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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
तो इस तरह
हमने तय किया कि इस बार जाना है- साइकिल यात्रा पर। यह किया हुआ तय अपने
मन में समेटे हुये हम खरामा -खरामा चलते हुये छात्रावास आये तथा अपने-अपने
कमरों में घुसकर सो गये। रास्ते में हमें कोई नहीं मिला जिससे हम बताते कि
हम ऐतिहासिक अभियान पर निकलने वाले हैं। वैसे भी भयंकर गर्मी में सारे
बच्चे परीक्षाओं के बुखार से तपते हुये कमरों में पढ़ रहे थे या सो रहे थे।
शाम को उठे तो अपनी विंग के सीनियर ‘फिराक़ साहब’ के सामने पेश किया गया साइकिल यात्रा का संकल्प। फिराक़ साहब का नाम अशोक श्रीवास्तव था लेकिन गोरखपुरी तथा साहित्यिक रुचि होने के कारण वे फिराक़ के नाम से मशहूर थे। वे, त्रिनाथ धावला तथा राकेश आजाद फाइनल ईयर में थे। राजेश कुमार सिंह उर्फ बबुआ हमसे एक साल सीनियर थे। हमारे , विनय अवस्थी के बीच में बिनोद गुप्ता का कमरा था। बिनोद ,इन्द्र अवस्थी की कलकतिया ,स्कूली खुराफातों के चश्मदीद गवाह,हमसे एक साल बाद आये थे कालेज को कृतार्थ करने मय अवस्थी के। सभी ने मिलजुल कर मामले पर गौर फरमाया। गौर फरमाने के मजे में इजाफा करने के लिये हम लोग आगे के विचार के लिये चाय की दुकानों की शरण में गये।
चाय की दुकानें चौपाल टाइप की होती हैं। कुछ ही देर में हमारे विचार/अभियान की खबर काम भर के लोगों को हो गई थी। लोगों की प्रतिक्रियायें भी आने लगीं:-
इन लोगों को कुछ और तो काम है नहीं कोई न कोई सगूफा पेलते रहते हैं।
अवस्थी कैसे जायेगा? उसको तो सांस की तकलीफ है।
तीन महीने कालेज गोल करेंगे ये लोग?
अरे देखते जाओ ये कहीं नहीं जायेंगे यहीं बाते मारेंगे। कहना अलग है करना अलग।
ये साले आवारा हैं। घूमते रहते हैं।जायें हमसे क्या मतलब?
अरे ज्यादा जवानी जोर मार रही है तो दुनिया घूमें। यहां भारत में क्या धरा है ।
लेकिन होते करते शाम तक यह तय हो गया था कि हम जायेंगे घूमने। अब कहां
जायेंगे? किधर से जायेंगे? कैसे जायेंगे? कितना पैसा लगेगा? कौन देगा? कैसे
तैयारी होगी ये सारी गौण बातें तय करनी थीं।
अचानक हमारा भला चाहने वालों की संख्या अप्रत्यासित रूप से बढ़ गई। हम
पर सुझावों ,हिदायतों के बम बरसने लगें। हमने पाया कि तमाम बेवकूफ समझे
जाने वाले लोगों ने काम की बातें सी लगने वाली वाली बातें बतायीं। विद्वान
लोगों ने जो सलाहें दीं वे हम पहले ही जान चुके थे। कुछ दोस्त भावुक भी थे
कि हम लोग अनजान रास्ते पर जानबूझ कर भटकने के लिये जा रहे हैं। हमारे घर वालों की प्रतिक्रिया घर वालों की तरह ही थी। अवस्थी के घर में जब खबर पहुंची तो घर वाले सोच के परेशान हुये -ये कौन सा तरीका है कि
पढ़ाई छोड़ कर जान जोखिम में डाल रहे हैं। वैसे ही तबियत ठीक नहीं रहती। उस
पर ये आफत मोल लेने की क्या जरूरत है?लेकिन फिर उनकी माताजी ने सोचा कि
बेटा जब जाने का तय ही कर चुका है तो अब उसे रोकना ठीक नहीं होगा।बीमारी की
खास चिंता थी लेकिन बेटे के निश्चय ने उसे पीछे कर दिया।
मेरे घर में भी कुछ ऐसा सा ही हुआ। घर वालों ने सोचा -वहां ये पढ़ने गया है कि घूमने,आवारागर्दी करने? लेकिन हमारेगुरुजी फिर हमारे लिये सहायक सिद्ध हुये। हमारे घर वाले हमारे बारे में सारे निर्णय के लिये हमारे गुरुजी की राय को अंतिम मानने लगे थे। गुरुजी बोले-उसको रोकने की कोई जरूरत नहीं है। जाने दीजिये। नया अनुभव होगा।
घर वालों की सहमति के बाद हमारे रास्ते खुल गये। हम पंख फैलाकर तैयारियों के आसमान में उड़ने लगे।
इसके पहले हमारे पास यात्रा के अनुभव के नाम पर केवल कानपुर से इलाहाबाद तक की यात्रा का कुछ बार का अनुभव था। यह अनुभव हीनता ही थी जिससे हमेंलग रहा था कि यह साइकिल यात्रा भी कुछ ऐसी ही होगी। कुछ ज्यादा कठिन नहीं होगी।
सबसे पहले तो यह तय किया गया कि जाना कहां है तथा रास्ता क्या रहेगा। कुछ दोस्तों की बुजुर्गाना सलाह थी कि पहले एकाध हफ्ते की यात्रा करके देखा जाये। अगर सब कुछ ठीक रहा तो आगे की लंबी यात्रा का विचार बनाया जाये। लेकिन हम जवानी के जोश में थे। हमारा मानना था कि बेवकूफी जब करनी ही है तो कायदे से की जाये। अभी नहीं तो कभी नहीं।
बहरहाल तय हुआ कि हम बिहार, बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, पांडीचेरी, तमिलनाडु होते हुये कन्याकुमारी तक जायेंगे तथा लौटते में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश होते हुये वापस इलाहाबाद लौटेंगे। यह भी तय किया गया कि पंद्रह अगस्त का झण्डा हम कन्याकुमारी में फहरायेंगे। फिर अगले ढेड़ महीने में वापसी यात्रा करके गांधी जयन्ती के दिन वापस लौट आयेंगे।
रास्ता तय होने के बाद हम ठहरने के जुगाड़ तय करने में लग गये। हमारा कालेज रीजनल इंजीनियरिंग कालेज था। हर प्रदेश के छात्र वहां पढ़ते थे। हमने रास्ते में पड़ने वाले सारे प्रमुख शहरों के लड़कों के पते तलाशे। हर लड़का हमें खुशी-खुशी अपने घर का पता दे रहा था। हम पते के साथ-साथ चंदा भी जमा करते जा रहे थे। जो जितना दे दे। लगभग ९० दिन का प्रोग्राम था।इस हिसाब से हमने अंदाजा लगाया कि लगभग आठ-नौ हजार रुपये खर्चा होंगे। हमारे घर वालों ने एक-एक हजार दिये। बाकी के सारे पैसे हमारे दोस्तों ने अपने-अपने खर्चों में कटौती करके दिये।
उसी समय से हमें यह आभास हुआ कि अगर आप पूरे मन से कोई काम करना चाहते हैं तो पैसा कभी बाधा नहीं बनता। यह चंदा उगाहने का अभ्यास अभी दो साल पहले फिर काम आया जब इन्द्र अवस्थी के आवाहन /उकसावे पर हम लोगों ने ,अपनी दोनों टांगे एक दुर्घटना में खो चुके,एक साथी के लिये देसी-विदेशी दोस्तों के सहयोग से करीब चार लाख रुपये जुटाये। केवल दो माह में।
ऐसे समय में जब पूरे कालेज के बच्चे परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे,हम साइकिल यात्रा की तैयारी में भी जुटे थे। अगर परीक्षाओं के बीच का गैप चार दिन का होता तो हम तीन दिन साइकिल यात्रा की तैयारी करते,एक दिन परीक्षाओं की।
तैयारी में सबसे अहम काम था यह प्लान करना कि हम कहां कितने दिन रुकेंगे। उन दिनों गूगल अर्थ तो था नहीं।हम भारत का बड़ा वाला नक्शा ले आये थे। सारे रास्ते तय किये। सारे राष्ट्रीय राजमार्गों के रास्ते मुख्य रास्ते रखे हमने। जिन शहरों के बीच की दूरी दी थी वो हमने नोट की तथा बाकी के लिये ‘फुटे-परकार’ की मदद ली गई। रात के पड़ाव के लिये वे जगहें तय की गईं जहां हमारे कालेज का कोई लड़का रहता था। यह तय हुआ कि प्रतिदिन हम करीब १०० किमी चलेंगे।
इस बीच कुछ साथियों की सलाह पर हमने टटोलने शुरु किया कि कोई हमारे इस जुनून को स्पांसर कर दे। लेकिन कुछ ज्यादा सफलता नहीं हासिल हुई। केवल हीरो साइकिलवाले हमें साइकिल पर कुछ छूट देने के लिये राजी हो गये। शायद चार सौ की साइकिल २७५ रुपये में मिली हमें उन दिनों।
हमारी तैयारियां जब जोर शोर से चलने लगीं तो यह भी सलाह उछली कि इस
यात्रा का कुछ नाम रखा जाये। तमाम नाम उछले,ठहरे,खो गये। अंत में नाम तय
हुआ -जिज्ञासु यायावर।
यह नाम शायद इंटरमीडियट में पढ़े लेख राहुल सांकृत्यायन अथातो घुमक्कड़
जिज्ञासा से प्रेरित था। लेकिन बहुत बाद में कुछ दोस्तों ने नाम न छापने
की शर्त पर बताया कि नामकरण के पीछे राहुल सांकृत्यायन का लेख नहीं वरन्
अज्ञेय की कविता थी:-
अब यह भी बताते चलें कि दामिनी हमारे क्लास की सहपाठिका थी जिसका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं।
लेकिनजिक्र तो हम गोलू का भी कर चुके हैं। गोलू को नहीं जानते आप लोग? अरे यार, तब तो फिर बताना पड़ेगा। ये तो सबसे जरूरी चीज छूट रही थी। अच्छा हुआ याद आ गई सही समय पर।
गोलू यानि कि दिलीप गोलानी हमसे एक साल जूनियर थे। हमारे कालेज में। कानपुर के रहने वाले। संगीत टाकीज के पास घर था है। हमारा घर गांधी नगर में था पास ही। कालेज में भी हमारे गुट के चक्कर में फंस गये। और जब यह साइकिल टूर की बात हवा में बह रही थी तब वे इसी हवा में बह गये। तथा बोले हम भी चलेंगे साइकिल यात्रा पर।
वैसे कहा तो बहुत लोगों ने लेकिन कुछ दिन बाद सभी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। गोलू ने ऐसा नहीं किया। इस तरह हम साथियों की संख्या दो से बढ़कर तीन हो गयी।
गोलानी की तरफ से हम कुछ सशंकित थे क्योंकि ये ज्यादातर काम दूसरों की मर्जी से करते थे। जनभावना का आदर करते हुये गोलू ने उस कन्या से प्रेम करने की महती जिम्मेदारी भी उठाई जिसके बारे में लोगों ने बताया कि वह इनको चाहती थी। यह प्रेमालाप तीन चार साल चला। तब तक जबतक गोलू के ही एक लंगोटिया यार ने इनकी यह अस्थाई जिम्मेदारी अपने कंधों पर स्थाई रूप से नहीं उठा ली।
बहरहाल हमारी तैयारियां परवान चढ़ती रहीं। हम चंदा,दोस्तों के पते,शुभकामनायें,जगहों-रास्तों के विवरण सहेजते-समेटते रहे। हमारे इरादे पक्के होते रहे। कभी-कभी भयंकर गर्मी तथा तेज लू में दोपहर हमसे पूछती -कहां चक्कर मेंपड़े हो बालकों! इतनी गर्मी में झुलसने के अलावा और कुछ करो। छुट्टी में ऐश करो। लेकिन हम ऐसे विचारों के झांसे में नहीं आये। जितनी तैयारी हम कर चुके थे उसके बाद हम अपना इरादा मुल्तवी करने की स्थिति में नहीं थे। हम अपना और तमाम दोस्तों का भरोसा तोड़ने तोड़ कर कौन सा मुंह दिखाते अपने को।
इस बीच किसी समझदार ने सलाह दी कि जरा अपनी ताकत आजमा लो। जिस लंबी यात्रा पर जा रहे हो उसके लिये एक १००-५० किमी की यात्रा कर लो साइकिल से। कुछ अंदाजा भी हो जायेगा रास्ते की परेशानियों का। हम उस दिनों सलाहों की बहुतायत से आजिज आ गये थे तथा सलाहों पर अमल करने के पहले काफी विचार करते थे।लेकिन यह ‘टेस्ट रन ‘ वाली सलाह हमने बिना सोच-विचार के मान ली।
हमने तय किया कि हम इलाहाबाद से प्रतापगढ़ की साइकिल यात्रा ‘टेस्ट रन’ के रूप में करेंगे।
जतन से बिछाई हुई सुरंगों पर
जब लगा दिया गया हो पलीता
तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुए इंसान को
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह हारा या जीता।
उसे पता है कि
वह भागेगा तब भी
टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा
और अविचल होने पर भी
तिनके की तरह बिखर जायेगा
उसे करना होता है
सिर्फ चुनाव
कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
टुकड़े-टुकड़े हो जाये।
-डा.कन्हैया लाल नंदन
शाम को उठे तो अपनी विंग के सीनियर ‘फिराक़ साहब’ के सामने पेश किया गया साइकिल यात्रा का संकल्प। फिराक़ साहब का नाम अशोक श्रीवास्तव था लेकिन गोरखपुरी तथा साहित्यिक रुचि होने के कारण वे फिराक़ के नाम से मशहूर थे। वे, त्रिनाथ धावला तथा राकेश आजाद फाइनल ईयर में थे। राजेश कुमार सिंह उर्फ बबुआ हमसे एक साल सीनियर थे। हमारे , विनय अवस्थी के बीच में बिनोद गुप्ता का कमरा था। बिनोद ,इन्द्र अवस्थी की कलकतिया ,स्कूली खुराफातों के चश्मदीद गवाह,हमसे एक साल बाद आये थे कालेज को कृतार्थ करने मय अवस्थी के। सभी ने मिलजुल कर मामले पर गौर फरमाया। गौर फरमाने के मजे में इजाफा करने के लिये हम लोग आगे के विचार के लिये चाय की दुकानों की शरण में गये।
चाय की दुकानें चौपाल टाइप की होती हैं। कुछ ही देर में हमारे विचार/अभियान की खबर काम भर के लोगों को हो गई थी। लोगों की प्रतिक्रियायें भी आने लगीं:-
मेरे घर में भी कुछ ऐसा सा ही हुआ। घर वालों ने सोचा -वहां ये पढ़ने गया है कि घूमने,आवारागर्दी करने? लेकिन हमारेगुरुजी फिर हमारे लिये सहायक सिद्ध हुये। हमारे घर वाले हमारे बारे में सारे निर्णय के लिये हमारे गुरुजी की राय को अंतिम मानने लगे थे। गुरुजी बोले-उसको रोकने की कोई जरूरत नहीं है। जाने दीजिये। नया अनुभव होगा।
घर वालों की सहमति के बाद हमारे रास्ते खुल गये। हम पंख फैलाकर तैयारियों के आसमान में उड़ने लगे।
इसके पहले हमारे पास यात्रा के अनुभव के नाम पर केवल कानपुर से इलाहाबाद तक की यात्रा का कुछ बार का अनुभव था। यह अनुभव हीनता ही थी जिससे हमेंलग रहा था कि यह साइकिल यात्रा भी कुछ ऐसी ही होगी। कुछ ज्यादा कठिन नहीं होगी।
सबसे पहले तो यह तय किया गया कि जाना कहां है तथा रास्ता क्या रहेगा। कुछ दोस्तों की बुजुर्गाना सलाह थी कि पहले एकाध हफ्ते की यात्रा करके देखा जाये। अगर सब कुछ ठीक रहा तो आगे की लंबी यात्रा का विचार बनाया जाये। लेकिन हम जवानी के जोश में थे। हमारा मानना था कि बेवकूफी जब करनी ही है तो कायदे से की जाये। अभी नहीं तो कभी नहीं।
बहरहाल तय हुआ कि हम बिहार, बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, पांडीचेरी, तमिलनाडु होते हुये कन्याकुमारी तक जायेंगे तथा लौटते में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश होते हुये वापस इलाहाबाद लौटेंगे। यह भी तय किया गया कि पंद्रह अगस्त का झण्डा हम कन्याकुमारी में फहरायेंगे। फिर अगले ढेड़ महीने में वापसी यात्रा करके गांधी जयन्ती के दिन वापस लौट आयेंगे।
रास्ता तय होने के बाद हम ठहरने के जुगाड़ तय करने में लग गये। हमारा कालेज रीजनल इंजीनियरिंग कालेज था। हर प्रदेश के छात्र वहां पढ़ते थे। हमने रास्ते में पड़ने वाले सारे प्रमुख शहरों के लड़कों के पते तलाशे। हर लड़का हमें खुशी-खुशी अपने घर का पता दे रहा था। हम पते के साथ-साथ चंदा भी जमा करते जा रहे थे। जो जितना दे दे। लगभग ९० दिन का प्रोग्राम था।इस हिसाब से हमने अंदाजा लगाया कि लगभग आठ-नौ हजार रुपये खर्चा होंगे। हमारे घर वालों ने एक-एक हजार दिये। बाकी के सारे पैसे हमारे दोस्तों ने अपने-अपने खर्चों में कटौती करके दिये।
उसी समय से हमें यह आभास हुआ कि अगर आप पूरे मन से कोई काम करना चाहते हैं तो पैसा कभी बाधा नहीं बनता। यह चंदा उगाहने का अभ्यास अभी दो साल पहले फिर काम आया जब इन्द्र अवस्थी के आवाहन /उकसावे पर हम लोगों ने ,अपनी दोनों टांगे एक दुर्घटना में खो चुके,एक साथी के लिये देसी-विदेशी दोस्तों के सहयोग से करीब चार लाख रुपये जुटाये। केवल दो माह में।
ऐसे समय में जब पूरे कालेज के बच्चे परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे,हम साइकिल यात्रा की तैयारी में भी जुटे थे। अगर परीक्षाओं के बीच का गैप चार दिन का होता तो हम तीन दिन साइकिल यात्रा की तैयारी करते,एक दिन परीक्षाओं की।
तैयारी में सबसे अहम काम था यह प्लान करना कि हम कहां कितने दिन रुकेंगे। उन दिनों गूगल अर्थ तो था नहीं।हम भारत का बड़ा वाला नक्शा ले आये थे। सारे रास्ते तय किये। सारे राष्ट्रीय राजमार्गों के रास्ते मुख्य रास्ते रखे हमने। जिन शहरों के बीच की दूरी दी थी वो हमने नोट की तथा बाकी के लिये ‘फुटे-परकार’ की मदद ली गई। रात के पड़ाव के लिये वे जगहें तय की गईं जहां हमारे कालेज का कोई लड़का रहता था। यह तय हुआ कि प्रतिदिन हम करीब १०० किमी चलेंगे।
इस बीच कुछ साथियों की सलाह पर हमने टटोलने शुरु किया कि कोई हमारे इस जुनून को स्पांसर कर दे। लेकिन कुछ ज्यादा सफलता नहीं हासिल हुई। केवल हीरो साइकिलवाले हमें साइकिल पर कुछ छूट देने के लिये राजी हो गये। शायद चार सौ की साइकिल २७५ रुपये में मिली हमें उन दिनों।
क्षितिज ने पलक सी खोली,जब से यह सच उजागर हुआ ,हम पता कर रहे हैं कि कविता अज्ञेयजी ने कब लिखी? हमारे यायावरी अभियान के पहले या बाद में! क्या उनको हमारे अभियान से कुछ सूत्र मिले इसे कविता को लिखने के या अपने मन से ही इतनी ऊंची चीज लिख गये!
दमककर दामिनी बोली,
अरे यायावर,
रहेगा याद।
अब यह भी बताते चलें कि दामिनी हमारे क्लास की सहपाठिका थी जिसका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं।
लेकिनजिक्र तो हम गोलू का भी कर चुके हैं। गोलू को नहीं जानते आप लोग? अरे यार, तब तो फिर बताना पड़ेगा। ये तो सबसे जरूरी चीज छूट रही थी। अच्छा हुआ याद आ गई सही समय पर।
गोलू यानि कि दिलीप गोलानी हमसे एक साल जूनियर थे। हमारे कालेज में। कानपुर के रहने वाले। संगीत टाकीज के पास घर था है। हमारा घर गांधी नगर में था पास ही। कालेज में भी हमारे गुट के चक्कर में फंस गये। और जब यह साइकिल टूर की बात हवा में बह रही थी तब वे इसी हवा में बह गये। तथा बोले हम भी चलेंगे साइकिल यात्रा पर।
वैसे कहा तो बहुत लोगों ने लेकिन कुछ दिन बाद सभी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। गोलू ने ऐसा नहीं किया। इस तरह हम साथियों की संख्या दो से बढ़कर तीन हो गयी।
गोलानी की तरफ से हम कुछ सशंकित थे क्योंकि ये ज्यादातर काम दूसरों की मर्जी से करते थे। जनभावना का आदर करते हुये गोलू ने उस कन्या से प्रेम करने की महती जिम्मेदारी भी उठाई जिसके बारे में लोगों ने बताया कि वह इनको चाहती थी। यह प्रेमालाप तीन चार साल चला। तब तक जबतक गोलू के ही एक लंगोटिया यार ने इनकी यह अस्थाई जिम्मेदारी अपने कंधों पर स्थाई रूप से नहीं उठा ली।
बहरहाल हमारी तैयारियां परवान चढ़ती रहीं। हम चंदा,दोस्तों के पते,शुभकामनायें,जगहों-रास्तों के विवरण सहेजते-समेटते रहे। हमारे इरादे पक्के होते रहे। कभी-कभी भयंकर गर्मी तथा तेज लू में दोपहर हमसे पूछती -कहां चक्कर मेंपड़े हो बालकों! इतनी गर्मी में झुलसने के अलावा और कुछ करो। छुट्टी में ऐश करो। लेकिन हम ऐसे विचारों के झांसे में नहीं आये। जितनी तैयारी हम कर चुके थे उसके बाद हम अपना इरादा मुल्तवी करने की स्थिति में नहीं थे। हम अपना और तमाम दोस्तों का भरोसा तोड़ने तोड़ कर कौन सा मुंह दिखाते अपने को।
इस बीच किसी समझदार ने सलाह दी कि जरा अपनी ताकत आजमा लो। जिस लंबी यात्रा पर जा रहे हो उसके लिये एक १००-५० किमी की यात्रा कर लो साइकिल से। कुछ अंदाजा भी हो जायेगा रास्ते की परेशानियों का। हम उस दिनों सलाहों की बहुतायत से आजिज आ गये थे तथा सलाहों पर अमल करने के पहले काफी विचार करते थे।लेकिन यह ‘टेस्ट रन ‘ वाली सलाह हमने बिना सोच-विचार के मान ली।
हमने तय किया कि हम इलाहाबाद से प्रतापगढ़ की साइकिल यात्रा ‘टेस्ट रन’ के रूप में करेंगे।
मेरी पसन्द
पहाड़ी के चारों तरफजतन से बिछाई हुई सुरंगों पर
जब लगा दिया गया हो पलीता
तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुए इंसान को
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह हारा या जीता।
उसे पता है कि
वह भागेगा तब भी
टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा
और अविचल होने पर भी
तिनके की तरह बिखर जायेगा
उसे करना होता है
सिर्फ चुनाव
कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
टुकड़े-टुकड़े हो जाये।
-डा.कन्हैया लाल नंदन
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 11 Responses
ये जानकर खुशी हुयी की आपकी साइकिल ठिक हो गयी. हम तो सोच बैठे थे, कि पता नही ये पँक्चर सुधरेगा भी या नही.
आशीष
आपकी कविता सिकुडी पर गनीमत है लेख अपनी लंबाई पर कायम रहे.
प्रत्यक्षा
इसे नियमित, साप्ताहिक, जैसे सोमवारी, रखें तो सचमुच मज़ा आएगा.
आगाज़ तो बहुत शानदार है, अब जल्द से जल्द शुरु किया जाय ये खेला।बहुत एडवर्टीजमेन्ट हो गया,चन्दा भी हो गया, जल्दी शुरु करों नही तो चाय नाश्ते में चन्दा खतम ना हो जाय, फ़िर दोबारा कोई नही देगा। सोच लेना।
अगले भाग का इन्तजार रहेगा।
मायाप्रेस वालोँ का तो बताया ही नहीँ, वहाँ तो हम भी गये थे चन्दे के लिये
धन्यवाद देते हैँ.रवि भाई सँस्कारी बालक होने के नाते हम
आपके आदेश का पालन करने का प्रयास करेँगे-हफ़्तावार
लिखने का.अवस्थी,हम कहाँ-कहाँ नहीँ गये चँदा उगाहने?लेकिन
जैसा कि रिवाज है चँदा ले के भूले जाना ही सबसे बेहतर
होता है वरना देने वाला वापस माँग सकता है.
“क्षितिज ने पलक सी खोली…..” बहुत सुन्दर कविता सी लाइन है।