Wednesday, September 18, 2013

हिन्दी दिवस पर कवि सम्मेलन

http://web.archive.org/web/20140402081134/http://hindini.com/fursatiya/archives/4762

हिन्दी दिवस पर कवि सम्मेलन

हिन्दी दिवस14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। तरह-तरह के आयोजन होते है। प्रतियोगितायें भी। नारा प्रतियोगिता, काव्य प्रतियोगिता, टिप्पण लेखन। आदि-इत्यादि। वगैरह-वगैरह। एक्सेट्रा-वेक्सेट्रा! कुछ जगह तो सारा काम हिन्दी में होने लगता है- हिन्दी सप्ताह में। हिन्दी लिख-पढ़ लेने वाले लोग ऐसे मौके पर पंडितजी टाइप हो जाते हैं। उनके हिन्दी मंत्र पढ़े बिना किसी कोई फ़ाइल स्वाहा नहीं होती। काम ठहर जाता है। हिन्दी का जुलूस निकल जाने का इंतजार करती हैं फ़ाइलें। हिन्दी सप्ताह बीते तब वे आगे बढ़ें।
साहब लोग हिन्दी का ककहरा जानने वालों को बुलाकर पूछते हैं- पांडे जी अप्रूव्ड को हिन्दी में क्या लिखते हैं? स्वीकृत या अनुमोदित? ’स’ कौन सा ’पूरा या आधा’ , ’पेट कटा वाला’ या सरौता वाला?
काव्य प्रतियोगिताओं में लोग हिन्दी का गुणगान करने लगते हैं। छाती भी पीटते हैं। हिन्दी को माता बताते हैं। एक प्रतियोगिता में दस में से आठ कवियों ने हिन्दी को मां बताया। हमें लगा कि इत्ते बच्चे पैदा किये इसी लिये तो नही दुर्दशा है हिन्दी की?
कुछ जगह कवि सम्मेलन भी कराया जाता है। कवियों की मांग बढ़ जाती है। निठल्ले घूमते तुक्कड़ कवि का भी शेड्यूल बन जाता है। Y2K के समय की बोर्ड पर हाथ धरने वाले अमेरिका चले गये कम्प्यूटर एक्सपर्ट बनकर। हिन्दी दिवस के मौके पर तमाम चुटकुले बाज भी धड़ल्ले से वहां कविता पढ़ आते हैं जहां दीगर दिनो में वे प्रवेश भी न पा सकें।
ऐसे ही हिन्दी दिवस के मौके पर आयोजित एक कवि सम्मेलन के हम गवाह बने। चार-पांच कवि बुलाये गये थे कवि सम्मेलन में। कैंटीन के हाल में मंच सजा। आम दिनों में जिन मेजों पर थालियां सजतीं थी उन पर चद्दर डालकर कवियों को सजा दिया गया। जहां खाने का सामान् सजता था कभी वहां सुनने का सामान विराज रहा था। मेजें सब दिन जात न एक समान सोचती हुयी सी चुप थीं। वैसे भी कवि कहीं भी कविता पढ़ सकता है। अज्ञेय जी ने नदी में खड़े होकर कविता पढ़ डाली।
मेजें उठक-पटक का शिकार थीं। पायों में योजना विभाग की नीतियों की तरह मतभेद था। पायों के मतभेद की शिकार मेज पर जब कोई कवि हिलता तो मेज उनकी विचारधाराओं की तरह हिलने लगती। कवि आमतौर पर विचारधारा से मुक्ति पाकर ही मंच तक पहुंचता है। किसी विचारधारा से बंधकर रहने से गति कम हो जाती है। मंच पर पहुंचा कवि हर तरह की विचारधारा जेब में रखता है। जैसा श्रोता और इनाम बांटने वाला होता है वैसी विचारधारा पेश कर देता है। सब कवि नीरजजी जैसे ईमानदार तो नहीं होते न जो खुलेआम कह सकें कि कविता के अलावा जिन्दगी में उनको जो भी मिला सब नेता जी ने दिया।
हाल में मेजों पर बैठे कवियों के सामने श्रोता जम गये। शिकार और शिकारी आमने-सामने। बंद हाल में कविता पढ़ते हुये कवि के सामने कई चुनौतियां होती हैं। श्रोता शरीफ़ों की तरह बैठें हो तो कवि को भी शरीफ़ बनना पड़ता है। समय का बंधन हो तो कवि असहज हो जाता है। समय बांधकर कवि से कविता पढ़वाना उससे कविता उगलवाने जैसा होता है। कवि को मजा नहीं आता लेकिन क्या करे? कविता पढ़ता है मजबूरी में। मां शारदे को प्रणाम करके।
बहरहाल कवितायें शुरु हुईं। सरस्वती वंदना के बाद। कवियों को पता है कि सामने बैठे श्रोता दो घंटे ही बैठेंगे। इसके बाद छुट्टी होते ही इनका कविता प्रेम कपूर की तरह हवा हो जायेगा। पांच बजते ही स्कूल की घंटी बजते ही बस्ता लेकर भाग जाने वाले बच्चों की तरह फ़ूट लेंगे। इसलिये हर कवि पहले पढ़ लेना चाहता है। कोई कोई ज्यादा समझदार कवि तो संचालक से कह भी देता है- भाईसाहब मुझे पहले पढ़वा दीजियेगा। जरा फ़लानी जगह जाना है। लेकिन और ज्यादा समझदार संचालक झांसे में नहीं आता। नंबर के हिसाब से कविता पढ़वाता है।
एक कवि ने शुरुआती वाह-वाही से भावविभोर होकर अपनी लंबी कविता शुरु की- आशीर्वाद चाहूंगा कहकर। बाकी कवि कसमसा गये। मेज जोर से हिली। एक ने दूसरे के कान में कहा- ये तो पन्द्रह मिनट खा जायेगी। दूसरों का भी तो ख्याल रखना चाहिये। कवि कविता पढ़ने में तल्लीन है। समय,श्रोता, साथी कवि किसी का लिहाज नहीं है उसे। मां भारती की गोद में नादान शिशु की तरह अठखेलियां करता करता शिशु हो जैसे। श्रोता वाह-वाह कहते हैं तो दुबारा पढ़ता है भाव विभोर होकर। चुप रहते हैं तो एक बार और दुबारा पढ़ता है यह सोचते हुये कि शायद श्रोता सुन नहीं पाये उसको ।
बाकी के कवि कविता पढ़ते कवि को रकीब की तरह देखते है। उसकी डायरी को सौत की नजर से। मन ही मन वह अपनी कविता भी छांटता है। चुपके से डायरी पलटते हुये सोचता है कि कौन सी कविता पढ़ेगा आज। वैसे ही जैसे अमेरिका किसी देश पर हमला करने के बहाने खोजता है।
कोई-कोई कवि जब देखता है कि श्रोताओं का मन उससे उचट गया तो वो चुटकुले सुनाने लगता है। वैसे आजकल के ज्यादातर कवि अधिकतर तो चुटकुले ही सुनाते हैं। बीच-बीच में कविता ठेल देते हैं। श्रोता चुटकुला समझकर ताली बजा देते हैं तो अगला समझता है- कविता जम गयी।
विदेश घूमकर आये कवि का कवितापाठ थोड़ा लम्बा हो जाता है। वो कविता के पहले, बीच में, किनारे, दायें, बायें अपने विदेश में कविता पाठ के किस्से सुनाना नहीं भूलता। सौ लोगों के खचाखच भरे हाल में काव्यपाठ के संस्मरण सालों सुनाता है। फ़िर मुंह बाये , जम्हुआये श्रोताओं की गफ़लत का फ़ायदा उठाकर अपनी सालों पुरानी कविता को -अभी ताजी, खास इस मौके पर लिखी कविता बताकर झिला देता है।
कोई-कोई कवि किसी बड़े कवि के नाम का रुतबा दिखाता है। दद्दा ने कहा था- कि बेटा तुम और कुछ भी न लिखो तब भी तुम्हारा नाम अमर कवियों में लिखा जायेगा। कुछ कवि अपने दद्दाओं की बात इत्ती सच्ची मानते हैं कि उसके बाद कविता लिखना बंद कर देते हैं। जैसे आखिरी प्रमोशन पाते ही अफ़सर अपनी कलम तोड़ देते हैं। अपनी अमर कविता के बाद कोई और कविता लिखकर वह मां भारती का अपमान नहीं करना चाहता। अमर कविता की रेढ़ पीटता है। जनता का आशीर्वाद मांगता है।
करते-करते पांच बजने को हुये। आखिरी कवि को आवाज दी गयी। बहुत तारीफ़ के साथ। कवि ने घड़ी के साथ श्रोताओं का कसमसाना देख लिया था। लेकिन उसे अपनी अमर कविता पर भरोसा था। आंख मूंदकर भावविभोर होकर कविता पढ़ता रहा कवि। श्रोता खिसकते हुये दरवाजे की तरफ़ बढ़ते गये। कवि को एहसास सा हुआ कि कविता लौट-लौटकर उस तक ही आ रही है। लेकिन वह पढ़ता रहा। छुट्टी का समय होते ही हूटर बजा। सारे सुधी श्रोता कांजी हाउस की दीवार टूटते ही अदबदाकर बाहर भागते जानवरों की तरफ़ फ़ूटने लगे। कवि ने पैसेंजरी लय समेटते हुये राजधानी की स्पीड पकड़कर कविता पूरी की। उसे दद्दा याद आ रहे थे जिन्होंने कहा था- बेटा तुम्हाई जे कबिता अमर कबिता है।
कविता मैदान से पीठ दिखाकर भागते श्रोताओं की तरफ़ स्नेह से निहारते हुये संचालक ने सबको धन्यवाद दिया। कवियों को लिफ़ाफ़ा थमाते हुये वह मन ही मन संकल्प कर रहा था कि अगली बार नास्ता पहले नहीं आखिरी में बंटवायेगा। चाय की जगह कोल्ड ड्रिंक रखेगा।
ऐसा हमने हिन्दी दिवस पर एक कवि सम्मेलन में देखा। आपने भी कोई कवि सम्मेलन सुना?

मेरी पसन्द

रमानाथ अवस्थी
रमानाथ अवस्थी
आज इस वक्त आप हैं,हम हैं
कल कहां होंगे कह नहीं सकते।
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।

वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिये
प्यास पथरा गई तरल बनिये।
जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
आप मीरा का वह गरल बनिये।
जिसको जो होना है वही होगा,
जो भी होगा वही सही होगा।
किसलिये होते हो उदास यहाँ,
जो नहीं होना है नहीं होगा।।
आपने चाहा हम चले आये,
आप कह देंगे हम लौट जायेंगे।
एक दिन होगा हम नहीं होंगे,
आप चाहेंगे हम न आयेंगे॥

रमानाथ अवस्थी

5 responses to “हिन्दी दिवस पर कवि सम्मेलन”

  1. soniya srivastava
    बड़ी मजेदार अभिव्यक्ति है. इतना सरल और सच वर्णन आप ही कर सकते है. ये किसी और के बूते की बात नहीं है. वाकई हम लोगों में यही कमी है की १००० रुपये खर्च करके एक घटिया सी फिल्म देख लेंगे पर दिल को छू लेने वाली कविताएं नहीं सुन पायेंगे वो भी मुफ्त में. यही भारतीय कविता की विडंबना है.
    इतनी अच्छी पोस्ट लिखने के लिए मेरी बधाई स्वीकार करे.
  2. dr parveen chopra
    आप का लेख हमेशा की तरह यथार्थ पर आधारित और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है।
    पढ़ कर मज़ा आ गया…. लेख पढ़ते पढ़ते कितनी बार हंसी रोक नहीं पाया।
    dr parveen chopra की हालिया प्रविष्टी..बलात्कार केस में पोटैंसी टेस्ट बोलें तो…
  3. प्रवीण पाण्डेय
    एक अजब सी उलझन होती है जब भी यह दिन आता है, समझना कठिन होता है कि प्रसन्न हों कि दुखी।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..एप्पल – एक और दिशा निर्धारण
  4. sanjay jha
    - आशीर्वाद चाहूंगा ………????????????
    प्रणाम.
  5. : फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] हिन्दी दिवस पर कवि सम्मेलन [...]

Tuesday, September 17, 2013

ऐसे गुजरा पचासवां जन्मदिन

http://web.archive.org/web/20140402081042/http://hindini.com/fursatiya/archives/4751

ऐसे गुजरा पचासवां जन्मदिन

जन्मदिनकल हम पचास के हो गये। फ़ेसबुक, फ़ोन और मेल में झमाझम शुभकामनाओं की बारिश हुई। जन्मदिन की शुरुआत तो खैर एक दिन पहले ही कानपुर में हो गयी। पत्नीश्री हमको घसीटकर मॉल में ले गयीं। वे हमारे लिये कुछ उपहार लेना चाहती थीं।अपने पैसे बचाने की मंशा से हम उनको मोतीझील में लगे पुस्तक मेले में ले गये। फ़टाफ़ट किताबें छांटकर अपने ए.टी.एम. से भुगतान किया और घर में आकर उनसे कहा ये उपहार तुम्हारी तरफ़ से हमारे लिये। देखियें किताबों के नाम:
  1. पूछिये परसाई से- परसाई जी के सवाल-जबाब का संकलन
  2. खेल सिर्फ़ खेल नहीं है- प्रभाष जोशी
  3. अलग-ज्ञान चतुर्वेदी
  4. व्योमकेश दरवेश (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण)- विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी
  5. आखिरी कलाम- दूधनाथ सिंह
  6. गंगा स्नान करने चलोगे- विश्वनाथ त्रिपाठी
  7. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती
  8. 17 रानाडे रोड- रवीन्द्र कालिया
  9. ट-टा प्रोफ़ेसर- मनोहर श्याम जोशी
  10. चोर का रोजनामचा-ज्यॉं जेने
किताबें श्रीमती जी के सामने धरकर हमने कहा कि भाई अपने दिये उपहार पर अपने हाथ से कुछ लिख तो दो- कुछ कुछ ऐसे जैसे पैसे वाले तमाम लेखक अपने को सम्मानित करने का पूरा खर्चा उठाते हैं। लेकर पोस्टर, निमंत्रण पत्र , फ़ूल माला और इनाम राशि के। इसके बाद फ़ुल विनम्रता से सम्मानित होते हैं। लिखवाने की जिद इसलिये भी थी कि बाद में कोई किताबों पर हुये खर्चे के लिये टोंक न सके और इसलिये भी कि इसके बाद उपहार के नाम पर कोई और खर्चा न हो।
बहरहाल पत्नी जी अपनी मोतियों सरीखी सुन्दर लिखावट (यही कहा जाता है भाई और यह सच भी है) किताबों पर सप्रेम भेंट लिखा। एक में तो यह लिखा-


ऐसे ही निरन्तर लिखते रहो।
इसको हमने सहेज के धर लिया है। कभी समय बरबादी के लिये टोके जायेंगे तो कह देंगे कि -तुम्ही ने कहा था निरन्तर लिखने को।
इसके बाद जबलपुर के लिये चल दिये। सोमवार के दिन दफ़्तर में कई काम के चलते वापस आ जाना पड़ा। ट्रेन में ही शुभकामनाओं की बौछार शुरु हुई जो जबलपुर पहुंचते-पहुंचते धुआंधार में बदल गयी। हाल ये हुआ कि पूरा दिन शुभकामनायें बटोरते बीता। शेर में कहा जाये तो:


जन्मदिन के लिये मिला था बस एक दिन यार,
आधा संदेसे बांचते बीता, आधा फ़ोन पर बात करते।
संस्कारधानी लौटते ही ’कट्टा कानपुरी’ की आत्मा सवार हो गयी। ’कट्टा कानपुरी’ ने ये चिरकुट सी तुकबंदी एक पुर्जे में घसीटकर थमा दी कि ये डालो फ़ेसबुक पर:


हुये पचास के अपन आज,
रहे चकरघिन्नी से नाच। गंगा-नर्मदा के बीच फ़ंसे हैं,
’चित्रकूट’ बनाती बिगड़े काज।
हाफ़ संचुरी तो निकल गयी,
किया न कोई काम न काज।
घरवाले कहते हैं ऐसे ही हैं जी,
दोस्त बताते -पक्का लफ़्फ़ाज।
दफ़्तर में क्या बोलेगा कोई,
साहब न हो जायें नाराज।
अब खुदई कुछ देखेंगे जी ,
नवका कौन बजेगा साज ।
शुभकामनायें भेजी हैं सबने,
हैं आभारी हम बहुतै आज।
-कट्टा कानपुरी
ये तुकबंदी बांचकर कुछ लोगों ने अपने भी हाथ भी साफ़ कर लिये। कविता कब्ज से मुक्त हुये। लेकिन हमारी कालेज की सहपाठिन रहीं श्रीमती ज्योति शुक्ला ने हड़काते हुये लिखा- विनम्रता की भी हद होती है। जन्मदिन पर लिखी कविता अच्छी है लेकिन सच्ची नहीं। उनके हिसाब से हम अपनी तुकबंदी में विनम्रता की हद पार कर गये। और झूठी कविता लिखी। लेकिन हमारा कहना है कि भाई विनम्रता पर कब तक गुंडों, माफ़िया और जनसेवकों का कब्जा बना रहेगा। आम आदमी का भी तो कुछ हक बनता है न विनम्रता पर। और अगर कविता सच्ची नहीं तो वो तो मेरी ही बात की पुष्टि है- दोस्त बताते -पक्का लफ़्फ़ाज।
जन्मदिन जैसे मौके ऐसे होते हैं जब आदमी थोड़ा भाऊक टाइप होकर सोचने लगता है और जीवन क्या जिया अब तक क्या किया वाली प्रश्नावली में उलझ जाता है। फ़िर हमारा तो मामला पचास का था। सौ साल अगर अलॉट होते हों तो दो आश्रमों और पचास-पचास के ’ब्रिटेनिया बिस्कुट’ जैसी स्थिति में खड़े होकर सोचा कि एक ठो और तुकबंदी ठेल दें जिसकी शुरुआत हो:
खाक जिया, बर्बाद किया,
घंटा जिया बस टंटा किया।
लेकिन ’कट्टा कानपुरी’ ने इस तुकबंदी पर लिखने से इंकार कर दिया यह कहते हुये कि एक तुकबंदी बहुत है तुम्हारे लिये। ज्यादा से दिमाग में गैस भर जायेगी। अपने को खास समझने लगोगे।
जन्मदिन के मौके का फ़ायदा उठाकर मैंने अपने एक दोस्त को मित्र भावुकता के पाले में घसीटकर अपने बारे में उनकी राय पूछी। अगला उछलकर भावुकता के पाले से बाहर हो गया और दार्शनिककता और दुनियादारी की देहरी पर खड़ा होकर कहा- हम अपने को जित्ता अच्छा बनाना चाहते हैं उसका अगर दस प्रतिशत भी बना सकें तो वही बहुत है। मतलब साफ़ कि अच्छी-अच्छी बातें बनाने से बेहतर है कि अच्छा बनने का सच्चा प्रयास किया जाये।
आश्रम के लिहाज से गृहस्थ से वानप्रस्थ में सरक गये। पिछले डेढ़ साल से घर से बाहर हैं तो इसके लिये कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम में अच्छी परफ़ार्मेन्स देखते हुये आश्रम प्रमोशन पहले हो गया? वापस गृहस्थी में लौटने के लिये छटपता रहे हैं जैसे छंटे हुये कर्मचारी नेता स्टॉफ़ का प्रमोशन ठुकराकर हमेशा कर्मचारी ही बने रहना चाहते हैं ताकि मजे करते रह सकें।
कल ही एक और मित्र का रात को फोन आया। बताया कि वो हमारा ब्लॉग पिछले तीन-चार सालों से पढ़ रहे हैं। कुछ पोस्टों को पढ़कर रो चुके हैं। कुछ से हौसला बंधा। तीन साल से बात करने की सोच रहे हैं लेकिन मारे संकोच के बात करने की हिम्मत न जुटा सके। जन्मदिन के मौके पर उनका बात करना अच्छा लगा। बहुत देर तक बातें हुईं। यह भी लगा कि सालों तक जुड़े रहने के बाद भी बातचीत के अभाव में हम आपस में एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं।
ऐसे तो कई मौकों पर घर से बाहर जन्मदिन मना। लेकिन कल शाम एकदम अकेले पन में बीता। यहां किसी को हवा ही नहीं थी कि हमारा जन्मदिन है। घर में होते तो अम्मा गुलगुले बनाती। पत्नीश्री जबरियन केक कटवाती। कुछ उपहार और जरूर ले आतीं। बच्चों के साथ अपन भी बच्चे बनते। आश्रम शिफ़्टिंग इतने चुपचाप तो नहीं ही होती। घर से दूर होने का एहसास कल कुछ ज्यादा ही हो गया।
जन्मदिन के मौके पर तमाम मित्रों, शुभचिन्तकों की शुभकामनायें और प्यार मिला। सबको घटनास्थल पर जैसा मिला जहां मिला के हिसाब से धन्यवाद और आभार देने का प्रयास कर रहा हूं। जिनको जबाब नहीं दे पाया किसी चूक के चलते उनको यहां खुले आम आभार दे रहा हूं। जो मित्र शुभकामनायें भेजने में चूक गये उनकी शुभकामनायें भी जबरिया ग्रहण करके उनके प्रति आभार प्रकट कर रहे हैं।
इति श्री जन्मदिन कथा।

मेरी पसन्द



परेशानी
आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते।
संबध सभी ने तोड़ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोड़े,
सब हाथ जोड़ कर चले गये,
पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े।


परेशानी
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते।
मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकड़े,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकड़े।

परेशानी
जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते।

–कन्हैयालाल बाजपेयी

13 responses to “ऐसे गुजरा पचासवां जन्मदिन”

  1. सतीश सक्सेना
    - कनुप्रिया दो बार खरीद / मार लाये हो, उसे बापस कर आइये..
    सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..हाय द्रवित मन मेरा कहता, काश साथ तुम मेरे होतीं -सतीश सक्सेना
  2. हर्षवर्धन
    चलिए पचासा तो आप भी ठोंक ही दिए :) विनम्रतापूर्वक जबर्दस्ती वाले उपहार के लिए बधाई।
  3. Anonymous
    अत्यन्त हदयस्पर्शी लेख लिखा है आपने सर! हँसी- हँसी में बहुत गूढ बातें कह दीं आपने सर! पुस्तक मेले में मुझे भी जाना है
  4. sanjay jha
    “ऐसे ही निरन्तर लिखते रहो।” ………बेशक ऐसे ही लिखते रहिये.
    पोस्ट हँसी-हँसी में ………. सेंटी करनेवाला है……..
    दुसरे वाले ‘कट्टा-शेर’ पूरे हों बब्बर शेर के तरह…………
    आपकी पसंद ……….. खूब पसंद आया………
    प्रणाम.
  5. रवि
    चलिए, हमारी भी ले ही लीजिए – बधाई!
    वैसे, पचासवां हो या इक्यावनवां, कउनो फर्क नहीं है – काहे कि हम पचासवां इक्यावनवां तो दो तीन साल पहले ही निपटा चुके हैं!
    रवि की हालिया प्रविष्टी..सॉफ़्टवेयर स्थानीयकरण में मानक लाने के लिए FUEL के बढ़ते कदम
  6. पंछी
    Your posts are amazing blend of emotions and humour…One of my favourite blogger :)
    पंछी की हालिया प्रविष्टी..Poem on Positive Attitude in Hindi
  7. suman patil
    जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं जबरिया नहीं हार्दिक है स्वीकारे :)
    हंसी हंसी में बहुत कुछ सार्थक पढ़ने को मिला आभार !
  8. देवेन्द्र बेचैन आत्मा
    वाह! सुंदर पोस्ट। आपकी पसंद हमेशा की तरह लाज़वाब।
  9. यशवन्त
    कल 19/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!
  10. प्रवीण पाण्डेय
    आपको अर्धशती की शत कामनायें।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..एप्पल – एक और दिशा निर्धारण
  11. Abhishek
    :)
    Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संयोग
  12. Sahayogi
    आपकी लेखनी धाराप्रवाह चलती है और विचार बहुत सुंदरता से प्रकट होते हैं. मुझे आपका यह ब्लॉग बहुत ही पसंद आया. मैं आपकी तरह कोई कवी तो नहीं हूं इसलिए कोई दोहा या पंक्ति, आपकी तारीफ में नहीं लिख सकता इसका अफसोस है, और रहेगा.
  13. : फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] ऐसे गुजरा पचासवां जन्मदिन [...]

Wednesday, September 11, 2013

रुतबा दिखाने की मासूम ललक

http://web.archive.org/web/20140420082455/http://hindini.com/fursatiya/archives/4733

रुतबा दिखाने की मासूम ललक

बिना टिकटकल जबलपुर रेलवे स्टेशन पर धरपकड़ हुई। तमाम लोग बेटिकट पकड़े गये। जुर्माना भरवाया गया। बेटिकट लोगों में एक डीएसपी और एक एसडीएम भी थे। एसडीएम के साथ उनका गनमैन भी था- जैसे अमेरिका के साथ इंग्लैंड लगा रहता है। पकड़े जाने पर गनमैन ने तो जुर्माना भर दिया लेकिन साहब ने सबको देख लेने की धमकी देते हुये दौड़ लगा दी। सरपट निकल लिये। पुलिस वाले उनको पकड़ न पाये। डीएसपी साहब ने पहले तो अपना रौब दिखाया लेकिन स्टाफ़ के न झुकने पर उन्होंने तत्काल जुर्माना भरा और ये बोलते हुये चले गये कि सबको अपना रुतबा दिखाने का मौका ऊपर वाला जरूर देता है।
यात्रा में बेटिकट चलना तो खैर आम बात है। लेकिन जुर्माना वसूला जाना खास बात है। आपसी सहमति से लेन-देन हो जाने का चलन ज्यादा है। इससे दोनों पक्षों को आराम रहता है। जुर्माना वसूली में अमला लगता है। तमाम लोग चाहिये। लिखा पढ़ी होती है। हिसाब करना पड़ता है। समझाना पड़ता है। फ़िर खजाने में जमा करना पड़ता है। समय की बरबादी होती है। रुपये को कई जगह धक्के खाने पड़ते हैं। जुर्माना वसूली की इस बहुआयामी समस्या का सहज हल आपसी लेन-देन होता है। एक के हाथ का मैल दूसरे की जेब में चला जाता है। गंदगी (पैसे) का स्थानान्तरण दो लोगों तक ही सीमित रहता है।
इस जुर्माना कथा का अध्ययन करने पर कुछ और पहलू दिखते हैं। दिन भर चले इस जुर्माना यज्ञ में तमाम लोग पकड़े गये। लेकिन विस्तार से वर्णन डीएसपी और एसडीएम का ही हुआ। अखबार वाले की नजर भेदभाव पूर्ण है। यह नौकरशाही को बदनाम करने की साजिश है। उसका मनोबल गिराने का षडयंत्र है। उनकी सार्वजनिक निजता का उल्लंघन है।
यह एक तरह से आम जनता का भी अपमान है। बेटिकट चलने की बहादुरी आम आदमी ने भी दिखाई और खास आदमी ने भी। लेकिन चर्चा खास आदमी की हुई। आम आदमी का जिक्र गोल। मीडिया का यह रवैया भेदभाव पूर्ण है।
डीएसपी साहब के जुर्माना भरने और एसडीएम साहब के सरपट भाग लेने से यह पता चलता है पकड़े जाने पर पुलिस के अधिकारी कानून की ज्यादा इज्जत करते हैं। एसडीएम कानून अपने हाथ में लेकर फ़ूट लेते हैं।
पुलिस के सिपाही भागते एसडीएम को पकड़ न पाये इससे अंदाजा लगता है कि प्रशासन के लोग मौका पड़ने पर बहुत तेज काम करते हैं। एसडीएम साहब के भागने की खबर सुनकर रागदरबारी के सनीचर के भागने की बात याद आ गयी। साहब को तो खोजखाज कर सम्मानित करना चाहिये कि साहब होने के बावजूद वे इत्ती तेज भाग लेते हैं कि पुलिस वाले उनको पकड़ नहीं पाते।
रागदरबारी में ही “अफ़सर नुमा चपरासी और चपरासी नुमा” अफ़सर का जिक्र है। यहां डीएसपी और एसडीएम का जिक्र है। एसडीएम फ़ूट लिये। डीएसपी खड़े रहे। डीएसपी का काम दौड़ने-भागने का होता है। एसडीएम का कुर्सी तोड़ने का। दोनों ने अपने काम के स्वभाव के विपरीत आचरण किया। दौड़ने वाला खड़ा रहा, बैठने वाला फ़ूट लिया। मामला एसडीएम नुमा डीएसपी और डीएसपी नुमा एसडीएम सरीखा हो गया। इससे एक बार फ़िर से सिद्ध हुआ कि भारत की नौकरशाही अपना काम मन लगाकर करने की आदी नहीं।
डीएसपी के रुतबा दिखाने का मौका मिलने वाली बात से अपने यहां की नौकरशाही के मिजाज की झलक मिलती है। बेटिकट यात्रियों से बिना किसी से भेदभाव किये जुर्माना वसूलना यों तो रूटीन काम है लेकिन डीएसपी इसे रुतबा दिखाना समझता है। इससे पता चलता है कि अपने यहां कि नौकरशाही अपना रूटीन काम तभी करती है जब उसका रुतबा दिखाने का मन होता है। अपना काम करना मतलब रुतबा दिखाना।
इसी समय मुझे पिछले दिनों रेलवे बोर्ड के एक मेंबर द्वारा रेलमंत्री को घूस देते हुये पकड़े जाने का किस्सा याद आ गया। लोग बताते हैं कि मेम्बर को लपेटने वाले पुलिस अधिकारी पहले कभी मेम्बर के ही अधीन थे। आरपीएफ़ में। मेम्बर कभी उन पर रुतबा दिखाते थे। पुलिस अधिकारी ने कसम खायी थी कि वे भी कभी अपना रुतबा दिखायेंगे। जैसे कभी चाणक्य ने खायी होगी नंद वंश का नाश करने के लिये। बाद में वे पुलिस अधिकारी सीबीआई में आ गये। सीबीआई की पोस्ट उनके लिये चन्द्रगुप्त साबित हुई। मौका ताड़कर उन्होंने मेम्बर को रुतबा दिखा दिया। उनकी रेलवे बोर्ड की मेम्बरी का नाश कर दिया। चेयरमैन बनने के सपने का संहार कर दिया। मेम्बर अन्दर हो गये। उनके रुतबे की पारी समाप्त हो गयी। रेलवे बोर्ड के मेम्बर का घूस देते हुये पकड़ा जाना वास्तव में भारतीय नौकरशाही की ’रुतबा दिखाने की मासूम ललक’ का प्रदर्शन था।
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में नौकरशाही उत्ती निकम्मी नहीं है, जित्ता हल्ला मचता है। वास्तव में उसको अपना रुतबा दिखाने के मौके नहीं मिलते। रुतबे के सारे मौके जनप्रतिनिधि, माफ़िया, गुंडे , ठेकदार और मठाधीश लूट ले जाते हैं। वे बेचारे रुतबे के मौके के अभाव में दीन-हीन बने रहते हैं। पकड़े जाने पर रेलवे का जुर्माना तक भरना पड़ता है।
बहुत हुआ। अब दफ़्तर चलकर कुछ रुतबा दिखाने का जुगाड़ किया जाये। :)

16 responses to “रुतबा दिखाने की मासूम ललक”

  1. sanjay jha
    क्या बात है……………..बरे मासूमियत से धोया गया???
    प्रणाम.
  2. soniya srivastava
    बड़ी मजेदार पोस्ट है लेकिन है बिलकुल सत्य मैंने भी कई बार सार्वजनिक रूप से लेनदेन का दृश्य देखा है लेकिन तब इतना मजेदार नहीं लगा जितना पढ़कर लगा. वाकई आपमें सामान्य लगने वाली घटनाओं को विशिष्ट बनाने की अद्भुत क्षमता है
    अतिसुन्दर
    बधाई
  3. Tarunkulshrestha
    V nice sir.keep it up.maa sarsvati ki kripa apki kalam ko ase he milti rhe
  4. Kajal Kumar
    रेल में बेटि‍कट यात्रा करने का अनुभव अपना भी है और वह भी एक डि‍वि‍ज़नल कमि‍श्‍नर साहब और लाव-लश्‍कर के साथ. जि‍स स्‍टेशन से रेल पकड़ी उस शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था. 2 स्‍टेशन बाद उतरना था. समझ ही नहीं आया था यात्रा इस कि‍ पूरे उपक्रम में टि‍कट खरीदी कब की जानी चाहि‍ए थी.
    Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- उपले थापता, तै बेरा पाटता
  5. arvind mishra
    छपने लायक पोस्ट :-)
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..मुझ पर पड़े बीस नौकरी के वर्ष तीस!(श्रृंखला)
  6. प्रवीण पाण्डेय
    जय हो, विधिवत धोया है, सब स्वच्छ और निर्मल दिखने लगा।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..पर्यटन – रेल अपेक्षायें
  7. amit kumar srivastava
    एक किस्सा याद आ गया । एक रेलवे क्रासिंग के केबिन में केबिन मैन की बीबी उसका खाना लेकर आई हुई थी । अचानक से केबिन मैन को अपना ‘रूतबा’ दिखाने की सूझी । उसने अपनी बीबी से कहा , देखो मेरा ‘रूतबा’ देखना है ,मै जब चाहूँ फाटक बंद कर सकता हूँ और सारे ये बड़े बड़े मोटर वाले लोग ठहर जाते हैं और मेरा इंतज़ार करते हैं कि कब मै फाटक खोलूँ । ऐसा कहते हुए उसने अचानक फाटक बंद कर दिया । सारा ट्रैफिक ठहर सा गया । बीबी खुश , वाह क्या ‘रूतबा’ है । तभी एक पुलिस की जीप आई ,दरोगा ने देखा ,बिना ट्रेन के समय के फाटक बंद है । वह उतर कर गया और उसने खींच कर दो झापड़ उस केबिन मैन को मारा । केबिन मैन ने फाटक खोल दिया । बीबी ने पूछा ,यह क्या है । इस पर केबिन मैन बोला ,”यह उसका ‘रूतबा’ है ” ।
    amit kumar srivastava की हालिया प्रविष्टी..“शीर्षक कैसा हो…….”
  8. Yashwant Yash
    फैंटास्टिक!
  9. देवेन्द्र बेचैन आत्मा
    आनंद दायक मस्त पोस्ट है। फुरसत में लिखी गई लगती है।
  10. पंछी
    हमेशा की तरह … लाजवाब :)
    पंछी की हालिया प्रविष्टी..Pencil Sketch of Kids
  11. विवेक रस्तोगी
    वाह दिल खुश हो गया, ऐसे टाइम पर तो पहचान वाले टीटी भी काम नहीं आते, बस अपने को पता होना चाहिये कि किधर बचा जा सकता है, अपन ने भी कई बार ये अनुभव लिये हैं, परंतु रेल्वे पुलिस और टीटी हमेशा बचाव के लिये साथ रहते थे ।
    विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..जीवन के तीन सच
  12. किलर झपाटा
    आप भी ना शुक्ला अंकल अच्छे खाँ को भी पस्त कर देंगे व्यंग कसने में।
  13. Anonymous
    शुक्लजी आप अद्भुत हैं
  14. Abhishek
    और ऐसे लोग भी होते हैं जो बिन टिकट यात्रा कर लेने के बाद वापसी का टिकट खरीद फाड़ के फेंक देते हैं :)
    पढ़ते पढ़ते याद आ गए एक ऐसे सज्जन.
    Abhishek की हालिया प्रविष्टी..संयोग
  15. संतोष त्रिवेदी
    गजब !
    मिसिर जी का कहा पूरा हुआ,जनसत्ता में छपकर।
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] रुतबा दिखाने की मासूम ललक [...]

Monday, September 09, 2013

यार दंगा ही तो भड़का है

http://web.archive.org/web/20140420082232/http://hindini.com/fursatiya/archives/4724

यार दंगा ही तो भड़का है

मुजफ़्फ़रनगरकल इतवार था। देखते-देखते बीत गया।
हमने बहुत कहा कि आराम से रहो यार! काहे हड़बड़ाये हो। धीरे-धीरे गाड़ी हांको। लेकिन माना नहीं पट्ठा। बीत गया।
कित्ते तो काम बाकी थे इतवार को करने के लिये। लेकिन कोई पूरा नहीं हुआ। सब काम आपस में पहले आप, पहले आप कहते रहे। लेकिन हुआ कोई नहीं। हर काम को यही लगता रहा कि जैसे ही वो हो गया उसका महत्व खतम हो जायेगा। भाव गिर जायेगा। वह दिमाग से बाहर हो जायेगा।
जब कोई काम अपने को कराने के लिये प्रस्तुत न हुआ तो आरामफ़र्मा रहे दिन भर। करवटें बदलते रहे बिस्तर पर लेटे-लेटे। पहले दांये करवट ली तो थोड़ी देर बाद दिमाग ने हल्ला मचाया कि दक्षिणपंथी राजनीति नहीं चलेगी। बायें हो गये तो हल्लामचा -वाममार्गी मत बनो। थककर सीधे लेट गये तो ’सेकुलर कहीं का’ का हल्ला मचा। मन तो किया कि झटके से उठ जायें और कुछ काम निपटा दें लेकिन फ़िर दया आ गयी। इत्ते दिन का साथ रहा है उन कामों का। मन नहीं किया किसी को निपटाने का। बारी-बारी से करवटें बदलते रहे। टीवी पर दंगे की खबरे देखते रहे।
दंगे की खबरें देखते हुये कुछ-कुछ ज्ञान हुआ कि दंगे कैसे भड़कते हैं। जो बच्चे मारे गये उनका बाप भर्राई आवाज में कह रहा है:

”हमारा आम आवाम से कोई झगड़ा नहीं है, हम नहीं चाहते की ख़ूनख़राबा हो या कोई नाहक़ मारा जाए. हमारे बच्चों की लाशें पड़ी थी और हम लोगों से ग़ुस्से पर क़ाबू करने की अपील कर रहे थे. हमने कहा कि जो हमारे साथ होना था हो गया. जो हमारे बच्चे मर गए वे मर गए, अब कहीं और किसी बेगुनाह को मारने-मरवाने से क्या होगा? शांति में ही सबका फ़ायदा है.”
लेकिन अब बात कौम की इज्जत की है तो दंगा कैसे रुके? बदला लिया जाना जरूरी है। सो जारी है दंगा। चुनाव भी आने वाले हैं। इसलिये जनता के नुमाइंदे अपनी पूरी क्षमता से लगे हुये हैं। कोई दंगे के फ़र्जी वीडियो चलवा रहा है। किसी के यहां से हथियार बरामद हो रहे हैं।
कवि लोग भी अपने-अपने काम में जुटे हुये हैं। दंगे से मौसमी बुखार निजात पाने के लिये एंटीबॉयटिक कवितायें पेश कर रहे हैं। कवितायें इत्ती असरदार होती हैं कि उनको देखते ही दंगा सर पर पांव धरकर नौ दो ग्यारह हो जाता है। समझदार डॉक्टर लोग ’दंगा क्यों भड़का?’ की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश कर रहा है। कोई एक कौम को दोषी ठहरा रहा है कोई दूसरी को। जो कौमी लफ़ड़े में नहीं पड़ना चाहते वो ठीकरा प्रशासन पर फ़ोड़ रहे हैं। दोष दे दिया हो गया काम। इससे ज्यादा और कोई क्या सहयोग कर सकता है दंगा भड़काने से रोकने के लिये।
दंगे का मूल कारण खोजने निकलें तो बात दूर तलक निकल जायेगी और ले-देकर आदम और हव्वा और उनकी सेवबाजी तक पहुंचेगी। लेकिन इस बार का प्रस्थान बिंदु एक लड़के द्वारा एक लड़की से छेंड़खानी रही। हमारे समाज के लड़के बेचारे इतने निरीह और कम अक्ल और संस्कार विपन्न हैं कि उनको यह अंदाजा ही नहीं कि किसी लड़की से छेड़छाड़ के अलावा कोई और व्यवहार भी किया जा सकता है। उनको शायद लगता है लड़की को छेड़ा नहीं जवानी बर्बाद चली जायेगी, जीवन चौपट हो जायेगा। जवानी बर्बाद चले जाने से बचाने के लिये कुछ लड़के जवानी का एहसास होते ही सबसा पहला काम लड़की छेड़ने का करते हैं। बात हुय़ी तो गाना गाने लगे- मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन। दिल निकाल के फ़ेंक दिया लड़की के सामने। ये मेरा मर्द दिल है, अपना भी इसी में लपेट दे और कहानी खतम कर कर। लड़की पट गयी तो जवानी सुफ़ल वर्ना आगे फ़िर तेजाब, हमला, बलात्कार जैसे आम हो चुके हथियार तो हैं हीं।
कारण पता नहीं क्या हैं लेकिन आज के समाज में तेजी से बढ़ते बाजार का प्रभाव भी होगा इसके पीछे। जो चीज अच्छी लगी उसको हर हाल में हासिल करना ही एक मात्र मकसद हो जाता है जवानों को। लड़की भी उनके लिये एक सामान जैसी ही है। अच्छी लगी तो उनके पास ही होनी चाहिये। लड़की की मर्जी से उनको क्या मतलब?
बिडम्बना यह है कि जो लड़की अच्छी लगी उसको को सामान समझकर हर हाल में हासिल करने के उज्जड भावना को वे प्रेम का नाम देते हैं।
प्रेम तो काशी के गुंडे नन्हकू सिंह ने भी किया था। उसने जिससे प्रेम किया उसकी और उसके परिवार की रक्षा के लिये अपनी कुर्बानी दी। बोटी-बोटी कटवा दी लेकिन अपने प्रेम की रक्षा की।
लेकिन वो पुराने जमाने का प्रेम का था जो बलिदान देता था। आज प्रेम आधुनिक हो गया है। वह छेड़छाड़ और उसके बाद दंगा भड़काने तक सीमित हो गया है।
अरे हम भी कहां कहां की सोचने लगे भाई। जैसा कि आपको पता है कि दंगों की आग में सब अपनी रोटी सेंक लेते हैं। सो कट्टा कानपुरी ने भी इस दंगे का फ़ायदा उठाकार कुछ शेर निकाल लिये। लीजिये फ़र्माइये वो जिसे शाइर लोग मुजाहिरा कहते हैं:
यार दंगा ही तो भड़का है,
कहीं कोई जंग तो छिड़ी नहीं।
बस कुछ लोग ही तो मरे,
पर मुआवजा दिया की नहीं।
मंहगाई ,लूट और घपले देखे,
अब एक चीज ये भी सही।
हर तरह की वैराइटी है,
किसी चीज की कमीं नहीं।
-कट्टा कानपुरी

5 responses to “यार दंगा ही तो भड़का है”

  1. Kajal Kumar
    संस्‍कार.
    Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- सारी नूडल्‍ज़ चाइनीज़ नहीं होतीं
  2. प्रवीण पाण्डेय
    जो भी सीखा, जिसने सीखा,
    खींस निपोरे, बाहर आया।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..अगला एप्पल कैसा हो
  3. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    कट्टा जी की शायरी में हल्का – फुल्का दंगा।
    इश्कबाज लड़कों को देखो कैसे करते नंगा॥
    कैसे करते नंगा नेता और धर्म के चेलों को।
    बलवायी भी समझ न पाये राजनीति के खेलों को।
    सरकारी है अभयदान तो मौत पे लगता सट्टा।
    दंगा पर दोहे लिखकर भी क्या कर लेंगे कट्टा।?
  4. : फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] यार दंगा ही तो भड़का है [...]
  5. Dr Dharmendra Varshney
    जनता है तैश में,नेता कर रहे ऐश,
    अधिकारी ले रहे कैश और इकॉनमी हो रही क्रैश
    एकोनोंमी हो रही क्रैश करावंगे दंगा
    होगा किसी दिन सिरिया जैसा पंगा
    जब पब्लिक सड़क पर आएगी
    मुह तोड़ जवाब दिलवाएगी
    नेता सुधर जाओ नहीं तो कही के नहीं रहोगे
    सड़क पर अपाहिज होकर कही पड़े होगे