय किया कि हम इलाहाबाद से प्रतापगढ़ की साइकिल यात्रा ‘टेस्ट रन’ के रूप में करेंगे।

    मेरी पसन्द

    पहाड़ी के चारों तरफ
    जतन से बिछाई हुई सुरंगों पर
    जब लगा दिया गया हो पलीता
    तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुए इंसान को
    कोई फर्क नहीं पड़ता
    कि वह हारा या जीता।
    उसे पता है कि
    वह भागेगा तब भी
    टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा
    और अविचल होने पर भी
    तिनके की तरह बिखर जायेगा
    उसे करना होता है
    सिर्फ चुनाव
    कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
    या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
    टुकड़े-टुकड़े हो जाये।
    -डा.कन्हैया लाल नंदन


  • फ़ुरसतिया

    अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

    11 responses to “क्षितिज ने पलक सी खोली”

    1. eswami
      बहुत दिनो बाद चली सँस्मरण मेल – मजा आ गया. :)
    2. आशीष
      अनुप भैया,
      ये जानकर खुशी हुयी की आपकी साइकिल ठिक हो गयी. हम तो सोच बैठे थे, कि पता नही ये पँक्चर सुधरेगा भी या नही.
      आशीष
    3. प्रत्यक्षा
      ये यायावरी गीत बडे अच्छे लगे. अगले पडाव का इंतज़ार है.
      आपकी कविता सिकुडी पर गनीमत है लेख अपनी लंबाई पर कायम रहे.
      प्रत्यक्षा
    4. रवि
      :) :) :)
      इसे नियमित, साप्ताहिक, जैसे सोमवारी, रखें तो सचमुच मज़ा आएगा.
    5. जीतू
      चलो, यात्रा की तैयारियों की बात शुरु हो गयी, हम तो समझे, जैसे तुम्हे कालेज मे सलाहें मिल रही थी, यात्रा स्थगित करने की, वैसे ही लेख को स्थगित करने की सलाहों पर अमल ना कर बैठो।
      आगाज़ तो बहुत शानदार है, अब जल्द से जल्द शुरु किया जाय ये खेला।बहुत एडवर्टीजमेन्ट हो गया,चन्दा भी हो गया, जल्दी शुरु करों नही तो चाय नाश्ते में चन्दा खतम ना हो जाय, फ़िर दोबारा कोई नही देगा। सोच लेना।
      अगले भाग का इन्तजार रहेगा।
    6. indra awasthi
      शुकुल,
      मायाप्रेस वालोँ का तो बताया ही नहीँ, वहाँ तो हम भी गये थे चन्दे के लिये
    7. अनाम
      बहुत अच्छा लगा साइकिल यात्रा फिर से शुरू होने पर| अब आप इसे लगातार चालू रखिए…सम्भव हो तो प्रतिदिन !
    8. सारिका सक्सेना
      काफी इंतज़ार के बाद ये साइकिल यात्रा की शुरुवात पढने को मिली। अब ये सिलसिला बनाये रखियेगा।
      “क्षितिज ने पलक सी खोली…..” बहुत सुन्दर कविता सी लाइन है।
    9. फ़ुरसतिया » जाग तुझको दूर जाना!
      [...] ��यासूचना जाग तुझको दूर जाना! [जैसा रविरतलामी जी ने आग्रह किया हम हर हफ्ते कम � [...]
    10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
      [...] 6.गरियाये कहां हम तो मौज ले रहे हैं! 7.क्षितिज ने पलक सी खोली 8. ‘मुन्नू गुरु’ अविस्मरणीय [...]