Wednesday, March 09, 2016

वन्दना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो

सूरज की अगवानी को तैयार तालाब
आज सुबह जब साईकल स्टार्ट किये तो सुबह अभी हुई नहीं थी। अँधेरा पूरी तरह छंटा नहीं था। पेड़ चुपचाप खड़े थे। गोया वे अँधेरे और उजाले की जंग निर्लिप्त भाव से देख रहे थे। जो जीतेगा उसके पक्ष में हिलते-डुलते, पत्तों के चंवर डुलाते वंदना शुरू कर देंगे।

फैक्ट्री के सामने की चाय की दुकान खुल गयी थी। ऍफ़ एम रेडियो पर गाना बज रहा था:
'इस जग में मेरा कोई नहीं
जाऊं तो बोलो जाऊं किधर'
पर हमारी ऐसी कोई समस्या नहीं थी। हम आगे निकल लिए।

एक आदमी ने साईकल सड़क पर खड़ी की और सड़क किनारे पड़ी बेंच पर पीठ के बल लेट गया। शवासन मुद्रा में। हाथ ऊपर कर लिए।मानों ऊपर से कुछ गिरेगा तो कैच कर लेगा।

सरदार जी जेब में मोबाईल धरे तेज चाल से चले जा रहे थे। उनके पीछे तीन लड़कियां टहलती हुई चली जा रहीं थी। मन किया उनसे पूछेँ कि कल महिला दिवस कैसे मनाया? लेकिन फिर नहीँ पूछा। क्या पता वे कह दें -' हम महिला नहीं हैं। हम लड़की हैं।' या फिर यह ही कह दें- ' आपसे क्या मतलब? माइंड योर बिजनेस! '  :)

सूरज उगता लाल है लेकिन फोटो में पीला हो गया
तालाब की तरफ गए। सूरज भाई अभी निकले नहीँ थे लेकिन चिड़ियाँ चहचहाते हुए उनकी वंदना का अभ्यास करने लगीं थीं। हरेक अलग-अलग तरह से हल्ला मचाते हुए सूरज भाई की वन्दना का रियाज कर रहा था। तालाब पर एक अपने पंख फड़फड़ाते हुये मानों कह रही हो:
'वन्दना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो।'
आगे एक लड़की आदमी के साथ-साथ टहलती दिखी। लड़की अपने हाथ तेजी से दायें-बाएं कर रही थी। आदमी के हाथ आगे-पीछे ही हो रहे थे।लग रहा था कि पीटी कर रहा हो।

एक युवा तेजी से भागता आ रहा था। सड़क पर इतनी जोर से पैर पटकते हुए दौड़ रहा था कि अगर कोई नाजुक मिजाज सड़क होती तो मारे संकोच के धसक जाती।

रांझी मोड़ से तालाब की तरफ गए। एक लड़की अपने कुत्ते को टहला रही थी। दूर से कुत्ते की जंजीर दिखाई नहीं दे रही थी। जैसे कई धाकड़ भाषण देने वालों के प्रांप्टर जनता को दिखाई नहीँ देते और जनता समझती है कि बिना पढ़े धाँसू भाषण दे रहा है, धुंआधार। पास से दिखी जंजीर। पतली जैसे ट्रेन में सूटकेस बाँधने वाली होती है।



तालाब किनारे सूरज भाई दिखे। एकदम लाल। मानों सुबह-सुबह लाल सलाम कर रहे हों। लेकिन जब फोटो खींचा तो उनका रंग पीला पड़ गया था। लगता है उनको भी डर हो कि अगर फेसबुक पर अपने असली रंग में पोस्ट किये गए तो लोग गरियायेंगे कि ये सूरज भाई भी जे एन यू वालों के साथ लग लिए।

चिड़ियों के झुण्ड के झुण्ड सूरज के आसपास चककर काटते हुए चहचहा रहे थे। सब यही सोच रहे थे कि सूरज के साथ सेल्फी हो जाए फिर दिन भर लोगों को दिखाते हुए हवा पानी मारेंगे।

'तालाब खेलने' वाले अभी आये नहीं थे।सिर्फ एक आदमी अपनी मोपेड पर आया था। उसने कमीज उतारकर झोले में डाली और कन्धे पर 'ट्यूब डोंगी' लादकर तालाब किनारे 'रेडी टु मूव' पोजीशन में धर ली।

सड़क पर पांच-छह भैंसे अधमुंदी आँखे लिए बीच सड़क से कुछ किनारे बायीं तरफ पगुराती हुई जा रहीं थीं। उनके पीछे एक आदमी एक पुड़िया से तम्बाकू निकाल कर हथेली में धरकर रगड़ता हुआ चला जा रहा था।

एक आदमी सड़क पर आँख मलता खड़ा हुआ था। आँख इतनी तेजी से मल रहा था वह गोया पलकों पर गुस्सा उतार रहा हो कि इतनी जल्दी क्यों खुल गयीं।या शायद देरी से खुलने पर गुस्सा उतार रहा हो।


सब उगते सूरज को सलाम करने लगे
रांझी थाने के बगल की चाय की दुकान पर पहुंचे तो एक बुजुर्ग ने अपना चाय का ग्लास हमको जबरदस्ती थमा दिया। चेहरा जाना पहचाना लगा। लेकिन नाम याद नहीं आया। लेकिन जैसे ही बतियाना शुरू किये तो याद आया -'ये तो छट्ठू सिंह हैं।'

कोई बात चली तो छट्ठू सिंह ने अपना एक किस्सा सुनाया -"कलकत्ते में एक बार घर का बल्ब फ्यूज हो गया तो हम बगल के कारखाने में घुसकर निकाल लाये। तीन महीने बाद फिर फ्यूज हो गया तो एक बिजली के खम्भे पर चढ़ गए। मारा झटका तो गिरे आकर नीचे लोहे पर। जांघ में घुस गया लोहा। दरबान आया और पूछा -'क्या कर रहे थे यहां?' हम उसको बोले-'देख रहे थे कि दरबान ड्यूटी पर तैनात है कि नहीं।' " बताते हुए हंसने लगे छट्ठू सिंह।

'कितने दिन में ठीक हुई चोट?' हमारे पूछने पर बोले-'दस दिन लग गए घाव भरने में।'


छट्ठू सिंह चाय की दुकान पर। पीछे मिश्रा जी
छट्ठू सिंह के सारे दांत गायब हैं इसलिए उनकी आधी आवाज से ज्यादा आवाज हमारे कान तक पहुंचने के पहले ही हवा में गोल हो जा रही थी जैसे जन कल्याण योजनाओं का बड़ा हिस्सा जनता के पास पहुँचने के पहले ही गायब हो जाता है।

हमने छट्ठू सिंह से कहा-'दांत लगवा लो। अच्छा रहेगा। स्मार्ट लगोगे। चकाचक।'



छट्ठू सिंह ने बताया कि बताया कि डॉक्टर को दिखाया था। बोला -'मसूढ़े काटने पड़ेंगे।हम नहीं लगवाये।'

हमने कहा लगवा लो। पैसा हम दे देंगे।

इस पर छट्ठू सिंह बोले-'आप कह दिए हम समझ लिए लग गए दांत। अब बुढ़ापे में क्या करेंगे। सन् 1935 की पैदाइश है। हमारे साथ के खेले, खाये 300-400 लोग हमारे देखते-देखते चले गए। अब तो:
सदा भवानी दाहिनी सन्मुख रहें गणेश
पांच देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
इसके बाद वहीँ चाय की दुकान पर देवी भजन सुनाने लगे:
'अंधन को आँख देत, कोढ़िन को काया
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।'
हमने उनका भजन गाते हुए वीडियो बनाया। चलते समय हमने कहा -'आओ चलो बैठो पीछे चलते हैं।' छट्ठू सिंह बैठ गए पीछे कैरियर पर। हम 100 मीटर करीब चले। देखा हवा बहुत कम थी दो लोगों के लिए। सुबह कोई था नहीं हवा वाला। रिम हिलने लगा तो छट्ठू सिंह उतर गए। फिर हम चले आये।

रास्ते में टेसू के फूल मिले, सूरज भाई खिले हुए मिले। पुलिया बैठे दो बुजुर्ग मिले। हम साईकल मोड़कर उनसे बतियाये और कहा-'आइये आपको चाय पिलाते हैं मेस में।'

वो बोले-' आपसे बातचीत हो गयी बस यही बहुत है। हम आपका इंतजार कर रहे थे।'

कमरे पर आकर सोचा कि एक दिन उन सब लोगों को इकट्ठा किया जाए जिनसे अलग-अलग मोड़ पर बात होती है और सबके अनुभव एक साथ सुने जाएँ।

यह सोचने के साथ ही बाहर देखा। सूरज भाई मुस्करा रहे थे। मानों कह रहे हों-'यू आर क्रेजी।'

सूरज भाई की मुस्कान देखकर लगा -'सुबह हो गयी।'

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Saturday, March 05, 2016

भारत में पहले पानी की नदियां बहतीं थीं


सूरज भाई का जलवा झील पर पसरा है
आज सुबह निकले तो सड़क धुली-धुली लग रही थी। बादलों के पास जो पानी बचा रहा होगा वह फ़ेंककर चलते बने होंगे। मौसम सुहाना और आशिकाना सा !

चाय की दुकान पर दो लोग फ़र्श पर उकड़ू बैठे बीड़ी पी रहे थे। चाय का ग्लास बगल में धरा था। खाने के बाद जैसे लोग कोई ’स्वीट डिश’ खाते हैं वैसे ही चाय के बाद अब ’कुछ बीड़ी हो जाये’ के वाले अंदाज में सुट्टा मार रहे थे।

बात करते हुये पता चला कि देहरादून से आये हैं सामान लेकर। बुधवार को चले थे। शनिवार को आ गये 1400 किमी करीब दूरी तय करके। हम जानते हैं देहरादून से स्प्रिंग आती है। पूछा - ’ (लीफ़) स्प्रिंग लाये हो?’ वो बोले-’ स्प्रिग नहीं, कमानी लाये हैं।’ स्प्रिंग को बोलचाल की भाषा में कमानी कहते हैं।

जनता से जनता की भाषा में ही बतियाया जाना चाहिये। नहीं बतियायेंगे तो एक-दूसरे की बात समझ नहीं पायेंगे।
लौटते हुये बोले-’ बुरहानपुर होकर जायेंगे। केला मिल जायेगा ले जाने के लिये।’

देहरादून के पास ही एक गांव के रहने वाले हैं सब ड्राइवर। एक ट्र्क में दो ड्राइवर हैं ताकि जब एक आराम करे तो दूसरा चलाता रहे। तीन ट्र्क एक साथ आये हैं।


दीपा होमवर्क करती हुई
चाय की दुकान से चलकर झील की तरफ़ गये। रास्ते में बस स्टैंड पर एक आदमी सड़क की तरफ़ पीठ किये पैर ऊपर नीचे झटकते हुये कसरत कर रहा था। तेज कसरत करते हुये लगा कि फ़टाफ़ट दुलत्ती चला रहा है।
झील पर सूरज भाई का पायलट आ गया था। पूरा तालाब लाल सा कर दिया था उसने। मानो सूरज की रैली होने वाली हो झील के मैदान पर। सूरज भाई के आने के पहले रोशनी की झालर, झंडे लहरा रहे थे। तारों पर बैठे पक्षी चिंचियाते हुये लगता है सूरज भाई जिन्दाबाद, जिन्दाबाद, जिन्दाबाद का नारा लगा रहे थे। क्या पता कुछ लोग हमारा नेता कैसा हो, सूरज भाई जैसा हो भी का नारा भी लगा रहे थे।

मैदान के पास हैंडपंप पर ठेकेदारी पर काम करने वाले मजदूर नहा रहे थे। महिलायें कपड़े बदल रहीं थीं।
पास के ही मकान के बाहर एक लड़का स्कूल जाने के लिये बस्ता पीठ पर लादे तैयार खड़ा था। पानी की बड़ी बोतल बस्ते के बाहर झांक रही थी।

पानी की बात से याद आया कि कल शाम एक लड़की अपने भाई के साथ मोटरसाइकिल पर मेस के बाहर मिली। हम चूंकि बाहर ही मिल गये तो उसने पूछ लिया -’अंकल पानी भर लें?’ हमने कहा-’ भर लो।’ इसके बाद अंदर आकर वे मोटरसाइकिल एकदम नल के पास खड़ी करके अपने झोले में से कई बोतल निकालकर भरने के बाद झोले में रखने लगे।

पता चला कि उनके यहां पानी के लिये जो हैंडपम्प लगा है उसमें पानी खारा आता है। पीने लायक नहीं होता। आमतौर पर पापा आते हैं भरने पानी लेकिन अभी एक्सीडेंट हुआ है तो आ नहीं पाते। लड़की ट्यूशन पढकर आयी है तो अपने भाई के साथ पानी भरने आ गयी।

किस विषय का ट्यूशन पढती हो पूछने पर बताया उसने अंग्रेजी का। इंजीनियरिंग की पढाई करती है श्रीराम इंजीनियरिंग कालेज से। फ़र्स्ट ईयर में। कम्प्यूटर साईंस।

हमने कहा - ’तुम अंग्रेजी का ट्यूशन पढ़ती हो लेकिन बात तो हिन्दी में कर रही हो। सब पैसा बरबाद कर दिया। बोल पाती तो अंग्रेजी?’

इस पर उत्साहित होकर उसने कहा-’ यस वी कैन स्पीक इंगलिश।’

हमने मजे लिये- ’बोल अकेले रही हो। कह ’वी’ रही हो?’ वह हंसने लगी।

लेकिन बात पानी की हो रही थी। बच्चे लोग न्यू कंचनपुर से पानी भरने के यहां आये थे। दिन पर दिन पानी की सम्स्या विकराल होती जा रही है। अभी खबर सुन रहे हैं-’ बुंदेलखंड में पानी के तालाबों पर पहरे के लिये बंदूकधारी लोग तैनात किये गये हैं।’

कल के सीन क्या पता ऐसे हों- ’ लोग सुबह उठते ही पानी भरने के लिये निकल पड़ें। पेट्रोल पम्पों के बगल में ही पानी के पम्प खुल जायें। पानी की सप्लाई विदेशों से होने लगे। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पानी के दाम उछलने से देश में मंहगाई बढ़ने लगे। सरकारें पानी के सब्सिडी देने लगे। कोई पानी पंप वाला इसलिये जेल चला जाये कि वह पानी में पेट्रोल मिलाकर बेंच रहा था। जैसे आज पेट्रोल के विकल्प खोजे जाते हैं वैसे ही कल पानी के विकल्प खोजे जायें। एक-एक बोतल पानी के मार-काट होने लगे। लोग दहेज में पानी के भरे टैंकर देने लगें। और लोग बीते हुये जमाने को याद करते हुये कहें- ’ भारत में पहले पानी की नदियां बहतीं थीं।

रेलवे क्रासिंग पर पीला सिग्नल जल रहा था। क्रासिंग के पास एक लड़की स्कूल ड्रेस में मोबाइल पर बतिया रही थी। पावरपैक से चार्जिंग भी चल रही थी। मोबाइल की बैटरी आजकल लोगों के धैर्य की तरह देखते-देखते खल्लास हो जाती है। कल को क्या पता वाई-फ़ाई चार्जर आने लगें।

दीपा से मिलने गये। वह बैठे हुये होमवर्क कर रही थी। अंग्रेजी की किताब से फ़ूलों के नाम याद कर रही थी। कुर्ता उलटा पहने थी। हमने याद दिलाया तो हंसने लगी। पापा उसके हमेशा की तरह शिकायत करते मिले। पढ़ती नहीं। हमने पूछा तो बोली- ’ खेलने चली जाती हूं। सहेली के साथ। पकड़म-पकड़ाई, चीटी धप और इसी तरह के खेल।’

पापा उसके कहने लगे- ’ हम इससे कहते हैं कि पढोगे नहीं तो बंगले में काम करोगी। मैडम नहीं बन पाओेगी। लेकिन ये पढती ही नहीं। हम दिन भर रिक्शा चलाते हैं। शाम को आते हैं बरतन मांजते हैं। खाना बनाते हैं। ये दिन भर घूमती, खेलती रहती है। पढती ही नहीं।’

हम कहते हैं कि पढ़ा करो तो चुप रहती है। फ़िर बताती है आज साढे नौ बजे जाना है स्कूल। पापा को बुलाया है। दस्तखत करने के लिये। शायद पैरेन्टस टीचर मीटिंग है।

लौटते हुये दो लड़कियां साइकिल पर जाती हुई दिखीं। एक लड़की बार-बार अपनी स्कर्ट नीचे करते हुये ठीक सा कर रही थी। शायद कुछ छोटी हो। बगल से गुजरते हुये उनसे बात करते हुये चलने लगे। पता चला कि इंतहान देने जा रही हैं। आज अंग्रेजी का पर्चा है। इसके पहले हिंदी का हुआ। अच्छा हुआ। हमने ’आल द बेस्ट’ कहा इम्तहान के लिये तो दोनों बोलीं- ’थैंक्यू अंकल।’ अब इस समय उनको कापी मिल गयी होगी। वे उस पर अपना रोल नंबर लिख चुकी होंगी।

सूरज भाई पूरे बगीचे में अपना जलवा बिखेरे हुये हैं। किरणें पूरे बगीचे में पसरी हुई धमाचौकड़ी कर रही हैं।
सुबह हो गयी है। आपको दिन मुबारक हो।

Thursday, March 03, 2016

बच्चे मन के अच्छे

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Wednesday, March 02, 2016

बस चले तो साईकल को कम्पलसरी सवारी कर दें

सूरज भाई पेड़ों के पीछे से उजाले की सप्लाई कर रहे हैं
सुबह आलस हमेशा लफ़ड़ा करता है। पचास बहाने बताता है न निकलने के लिए। अक्सर झांसे में आ भी जाते हैं। लेकिन फिर मन उचकता है तो बहाने की बाड़ फांदकर लपक कर चल ही देते हैं। एक बार साइकिल स्टार्ट कर देते हैं तो लगता है अच्छा ही किया निकल लिए।

आज भी ऐसा ही हुआ। लेकिन निकल ही लिए। जब निकले तो सोचा किधर जाएँ। चूंकि देर हो गयी थी इसलिए पहला पड़ाव फैक्ट्री के सामने की चाय की दुकान रही।

चाय की दुकान पर दो नौजवान मिले। सामने वीएफजे स्टेडियम से टहलकर आया था एक। दूसरा शायद सीधा घर से चला आ रहा था। दूसरे ने चाय के लिये आर्डर दिया और सिगरेट लेने के लिए बगल की दुकान की तरफ़ लपका। पहले ने टोंका, सुबह-सुबह सिगरेट? उसके एतराज करने तक वह सुलगा चुका था। पहले ने चाय के लिये मना कर दिया कहते हुए-'अब्बी पीकर आये हैं घर से।'

पता चला कि दूसरा जवान ठेकेदारी का काम करता है। पहले दिन में कई पैकेट पी जाता था सिगरेट। अब दिन में 3-4 सिगरेट सुलगती हैं। उम्र के साथ कम होती जा रही है। पता यह भी चला कि नींद न आने की समस्या है उसको। देर तक नहीं आता, फिर देर तक सोता है।

पहला युवक कम्प्यूटर का काम करता है। लेनोवो कंप्यूटर आजकल बताया 22 हजार तक में आ रहा है। हमने बताया कि हमने 2004 में कॉम्पैक का लैपटाप 84 हजार में लिया था। अभी भी टनाटन चल रहा है। वो बोला-' उस समय आप यंग रहे होंगे। नई चीज खरीदने का उत्साह रहा होगा।'

मतलब उस युवा की नजर में अब हम युवा न रहे। 'मार्गदर्शक मंडल' के आइटम हो गए। मन किया कि उसको परसाई घराने की यौवन की परिभाषा सुना दें:

"यौवन सिर्फ काले बालों का नाम नहीं है।यौवन नविन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर बेहिचक बेबकूफी करने का नाम यौवन है।"

प्रतापगढ़ निवासी हैं दोनों उम्र 80 के करीब
और कुछ हो न हो लेकिन 'बेहिचक बेवकूफी' करने की सहज इच्छा के चलते लगता है कि अपन चिर युवा रहेंगे।
चाय पीकर देखा सूरज भाई पेड़ों की आड़ से रोशनी की सर्च लाइट मार रहे थे। सड़क की दांयी और दिखे सूरज। भाई। मन किया उनको दक्षिणपंथी कह दें। लेकिन फिर नहीं कहा। कोई राजनीति का आरोप लगा देगा लफड़ा होगा।

बायां और दायां अब इतना राजनैतिक हो गया है कि बोलते हुए लगता है राजनीति की गली में घुस रहे हैं। क्या पता कल को कोई बाएं और दायें को भी राजनीतिक विचार धारा से जोड़ते हुए बताये--चौराहे से 'कम्युनिष्ट गली' में मुड़ जाइयेगा वहीं 'बुर्जुआ कोने' पर पहला ही मकान है अपना।

पुलिया पर एक बुजुर्ग मिले। बताये पुलिस विभाग से रिटायर हुये थे 94 में। प्रतापगढ़ के रहने वाले। वायरलेस विभाग में काम करते थे। कंचनपुर में उस समय घर ले लिये थे। फिर यहीं बस गए।

कई जगह सर्विस किये हैं मिश्रा जी। इंदौर, जगदलपुर, भोपाल, जबलपुर। बस्तर के बारे में बताया -'कुछ नहीं बदला वहां। औरतें अभी भी खड़े-खड़े पेशाब करती हैं। आदिवासी लोगों का ईसाईकरण हो रहा है।'

उम्र के अस्सीवें साल में पहुंचे मिश्र जी का स्वास्थ्य अभी भी टनाटन लग रहा था। कहा तो बोले- 'अब कमजोरी लगती है। डायबिटीज़ है 20 साल से। परहेज करते हैं पर उठने-बैठने में तकलीफ होने लगी है। पर जब रिटायर हुए थे तब एक भी बाल सफेद नहीँ हुआ था। बल्कि हमारे अधिकारी बोले, मिश्रा जी हमारे हाथ में होता तो हम आपको दुबारा नौकरी पर रख लेते।'

उसी समय जीसीएफ से रिटायर एक और साथी आ गए वहां। पता चला कि वो भी प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं।प्रतापगढ़ से रामफल की बात चली। वह भी प्रतापगढ़ के रहने वाले थे। मिश्रा जी ने बताया-'उस दिन जब हम वोट डाल कर आये तो घर के बाहर ही बैठा था। पसीना-पसीना हो रहा था। और खत्म हो गया। जब भी बात होती थी कहता था, बाबूजी बाजार बहुत टाइट चल रहा है।'


छिउलिया (टेसू) होली के लिए तैयार
उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुत से लोग रहते हैं कंचनपुर में। पहले लोग यहां जमीन/मकान खरीदते थे। रहते थे। नौकरी खत्म होने के बाद जाते समय बेच देते थे। अब लोग बेचते नहीं यहीं बस जाते हैं।

साइकिल से हमको चलते देखकर बहुत ख़ुशी जाहिर की मिश्र जी ने। बोले-'अब लोग चलते नहीं साइकिल से। हमारा बस चले तो साईकल को कम्पलसरी सवारी कर दें।'

मेस की तरफ लौटते हुए देखा कि सामने पेड़ में लाल रंग के फूल खिले हुए थे। कायनात अपने को होली के लिए तैयार कर रही है। यहां लोग इसको छिउलिया कहते हैं।

अभी जब हम यह लिख रहे थे तो सूरज भाई बाहर से हमको लिखते और चाय पीते देख रहे थे। हमको अकेले चाय पीते देखकर अंदर घुस आये और भन्नाते हुए बोले-' अकेले-अकेले चाय पी रहे हो।' हम कुछ जबाब दें तब तक वो थर्मस की चाय कप में उड़ेलकर साथ में पीने लगे। चाय पीते ही उनकी भन्नाहट गायब हो गयी और मुस्कान उनके चेहरे पर फ़ैल गयी।
लगा अब सही में सुबह हो गयी।


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Tuesday, March 01, 2016

आगे बढ़ते जाना ही जिन्दगी है


सूरज भाई  झील के पानी पर  अपना अंगौछा धर दिए
आज सुबह मेस से निकलते ही बाहर दो महिलायें तेज चाल से जाती हुई दिखीं। शायद टहलकर वापस लौट रही हों। अंधेरा और उजाला बराबर सा था। एक महिला सडक से नीचे उतरकर ’गठरी’ से नीचे बैठी हुई थी। आगे बढने से पहले हमें याद आया कि मोबाइल तो कमरे में ही छूट गया। हम वापस लौटे। मोबाइल धरा जेब में और प्रात:कालीन सैर के लिये गम्यमान हुये।

एक लड़का सड़क पर टहलता हुआ आता दिखा। उसके हाथ जेब में थे। शायद सर्दी के कारण। लेकिन हमको लगा कि उसके हाथ सरकार के हाथ हैं जो उसकी जेब में जो भी होगा, निकाल लेंगे। हमें यह सोचने का कारण भी समझ में आ गया। सरकार ने प्राविडेंट फ़न्ड के पैसे पर भी टैक्स लगा दिया है। इसको सही ठहराते हुये कल किसी ने बताया कि लोग अपने प्रावीडेंट फ़ंड का उपयोग इन्वेस्टमेंट में करते हैं इसलिये यह टैक्स लगाया गया।
हमने उसी समय याद किया था कब-कब हमने पैसे निकाले। हमने आज तक पैसे बहन/भतीजी की शादी के लिये, कार लिये, बच्चे की फ़ीस भरने के लिये या फ़िर कोई उधार चुकाने के लिये निकाले। अब फ़िर बच्चे की फ़ीस भरनी है दो महीने बाद। क्या इस बार टैक्स लगेगा? वैसे देखा जाये तो यह भी तो इन्वेस्टमेंट ही है !

एक लड़की टहलती हुई जोर-जोर से अपनी साथ की महिला को बता रही थी- ’आंटी हम उठ तो बहुत जल्दी ही गये थे लेकिन निकलने में देर हो गयी।’ एक लड़की गले में टुपट्टा डाले शाल ओढे महिला के साथ तेज-तेज टहलती हुई जा रही थी।


आम आदमी की बतकही -जनता तो फुटबाल है
हम राबर्टसन लेक देखते हुये गये। सूरज भाई भी निकले नहीं थे अभी। लेकिन उसके आगमन की सूचना देते हुये बादल ललछौंहा सा दिख रहा था। उसकी छाया झील के पानी में पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो सूरज ने अपना अंगौछा और मफ़लर दोनों एक साथ झील के पानी में धरकर अपना कब्जा जमा लिया हो पहले से ही कि जब भी वो आयेगा तब यहां बैठेगा। पक्षी भी अभी तक आये नहीं थे।

रास्ते में दो सुअर एक-दूसरे को पिछियाते हुये दिखे। क्या पता अपने समाज में वे एक-दूसरे की विरोधी पार्टी में हों और उनके यहां भी कोई बजट-शजट पेश हुआ हो कोई और उनके प्रवक्ता आपस में बहस करते हुये एक दूसरे का तगड़ा विरोध कर रहे हों। इसी प्रक्रिया में एक-दूसरे को थूथनियाते हुये, धौल-धप्पा करते हुये दौड़ा रहे हों।

रांझी मोड़ पर एक पुलिस वाले भाई जी टाइगर वाहन के बाहर अकेला खड़ा अपने सर पर हाथ फ़ेर रहे थे। लग रहा था खुद ही खुद को दुआयें दे रहे हों-’ सलामत रहो, आबाद रहो।’

चाय की दुकान पर अखबार पढ़ते हुये चाय पीने लगे। बजट के समर्थन और विरोध में बयान थे। चाय की दुकान से थोड़ी ही दूर पर कुछ लोग एक तसले में लकड़ी सुलगाये आग तापते हुये बतिया रहे थे। एक ने कहा -’लगता है सर्दी अब होली के साथ ही जायेगी। होली तक ऐसे ही आती-जाती रहेगी।’

दूसरे ने घर-घर मदिरालय बन जाने की बात कहते हुये सूचित किया कि अब सरकार ने सुविधा दे दी है कि मुंह खोलते ही पीने लगो। हमने कहा - ऐसा क्या? वह बोला- ’हौ, तब क्या? सुबह से ही लोग खटखटाने लगते हैं और चढ़ाने लगते हैं। ’ एक घर की तरफ़ इशारा करते हुये बताया -’ वहां सुबह-शाम बैठकी चलती है। जुआ भी चलता है। पत्ते खेलते देखते हैं तो अपन भी खड़े हो जाते हैं जाकर।’


सूरज भाई अपने डुप्लीकेट के साथ
इसके बाद बात फ़्रीडम मोबाइल की होने लगी। एक ने बताया - ’अरे वो वाला मोबाइल जिसमें बात करते हुये फ़ोटू भी दिखती है। 5000 का आता है आजकल। 5 लाख लोगों ने बुक किये हैं। अपने ने भी बुक किया है। गौरमेंट पीछे पड़ गयी है कम्पनी के। दिला के मानेगी मोबाइल। नहीं देंगे तो बंद कर देगी तबेले में। गौरमेंट को चूतिया नहीं बना सकते।’

फ़िर पता नहीं कहां से जनता की बात भी होने लगी। एक ने कहा- ’जनता तो फ़ुटबाल की तरह है। गौरमेंन्ट एक किक मारती है जनता उधर गिरती है। उधर से भी एक किक पड़ती है जनता बेचारी और कहीं गिरती है। लेकिन गौरमेंट भी का करे? उसको भी तो चलाना है न । यह सब करना पड़ता है। पर गरीब आदमी की मरन है।’
एक बोला- ’गरीब आजकल वही है जो काम नहीं करना चाहता है। काम करने वाले के लिये पचास काम हैं।’
दूसरे ने डपट दिया उसे और कहा-’ लौंडे काम पर लग गये इसई लाने ऐसी छांट रहे बातें। बताओ उसका दद्दा कौन काम करेगा अब? घर भर का कमाई का सहारा था वो!’

पता चला कि ड्राइवर की बात हो रही थी जो अपने परिवार में एक मात्र कमाने वाला था। उसको लकवा मार गया। इससे उसके परिवार में भुखमरी का संकट हो गया है।

उसके बारे में और बाते हुईं फ़िर-’ भला आदमी है। नेक इंसान। कभी-कभी मदद करके मुफ़्त भी सामान ढो देता था। लेकिन बीपी के चलते लकवा मार गया। आधा शरीर झूल गया। बीपी बड़ी खतरनाक बीमारी है।’


रास्ता ही मंजिल है का सन्देश देती जोंक
लौटते हुये देखा कि रांझी मोड़ पर पुलिस वाले भाई उसी तरह खड़े अपने सर पर फ़ेर रहे थे। अभी तक अकेले थे। हम उसके पास गये। बातचीत की कुछ देर। पता लगा ’प्रभात गस्त’ पर निकले हैं। साथ के लोग आने वाले हैं। गाड़ियां नई खरीदी गयीं हैं गस्त के लिये।

हमने उसने पूछा कि जब मैं इधर से गया था भी आप सर पर हाथ फ़ेरते दिखाई दिये। अभी भी लगातार सर पर हाथ फ़ेर रहे हैं। कोई तकलीफ़ है सर में या बाल छोटे ज्यादा हो गये उसका अफ़सोस मना रहे हैं।

भाई जी मुस्कराये पर कुछ बोले नहीं। लेकिन उनके सर पर बीच के बाल काफ़ी कम से थे। सफ़ेद हो गये बाल बीच में कम थे तो सहलाते हुये उनको शायद सांत्वना सी दे रहे हों या फ़िर किनारे के बालों को फ़ुसलाकर बीच में लाने के लिये पटा रहे हों यह सोचते हुये कि ये बीच में आ जायें तो ’सबका साथ , सबका विकास’ टाइप हो जाये सर के बालों में।


मोड़ पर ही एक कूड़े का वाहन पंक्चर खड़ा था। चार लोग मिलकर पहिया बदल रहे थे। इसके बाद कूड़ा भरने निकलें शायद।

लौटते में फ़िर झील के पानी पर सूरज भाई को देखते हुये आये। सूरज भाई पूरी तरह से चमक रहे थे। उनकी पूरी जवान परछाई झील के पानी में पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो उनकी ’अटेस्टेट फ़ोटोकाफ़ी’ झील के पास धरी हो। हो तो यह भी सकता है कि सूरज भाई वीआईपी हैं तो उनके कई डुप्लीेकेट साथ चलते हों। झील के पानी वाला सूरज उनका कोई डुप्लीकेट हो।

झील के किनारे ही एक जोंक मिट्टी में सरकती जा रही थी। बहुत-बहुत धीमी गति से। लेकिन जहां जा रही थी रास्ते में अपने निशान छोड़ती जा रही थी। यह भी सोचने की बात है कि वह जोंक अकेली थी। मंजिल कहां है कुछ पता नहीं उसको लेकिन वह आगे जा रही है। शायद वह भी मानती हो कि - ’रास्ता ही मंजिल है। आगे बढ़ते जाना ही जिन्दगी है।’

नहीं क्या ?

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याददाश्त बढ़ाने का तरीका



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Monday, February 29, 2016

ये लो पेश हुआ बजट

ये लो पेश हुआ बजट
एक बवाल गया निपट
अब चलो तुम करो बुराई
औ तुम तारीफ़ फटाफट।

बोलो बजट बड़ा झकास है
विकास के लिए नई आस है
इसमें सबके लिए कुछ खास है
समेटे नई उमंग है, उल्लास है।

चलो तुम करो विरोध इसका
कहो-बजट नहीं, बकवास है
देश का करेगा सत्यानाश है
होगा देश का पक्का विनाश है।

तुम बोलो ये अच्छा किया
वो बोलेगा ये बुरा किया
बजट तो बस झुनझुना है
सम्हालो अब तुमसे ही आस है।

-कट्टा कानपुरी

Sunday, February 28, 2016

इतवार की एक खुशनुमा सुबह


रामफल की पत्नी
आज सुबह निकले तो कुछ कम लोग दिखे सड़क पर। शायद ’सुबह-टहलुये’ भी इतवारी मूड में रहे हों। फ़ैक्ट्री के सामने की चाय की दुकान भी बन्द मिली। शायद उसको पता नहीं कि आज भी फ़ैक्ट्री ओवरटाइम में चल रही है।

स्टेडियम के पास सड़क पर तीन लोग पूरी सड़क घेरे चले जा रहे थे। खरामा-खरामा। हम बगल से बचाकर निकल गये आगे। हनुमान मन्दिर के पास नाले में सिल्ट जमा थी। पानी बेचारा सिल्ट के बीच से रास्ता निकालकर किसी तरह आगे निकल रहा था। पानी सिल्ट के बीच से ऐसे सहमा हुआ सा निकल रहा था जैसे चौराहे पर खड़े शोहदों से बचकर मोहल्ले की लड़कियां निकलती हों। जरा सा जगह मिलते ही दौड़ता पानी।

रामफ़ल की पत्नी घर के बाहर कुर्सी डाले बैठे थीं। सबके हाल बताये। बड़ा लड़का गुड्डू लेबरी का काम करता है। फ़ल का काम उससे हुआ नहीं। बन्द कर दिया। छोटा लड़का भी फ़ैक्ट्री में ठेके पर लेबर का काम करता है। लड़की जो कि विधवा हो चुकी है एक जगह किसी की बच्ची की देखभाल करने जाती है। 3000/- मिलते हैं उसको। उसमें 50/- रोज आने-जाने के खर्च हो जाते हैं। उसका बच्चा हाईस्कूल करने के बाद रोहाणी जी के यहां काम पर जाता है। 100/- रोज मिलते हैं। बिटिया आईटीआई कर रही है। बच्चे के लिये बोली - ’बाबू जी (रामफ़ल) होते तो आगे पढाते उसको।’


वैसे तो गाय हमारी माता है , उसको खाने को ऐसे ही मिल पाता है।
रामफ़ल की याद करते हुये बोली- ’ पहले सपने में आते थे। एक दिन बोले -मैं अयोध्या जी में आ गया हूं। तुम घर चली जाओ। बच्चों का ध्यान रखना। मेरी चिन्ता मत करना।’

रामफ़ल के स्वभाव की याद करते हुये कहने लगीं-’नौ साल की थी जब हमारी शादी हुई। जिन्दगी भर कभी एक चांटा नहीं मारा। कभी डांटा नहीं। कभी पैसे का हिसाब नहीं मांगा। बहुत ’गरू’ (अच्छे) आदमी थे।’

यह बताते हुये अपनी आंख पल्लू से पोछनें लगीं वे।

दवाई ब्लड प्रेसर आदि की लेती हैं। पांव में सूजन रहती है। 300/- रुपये महीने विधवा पेंशन बंध गयी है। इस महीने से मिलेगी।

सड़क से गुजरते ,आते-जाते लोग उनको नमस्ते करते जाते थे। एक ने तम्बाकू भी मांगी लेकिन -’है नहीं भईया ’ कहकर मना कर दिया उनको।


दिल्ली में होगा पानी का अकाल। जबलपुर में तो ऐसे बहता है
घरों के बाहर लोग अपने घर का कूड़ा बुहार कर सड़क पर डाल रहे थे। एक जगह रात की पार्टी की जूठन इकट्टा थी। गायें उसको खा रही थीं। जूठन के साथ पालीथीन और प्लास्टिक भी जरूर जा रही होंगी उनके पेट में। इकट्ठा होगी और फ़िर उसी से निपट भी जायेंगी वे। जबलपुर स्मार्ट सिटी होने वाला है। क्या पता तब यह चलन जारी रहेगा या निपट जायेगा।

बिरसा मुंडा त्तिराहे  पर आज चाय की वह दुकान खुली नहीं थी जिससे हम चाय पीते हैं। दूसरी दुकान वाले से चाय ली। पता चला आज उस चाय वाले ने ठिलिया नहीं लगाई है।

तीन लड़कियां चाय पीने आईं वहां। एक की टी शर्ट के पीछे कृषि विश्वविद्यालय छपा था। पूछा तो बताया कि एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी में पढती हैं। छात्रावास में पढती हैं। सुबह की चाय वहां नहीं मिलती सो चौराहे पर आयी हैं।

हमने पूछा -’अब तक तो तीसरे साल में हो तो खेती करना सीख गई होगी। हल चला लेती हो कि नहीं?’
इस पर तीनों हंसने लगीं। एक ने बताया ट्रैक्टर चलाना सीखा है। आगे क्या स्कोप है पूछने पर बताया कि एम टेक, पीएचडी वगैरह करते हैं लोग। पूछने का मन हुआ कि जिस तरह इंजीनियरिंग कालेज में कैम्पस इंटरव्यू होते हैं क्या वैसे इंटरव्यू यहां नहीं होते? केवल अध्यापन ही रोजगार है क्या? लेकिन फ़िर पूछ नहीं पाये।
बताया बच्चियों ने कि क्लास में 25 के करीब लड़कियां और 75 के करीब लड़के होते हैं। लड़कियों और लड़कों का अनुपात 1:3 का हुआ। हमारे समय में तो यह अनुपात 1:60 करीब होता था। मतलब अनुपात में गुणात्मक सुधार हुआ है।


रॉबर्टसन झील पर सूरज भाई का जलवा पसरा है
लड़कियां सिवनी, कुंडम और बालाघाट की रहने वाली हैं। बालाघाट की छोटी लाइन की छुकछुक गाड़ी अब बंद हो गयी है। बस से आना जाना होता है।

तीन में से एक बच्ची चाय नहीं पी रही थी। हमने कहा - ’तुम अच्छी बच्ची हो।’ एक ने कहा - ’गुड ब्वाय है यह।’ हमने कहा - ’गुड ब्वाय क्यों गुड गर्ल क्यों नहीं? क्या यह बच्ची लड़का बनना चाहती है?’ इस पर तीनों हंसती हुई चली गयीं।

लौटते में देखा एक जगह पानी लगातार बह रहा था। हमेशा यह बहता दिखता है। एक बच्ची एक गगरिया में पानी भरे चली जा रही थी। हाथ और कमर के सहारे गगरी को लादे चलती जा रही थी। हर कदम पर गगरी उसकी कमर से टिक जाती वह फ़िर गगरी को कमर से धकियाकर दूर करते हुये कदम आगे बढाती। जब एक हाथ थक जाता तो गगरी दूसरे हाथ में ले लेती।

एक लड़का एक नाली के किनारे खड़ा मोबाइल पर बात कर रहा था। फ़ोन लगते ही उचककर उसने ’नमस्ते मामा’ कहा । ऐसा लगा कि नमस्ते उछालकर फ़ेंका हो उसने मामा को। इसके बाद इत्मिनान से बतियाने लगा वह।

एक आदमी घर से निकलकर बाहर सड़क पर आया। बनियाइन के नीचे पीठ खुजलाने के बाद उसने पूरा मुंह खोलकर जम्हुआई ली। आंखें पूरी बन्द हो गयीं और मुंह पूरा खुल गया - ’पान की दुकान की गुमटी की तरह।’ थोड़ी देर में उसने मुंह बंद कर लिया । आंखे अपने आप खुल गयीं। इसके बाद वह गरदन इधर-उधर घुमाकर सड़क निहारने में जुट गया।


सुबह की सड़क खुशनुमा तो दिखती है
आगे एक बुजुर्ग मुंह में ब्रश डाले उसको दातुन की तरह चबाने की कोशिश करते हुये कुछ सोच से रहे थे। कुछ देर बाद ब्रश को मुंह में एक तरफ़ से हटाकर दूसरी तरफ़ कर लिया। दांत घिसने का काम फ़िर भी शुरु नहीं किया।

दीपा के घर गये। वह पढ़ रही थी। उसके पापा खाना बना रहे थे। बताया उसने कि वह कल स्कूल गयी थी। आज तमाम काम करेगी। कपड़े धोना है, स्कूल ड्रेस साफ़ करना है, फ़िर नहाना है। खांसी अभी एकदम ठीक नहीं हुई है।

लौटते में राबर्टसन लेक होते हुये आये। सूरज भाई का जलवा पूरी झील पर पसरा हुआ था। पूरा तालाब सुनहरा हो रखा था। आज झील में मछुआरे ’तालाब खेलने’ आये थे। उनकी नावें झील में दिख रहीं थीं। सूरज भाई पूरी मुस्तैदी से देख रहे थे कि कहीं कोईअंधकार का टुकड़ा धरती पर बचा न रह जाये।

सड़क पर लोग आते-जाते दिख रहे थे। पेड़ों की छाया और धूप दोनों मिलकर सड़क को सुन्दर बना रहे थे। पेड़ों की पत्तियां हवा के सहयोग से हिलडुल कर हर आते-जाते का स्वागत कर रही थीं। इतवार की सुबह को खुशनुमा बना रहीं थीं।


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Saturday, February 27, 2016

बीड़ी जानलेवा है


पोल के बीच सर घुसाये सूरज भाई
आज सुबह उठने के पहले ही हनुमान मंदिर से घंटे की आवाज सुनाई देने लगी। याद आया आज शनिवार है। भीड़ रहेगी मंदिर में। मांगने वाले और देने वालों का जमावड़ा होगा।

मेस के बाहर एक आदमी राख के रंग का कोट और कफ़न के रंग की धोती पहने चला जा रहा है। हाथ में कानून व्यवस्था की तरह डंडा हिलाते हुये। लेकिन डंडा हिलने से कोट और धोती का रंग नहीं बदल रहा था। एक आम आदमी भी कभी-कभी पूरा समाज जैसा दीखता है।

चाय की दुकान पर गाना बज रहा था:

’फ़ूल तुम्हें भेजा है खत में,
फ़ूल नहीं मेरा दिल है।’

बताओ भाई दिल जब खत में भेज दिया तो खून की पम्पिंग कौन करेगा? पुराने जमाने में ऐसा ही था। उन दिनों तो दिल केवल खत में भेजते थे लोग। आज तो हर संदेश में धड़कते हुये, उछलते हुये दिल भेजने की चलन है।
सड़क पर एक सरदार जी काला चश्मा लगाये जा रहे। धूप का चश्मा। धूप निकली नहीं थी अभी लेकिन उसकी अगवानी की तैयारी हो गयी थी।


ट्रेन के इन्तजार में बंद रेलवे फाटक
उधर बायीं तरफ़ सूरज भाई एक आसमान पर अपनी दुकान सजा लिये थे। धकाधक रोशनी, उजाला, किरण, गर्मी सब धड़ल्ले से सप्लाई कर रहे थे। हमको देखा तो बोले फ़ोटो खैंचो न यार मेरी भी। हम खैंचने लगे तो बोले एक मिनट उधर चलकर खैंचो। इसके बाद पास के दो खंभों के बीच मुंडी घुसाकर पोज दिये और बोले अब खींचो। हमने खींचा और हंसते हुये कहा- " जरा सा और सर बड़ा होता तो खम्भा काटकर निकालना पड़ता। यहीं जबलपुर में एक बच्चे की मुंडी घुस गयी थी कुकर में। काटना पड़ा तब निकला।" सुनते ही सूरज भाई खम्भे के बीच से मुंडी निकालकर पेडों के ऊपर चमकने लगे।

मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। पास ही एक हैंडपम्प पर कई सारे आदमी-औरत नहा रहे थे। आदमी बदन उघाड़े हर-हर गंगे, नर्मदे हर कर रहे थे। महिलायें कपड़े पहने स्नान कर रहीं थीं। कुछ जो नहा चुकी थीं वे गीले कपड़े की आड़ में सूखे कपड़े पहन रही थीं। बहुत सावधानी से। कहीं कपड़ा बदलते हुये बदन उघड़ न जाये। बुजुर्ग महिलायें कुछ बेफ़िक्री से यही सब कर रही थीं।

रेलवे का फ़ाटक बंद था। देखा कि सिग्नल लाल था। गोया हमारी साइकिल कोई ट्रेन हो जो फ़ाटक पार कर जायेगी अगर सिग्नल लाल हुआ।


स्कूल जाते बच्चे।
फ़ाटक पर एक जीप में कुछ बच्चे बैठे थे। जीप पर ’स्कूल बस’ लिखा था। संसद में यह मुद्दा उठ जाये तो हफ़्तों बहस हो सकती है आराम से, महीनों प्राइम टाइम निकल सकता है इस बाद पर। कोई कहेगा अरे भाई वह बस नहीं जीप है। कोई दूसरा जीप का फ़ोटो लहराते हुये कह सकता है देखिये- ये लिखा है स्कूल बस। जब लिखा है बस तो माननीय सदस्य इसको जीप कहकर सदन को गुमराह क्यों कर रहे हैं।

पीछे बैठे बच्चे से बात करने लगते हैं। पूछते हैं - ’तुम अकेले क्यों पीछे बैठे हो? क्या भगा दिया दीदियों ने?’
बच्चा कहता है- ’नहीं। हम अपने मन से बैठे हैं।’

कक्षा 2 में पढता है बच्चा। क्राइस्टचर्च में। स्कूल साढे सात बजे का। बाकी बच्चे अलग-अलग क्लास में। हम मजे लेने के लिये ऊटपटांग बाते पूछते हैं -’ सब लोग अलग-अलग क्लास में क्यों पढते हो? एक ही क्लास में क्यों नहीं पढते? तुम पांच में क्यों पढती हो? क्या कक्षा दो से भगा दिया तुमको?’

बच्चे हमारी बात पर हंसते हैं। खिलखिलाते हैं। लेकिन छोटा बच्चा हंसने की बजाय मुस्कराता है। उसके एक दांत में केविटी है। थोड़ा सा बदरंग है दांत। हल्का सा टूटा भी है। ’दंत दिव्यांग’ है बालक। उसके घर में, स्कूल में और सब जगह उसको एहसास कराया गया होगा कि उसका एक दांत खराब है तो वह खुलकर हंसने से परहेज करने लगा होगा।

लोग सुन्दरता के अपने मानक गढकर उससे अलग को असुन्दर मानते हैं। उसको एहसास भी कराते हैं। अनजाने में की जाने वाली क्रूरता है यह जो कि समाज के सभ्य होने के साथ बढ़ती जाती है।

हमने बच्चे से कहा -तुम खुलकर हंसा करो यार! हंसता हुआ इंसान हमेशा बहुत खूबसूरत लगता है। इसपर वह मुस्कराया। खूबसूरत, प्यारा लगा।


कामगारों की सुबह की रसोई
बच्ची ने बताया कि उसका स्कूल साढे सात का है। उसकी मम्मी साढे पांच पर उठती हैं। वह साढे छह बजे। फ़िर तैयार होकर स्कूल जाती है।

हमने सोचा जो बच्चियां अभी एक घंटा देर से उठती हैं उसकी भरपाई उनको तब करनी पड़ती है जब वे मम्मी बनती हैं। मर्द अक्सर इस सजा से मुक्त रहते हैं।

बच्चे ने पूछा -आपने हमारी जीप का फ़ोटो क्यों खींचा? हमने बताया ऐसे ही। फ़िर उसका फ़ोटो पूछकर खींचा। दिखाया। वह खुश हुआ। बच्चियों ने भी देखा और देखकर खिलखिलाईं। तब तक फ़ाटक खुल गया और ’स्कूल बस’ चल दी। हम भी चल दिये।

दीपा को देखने गये। कल शाम को गये थे उधर तो उसके पापा ने बताया कि वह कल भी स्कूल नहीं गयी थी। जूते न होने के कारण डांट पड़ती। अनुशासन और सबको एक जैसा बनाने की आड़ में असमानता की शुरुआत स्कूल से ही होती है। जो बच्चे ड्रेस नहीं बनवा पाते वो स्कूल जायें तो डांट खायें। इसी चक्कर में पिछड़ जाते हैं।
जूते के कारण स्कूल न जा पाने की बात सुनकर खराब लगा। ३ दिन से नहीं गयी थी स्कूल। दीपा तो सो गयी थी। फ़िर उसकी फ़ोटो दिखाकर पास ही आधारताल से उसके जूते लाये गये। आज सुबह नाप हुई तो ठीक पाये गये। आज स्कूल जायेगी दीपा।

हमने उससे कहा -’तुम कल सो गयी थी जब हम आये थे।’

वह बोली - ’हम सुन रहे थे आपकी बात। लेकिन नींद बहुत जोर से आती है। नींद में हमको कोई उठा नहीं सकता।’

लौटते में पुल के नीचे ही मजदूरों का किचन चालू था। पास के गांवों से मजूरी करने आये हैं ये सब लोग। गांव में खेती भी है कुछ लोगों की। एक ही गांव के हैं सब। कित्ता समय लगता है गांव से आने में पूछने पर किसी ने बताया पांच घंटा तो कोई बोला 100 रुपया। लकड़ी भी गांव से लाते हैं। उसका अलग किराया नहीं पड़ता।
बीड़ी कान में खुशी थी एक के। हमने कहा- ’बीड़ी बिना गुजारा नहीं होता क्या?’

एक ने कहा- ’ बीड़ी तो हमारी जान है।’

दूसरा मजे लेते हुये बोला- ’बीड़ी जानलेवा है।’

सब हंसने लगे इस डायलाग बाजी पर। फ़ोटो लेकर सबको सबको दिखाया तो सब अपनी- अपनी फ़ोटो देखकर बड़ी जोर-जोर से हंसने लगे। बीच में बीड़ी पीते हुये खाना बनाते आदमी की खूब मौज ली गयी।

हम लौट आये। रास्ते में काले चश्मे वाले सरदार जी फिर दिखे।

मुस्कराइए कि सुबह हो गयी।

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तम्बाकू नहीं खायेगें अब



मयूर (दांये) सोनू के साथ पुलिया पर
कल दोपहर को लंच के लिये मेस आते हुये पुलिया पर दो लोग बैठे दिखाई दिये। साइकिल उनकी सामने खड़ी थी। दोनों साथ के लिफ़ाफ़े से कुछ निकालकर हथेली से रगड़कर खाते हुये दिखे। हमें लगा कि ये दोनों तम्बाकू खा रहे हैं । ’तम्बाकू विरोधी प्रवचन का मौका मिला सोचकर हम किंचित प्रसन्न भी हुये। उनके पास से गुजरते हुये बतियाने लगे।

जैसे खुद को पक्का ईमानदार मानने वाला इंसान दूसरे की हर हरकत को बेईमानी की दिशा में उठा हुआ कदम समझकर उसकी निन्दा करता है। या फ़िर आजकल अपने को देशभक्त मानने वाले लोग अपने से अलग विचार रखने वाले को देशद्रोही ही मानकर यथासंभव उनका हर संभव संहार करने की चेष्टा करते हैं वैसे ही किसी को तम्बाकू खाते देखकर, बीडी पीते हुये उसको प्रवचनामृत पिलाने की सहज इच्छा घेर लेती है अपन को भी।

बात करने पर पता चला कि वे तम्बाकू नहीं खा रहे थे। बल्कि मूंगफ़ली छीलकर खा रहे थे। मूंगफ़ली छीलकर हथेली में रगड़कर दानों का छिलका हटाने को हमने उनका तम्बाकू खाना समझ लिया। कितनी पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता हो रखी है अपन की भी। आपके साथ भी ऐसा होता है क्या ? :)


उनमें से एक ने बताया कि वे टेंट हाउस में काम करते हैं। वेटर और अन्य सब सर्विस का काम। उसी की मजदूरी लेने जा रहे थे। 375 से 400 रुपये रोज के मिलते हैं। जब टेंट हाउस का काम नहीं मिलता तो बेलदारी का काम करते हैं। उसमें 250 रुपये तक मिलते हैं।

मयूर चौरे नाम था। शक्ल से 20-22 साल के लगने वाले ने अपनी उमर 30 साल बताई। उसके साथ उसका चचेरा भाई सोनू था।

अपना किस्सा बताते हुये मयूर ने बताया कि वह मराठी है। बालाघाट में घर है। लेकिन पिता जबलपुर आ गये। छह बहनों का अकेला भाई है वह। पिता अब हैं नहीं। मां साथ में हैं। शादी हो गयी है। पत्नी छत्तीसगढ की है। मयूर खुद पांचवी पास है। पत्नी आठवीं पास है। दो बच्चे हैं उसके। बच्ची छह साल की और एक बच्चा चार साल का। सब बहनों की शादी हो गयी। दो बहनों की शादी पिता के न रहने पर की।

हमने कहा -’पिता के सात बच्चे हुये। तुम्हारे तीस साल की उमर में दो बच्चे हो चुके। आगे और होंगे!’

’अब नहीं होंगे। हमने वाइफ़ का आपरेशन करवा दिया- छोटा परिवार, सुखी परिवार।’ - मयूर एकदम परिवार नियोजन कार्यक्रम का ब्रांड एम्बेसडर सा हो गया।

हमने कहा -’ बड़े समझदार हो तुम तो यार।’

काम काज के बारे में बात करते हुये बोला- ’ टेंट हाउस के काम में पैसा तो मिलता है लेकिन हमको अच्छा नहीं लगता। लोग गाली-गलौज करते हैं। अबे-तबे करते हैं। शादी-व्याह पार्टी में दारू पीकर बदतमीजी से बात करते हैं। कुछ बोल सकते नहीं। बोलो तो मारपीट तक पर उतारू हो जाते हैं। इसलिये हम कुछ और काम करने की सोच रहे हैं।’

हमने फ़िर कहा -’ तुम तो बड़ी समझदारी की बात करते हो यार। लगते भी नहीं 30 साल के हो।’

इस पर सोनू ने बताया कि कोई भी नहीं कहता इसको कि 30 साल का है यह। सब कम उमर ही समझते हैं इसे।

बात करते हुये अपने मोबाइल में उसने अपने घर वालों के फ़ोटो दिखाये। मोबाइल पुराना था। स्क्रीन शायद ढीला हो गया था। रबड़ बैंड से बांधा गया था। मां, पत्नी, बच्चे सबके फ़ोटो दिखाये । पत्नी का नाम बताया पूनम। धूप में डेढ इंच बाई डेढ इंच के स्क्रीन में फ़ोटो साफ़ नहीं दिख रहे थे लेकिन उसके उत्साह की चमक के चलते हमने सब फ़ोटो देखे और तारीफ़ की।

पत्नी की बात चली तो हमने पूछा- ’ कभी घुमाने / पिक्चर दिखाने ले जाते हो?’

वह बोला- ’ घर में ही टीवी में देखती है। बाहर जाने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती।’

मां का बहुत ख्याल रखता है ऐसा लगा। इतनी तारीफ़ की अपनी मां की उसने कि अगर मुनव्वर राना सुनते तो कुछेक और शानदार शेर निकाल देते।

चलने के पहले हमने उससे कहा -’तुम्हारे दांत से लगता है कि तुम तम्बाकू भी खाते हो! क्यों खराब करते हो अपने दांत? ’

इस पर उसने कहा -’ आपने कह दिया अब आज के बाद से कभी नहीं खायेंगे।’ कहते हुये उसने जेब से तम्बाकू की पुडिया निकालकर वहीं फ़ेंकने का उपक्रम किया।

हमने कहा -’ यहां मत फ़ेंको। अपने साथ ले जाओ। घर में रखना। पत्नी के पास कि अब छोड़ दी। यह आखिरी थी । ’

शाम को फ़ोन पर फ़िर बताया उसने कि तम्बाकू नहीं खायेगा अब ! :)

पता नहीं अपने कहे पर अमल कर पाता है कि नहीं। लेकिन तय किया यही क्या कम ! :)

चलते हुये बोला -’ आप बहुत अच्छे हैं अंकल जी। वर्ना आजकल कौन आम लोगों से इस तरह बात करता है! ’ यह कहते हुये उसने आते-जाते तमाम लोगों की तरफ़ इशारा किया गोया शिकायत दर्ज करा रहा हो कि देखिये इनमें से कोई रुककर हमारा हाल-चाल नहीं पूछ नहीं रहा।  :)

हमने कहा - ’अरे यार,तुम आम नहीं खास हो। इतने समझदार हो। तुमसे बात करके बहुत अच्छा लगा मुझे।’
वह बोला -’मुझे भी बहुत अच्छा लगा अंकल जी। आपसे बात करते-करते मूंगफ़ली कब खत्म हो गयी पता ही नहीं चला। 30 रुपये थे हमारे पास। 10 रुपये की मूंगफ़ली ली थी। सब खा डाली यहीं बैठकर आपसे बात करते हुये।’ यह कहते हुये उसने पास के बचे हुये 20 रुपये भी दिखाये।

हमने कहा -’ अच्छा हम दे देते हैं 10 रुपये तुमको। फ़िर से खा लेना मूंगफ़ली।’ :)
 
मयूर हंसते हुये अपने साथी सोनू के साथ चला गया। हम भी मेस चले आये।

मयूर (दांये) सोनू के साथ पुलिया पर। मूंगफली का पैकेट दोनों के बीच ।





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Friday, February 26, 2016

दिल में किसी का प्यार बसाना अच्छा है


समीर यादव स्कूल जाते हुए
आज सुबह साईकल स्टार्ट की और निकल ही पड़े। मेस के बाहर लोग लपकते हुए टहल रहे थे। जितनी तेजी से लोग जाते दिख रहे थे उससे भी ज्यादा तेजी से आते दिखे। कुछ ऐसे ही जैसे जितनी तेजी से अपने यहां विकास होता है उससे भी ज्यादा तेजी से कुछ लोग विनाश करके हिसाब बराबर कर देते हैं।

हो सकता है विनाश करने वालों की मंशा विकास करने वालों को रोजगार देना हो। पुराने जमाने में कुछ प्रजा वत्सल राजा अकाल के समय दिन में निर्माण कराते थे। मजदूरों को निर्माण की मजूरी देते थे। रात को अगले दिन बने हुए को गिरवा देते थे। उसकी भी मजदूरी देते थे। इससे अकाल के समय प्रजा का पेट पलता थी। आजकल अकाल नहीं पड़ा लेकिन दिमाग में अकल का अकाल तो पड़ा ही है।

फैक्ट्री के पास चाय की दुकान पर केंद्रीय विद्यालय के समीर यादव से मुलाक़ात हुई। कक्षा 8 में पढ़ते हैं। साईकल पर स्कूल जा रहे थे। बीच में टॉफ़ी खरीदने के लिए रुके थे। 5 रूपये की टॉफ़ी खरीदी। एक मुंह में डाली। छिलका डस्ट बिन में फेंका। बाकी बोले दोस्तों को खिलाएंगे।

दोस्त लोग भी कुछ-कुछ लाते हैं। कोई आइसक्रीम तो कोई कुछ और। सब मिलकर खाते हैं। स्कूल में फ़ुटबाल खेलते हैं। पहले क्रिकेट भी खेलते थे। लेकिन फिर बैट टूट गया। एक खो गया। स्कूल से मिलता नहीं। अब फ़ुटबाल खेलते हैं।


सूरज भाई रॉबर्टसन झील में नहाते हुए
गणित अच्छा लगता है। सोशल खराब। आगे चलकर बायो लेने की सोचते हैं। हमने पूछा-'जब गणित अच्छा लगता है तो उसको छोड़कर बायो क्यों लोगे? बोले--'देखेंगे, हाई स्कूल के बाद तय करेंगे।जैसे नंबर आएंगे वैसा करेंगे।'

पापा जीसीएफ में वेल्डर हैं। हमने पूछा -'वेल्डिंग पता है कैसे करते हैं।' पता नहीं था उसको। हमने बताया कि वेल्डिंग में जोड़ने का काम होता है। उदाहरण देकर समझाया।

वेल्डिंग रॉड अपना अस्तित्व खत्म करके दो समान, आसमान टुकड़ों को जोड़ने का काम करती है। ऐसे ही समाज में भी तमाम लोग जोड़ने का काम करते हैं। लेकिन हमको दीखते नहीं। हमको तो सिर्फ तोड़ने वाले दीखते हैं। जोड़ने वाले शायद इसलिए नहीं दीखते क्योंकि उनका अस्तित्व जोड़ने में ही खत्म हो जाता है-वेल्डिंग रॉड की तरह।

पापा कभी-कभी पिटाई भी कर देते हैं। साल में एकाध बार। पिटाई खेलकर घर लेट आने पर ही होती है। लेकिन घंटे-दो घण्टे में कुछ सामान लाकर मना भी लेते हैं।


होमवर्क करती हुई दीपा
फेसबुक खाता है समीर का लेकिन फोन पापा के पास रहता । एक बार स्कूल ले गये फोन तो स्कूल वालों ने जब्त कर लिया। एक महीने बाद दिया। अभी तो परीक्षाएं चल रही हैं इसलिए फोन बन्द।

स्कूल तक हम लोग साथ गए। फिर समीर स्कूल चले गए। हम आगे बढ़ गए।

रॉबर्टसन लेक देखी। सूरज भाई झील में नहा रहे थे।पूरी झील चमक रही थी। पानी ख़ुशी के मारे इठला रहा था। लहरें इधर से उधर और फिर उधर से इधर भागती हुई बनी बावली घूम रही थी। किरणों की संगत में उनकी खूबसुरती कई गुनी बढ़ गयी थी। ऊपर तारों पर बैठे पक्षी सब कुछ कौतुक भाव से निहार रहे थे। हमको देखकर सूरज भाई जोर से चहके। झील का पानी और चमक गया।

पास ही एक आदमी बेर के पेड़ से गिरे हुए बेर बीन रहा था। तोड़ रहा होता तो शायद गाना बजने लगता:
'मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो
कहीं काँटा चुभ जाएगा।'
बेकरी की दुकान पर बिस्कुट लेने रुके। एफ एम पर गाना बज रहा था:

'दिल में किसी का प्यार बसाना अच्छा है
पर कभी-कभी।'

दीपा के पापा दीपा की चुटिया करते हुए
गाने में शमा, परवाना सब थे। सुबह-सुबह शमा परवाना सुनकर लगा कहीं रात तो नहीं हो गयी।लेकिन ऐसा था नहीं।

शोभापुर रेलवे क्रासिंग पर देखा ट्रेन बहुत तेज भागती चली जा रही थी। लगता है कल के बजट से उत्साहित होकर ख़ुशी जाहिर कर रही थी।

दीपा अकेली थी अपने टपरे पर। बैठी चाय पी रही थी। पापा कहीं गए थे। बोली-'कहां चले थे इत्ते दिन।' हमने बताया घर गए थे। बोली-'हम इतवार को आपके उधर गए थे। पूछा तो बताया कि ससुराल गए हैं।'

हमने पूछा-'स्कूल गयी थी? होमवर्क किया ? वह हाँ बोली तो हमने कहा दिखाओ। उसने दिखाया। अधूरा था। 'मैं गांधी बन जाऊं' कविता लिखनी थी। आधी लिखी थी। वहीं बैठकर हमने लिखवाई। 'च' को 'ज' लिखा था। 'चादर' को 'जादर'। ठीक कराया। और भी वर्तनी की गलतियां।

हल्के से लिखती है पेन्सिल से दीपा। बेमन से। जैसे सरकारी योजनाओं की घोषणा हो जाने पर सरकारी अमला बेमन से उनका क्रियान्वयन करता है। किसी तरह निपटाते हुए वैसे ही दीपा होमवर्क करती है। हमने बैठकर कविता पूरी करवाई।

दीपा के पापा आ गए। स्कूल जाने के लिए बिटिया की चुटिया बनाई। बताया कि दो दिन से स्कूल नहीं जा रही दीपा। उसके जूते कहीं खो गए हैं। पापा कहते हैं कहीं भूल गयी। दीपा कहती है घर से कोई ले गया। अब 'फटका' तो लगा नहीँ घर में।लगा होता तो कोई न ले जा पाता। स्कूल में डांट पड़ेगी। 120 रूपये में आएंगे जूते।
हमको अपने साथ कक्षा 1 में पढ़ने वाला साथी मोतीलाल याद आया। वह पढ़ने में अच्छा था। उसके पिता शायद रिक्शा चलाते थे। नंगे पाँव आता था। लेकिन तब गुरूजी इस बात के लिए डांटते नहीं थे। वह सरकारी स्कूल था। टाट पट्टी वाले स्कूल। सरकारी स्कूल में गरीब अमीर बच्चे एक साथ पढ़ते थे। सम्पन्न बच्चों को भी गरीब बच्चों के साथ रहकर उनके बारे में जानकारी रहती थी।अब स्कूल लोगों की आर्थिक हैसियत के हिसाब से अलग-अलग हो गए हैं। Sharad

लौटते में देखा एक आदमी अपने कुत्ते को टहला रहा था। कुत्ता जबर था। वह आदमी को अपने हिसाब से घसीट रहा था। लग रहा था कि कुत्ता आदमी को टहला रहा था।

वैसे यह हर जगह हो रहा है अब। पालतू कुत्ते मालिकों को टहला रहे हैं। मालिक इसी में खुश कि कुत्ते की जंजीर उसके हाथ में हैं। कुत्ते जबर हो रहे हैं।

सुबह भी हो ही गयी।


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Wednesday, February 24, 2016

आँखों की भाषाएँ तो अनगिन हैं

जबलपुर स्टेशन के बाहर चाय की दुकान
आज सुबह बाहर बरामदे में खड़े होकर चाय पी रहे हैं। कप धर लिया है रेलिंग पर और सुड़कते जा रहे हैं चाय। आपको सुड़कने से एतराज है तो 'सिप करते जा रहे हैं' पढ़ लीजिये। मतलब एक ही है।

सामने सूरज भाई करीब 25 डिग्री ऊपर पहुँच गए हैं। चमक रहे हैं।

बगीचे की तमाम चिड़ियाँ चिंचियाते हुए कह रही हैं कि जब निकले थे सूरज भाई तो लाल थे। जैसे ही सब लोग जगे तो रंग बदल दिया। बहुत बड़े रंगबदलू हैं सूरज भाई।

सूरज भाई चिड़ियों की बात सुनकर मुस्कराने लगे। उनके मुस्कराते ही अनगिनत किरणें उन चिड़ियों की चोंच पर स्वयंसेवकों की तरह सवार हो गयीं। सब चिड़ियों की चोंच चमकने लगीं।

किसी एक चिड़िया ने पास की नाली में जमा पानी में अपनी सूरत देखी तो चहकते हुए कहने लगी -'देख तो यार ये सूरज भाई ने मेरी चोंच कैसी चमका थी।और कोई होता इतनी बुराई करने पर अपने आदमियों से मेरी चोंच नुचवा देता।उनके भक्त इतनी बुराई करने पर हमारे खानदान को गरियाने लगते अब तक।'

इस पर उसकी सहेली ने कहा बड़े लोग ऐसे ही बड़े मन के होते हैं। छुद्र लोग छुद्र हरकते करते हैं।

खुश होकर उसने सूरज भाई को खूब सारा धन्यवाद बोला। इतनी जोर से सूरज भाई की तरफ देखकर चिंचियायी मानो उनको 'चोंच सलामी' दे रही हो। क्या पता 'लव यू सूरज भाई' भी बोला हो। हमको तो उनकी भाषा आती नहीं। आपको जैसा लगे वैसे समझ लीजिये रमानाथ अवस्थी जी की कविता के हिसाब से:

'आँखों की भाषाएँ तो अनगिन हैं
जो भी सुंदर हो समझा देना ।'
सूरज भाई हमको बाहर खड़ा देखे तो वो भी साथ आ गए और हमारे ही कप से चाय पीने लगे। हम आपस में बतियाने लगे।

जरा सुबह की मार्निंग बहस है और कुछ नहीं
चाय की बात से याद आया। कल स्टेशन के बाहर चाय की दुकान पर चाय पी। दो लोग थे हम। 7 रूपये की एक चाय। 15 रूपये दिए हमने। एक रुपया फुटकर था नहीं चाय वाले के पास। उसने हमको इलायची का छोटा पैकेट थमाने की कोशिश की। हमें लगा कि एक रूपये के बदले 'मसाला पुड़िया' दे रहा है। हम नहीं लिए। बाद में पता लगा कि वह इलायची थी। जब पता लगा तब भी लेने का मन नहीं किया। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इलायची ही तो थी कोई आरक्षण थोड़ी था जिसके लिए पहले मना किया हो और बाद में कहें हमें भी चईये।
वहीं चाय पीते हुए देखा कि एक ऑटो वाला अपना ऑटो लेकर आया। पार्किंग पर कुछ विवाद हुआ वहीं खड़े एक आदमी से। दोनों एक दूसरे को देख लेने की धमकी दे रहे थे। हमें समझ ही नहीं आया कि ये आमने-सामने बहस करते लोग क्या अभी एक दूसरे को देख नहीं पा रहे जो बाद में देख लेने का साझा प्लान बना रहे हैं। फिर लगा कि शायद एक समय में एक ही काम करने के हिमायती हों ये भाई लोग। जब बहस करना है तब देखना नहीँ एक दूसरे को।

लगा तो यह भी कि शायद लड़ने के चलते गुस्सा इतना बढ़ गया हो दोनों का कि 'नेत्र दिव्यांग' हो गए हों दोनों।

आखिर बड़े-बुजुर्ग जो कह गए हैं कि क्रोध में इंसान अँधा हो जाता है तो गलत थोड़ी ही न कहें होंगें।

है कि नहीं ?

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अच्छे लोगों की कमी नहीं है दुनिया में

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Tuesday, February 23, 2016

हमको मिटा सके, ये जमाने में दम में नहीं


सूरज की अगवानी में क्षितिज पर बिछी लाल कालीन
सबेरे नींद खुली। खिड़की से देखा कि क्षितिज ने सूरज की अगवानी के लिए लाल कालीन सी बिछा रखी है। लाल और उसके ऊपर सफ़ेद रंग की पट्टी। नीचे धरती पर पेड़ पौधे पत्तियां सब हरे रंग में।

हमने सोचा यार ये तो बड़ा जलवा है सूरज भाई का। सुबह छह बजे रोज रेड कार्पेट वेलकम होता है भाई जी का।
सफेद, लाल और हरे रंग की पट्टियां देखकर हमने बोला -'ये क्या झंडा फहराते हो सुबह-सुबह। इतना दूर तक करोड़ों मील का झंडा। लेकिन रंगों का क्रम गलत है भाई जी। सफेद ऊपर रखते हो। किसी ने शिकायत कर दी या किसी अदालत ने खुद संज्ञान में लेकर नोटिस थमा दिया तो घर न जा पाओगे शाम को।'

सूरज भाई बड़ी जोर से हंसे। पास होते तो पक्का वो ये वाले शेर का कोई संस्करण सुनाते:
"हमको मिटा सके, ये जमाने में दम में नहीं
हमसे जमाना खुद है, जमाने से हम नहीं।"
सूरज भाई के हँसते ही उजाला और बढ़ गया। एक जगह आसमान से सूरज भाई इतना पास से दिखे कि लगा मानों क्षितिज की दीवार फोड़कर उजाला धरती पर उड़ेल दिया हो।

कुछ किरणें मेरे डिब्बे की खिड़की के पास आकर गर्मी सप्लाई करने लगीं। शायद उनको पता चल गया था कि कुछ सर्दी बढ़ गयी है।

कटनी स्टेशन पर गाडी 35 मिनट लेट पहुंची। चाय की दुकान से काफी आगे रुकी। हमें लगा कि कोई चाय वाला 'चाय गरम, चाय गरम' करते हुए गुजरेगा तो चाय पिएंगे। लेकिन गरम क्या कोई ठण्डी चाय वाला भी न निकला। हम थोड़ा पीछे बढ़कर चाय की खोज में बढे कि सिग्नल पीला हो गया। हम दौड़ के डब्बे में वापस आ गए। चयासे ही बने रहे।


सूरज भाई ने अपनी किरणों को मेरे पास भेज दिया
गाड़ी कुछ देर नहीं चली तो इस बार चश्मा धारण करके चाय की खोज में मुंडी बाहर किये चाय वाले को खोजते रहे। ट्रेन चल दी। आगे एक चाय वाला खड़ा था। उसको इशारे से बताया तो उसने चलती ट्रेन में चाय और हमने दस का नोट थमा दिया। 7 की चाय दस में। पर कोई खलने का भाव नहीं आया। जब उड़न कंपनियां 2 हजार का टिकट 50 हजार में बेंच रहीं हैं तब चाय वाला 7 की चाय 10 में दे रहा है तो क्या बुरा। चिल्लर वापस करने का समय भी नहीं था उसके पास।

चाय बढ़िया थी। डिप डिप वाली चाय। शायद 10 की हो। हम बिना जाने उस पर 3 रूपये मंहगी बेंचने की तोहमत लगा दिए। पक्के भारतीय होते जा रहे हैं हम भी। एकदम टीवी चैनलों की तरह। मिडिया ट्रायल पहले कर दिया फिर बोल दिया -'जो वीडियो हमने दिखाया वह फर्जी था।'

चाय पीते हुए ऊपर की बर्थ वाले की बातचीत सुनी। कह रहा था -'टीटी ने सौ रूपये लेकर बर्थ दे दी । आराम से चले आये।'

यह नहीं पता चला कि टीटी ने सौ रूपये टिकट के किराये के अलावा अलग से लिए या कुल सौ में दे दी बर्थ। लेकिन यह ख्याल जरुर आया कि अगर एयरलाइंस वाले भी अपने यहां टीटी रखने लगें तो कितना अच्छा हो। दिल्ली से कोलकता जाते हुए अगर कुछ सीट खाली दिखें तो लखनऊ, पटना में रोककर प्लेन सवारी बैठा लेंगे।विमान कम्पनियां इत्ते घाटे में थोड़ी रहेंगी। सीटें खाली ले जाना आर्थिक गुनाह है भाई। सौ दो सौ में सौदा बुरा नहीं लगेगा। विजय माल्या सोंचे अगर पोस्ट पढ़ रहे हों।

सूरज भाई ने आते ही पेड़, पौधों, कोने, अतरे में छिपे बैठे, धरना दे रहे सारे अन्धकार तत्वों की तुड़ईया करके सबको तितर-बितर कर दिया। सब जगह सूरज की किरणें खिलखिलाते हुए अठखेलियां करने लगीं। धरती की हरियाली और हरी-भरी और खुशनुमा हो गयी। सूरज भाई ऊपर आसमान की अटारी पर चढ़कर सब जगह मुआयना करते हुए देखते हुए लग रहे हैं कि कहीं रोशनी की सप्लाई रह तो नहीं गयी।

सुबह हो गयी। ट्रेन संस्कार धानी पहुंच गयी।

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Monday, February 22, 2016

बीड़ी से सौहार्द बढ़ता है




 पटरी भी सलामत है और ट्रेन भी पधार रही है। कानपुर है कौनौ मजाक थोड़ी कि कोई ट्रेन को रोक दे। 
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हमारा ट्रेन का डब्बा प्लेटफार्म से 10 -15 मीटर उतरकर आता है। पटरी पर खड़े हुए ट्रेन का इंतजार करते हुए प्लेटफार्म पर बैठे लोगों की बतकही सुनते रहे। एक भाई किसी का जलवा बड़ी ऊँची आवाज में बता रहे थे कि वहां बाहर ही बीड़ी का बण्डल और माचिस धरी रहती थी जिसको मन आये पिए।  :)

 हमें लगा कि धरना पर बैठे जाट भाइयों की आंदोलन के शुरुआत में ही ठीक से बीड़ी-माचिस से आवभगत हो गयी होती तो बवाल इतना नहीं बढ़ता। बीड़ी से सौहार्द बढ़ता है। 

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अपना तो यह रोज का किस्सा है


गोविन्दपुरी रेलवे स्टेशन
कल सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँका। सूरज भाई आसमान के माथे पर टिकुली सरीखे चमक रहे थे। आसमान सुहागन के माथे सा दमक रहा था।

ट्रेन पटरी पर छम्मक छैंया करते हुए चल रही थी। खटर खट करती हुई। पटरी पर कैटवॉक सरीखा करती दायें-बाएं होते हुए दुलकी चाल से चल रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में सेंसेक्स जैसा ऊपर भी उछल जा रही थी। ठण्डी हवा जैसे ट्रेन से सटी हुई चल रही थी। उसकी मिजाजपुर्सी सी करती हुई।

ट्रेन एक पुल के पास गुजरी तो सूरज भाई कोने में खड़े दिखे। ट्रेन पुल से जैसे ही गुजरी सूरज भाई ट्रेन के पीछे लग लिए। जैसे लड़के लोग कालेज जाती लड़की के घर से निकलने का इन्तजार चौराहे/मोड़ पर करते हैं और लड़की के आते ही उसको एस्कार्ट करने लगते हैं कुछ वैसे ही सूरज भाई ट्रेन के साथ चलने लगे।

एक बार जब साथ हुआ तो सूरज भाई एकदम ट्रेन की नकल करने लगे। ट्रेन जैसे पटरी पर इठलाते हुए चल रही थी, सूरज भाई उसी तरह आसमान में इठलाने लगे। पेड़ों की फुनगियों पर साइन कर्व सरीखा बनाने लगे। एक बारगी यह भी लगा कि ट्रेन को अपना ईसीजी सा दिखा रहे हैं।

ट्रेन भी सूरज भाई की हरकतें कनखियों से देखते हुए अनदेखा करती रही। जब काफी दूर का साथ हो गया तो वह सूरज भाई की संगत कुछ ज्यादा ही शिद्दत से महसूसने लगी। एक जगह नदी पड़ी तो सूरज भाई उसमें उतरकर नहाने लगे। शायद उनको लगा हो कि राजा बेटा बन जाने में इम्प्रेशन अच्छा पड़ेगा।

ट्रेन ने जब सूरज भाई को साथ आते नहीं देखा तो बिना स्टेशन के ही पटरी पर खड़ी हो गयी। इन्तजार सा करने लगी सूरज भाई का। जैसे ही सूरज भाई आते दिखे वह आगे चल दी यह जताते हुए मनो वह अपने किसी काम से रुकी थी। लेकिन सूरज की किरणें सब देख रहीं थी। वह यह सब देखकर मुस्कराने लगीं और सूरज भाई से कहने लगीं -'क्या बात है दादा, आज कुछ ज्यादा ही जम रहे हो।' सूरज भाई उनसे प्यार से अपना काम करने करने और पूरी कायनात में चमकने की कहकर ट्रेन के ऊपर आकर आसमान में चमकने लगे।

मेरी सीट पर एक महिला आकर सिकुड़ी सी बैठ गई थी। मैं भी उठकर बैठ गया और उससे बतियाने लगा।
महिला ने बताया कि वह घाटमपुर के आगे रागौर की रहने वाली है। वहीं उसका मायका है। शादी उसकी बांदा जिले में हुई थी। लेकिन ससुर गाली-गलौज , मारपीट करते थे। पेड़ से बांधकर मारने की धमकी करते थे। नशा पत्ती करते भी करते थे। इसलिए वह भागकर मायके आ गयी थी।

ससुराल बहुत पिछड़े इलाके में थी। एक बच्चा इलाज के अभाव में मर गया। डायरिया हो गया। इसलिए भी मायके आ गए। ससुराल में 12-15 लोगों का परिवार था। सबके लिए चक्की का आटा पीसना। खाना बनाना ऊपर से बिना बात मारपीट। रह नहीं पाये वहां। चले आये मायके। पंचायत बैठी और यह वायदा किया ससुर ने कि ठीक से रखेंगे लेकिन फिर वही हरकत। एक बार तो मायके तक में हाथ उठा दिया तो अम्मा ने कहा-'अब नहीं भेजना।'

सास और खुद के बच्चे साथ-साथ होते रहे। अब तो ससुर रहे नहीं। कैंसर हो गया था। पहले पति भी मार-पीट करता था लेकिन अब नहीं करता। घर जमाई बनकर सुधर गया है। अब साइकिल की मरम्मत का काम करता है।

चार बच्चे हैं। सब लड़के। 10 वीं, 7 वीं , 4 थी और दूसरी में पढ़ते हैं।
महिला खुद फूल का काम करती है। शिवाले जा रही थी फूल लेने। कोई सहालग है। सुबह 4 बजकर 7 मिनट पर उठी थी। नहाकर, पूजा करके खाना बनाया और फिर साढ़े पांच बजे ट्रेन पकड़ ली कानपुर के लिए। लौटते में साढ़े दस बजे ट्रेन है। अगर मिल गयी तो ठीक वरना नौबस्ता, घाटमपुर होते हुए बस से लौटेगी।
बात करते हुए फोन बजा उसका। झोले से काला नोकिया का मोबाइल निकाल कर बतियाई। घर में बच्चों को खाने की हिदायत दे रही थी। पूड़ी-सब्जी बनाकर आई थी। सब्जी सेम की। :)

हमने कहा-'तुम तो बहुत बहादुर हो।अब मायके में तो सुखी होगी।'

वह थोड़ा मुस्कराई। दांत विको वज्रदंती टाइप। लेकिन चेहरे पर समय के थपेड़े के निशान। बोली-'सुख-दुःख सबको मिलते हैं। छोटे आदमी को छोटे दुःख लगते हैं। बड़े आदमी के बड़े दुःख। पैसे वाले को बड़ी बीमारी मिलती हैं।

कुछ देर में उठकर वह शायद बाथरूम की तरफ गयी। ऊपर की सीट की एक सवारी जहां वह बैठी उसकी जगह आकर धँस गयी। उसका झोला सरका दिया। सीट हमारी थी पर वह जिस धमक के साथ बैठे उससे कोई समझता की सीट उनकी ही है। मैंने सोचा कि जब वह महिला लौटकर आएगी तो और सरक जाएंगे और उसके लिए बैठने की जगह बन जायेगी। एक बर्थ पर 3 लोग तो आराम से बैठ सकते हैं।

लेकिन जब वह महिला लौटकर आई तो उसने अपनी जगह किसी दूसरे को बैठे देखा तो अपना झोला उठाकर तेजी से बिना कुछ कहे दूसरे डिब्बे की और चली गयी।

कुछ ही देर में हमारा स्टेशन भी आ गया। सुबह सुहानी सी थी। महेश ऑटो वाले स्टेशन पर ही इंतजार करते दिखे। बताया कि रात को पानी बरसा था इसलिए मौसम बढ़िया हो गया वरना गर्मी काफी थी।

सूरज भाई स्टेशन पर मुस्कराते मिले। हमने कहा -'क्या भाई, आज तो खूब मजे हो रहे हैं।' इस पर सूरज भाई ठहाका मारकर हँसते हुए बोले-' अपना तो यह रोज का किस्सा है।'

हमने कहा -'क्या बात है। झाड़े रहो कलट्टर गंज।'   :)

सूरज भाई भी बोले-' हटिया खुली, बजाजा बन्द।'

यह तो कल का किस्सा था। अब्बी याद आया तो सूना दिया लौटते हुए।

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Saturday, February 20, 2016

देशप्रेम और देशद्रोह का हल्ला

पिछले दिनों मीडिया में देशप्रेम और देशद्रोह का जबर हल्ला मचा रहा। इसके पहले कुछ दिन तक सहिष्णुता और असहिष्णुता का जबाबी कीर्तन हुआ। जब उससे ऊबे तो शायद मूड बदलने के लिए देशप्रेम और देशद्रोह की अंत्याक्षरी शुरू हुई।

इस खेल में सक्रिय लोग कुछ लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे लोगों को देशद्रोही कहने लगे। बहुतों को समझ ही नहीं आया खेल कि एक जैसे दीखते, एक जैसी हरकतें करते, एक तरह से ही चिल्लाते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही किस आधार पर कह रहे हैं। हमको भी कुछ समझ में नहीं आया।

लेकिन जब हमने दिमाग पर जोर डाल के सोचा तो हमको 35-36 साल पहले इंटरमीडिएट के दिनों में 'देशप्रेम' पर निबन्ध याद आया।

हमको हमारे हिंदी के गुरूजी ने 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखकर लाने के लिए कहा था। 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखवाने का मुख्य कारण यही था की परीक्षा में यह निबन्ध आने के चांस ज्यादा रहते थे। 'देशप्रेम' पर लिखे निबन्ध की पूँछ पकड़कर परीक्षा की वैतरणी पार करने की सम्भावना ज्यादा रहती थी।

आजकल तो देशप्रेम का महत्व और भी बढ़ गया है। लोग 'भारत माता की जय', 'वन्देमातरम' का हल्ला मचाकर न जाने क्या-क्या हासिल कर रहे हैं। जिस 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाकर क्रांतिकारी लोग फांसी के फंदे पर लटका गए उसी नारे को चिल्लाते हुए लोग आज बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर चिपक गए हैं।

बहुत बरक्कत हुई है इन नारों में। ये नारे इतने सटीक और असरकारी साबित हुए हैं कि अपराधी तक जोर से इन नारों को चिल्ला दें तो उनको देशभक्त मान लिया जाता है। शातिर लोगों के यहां तो देशभक्ति का अखण्ड कीर्तन चलता रहता है। इस कीर्तन का फायदा यह होता है समाज और क़ानून की सहज भवबाधाएं उनके पास नहीं फटकती। उनके धंधे निर्बाध चलते रहते हैं।

खैर बात निबन्ध की हो रही थी। जैसे आजकल कुछ भी उलजलूल बोलते हुए दूसरे को बोलने का मौका न देने वाला खुद को अच्छा एंकर/प्रवक्ता माना जाता है वैसे ही उन दिनों हम समझते थे कि जितना ज्यादा लिखा जाए उतना अच्छा होता है। जितने ज्यादा उद्धरण, उतना धांसू निबन्ध। चूंकि घर से लिखकर लाना था तो हम जितनी किताबें थीं हमारे पास उन सबसे उद्धरण खोजकर एक पूरी कॉपी भरकर धर दिए गुरु जी के सामने।

गुरूजी देखे तो बस यही बोले -'थोड़ा कम लिखते तो अच्छा रहता।'

हमको बड़ा अखरा कि बताओ एक तो हम इतना मेहनत कर दिए 'देशप्रेम' के नाम पर और गुरु जी कह रहे हैं कि थोड़ा कम लिखते। कुछ ऐसा ही लगा जैसे कोई उत्साही कार्यकर्ता देशप्रेम/देशद्रोह के धर्मयुद्ग में किसी विधर्मी से गाली गलौज करे, उसका सार्वजनिक 'भरतमिलाप' करा दे और बाद में उसकी पार्टी के लोग उसको शाबासी देने की बजाय उसकी निंदा करें और उससे किनारा करने लगें।

दो उद्धरण हमको अभी भी याद हैं उस निबन्ध के।

"जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है
वह नर नहीँ, नर पशु निरा है और मृतक समान है।"
उस समय का रटा हुआ यह उद्धरण हम आजतक प्रयोग करते आये हैं। कुछ दिन पहले देखा तो आज के बच्चे भी इसी से काम चला रहे हैं। इससे यह पता चलता है कि दुनिया कितनी भी आगे बढ़ गयी हो पिछले 35 सालों में पर देशप्रेम के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अलबत्ता अभी यह जरुर सोच रहे हैं कि इसमें केवल 'नर' को गौरव और अभिमान करने का जिम्मा दिया गया है। 'नारी' को पता नहीं देशप्रेम के झंझट से मुक्त रखा गया है या फिर उनको इस महती जिम्मेदारी लायक समझा नहीँ गया।

दूसरा उद्धरण था:

"विषुवत रेखा का वासी जो जीता है नित हांफ-हांफ कर,
रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर,
हिम वासी जो हिम में तम में, जीता है नित काँप काँप कर,
कर देता है प्राण न्योछावर, वह भी अपनी मातृभूमि पर।"
मतलब लोग चाहे जहां भी रहें सबको अपने देश से प्रेम होता है। मतलब देश से प्रेम करना उतना ही सहज माना जाता था जितना आज राजनीति के लिए गुंडा गर्दी, छलकपट।

बाद में देशप्रेम से जुड़े और भी आयाम पता चले। 'पुरस्कार' कहानी में देशप्रेम और व्यक्तिगत प्रेम का कॉम्बो पैक दिखा। पहले मधुलिका ने प्रेम किया, फिर देशप्रेम किया और बाद में सबको झटका देकर अपने प्रेमी के साथ मरने के लिए खुद के लिए मृत्यु मांग ली।

समय के साथ देशप्रेम के स्वरूप में बदलाव आया। पहले देशप्रेम का मतलब देश के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान करना होता था। जैसे -जैसे जमाना आधुनिक होता गया लोगों में मेहनत करने कम होने लगा। नए और आसान तरीके खोजे गए देश से प्रेम करने के। झंडा लहराकर, शरीर में झंडे का रंग पोतकर और अन्य शरीफ तरीकों से देशप्रेम की नुमाइश करने लगे। अनुराग, अलौकिक रखने वाले देश के लिए खटते रहते और समझदार लोग प्रोफाइल पर झंडा फहराकर देशभक्त बनते गए।

इसी हल्ले में देशप्रेम का कम्पटीशन भी शुरू हुआ। खुद को दूसरों से बड़ा देशप्रेमी बताने का चलन शुरू हुआ। लेकिन उसमें बहुत मेहनत लगती। आराम का रास्ता खोजते हुए लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही बताने लगे। हम जब पढ़ते थे तो देशद्रोही पर निबन्ध लिखाया नहीँ गया इसलिए उनपर कोई उद्धरण नहीं याद। उनके गुण भी नहीँ पता लेकिन आये दिन देखते हैं कि एक जैसी चिरकुट हरकतें करते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही ठहराते रहते हैं।

एक जैसे काम करते हुए सभ्य नागरिक जब आपस में एक-दूसरे को देशप्रेमी और देशद्रोही जैसी उपमाओं से नवाजते हैं तो कभी-कभी यह भरम होता है कि देशप्रेमी और देशद्रोही का रिश्ता आपस में समधी जैसा होता है। जैसे एक का समधी दूसरे के लिए भी होता है वैसे ही एक देशप्रेमी दूसरे को देशद्रोही मानकर खुश हो लेता है।
देशप्रेमी और देशद्रोही की इस वाचिक जंग में कुछ उत्साही लोग ही शामिल होते हैं। उनकी संख्या बहुत कम होती है। कुछ लोगों को इससे बहुत तकलीफ होती है। उनको लगता है ये बहुमत वाले लोग न देशप्रेम की बात कर रहे हैं न किसी को देशद्रोही ठहरा रहे हैं। यह देशकर कुछ लोग परशुराम की तरह कुपित होकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता को कोड़े की तरह फटकारते हुए उदासीन लोगों को भविष्य का अपराधी ठहराते हुए धिक्कारने लगते हैं:

'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध'

कमजोर दिल वाले लोग यह दहाड़ सुनते ही सबसे नजदीक के बाड़े में आँख मूंदकर कूद जाते हैं। उनको यह डर सताने लगता है कि कहीं उदासीन रहने पर सही में कोई अपराधी न ठहरा दे। एक बार अपराधी ठहरा दिए गए जिनदगी कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते बीत जायेगी। किसी भी बाड़े में कूदते ही दूसरे बाड़े के लोग उनको देशद्रोही कहते हैं। जब वे यह हल्ला सुनते हैं तो वे भी हल्ला मचाने लगते हैं।

पिछले दिनों इसी हल्ले को देखते रहे। देश भी कहीं से अपने बच्चों को हल्ला मचाते, लड़ते-झगड़ते देख रहा होगा। हो सकता है कभी-कभी अपने बच्चों को वात्सल्यपूर्ण नज़रों से निहारता हुआ वह सोचता भी हो कि ये बच्चे कब बड़े होंगे, कब समझदार होंगे।
आप क्या कहते हैं ?








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