अमरकंटक में
हमने नर्मदा और शोण तथा भद्र नदियों के उद्गम देखे। शोण और भद्र अपने
उद्गम से कुछ दूर आगे चलकर सोनभद्र बनते हैं। एकदम पतली धार, एक हैंडपंप से
निकलते पानी सरीखी, देखकर यह विश्वास ही नहीं होता कि यही नदियां आगे चलकर
विशाल, जीवनदायिनी नदियां बनती होंगी। नदी के उद्गम को घेरकर उसके चारो
तरफ़ चबूतरा/मंदिर/घेरा बना दिया गया है। पाइप से गुजारकर आगे भेजा गया है।
नदी में बांध तो आज बने लेकिन उनकी घेरेबंदी तो बहुत पहले से शुरु हो गयी
थी। नदी के भक्तों द्वारा।
सोनभद्र के उद्गम से तो पानी निकलता दिखता है। नर्मदा उद्गम से पानी
निकलता नहीं दिखता। एक सरोवर में खूब सारा पानी भरा है। ठहरा हुआ सा। वहीं
एक जगह बना है नर्मदा उद्गम। बताया गया कि जब सरोवर का पानी खाली किया गया
जाता है तब उद्गम दिखता है। लेकिन यह सवाल वहां भी रहा कि इतने शांत सरोवर
से ही नर्मदा प्रकट होती हैं। आगे कपिलधारा तक और फ़िर दूधधारा तक
पहुंचते-पहुंचते भी नर्मदा की धारा पतली ही रहती है। कपिल धारा, जहां से
नर्मदा नीचे आती हैं , भी एकाध फ़ुट ही चौड़ी होगी। वही नर्मदा आगे चलकर जीवन
दायिनी,
सौंदर्य की नदी बनती हैं। इतना पानी कहां से आता होगा उनमें।
शायद नदी के बहाव के साथ उनमें और धारायें/प्रपात जुड़ते जाते होंगे। कुछ
दिखते होंगे, कुछ गुप्त रहते होंगे। चुपचाप अपना योगदान देकर नदी को
समृद्ध बनाते होंगे। नर्मदा सबसे पहले निकली सो सबसे सीनियर हुई।
सीनियारिटी का उनको यह फ़ायदा हुआ कि आगे जुड़ने वाली धारायें भी उनके ही नाम
से जानी गयीं। एक नदी के निर्माण कई जलधारायें मिलती हैं। सब मिलकर पानी
का चंदा देती हैं। मुख्य नदी के निर्माण में अपना सौंदर्य जोड़ती हैं। नदी
का सौंदर्य सामूहिकता का सौंदर्य होता है। मिल-जुलकर बना सौंदर्य।
सामूहिकता का सौंदर्य भीड़ की अराजकता और कड़े अनुशासन के बीच की चीज होता
है। न एकदम बिखरा न बहुत कसा। सहज सौंदर्य।

माई
की बगिया में नर्मदा की परिक्रमा करने आये कई परकम्मावासी भी ठहरे हुये
थे। नहाते-धोते, आगे की यात्रा के लिये तैयार होते, खाना बनाते, खाते
नर्मदा भक्त। एक जगह बुढऊ-बुढिया खाना बना रहे थे। बुढिया जी रोटी बेल रहीं
थीं बुजुर्ग सेंक रहे थे। रसोई में बराबर की सहभागिता। उनके बगल में ही कई
और चूल्हे सुलग रहे थे। बगल में एक महिला तीन-चार पुरुषों के साथ खाना बना
रहीं थीं। सब कुछ न कुछ सहयोग कर रहे थे। श्रम का बराबर सा विभाजन। आदमी
लोग बरतन मांज रहे थे। शायद नर्मदा परिक्रमा आदमी-औरत में बराबरी का भाव
जगाती है। दोनों काम में हाथ बंटाते हैं।
आदमी-औरत में बराबरी का भाव जगाने के लिये उनको साथ-साथ नर्मदा परिक्रमा पर निकल पड़ना चाहिये।
बाहर देखा कि कुछ लोग नर्मदा की वाहन से परिक्रमा पर निकले थे। सबके
रहने का बराबर से इंतजाम। एक जगह तीन नर्मदा यात्री तम्बूरा लिये नर्मदा
भजन गा रहे थे। भावविभोर। भजन के भाव थे- नर्मदा मैया सबका भला करती हैं,
कल्याण करती हैं। नरसिंहपुर से कई यात्री आये थे।

आगे
हम लोग पातालेश्वर मंदिर देखने गये। दसवीं-बारहवीं सदी में बने मंदिर। कहा
जाता है कि पातालेश्वर मंदिर स्थित शिवलिंग की जलहरी में सावन के अंतिम
सोमवार को नर्मदाजी का प्रादुर्भाव होता है। पुरातत्व विभाग द्वारा
संरक्षित इस परिसर में कई मंदिर हैं। दसवीं-बाहरवीं शताब्दी के मंदिरों के
बीच एक मंदिर पर किन्हीं पुजारी जी का कब्जा भी है। उन्होंने अपना अतिक्रमण
बना रखा है। खूबसूरत परिसर में वह कब्जा मखमल में टाट के पैबंद की तरह लग
रहा था। उसकी एक छत का लेंटर लटक गया था।
दोपहर का खाना हमने बसंत भोजनालय में खाया। मालिक/मैनेजर शायद कोई दुबे
जी थे। रोटी बेल रहे थे। दूसरा सेंक रहा था। किसी बात पर दुबे जी और
खाना परसने वाले में बहस होने लगी। दोनों अपना-अपना काम करते हुये बहस करते
जा रहे थे। खाना परसने वाले ने उलाहना दिया कि मैनेजर उसको उल्टा-सीधा
काम बताता रहता है, ये करो, अब वो करो। मैनेजर ने बयान जारी किया-
हमको अधिकार है इस बात का। तुम जब हमारा काम संभालने लायक हो जाओगे तब तुम भी काम बताने के अधिकारी हो जाओगे। दोनों काफ़ी देर तक बहस करते थे, अपना काम करते हुये। हम उनकी बहस सुनते हुये खाना खाते रहते। वहीं एक जगह हमें लिखा दिखाई दिया-
कृपया शांति बनाये रखें। यह शायद ग्राहकों के लिये था। जगह की कमी के कारण शायद इत्ता ही लिखा। जगह होती तो पूरी बात लिखी जाती-
कृपया शांति बनाये रखें ताकि हम बहस कर सकें।

साठ
रुपये में पूरी थाली खाना खाकर हम तृप्त हो गये। एकाध जगह और
फ़ास्टफ़ार्वर्ड मोड में देखी। इसके बाद गेस्ट हाउस परिवार से विदा लेने गये।
मालकिन हमारे कमरे में अलसाई सो रहीं थीं। डुप्लीकेट चाबी से कमरा खोलकर।
हमने कमरों का किराया दिया जिसे ध्यान से दो बार गिना गया। घर टाइप गेस्ट
हाउस में ठहरने का फ़ायदा हुआ कि ठहरने के अलावा किसी और चीज के पैसे नहीं
लगे। चाय, पकौड़ी, मिठाई और गर्मजोशी और मुस्कान मुफ़्त में मिली। चलते-चलते
हमने एक बार फ़िर से मालकिन को बाल झड़ने से बचाने का दवा बताई-
मस्त रहा करिये। वे फ़िर मुस्करा दीं।
खाना कुछ ज्यादा ही खा लिया था शायद। लौटते हुये काफ़ी देर तक ऊंघते रहे।
रास्ते में जगह-जगह परकम्मावासी दिखे। हम लोग ढिढौंरी (अमरकंटक से 80
किमी) तक गाड़ी बहुत धीमे-धीमे चलाते रहे। बीच-बीच में आंखे चौड़ी करके खोलते
रहे ताकि जगे-जगे से रहें। ढिढौंरी के बाद नींद विदा सी हो गयी। गाडी ने
इस्पीड पकड ली। हम देर रात पहुंच गये जब्बलपुर।
इति श्री अमरकंटक यात्रा कथा।
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