Saturday, July 23, 2022

कश्मीर को क्यों बदनाम करते हैं लोग?



श्रीनगर में सुबह टहलते हुए एक चाय की दुकान मिली। सुबह के आठ बज चुके थे। चाय पीने का मन हो गया। आर्डर कर दी। बढ़िया चाय। दस रुपए दाम। आनंदित हुए।
दुकान पर चाय बनाने और बेचने वाले अब्दुल रसीद तुंगमर्ग के रहने वाले हैं। तुंगमर्ग , गुलमर्ग के पास है। 20-22 किलोमीटर पहले। 20-22 साल पहले आए थे तुंगमर्ग से अब्दुल रसीद। पहले कुछ दिन मेहनत मजदूरी की। 15 साल से करीब चाय की दुकान पर बैठ रहे। मालिक कोई और है। 15 साल से काम कर रहे चाय की दुकान पर इसका मतलब ठीक-ठाक पैसा मिल रहा होगा।
चाय के अलावा बिस्कुट, सिगरेट और लाइटर आदि भी मिल रहे थे अब्दुल रसीद की दुकान पर। हम चाय पी ही रहे थे कि वहां एक आदमी आया और सिगरेट लेकर चल दिया। कुछ जोर-जोर से बोलते हुए मजे ले रहा था दुकान वाले से। उसकी बातों का सार यह था कि दुकान के पैसे मारेंगे नहीं। अगर पास नहीं होगें पैसे तो बता देंगे। बाद में जब होंगे तब लौटा देंगे। झूठ नहीं बोलेंगे। यह कहते हुए उसने एक छोटा लाइटर भी ले लिया दुकान वाले से। दस रुपए का था लाइटर।
पता लगा कि वह आदमी मधुबनी, बिहार का था। बेलदारी करता है। दस दिन पहले आया है यहां। नाम है-लाल मोहम्मद। उम्र करीब चालीस साल।
लाल मोहम्मद से मधुबनी पेंटिंग के बारे जिक्र किया तो वह दरभंगा की बात करने लगा। मुझे दरभंगा से जुड़े अपने तमाम दोस्त, वरिष्ठ अधिकारी और अन्य आत्मीय याद आ गए। पता नहीं उनको हिचकियां आईं कि नहीं । यादों में कोई खर्च लगता है न ही जीएसटी। सब मामला मुफ़्त में। माले मुफ़्त, दिले बेरहम। यह भी देखा कि घर से बाहर निकलने पर घर के लोग याद आते हैं। दोस्तों से दूर होने पर दोस्त।
कुछ देर की बात के बाद लाल मोहम्मद बोले –‘चाय पिलाओ।‘
हमने कहा –पियो। चाय में कौन बड़ी बात?’
लेकिन लाल मोहम्मद अपने दोस्तों के साथ चल दिए बेलदारी करने। बोले –‘आप हां कह दिए समझ लीजिए हम पी लिए। कह दिया , हो गया। ‘
चाय की दुकान के सामने ही एक मोटरसाइकिल पर पांच लोग सवार दिखे। एक स्टंट जैसा करते हुए बैठे थे। कोई हेलमेट नहीं। कोई सुरक्षा नहीं। मजे की बात सबसे आगे बैठा हुआ सवार अपना मुंह जिधर मोटरसाइकिल जा रही थी उसकी उल्टी तरफ किए हुए था। भूत के पांव पीछे की तर्ज पर , सवारी का मुंह पीछे। भले ही वह सवार मोटर साइकिल नहीं चला रहा था लेकिन लग रहा था कि उसकी मंशा मोटर साइकिल को पीछे की तरफ ही ले जाने की थी। समाज में भी ऐसा होता है। कुछ लोग आगे बढ़ते हुए समाज को पीछे ले जाने की पूरी कोशिश करते हैं।
चाय की दुकान के सामने ही एक बड़ी मजार थी और मस्जिद भी। लोग मजार और मस्जिद में आते-जाते दिखे। हमसे भी लोगों ने मजार पर जाने के लिए कहा लेकिन समय की कमी के कारण जा नहीं पाए। आगे बढ़ गए। लगा काश पहले निकले होते। मजार के सामने ही कुछ मांगने वाले भी बैठे थे। अंदर जाते-आते लोग उनको कुछ देते भी जा रहे थे।
मस्जिद के पास ही एक जगह तमाम कबूतर इकट्ठा थे। लोग उनको दाना डाल रहे थे। कबूतर दाना चुगते हुए, इधर-उधर कबूतर वाक करते हुए थोड़ी-थोड़ी देर में उड़ते भी जा रहे थे। उड़ान भरकर थोड़ी देर में फिर वापस उसे जगह पर आकार दाना चुगने लगते। एक आदमी वहीं बेंच पर बैठा चुपचाप, अकेले ,सिगरेट पीते हुए , कबूतरों को दाना चुगते, टहलते, उड़ते और फिर वापस आते देखता बैठा था।
वहीं एक मजार भी थी जिस पर लिखा था –MAZAR-E-SHUHADA, Khanyar. इस मजार का विवरण मुझे पता नहीं इस लिए इस बारे में कुछ लिखना ठीक नहीं।
जरा आगे बढ़ने पर फिर स्कूल जाने को तैयार कुछ बच्चियाँ दिखीं। स्कूल ड्रेस और हिजाब में बच्चियाँ अपनी बस का इंतजार कर रहीं थीं। कक्षा आठ, सात , छह और चार में पढ़ने वाली बच्चियों से बात की। यह पूछने पर कि स्कूल जाना कैसा लगता है बच्चियों ने बताया – ‘बहुत अच्छा।‘ लाक डाउन खत्म होने के बाद स्कूल फिर से खुल गए यह बहुत अच्छी बात है।
बच्चों से बार करते हुए उनकी क्लास और नाम लिखने के लिए मोबाइल हाथ में लिया। बच्चियों के नाम पूछते हुए लिखने शुरू किए तो कुछ उच्चारण और कुछ टाइपो के चक्कर में अटकते हुए लिख रहे थे। आव्हा, जुनैरा के नाम लिख लिए। तीसरे नाम में अटक गए। दो बार पूछा। बच्ची ने स्पेलिंग बताई। हम फिर अटके। इस पर बच्ची ने, तुमसे न हो पाएगा, वाले अंदाज में देखते हुए , मेरे हाथ से मेरा मोबाइल लेकर अपना नाम टाइप किया –जुनैरा (Zunaira) चौथी बच्ची जो सबसे छोटी थी उसका नाम पूछते और लिखते तक उनकी बस आ गई और वे हमको मुस्कराते हुए, खुदा हाफिज कहते हुए , बस में बैठ गयीं।
जुनैरा ने जिस तरह मुझसे मोबाइल लेकर उस पर अपना नाम लिखा वह श्रीनगर की नई पीढ़ी की एक झलक है। वह स्कूल जाती है, तहजीब के नाम पर हिजाब पहनती है, नए गजेट्स इस्तेमाल करना जानती है, अजनबी लोगों से बात करने में हिचकती नहीं है। आत्मविश्वास से लबरेज है। यह हमारे समाज के लिए बहुत खुशनुमा है।
कल मेरे पोस्ट पर एक मित्र का सवाल था –‘एक अनजान शहर में , अकेले घुमते हुए , अनजान लोगों से इतने सहज होकर कैसे बातचीत कर लेते हैं?’
इस पर आज विचार करते हुए मुझे तीन साल पहले भोपाल में मिले हाजी बेग की बात याद आई। वे भी ऐसी ही घूमते टहलते एक मस्जिद के पास मिले थे। बेग साहब का कहना था:
'इंसान जिन लोगों बीच रहता है उनसे ही तौर तरीका सीखता है। इसलिए अपने से अलग कोई अगर व्यवहार करता है तो यह नहीं समझना चाहिए कि वह गलत ही है। उसका नजरिया भी समझना चाहिए। '
बेग साहब की एक खास बात याद आई -
'सबसे बड़ा रिश्ता इंसानियत का होता है।'
यह बात तो तमाम लोग कहते आये हैं। रोज इंसानियत का अंतिम संस्कार करने वाले तक इंसानियत की बात करते रहते हैं। लेकिन बेग साहब ने इसको एक उदाहरण से समझाया । बोले -' आप किसी जंगल मे अकेले फंस गए हों। जंगल का डर, हौवा आपके जेहन में हावी हो जाएगा। ऐसे में कोई इंसान आपको वहां दिख जाए तो आपका डर फौरन खत्म हो जाता है। भले ही वह आदमी गूंगा-बहरा हो। वह अपने इशारों से आपको जंगल से बाहर ले आएगा। उस समय यह फर्क नहीं पड़ता कि अगला हिन्दू है कि मुसलमान कि ईसाई।‘
( पोस्ट के लिंक Somesh के कमेंट के जवाब में )
लोगों से बात करते हुए मेरे जेहन में ज्यादातर समय यही बात रहती है कि उनके और हमारे बीच इंसानियत का रिश्ता है। इससे बड़ा और मजबूत रिश्ता और कोई नहीं होता।
वहीं एक बच्ची और मिली स्कूल के लिए बस का इंतजार करती हुई। अपनी अम्मी के साथ। बारहवीं में पढ़ती है बच्ची। नाम बताया –‘सादिया।‘
सादिया ने बात करते हुए जैसे एक सांस में अपने बारे में तमाम बातें बता दीं। 12 वीं पढ़ती है। डाक्टर बनना है। नीट का एक्जाम देना है। तैयारी कर रही है। डाक्टर बनना है। हार्ट स्पेसियलिस्ट। पापा का ड्राई फ्रूट का काम है। पेंटिंग और गार्डनिंग का शौक है। खूब अच्छा गार्डन है घर में। चलते तो दिखाते।
बात करते हुए हमने पूछा- ‘डाक्टर बनने की बात तो ठीक लेकिन तुम इतनी दुबली हो। खाना कम खाती हो क्या ? ‘
इस पर उसने हँसते हुए और अपनी अम्मी की तरफ देखते हुए बताया –‘अम्मी भी बहुत टोंकती हैं लेकिन पढ़ाई के चक्कर में खाने में लापरवाही हो जाती है। ध्यान नहीं रहता। कोचिंग भी जाना होता। सब समय पढ़ाई में ही चला जाता है।
कुछ देर बाद सादिया ने सवाल किया –‘आपको कश्मीर कैसा लगा?’
हमने कहा –‘बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत। खासकर यहाँ के लोग बहुत प्यारे हैं। मिलनसार। मोहब्बत से लबरेज।‘
इस पर उसका अगला सवाल था –‘फिर कश्मीर को क्यों बदनाम करते हैं लोग?’
सादिया के सवाल का कोई मुक्कमल जबाब नहीं था मेरे पास। लेकिन कुछ-कुछ कहते हुए हमने कहा –‘लोग यहां आये बिना, मीडिया और दीगर माध्यमों से यहां के बारे में इमेज बनाते हैं और ऐसा समझते हैं। लोग यहां आएंगे तो यहां के बारे में अलग राय बनाएंगे।‘
बारहवीं में पढ़ती सादिया कश्मीर की ब्रांड एम्बेसडर है। सादिया को डाक्टर भी बनना है और लोगों के मन में कश्मीर से जुड़ी गलफहमियाँ भी दूर करनी हैं।
कुछ और बच्चे स्कूल जाते दिखे। ज्यादातर के मां-बाप उनके साथ थे। कुछ लड़के अलबत्ता अकेले बस का इंतजार करते दिखे।
एक जगह दो बच्चियां स्कूल जाते दिखीं। मोबाइल हाथ में लिए बेतकुल्लुफ़ बतियाती लड़कियां किसी स्कूल ड्रेस में नहीं थीं। पूछने पर पता चला कि वे कालेज में पढ़ती हैं। सिविल इंजीनियरिंग की दूसरे साल की पढ़ाई कर रही हैं। कालेज में ड्रेस की छूट है।
सिविल इंजीनियरिंग सुनकर हमने पूछा –‘सर्वेइंग वाली ब्रांच में हो तुम लोग। बिल्डिंग बनवाओगी?’
इस पर वे हँसते हुए अपनी गप्पाष्टक में मशगूल हो गयीं। हम आगे बढ़ गए।
रास्ते में तमाम पुरानी इमारतें, मकानात दिखे। एक मस्जिद दिखी- हज्जा बाजार स्थान। मस्जिद में लोग सफाई में लगे हुए थे। मस्जिद के एक तरफ महिलाओं के नाम पढ़ने का इंतजाम था। वहां भी बड़े अहाते में ढेर सारे कबूतर उड़ते हुए मस्जिद के आंगन और आसमान को गुलजार किए हुए थे।
उन कबूतरों को वहीं उड़ता छोड़कर हम आगे बढ़ गए। हमको आगे श्रीनगर की प्रसिद्ध जामा मस्जिद देखनी थी।

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लकड़ी के खंभे , लकड़ी की छत - श्रीनगर की ऐतिहासिक जामा मस्जिद



कश्मीर के लिए निकलना अचानक ही हुआ। जाने के पहले सोचा था कि कश्मीर के बारे में पढ़कर और वहां की समस्याओं के बारे में कुछ जानकारी लेकर निकलूँगा। इसके लिए अशोक कुमार पाण्डेय की विस्तृत शोध के बाद लिखी किताब- ‘कश्मीर इतिहास और समकाल‘ पढ़नी शुरू भी की थी। इतिहास, समाज और राजनीति के आईने में कश्मीर समस्या की पड़ताल करती हुई किताब के बारे में प्रसिद्ध लेखक और विचारक डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा था –‘हिन्दी में कश्मीर समस्या पर पहली मुकम्मल किताब।
किताब पढ़नी तो शुरू हुई लेकिन 460 पन्ने की किताब के शुरुआती हिस्से ही पढे जा सके यात्रा के पहले। किताब साथ भी ले गए लेकिन रास्ते में एक पन्ना आगे नहीं पढ़ा जा सका। इस बीच कश्मीर में श्रीनगर , गुलमर्ग और पहलगाम देख भी लिया। उनके बारे में थोड़ा कुछ लिखा भी। बहुत कुछ बाकी है।
यात्रा के दौरान जो मैंने देखा और जैसा महसूस किया वह लिखने की कोशिश कर रहा हूं मैं। मेरे कुछ मित्रों ने अपने अनुभव साझा करते हुए कई बातें लिखीं हैं। उनके अपने अनुभव और विचार होंगे न मैं उनका खंडन कर सकता हूँ न समर्थन। मेरा लिखना वहीं तक सीमित है जैसा मैंने देखा और महसूस किया। हफ्ते भर में किसी इलाके और उसकी खूबियों/खामियों को समझने का भ्रम पालना खामखयाली ही होगी। इसलिए जरूरी नहीं कि आप मेरी बात या नजरिए से सहमत हों।
कश्मीर समस्या के कारणों के बारे में मेरा कुछ कहना ठीक नहीं होगा अलबत्ता जो वहां के लोगों से बातचीत करके एहसास हुआ उससे यह लगा कि समस्या की जड़ में वही बात थी जो अफगानों के शासन के (सन 1753 से 1820) समय सूबेदारों की नियुक्ति के बारे में लारेन्स ने 1895 में अपनी किताब में लिखा था :
“स्वार्थी लोगों को सूबेदार बनाया गया, जिन्होंने कश्मीर के गरीब लोगों से जितना धन कमा सकते थे , कमाया। जल्दी से जल्दी उन्हे धन कमाना था क्योंकि वे नहीं जानते थे कि कब काबुल में कोई और जरुरतमन्द शासकों का करीबी हो जाएगा और उसे सूबेदार नियुक्त कर दिया जाएगा।‘
बहरहाल बात हो रही थी श्रीनगर के डाउनटाउन की। सुबह घूमते हुए आखिरी मंजिल श्रीनगर की जामा मस्जिद और लाल चौक के आसपास के इलाके संवेदनशील माने जाते रहे हैं। अक्सर आतंकवादी गतिवधियों के कारण चर्चा में रहते रहे हैं ये इलाके। लाल चौक में तो एक दिन पहले पानी के बतासे खा चुके थे। अगले दिन जामा मस्जिद के थोड़ा पहले ही सुबह की चाय पी गई। पूछते हुए पहुँच गए जामा मस्जिद।
मस्जिद में भीड़ तो बिल्कुल नहीं थी। बल्कि एक मायने में वीरान टाइप था मस्जिद के आसपास का इलाका। गेट पर ही मस्जिद के बारे में बोर्ड लगा था – Historical Jama Masjid Srinagar (ऐतिहासिक जामा मस्जिद श्रीनगर)| वहीं पर जामिया आटो स्टैंड का बोर्ड भी लगा था। बोर्ड पर शायद आटो के नंबर लिखे थे जो उस आटो स्टैंड पर खड़े हो सकते थे। कुल 17 आटो के नंबर थे। गेट के अंदर घुसते ही आदमियों का वजूखाना था। वजूखाने के बंद गेट के बाहर दो महिलायें और एक मर्द बैठे बतिया रहे थे। आदमी मास्क लगाए था। महिलायें अपनी धोती और हथेली से मुंह ढंके हुए गप्परत थीं। मर्द और औरत के बीच रखी झाड़ू आराम कर रही थी।
मस्जिद के आसपास 278 दुकाने बनी हैं। किराये पर उठी इन्हीं दुकानों और लोगों द्वारा दिए चंदे से मस्जिद के रखरखाव का काम होता है।
सुबह के समय ज्यादातर दुकाने बंद थीं। केवल एक दुकानवाला अपनी दुकान लगाने के लिए साफ-सफाई कर रहा था। दुकान मस्जिद के एकदम सामने थी।
मस्जिद का मुख्यद्वार बंद था। दुकान वाले से पूछा तो पता चला कि नौ बजे के बाद खुलती है मस्जिद जब उसके देख-रेख करने वाले आ जाते हैं। एक आदमी आया मस्जिद का दरवाजा खोला और अंदर चला गया। हम भी लपके। लेकिन तब तक फिर बंद हो गया दरवाजा। बताया गया साढ़े नौ बजे खुलेगा।
हमको मस्जिद देखने की ललक से साथ यह चिन्ता भी थी कि होटल में नाश्ता न खतम हो जाए। होटल को फोन किया –‘दस बजे तक आएंगे। नाश्ता रख लेना।‘
होटल वाले ने भी हां कह दिया। हम इत्मीनान से मस्जिद खुलने का इंतजार करते रहे।
साढ़े नौ बजे मस्जिद खुली। अंदर जाकर देखी। पूरी मस्जिद देवदार के पेड़ के तनो के खंभों (कुल 378) और लकड़ी की छत पर टिकी थी। देवदार के पेड़ के तनों पर न कोई जोड़ और न कोई कील। सात सौ साल पहले से टिके हैं जस के तस। तनों की गोलाई पाँच फुट(346) और छह फुट(32) थी। खंभों की ऊंचाई 21 फुट (346 खंभे) और 48 फुट (32 खंभे) है।
फर्श पर कालीन बिछा था। एक हिस्से में महिलाओं के नमाज पढ़ने का इंतजाम था। आँगन में पानी का फव्वारा तो नहीं चल रहा था लेकिन पानी पूरा भरा था। पानी के आसपास कबूतर मटरगस्ती कर रहे थे।
मुखयद्वार पर मस्जिद का जो विवरण अंग्रेजी में लिखा था उसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है:
1. जामा मस्जिद ,श्रीनगर सन 1394 में सुल्तान सिकंदर शाह कश्मीरी शाहगिरी सुल्तान जैनउलाबदीन के पिता (बुधशाह) द्वारा बनवाई गई।
2. मस्जिद का आकार 384 फुट x 381 फुट है।
3. मस्जिद का क्षेत्रफल 146000 वर्ग फुट (27 कनाल ) है।
4. दीवार की चौड़ाई 5 फुट और 4 फुट है।
5. जामा मस्जिद का निर्माण भव्य तरीके से बनाए गए 378 देवदार की लकड़ी के स्तंभों पर स्थित लकड़ी की छत पर हुआ। इस 378 स्तंभों में 346 स्तम्भ की 21 फुट और घेरा 5 फुट है बाकी 32 स्तंभों की ऊंचाई 48 फुट और घेरा 6 फुट है।
6. मस्जिद में 33 फुट x 34 फुट आकार का फव्वारा भी है जिसका उपयोग वजू के लिए भी किया जाता है।
7. जामा मस्जिद में एक साथ 33333 लोग नमाज पढ़ सकते हैं।
8. मस्जिद की मेहराब की सजावट कीमती ग्रेनाइट से की गई है जिनमें सर्वशक्तिमान अल्लाह के 99 गुण बताएं गए हैं।
9. शुक्रवार को जामा मस्जिद में एक बार नमाज पढ़ना दूसरी मस्जिदों में 500 बार नमाज पढ़ने के बराबर फल देने वाला है।
10. हर वर्ष रमजान के पवित्र महीने के आखिरी शुक्रवार को लाखों लोगों यहां नमाज पढ़ते हैं।
11. मस्जिद में तीन बार आग लगी। आग लगने के बाद निम्न लोगों ने मस्जिद का पुनर्निर्माण करवाया:
अ. सुल्तान हसन शाह –सन में 1480
ब. जहांगीर शाह अबुल मुजफ्फर –सन 1620 में
स. औरंगजेब आलमगीर शाह - सन 1672 में
मस्जिद में मौजूद आदमी ने मुझे मस्जिद घुमाई। उसकी खूबियों का बखान किया। सात सौ साल पुरानी इमारत के अभी तक महफूज रहने की बात कही।
उसकी बात की याद करते हुए मुझे अभी हाल ही में बुंदेलखंड की एक प्रसिद्ध सड़क के एक हिस्से के उद्घाटन के पाँच दिन बाद धंस जाने की खबर याद आई। तकनीक ने बहुत उन्नति की है लेकिन लालच भी कम नहीं बढ़ा है।
थोड़ी देर और मस्जिद में बिताकर हम बाहर आ गए। आटो स्टैंड पर आटो किया। होटल तक के उसने सौ रुपए मांगे। हम बैठ गए। होटल के पास उतरकर पैसे दिए। उसने पूछा कश्मीर कैसा लगा ? हमने कहा –बहुत अच्छा , बहुत खूबसूरत।
वह हमारी तारीफ से खुश होकर खुदा हाफिज कहते हुए चला गया। हम भी लपके अंदर। अंदर नाश्ता हमारा इंतजार कर रहा था।

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Thursday, July 21, 2022

मेहमान नवाजी हमारे खून में है



पुराने शिवमंदिर की देखभाल करते परिवार के मुखिया ने सलाह दी थी कि हमको पुराना श्रीनगर भी जरूर देखना चाहिए।
दो-चार दिन में किसी शहर को घूम लेना, जान लेना असम्भव है। शहर की कुछ जगहों को देखकर, उनके साथ फ़ोटो खिंचवाकर और कुछ यादें समेटकर शहर को जानना कत्तई मुमकिन नहीं।
किसी शहर के बसने में, उसकी रवायत बनने में न जाने कितने साल लगते हैं। शहरों के चलन तय होते हैं। उनके नाम पर किस्से बनते हैं। मुहावरे बनते हैं। मिजाज तय होते हैं। सिर्फ इमारतों से किसी शहर की पहचान नहीं होती। शहर को बसाने का और उसको पहचान दिलाने का काम उस शहर के आम आदमी करते हैं। आम लोग ही किसी शहर को खास बनाते हैं।
शहर से आगे बढ़ कर किसी इलाके और देश के बारे में भी यही बात सच है।
कल जब सुबह निकले तो एक जगह कुछ लोग खड़े दिखे। देखा तो पता चला कि वहां कश्मीरी रोटी बन रही थी। तंदूर सुलग रहा था। एक आदमी रोटी बना रहा था। आटे की लोई लेकर उसको थोड़े पानी के सहारे चपटा करके फिर हथेली और उंगलियों के सहारे फैलाते हुए रोटी बनाई जा रही थी। रोटी फैलाते हुए उंगलियों के पोरों के निशान बनाते जा रहे थे। ये निशान वाला हिस्सा तंदूर की दीवार में चिपकाने में काम आता है। वहीं तंदूर के पास बैठा आदमी रोटी सिंकने के बाद तंदूर से निकाल रहा था।
रोटियों के इंतजार में कुछ लोग सड़क पर खड़े थे और कुछ लोग दुकान के ऊपरी हिस्से में बैठे भी थे। कश्मीरी रोटी लोग चाय के साथ, मक्खन लगाकर या सब्जी के साथ भी खाते होंगे। पहलगाम में मैंने इसे चाय के साथ खाया था।
कश्मीरी रोटी बनती देखी तो धूमिल की कविता अनायास याद आई:
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
आगे बढ़ते हुए एक दुकान के सामने एक नौजवान मिले। मैंने उनसे डाउन टाउन का रास्ता पूछा तो उन्होंने कुछ बताने के पहले पूछा -'आप खैरियत से तो हैं? तसल्ली से हो जाइए फिर बताते।'
उन्होंने रास्ता बताया। इसके बाद अपने बारे में। बताया कि उनका एडवरटाइजिंग का और सुनारी का काम है। जिस जगह बैठे थे उस काम्प्लेक्स की दुकानें किराए पर उठी हैं। कुछ देर में खुलेंगी। उन्होंने मुझे रुककर या लौटते में चाय पीकर जाने के लिए कहा।
उनके इस व्यवहार के लिए मैंने उनकी तारीफ की और शुक्रिया कहा। इस पर उन्होंने कहा -'हम लोगों का सारा काम-काज, रोटी-पानी सब पर्यटन पर निर्भर है। मेहमान से अच्छा व्यवहार करेंगे तभी वह फ़िर आएगा। इसीलिए मेहमाननवाजी हमारे खून में शामिल हो गयी है। हमारा व्यवहार भी इसीलिए ऐसा हो गया हैं। मेहमान की आवभगत और देखभाल में कोई कसर नहीं रखते।'
व्यवहार के पीछे आर्थिक कारण वाली बात कहां तक सही है कहना मुश्किल लेकिन यह भी एक सोच है। खान पान , बात-व्यवहार इंसान के जीवन को दूर तक और देर तक प्रभावित करता है।
रागदरबारी उपन्यास में गयादीन उड़द की दाल नहीं खाते थे। इसलिए क्योंकि उड़द की दाल खाने से गैस बनती है। गैस से गुस्सा आता है। और गुस्सा और व्यापार एक साथ नहीं चल सकते। व्यपार में सफलता के लिए इंसान को सहनशील होना चाहिए।
उन नौजवान का नाम बसारत है। बसारत मतलब जन्नत। हमने उनका फोटो लेना चाहा तो उन्होंने मना कर दिया यह कहते हुए कि हमारे यहां इसकी इजाजत नहीं और मैं इस सीख पर अमल करता हूँ।
चलते समय फिर बसारत ने रुककर या लौटते में चाय पीने का ऑफर दिया।
लौटते में अगर सम्भव हुआ चाय पीने के लिए रुकने की बात कहकर हम आगे बढ़ गए।

श्रीनगर की खुशनुमा सुबह



सुबह जब डाउनटाउन की तरफ चले तो लोगों ने बताया, तीन चार किलोमीटर है।ऑटो कर लो। किसी ने बताया आगे चौराहे से थोड़ा आगे शुरु हो जाता है। कोई बोला -'आपको जाना कहां हैं?'
'हमको पुराना श्रीनगर देखना है। लोगों ने बताया -'डाउनटाउन जाओ।'
उन्होंने कहा-'यही तो है पुराना कश्मीर। डाउनटाउन थोड़ा आगे है। सीधे चले जाओ।'
मतलब जगह और दूरी के मायने बताने वाले के हिसाब से बदलते गए।
दुकाने अधिकतर बन्द थीं। दूध, ब्रेड, सब्जी जैसी चीजों की दुकानें खुलनी शुरू हो गईं थीं। नुक्कड़ पैर तैनात सुरक्षा जवान को दुकान वाला कोई सामान ले जाकर दे रहा था।
सुरक्षा बलों और स्थानीय लोगों के आपसी रिश्तों में तनाव की बात सुन रखी थी। लेकिन घूमने के दौरान ऐसी तल्खी का कोई उदाहरण नहीं देखा मैंने। यह अलग बात है कि जगह-जगह , शायद अमरनाथ यात्रा के कारण सुरक्षा बल तैनात थे।
चौराहे पर चाय की दुकान खुली थी जहां पिछले हफ्ते हमने चाय पी थी। मन किया रुक कर पी लें एक चाय। लेकिन फिर मन को बहला दिया -'देर हो जाएगी। चाय तो रोज पीते हो। आज अभी घूम लो। फिर पी लेना चाय।'
चाय पीने का मन थोड़ा भुंभुनाकर और ज्यादा कुनमुनाकर शांत हो गया। बड़े उद्देश्य के लिए छोटी कुर्बानी की बात समझकर शहीदाना गौरव समेटे मन रास्ते के दृश्यों में खो गया।
जगह-जगह पुरानी इमारतें दिखीं। किसी में खिड़कियां उखड़ी हुई, कोई मुकम्मल और पुख़्ता। पुरानी इमारतों में ज्यादातर का रंग गाढ़ा भूरा दिखा। एक में तो लिखा भी था -'हेरिटेज बिल्डिंग।' सौ साल पुरानी रही होगी इमारत। लिखा भी बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की इमारत। सौ साल पुरानी इमारत होने के इमारत के खिड़की, दरवज्जे, कील-पुर्जे सब दुरुस्त दिख रहे थे। खाये-पिये घर की रही होगी इमारत। तभी, पुराने समय की होने के बावजूद , कहीं से बूढ़ी नहीं लग रही थी। हेरिटेज बिल्फिंग लिखा न होता तो हम यही समझते कि पुराने अंदाज में कोई नई इमारत बनी है।
रास्ते में जगह-जगह लोग अपने बच्चों को स्कूल जाने वाली बस में बिठाने के लिए बसों का इंतजार करते दिखे। सबसे पहले जो दिखे वो अपने दो बच्चों के साथ थे। उनके साथ उनके पिता थे। मतलब एक साथ तीन पीढियां सड़क पर थीं। बच्चों का स्कूल दस बजे से था लेकिन करीब आठ बजे ही वो बस पर छोड़ने आये थे। बस घूमते हुए जाती है, इसलिए समय लेती हैं।
बच्चों का फ़ोटो लिए तो छुटके ने मुंह छिपा लिया। उसके पिता ने कहा तो कुछ देर में सहज हुआ। दोनों बेटों और उसके पिता का फ़ोटो खींचा। खूबसूरत बेटों के साथ डोले-शोले पोज में उनके पिता का फ़ोटो फिर देखा तो बहुत अच्छा लगा।
बच्चों के बाबा के किस्से ही किस्से। विभाजन से लेकर अब तक की कहानी सुनाते रहे। विभाजन में इसने ये किया, उसने वो किया। ये घटना टर्निंग प्वाइंट बनी। ऐसा होता तो वैसा न होता घराने की बातें, तर्क और यादें। हमको चुपचाप सुनता देखकर उनके बेटे ने थोड़ा रुकने का इशारा किया -'कहाँ अनजान इंसान को अपनी कहानी सुनाए जा रहे हो?" लेकिन मना नहीं किया। बच्चे आपस ने इधर-उधर टहलते, अदाएं दिखाते रहे।
चलते समय बुजुर्गवार ने एक बात बड़े गम्भीर अंदाज़ में कही। उनका कहना था-'किसी भी समाज के लिए संतुलन आवश्यक है। दुनिया में जिसके हाथ में सत्ता होती वह अपनी समझ के इसे चलाया है। हर जगह ऐसा होता है लेकिन नीति निर्धारण में और सत्ता में एक बड़ी आबादी का कोई प्रतिनिधित्व न होना समाज के संतुलन के लिए ठीक नहीं होता।’
हम और कुछ बात करते तब तक बच्चों की बस आगयी और वे लपक लिए बस ने बैठने के लिए।
आगे एक जगह कूड़े के ढेर के पास कुछ कुत्ते उछलकूद कर रहे थे। उनको देखकर ऐसा लगा कि क्या बताएं? जो उपमा आई मन में वह अपने देश के जनप्रतिनिधियों से सम्बंधित थी। बड़ी खराब उपमा। लिखने से कोई फायदा नहीं होगा। आप खुद समझ लीजिएगा। आप खुदै समझदार हैं।
दुकानें अब खुलने लगीं थीं। एक जनरल स्टोर (कश्मीरी में कहें तो सटोर) की दुकान में परचून के सामान के साथ सब्जी भी मिल रही थी। लोग दुकान से रोजमर्रा का सामान ले रहे थे। दुकानदार लोगों से दुआ सलाम करते हुए उनको सामान देता जा रहा था।
कुछ ही दूर पर कुछ और बच्चे स्कूल के लिए बस का इंतजार करते दिखे। एक बच्ची का पिता स्कूटी पर बैठा बस की राह देख रहा था। बच्ची अपनी सहेलियों के साथ थोड़ी दूर पर मिल बांटकर चाकलेट खाते हुए टहल रही थी। बाकी दोनों बच्चियां स्कूल ड्रेस में थीं। बच्ची अलग ड्रेस में थी। उसके बारे में बात करते हुए पिता ने बताया कि आज उसका गेम्स का पीरियड है इसलिए स्कूल ड्रेस नहीं पहने है।
बच्ची अपने बारे में बात करते हुए देखकर अपनी सहेलियों के साथ टहलते हुए हम लोगों की तरफ मुड़-मुड़कर देखती रही। बुलाने पर पास आई । जैनब नाम है बच्ची का। कक्षा 2 में पढ़ती है। पसंदीदा विषय बताया गणित। हम जैनब से बात कर रहे थे तो उसकी सहेलियां हमको ध्यान से देख रहीं थीं।
थोड़ी दूर पर एक और पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बस के इंतजार में एक दुकान के चबूतरे पर बैठे थे। मुस्ताक अहमद के बच्चों के नाम अलिसा मुस्ताक और अजान मुस्ताक हैं। उनका क्रॉकरी का काम है। बच्चो को अच्छी तालीम दिलाना और उमको आत्मनिर्भर बनाना उनका मकसद है।
बात करते हुए बच्चों की बस आ गई। बच्चे बस की तरफ लपके। बस में मौजूद एक बच्ची ने लपककर अलिसा का हाथ अपने हाथ में ले लिया। दोनों खुशी-खुशी बस में बैठ गयीं। बस चल दी। हम भी आगे चल दिये।
स्कूल जाते जितनी भी बच्चियां दिखीं उनमें से अधिकतर हिजाब पहने हुई थीं। लेकिन यह भी कि जिस भी बच्ची से या उनके घरवालों से मैंने बातकी, उनमें से लगभग सभी ने बेहिचक बात की। एक महिला ने बस के आ जाने पर जल्दी-जल्दी सर के ऊपर से अपनी बच्ची को हिजाब पहनाया। बस में बैठाया।
लड़कों और लड़कियों की अधिकतर बसें अलग -अलग दिखीं। हो सकता है एक साथ भी जातें हों बच्चे लेकिन मुझे दिखे नहीं। एक और बात कि स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चे छोटे क्लास के थे। बड़े क्लास के कम ही बच्चे दिखे। सम्भव है उनके स्कूल का समय या जाने का साधन अलग हो।
सड़क पर धूप पसर गयी थी। हमको याद आया, अरे सूरज भाई भी तो साथ में हैं। सूरज भाई पूरे सफर में मेरे साथ रहे। जिस दिन श्रीनगर में उतरा था मैं, बारिश हो रही थी। जैसे ही अपन पहुंचे वहां, बारिश बन्द हो गयी। सूरज भाई की सरकार बन गयी। गुलमर्ग पहुंचते समय भी बारिश हो रही थी, हमारे वहां पहुँचते ही बंद हो गई बारिश। पहलगाम में तो लगातार मौसम अच्छा रहा।
सूरज भाई की मेहरबानी को याद करते हुऐ हमने सड़क की धूप के साथ सेल्फी ली। सूरज भाई हंसे होंगे इसे देखकर क्योंकि धूप और चमकदार हो गई।
आगे एक दुकान के चबुतरे पर एक बुजुर्ग चुपचाप उदास से बैठे , सिगरेट पी रहे थे। उनकी आंखों से उदासी , बेहद वीरानी झलक रही थी। हाथ कांपते से दिखे। चुपचाप सिगरेट पीते हुए सामने देख रहे थे।
उनसे बात करने साथ में बैठ गया मैं।।नाम बताया -अब्दुल रज्जाक, उम्र करीब 65 साल। बोले -'अब बस मौत का इंतजार है। मौत आने पर ही अच्छा महसूस होगा। वही बेहतर होगा मेरे लिए।'
हमने कहा -'ऐसा क्यों सोचते हैं? जिंदगी इतनी खूबसूरत है। अच्छे हो जायेगे आप। '
उन्होंने कहा -'काम मुझसे कुछ होता नहीं। अब अच्छी नहीं लगती जिन्दगी।'
दिन में दो-तीन सिगरेट रोज पी लेते हैं। पीते क्या राख झाड़ते ही दिखे मुझे वो। बेटा देखभाल करता है। लेकिन उदासी तारी है उनके चेहरे पर।
इन्ही रज्ज़ाक साहब को कुछ देर पहले, उनके पास आने से कुछ देर पहले ही, हमने एक स्कूल जाती बच्ची को मुस्कराते हुए , हाथ हिलाते हुए विदा करते देखा था।बच्चों का साथ इंसान को खुशहाल बनाता है। उनकी संगत में इंसान अपने कई दुख भूल जाता है।
रज्जाक साहब से विदा लेकर हम आगे बढ़े तो एक बच्ची मिली। स्कूल जाने को तैयार। उससे बात शुरू की तो उसने मेरे पेट पर तबला सा बजाते हुये पूछा -'ये क्या है?' उसके पूछने का अंदाज -'ये क्या हाल बना रखा है सेहत का ?' वाला था। न भी रहा हो लेकिन मुझे ऐसे ही लगा।
मैंने मजे लेते हुए जबाब दिया -'यह मेरा स्कूल बैग है?'
उसने मेरी बात पर बिना कोई तवज्जो देते हुए मेरे हाथ से चश्मा ले लिया। मानो बढ़े पेट के जुर्माने की एवज में आंख का चश्मा जब्त कर लिया हो।
चश्मा हाथ में लेकर पूरी बेतकुल्लुफी से उसने अपनी आंख के ऊपर लगा लिया। साथ में खड़ी उसकी मां हंसते हुए मेरा चश्मा वापस देने को कहती रही लेकिन जब्ती किया सामान देने के लिए बच्ची मानी नहीं। वो तो कहो कि उसी समय उसकी बस आ गयी और वह मुझे चश्मा वापस करके बस में बैठकर स्कूल चली गयी।
बच्ची का नाम महनूर है। महनूर माने होता है चांद की रोशनी ,चांदनी । महनूर की खिलंदड़े , बालजुलभ व्यवहार ऐसा लग रहा था कि श्रीनगर की सड़क सूरज की रोशनी में चांद की चांदनी खिली हुई हो।
श्रीनगर की सुबह की यह एक बेहद खुशनुमा शुरूआत थी।

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Wednesday, July 20, 2022

श्रीनगर में 14886 क़दम



पहलगाम में रहने की जगह पर नेट बहुत धीमा था। मोबाइल का तो खैर था ही नहीं। इंस्टीट्यूट का वाई-फाई भी ऐसे ही था। ऊंचाई पर आकर लगता है नेट की सांसें फूल गयीं हों। जो भी पोस्ट लिखीं वो नेट के चलते घूमती ही रहीं। गोल-गोल चक्कर चलते रहे।
पहलगाम में दो दिन रहे। बहुत जगह घूमे। सबके किस्से अलग से लिखेंगे आहिस्ते-आहिस्ते। कल श्रीनगर आ गए। उसी होटल में उसी कमरे में ठहरे जहां पहले रुके थे।
शाम को घूमने निकले। लाल चौक तक जाने का इरादा था। निकल लिए पैदल।
करीब छह बजे भी धूप इतनी साफ और तेज थी मानो दोपहर हो। सड़क पर ट्रैफिक बदस्तूर था।
कुछ दूरी पर ही एक कुल्फ़ीवाला मिला। मन किया खाने का। बहुत दिन से खाई नहीं थी। ले ली। 20 रुपये की। वहीं खड़े होकर खाई।
कुल्फी बेचने वाले नवल किशोर झारखंड के सबलपुर से आये हैं। 28 साल उम्र। दादा जी लाये हैं उनको। घर में भाई बहन हैं। उनके लिए ख़र्च भेजते हैं। पिता भी हैं लेकिन बूढ़े हो गए। दिमाग की कोई बीमारी हो गई तो काम नहीं करते, घर में रहते हैं।
नवल किशोर कहते हैं। मँहगाई बहुत है। शादी नहीं करना है। खर्च ही नहीं चलेगा तो घर कैसे बसाएं।
कुछ लोग आते हैं वो दस रूपये की कुल्फी लेते हैं। दस रुपये और बीस रुपये की कुल्फी के लिए अलग-अलग खांचे हैं। उनमें दूध डालने पर जमकर कुल्फी बन जाता है। छोटे-बड़े मिलकर 94 कुल्फी के खांचे हैं।
पास खड़े बच्चे से मैंने फोटो खिंचवाया। जम्मू से आया है। काम करने। मजदूरी ही सही। पढा-लिखा लगता है। बोला-'कहीं कोई काम नहीं। मजबूरी में मजदूरी कर रहे।'
हम वहीं थे तब तक स्कूटी रुकी। चलाने वाले के अलावा एक लड़का,लड़की थे। लड़के को चक्कर आ गया था। स्कूटी रुकी। हमने उसे पकड़कर खड़ा करने में सहायता दी। पानी खोज रहे थे वो। हमने स्कूटी पर बैठे लड़के को थामा और चलाने वाले बच्चे से सामने की दुकान से पानी लाने को कहा। पानी पीकर बच्चे के हाल सुधरे। बोलने लायक हुआ।
बाद में बताया बच्चे ने कि उसके सर में चोट लग गयी थी। उससे चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने दवा रोज खाने को कहा था। आज मिस हो गयी। इसी लिए चक्कर आ गया।
लड़की से मैंने पूछा -'ये तुम्हारा भाई है, दोस्त है?' लड़की कुछ बोली नहीं। मुस्करा दी हल्के से। हमारा सवाल गैरजरूरी था शायद।
लोगों से पूछते हुए लाल चौक की तरफ बढ़े। रास्ता एकदम सीधा था। लेकिन लोगों से बातचीत के लिए हमने रास्ते में तमाम लोगों से लाल चौक का रास्ता पूंछा।
एक बहुत खूबसूरत लड़की सवारी का इंतजार कर रही थी। यूनिवर्सिटी में एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रही है। चार साल का कोर्स है। पहले साल में है। उसने रास्ता बताया -'सीधे है लाल चौक। तीन-चार किलोमीटर दूर।'
एक सज्जन तेज टहलते हुए आ रहे थे। उन्होंने रास्ता बताते हुए कहा -'ऑटो कर लो। पैदल थक जाओगे।'
एक बुजुर्ग दम्पति कारगिल से आये हैं। हफ्ते भर से कश्मीर में टहल रहे हैं। बोले -'कारगिल जरूर आओ घूमने। बहुत खूबसूरत है।'
कश्मीर गोल्फ क्लब दिखा। 1886 में स्थापित हुआ था। 136 साल पुराना खूबसूरत गोल्फ क्लब। अंदर जाने का कोई गेट नहीं दिखा। बाहर से ही देख लिए। सामने स्टेडियम में लोग खेल रहे थे।
पोलोग्राइंड पार्क में लगा शायद पोलो खेला जाता होगा। लेकिन वह सामान्य पार्क ही था। लोग बैठे थे, घूम रहे थे, टहल रहे थे, झूला झूल रहे थे।
रास्ते में जगह-जगह पार्क दिखे। हर पार्क साफ-सुथरा , व्यवस्थित। कहीं कोई अतिक्रमण या गंदगी नहीं। लोग वहां बैठे थे। यह बहुत अच्छी बात लगी।
आगे चलकर एक जगह गन्ने का जूस बिकता दिखा। खड़े होकर जूस पिया। 40 रुपये ग्लास। हमने पूछा -'इतना मंहगा क्यों?'
बोला-'मंहगा है गन्ना। महाराष्ट्र से लाये हैं मालिक। इसीलिए रस भी मंहगा।'
गन्ने मोटे-तगड़े, किसी खाते-पीते खेत के लग रहे थे।
गन्ना का रस निकालते हुए राकेश ने बताया कि वो भागलपुर से आये हैं। खाना-रहने के इंतजाम के अलावा छह हजार देता है मालिक। भाई राजू भी साथ आये हैं। दोनों मिलकर गन्ने का रस बेच रहे हैं।
आगे सड़क किनारे 1846 का एक मंदिर दिखा। मंदिर बन्द था। बगल में बेकरी की दुकान थी। दुकान में जाकर पूछा तो काउंटर पर बैठे बुजुर्ग ने बताया -' मंदिर जिनका है वो जम्मू में रहते हैं। साल में एकाध बार आते हैं। मंदिर की देखभाल हम लोग करते हैं। हम लोग मुस्लिम हैं। लेकिन मंदिर का रखरखाव, देखभाल नियमित करते हैं। सुबह-शाम पूजा भी होती है। पुजारी आते हैं उसके लिए।'
दुकान के मालिक ने बताया-'श्रीनगर में तमाम मंदिर ऐसे हैं जिनकी देखभाल, रखरखाव मुस्लिम लोग करते हैं।'
काउंटर से चाबी लेकर एक लड़के को साथ भेजकर मंदिर का गेट खुलवाकर हमको मंदिर दिखाया गया। छोटी से कोठरी में शिवलिंग स्थित था। उनको प्रणाम करके हम बाहर आ गए।
चलने से पहले मंदिर दिखाने के लिए धन्यवाद दिया तो उन्होंने सर्वधर्म समभाव पर तमाम बातें कहीं। धर्मो के रास्ते अलग हैं लेकिन मूल बात मानव कल्याण है। कोई धर्म किसी से छोटा-बड़ा नहीं होता। उनकी बात सुनकर हमको विनोद श्रीवास्तव जी की कविता याद आई:
धर्म छोटे-बड़े नहीं होते,
जानते तो लड़े नहीं होते।
आगे एक सिटी मॉल दिखा। भीड़ कम थी। बाहर से मॉल मॉल कम किसी आफिस की बिल्डिंग अधिक दिखाई दे रहा था।
माल के ही सामने एसपीएस लाइब्रेरी थी। पता चला शाम को पांच बजे बन्द हो जाती है।
माल के ही आगे मक्का मार्केट था। बोर्ड में जो लिखा था उसका मतलब था -'घाटी का पहला कबाड़ी मार्केट।'
लेकिन अंदर कोई कबाड़ नहीं था। कपड़े बिक रहे थे। अधिकतर दुकाने अस्थाई सी, चारपाई, फोल्डिंग पर लगी थीं
वहां के दुकानदारों ने बताया -'बाजार में जो सामान ढाई सौ का मिलता है वह यहां सौ रुपये का मिलता है। यहां हम लोग शाम को ऐसे ही सामान ढंककर छोड़ जाते हैं। कोई चोरी नहीं होती। सब तरफ कैमरे लगे हैं। हर आने जाने वाले का रिकार्ड दिखता है।'
'यहां बाहर तो लिखा है कबाड़ी बाजार लेकिन आप लोग कपड़े बेच रहे हो। क्या ये पुराने कपड़े हैं?-हमने एक दुकान वाले से पूछा।
'कोई पुराना सामान नहीं मिलता। सब नया है।' - अपनी दुकान पर मोबाइल पर ताश के पत्ते का कोई खेल खेलते हुए पत्ते जमाते हुए दुकानदार ने बताया।
आगे मुख्य सड़क से बाएं मुड़ने पर ऐतिहासिक और चर्चित लालचौक था। लाल चौक के घण्टाघर के ऊपरी हिस्से की रोशनी लाल थी। घड़ी अलबत्ता आमतौर पर घण्टाघरों की तरह बन्द थी। शाम के सात बजे घड़ी एक बजा रही थी। घड़ी को कोई टोकने वाला नहीं था।
घड़ी तो सिर्फ घड़ी है। चाबी देने से चलती है। आज दुनिया में कई समाज हैं जो आज के समय से दो-तीन सौ साल पीछे चल रहे हैं। उनका कोई पूछनहार नहीं तो एक घड़ी का क्या कोसें।
लाल चौक पर लोग ख़ूब जमा थे। फोटो खिंचवा रहे थे। हमने भी खींचे, खिंचवाये। कुछ देर ठहरकर, देखकर वापस चल दिये।
करीब पांच किलोमीटर चलने से थकान और भूख दोनों ने हाजिरी दी। वहीं एक बतासे वाला दिखा। हमने खाये। तीस रुपये के छह। छह बतासे होने पर हमने कहा -'बस।' इसके बाद उसने एक और खिलाया। पैसे तीस ही लिए। हम अभी तक तय नहीं कर पाए कि हमने बतासे छह खाये या सात।
रात होने कोई हुई। दुकानें बंद हो रहीं थी। एक बन्द हुई दुकान के सामने दो बच्चे कैरम खेल रहे थे। पास जाकर कुछ देर देखते रहे उनको खेलते हुए। मन किया हम भी खेलें। लेकिन हमसे बेपरवाह वे खेलते रहे। हमको पूछा नहीं। हम चले आये।
लौटते में मॉल फिर दिखा। उसकी जनसुविधा का उपयोग किया। पहली मंजिल पर था इंतजाम। अकेला एस्केलेटर बन्द हो चुका था। यह हाल सभी मॉल का है।
मॉल की जनसुविधा का इस्तेमाल करने के बाद लगा-'मॉल दुनिया के अच्छे जनसुविधा केंद्र हैं।'
राकेश अभी भी गन्ने पर रहे थे। बताया 50 ग्लास बिका रस आज। दो लड़के रस पीकर वहीं बैठे थे। उनसे पैसे का हिसाब करने में भाषा आड़े आ रही थी। लड़के हिंदी नहीं जानते थे। राकेश का हाथ अंग्रेजी में तंग। लेकिन इशारे से सब हो गया। पैसे के परिवहन में कोई भाषा व्यवधान नहीं डालती।
लौटते में खाना खाया कृष्णा भोजनालय में। भीड़ ऐसी थी जैसे किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे की भीड़। लोग अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे। कुछ बाहर ही खा रहे थे खड़े-खड़े।
हम तीन बार यहां से बिना खाये चले गए थे। इस बार सोच लिया था कि यहां से खाकर ही जायेंगे। अंदर घुस गए। एक जगह खड़े होकर। खाने वाले के खाना खत्म करने का इंतजार करते हुए। इंतजार करते हुये लग रहा था कि ये इतने आहिस्ते क्यों खा रहे हैं।
हमारा भी नम्बर आया बैठने का। लगा -'किला फतह हो गया।'
खाकर पैदल चलते हुए वापस आ गए। दिन भर की ठहलाई हुई -'10.7 किलोमीटर और कदम हुए 14886 ।'
लौटकर थके हुए थे। फौरन सो गए। श्रीनगर में यह तीसरी रात थी।
रात के बाद अब सुबह हुई। हर रात के बाद सुबह जरूर होती है। अब चाय पीकर निकलते हैं घूमने।

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Tuesday, July 19, 2022

पहलगाम की सुबह- घोड़ों की गदहागिरी

 


जिस जगह ठहरे हैं हम पहलगाम में, सड़क वहां से बहुत पास है। सौ मीटर करीब। सबेरे गजरदम यात्रियों का अमरनाथ के लिए प्रस्थान शुरू हो गया। यात्रा के लिए निकलते हुए यात्री बाबा बर्फ़ानी की जय, बोल बम, हर-हर महादेव की जयकार करते हुए जा रहे थे। कमरे से ही अंदाज लगाया कि सड़क पर यात्री ही यात्री होंगे।
सुबह की चाय छह बजे मिली। मिली क्या, हमने बोला ही था छह बजे के लिए। चाय दो कप से कुछ ज्यादा ही थी। हमने दो बार में डेढ़ कप करीब पी। चाय अच्छी बनी थी। लेकिन सड़क से यात्रियों के जत्थों की जयकार मुझे फौरन उधर घसीट रही थी। लगभग पौन कप चाय केतली में छोड़कर हम बाहर निकल आये।
इंस्टिट्यूट से निकलते ही कुछ महिलाएं सड़क किनारे की रेलिंग पर टिकी, बैठी दिखीं। पास के कैम्प में रुके थे सब लोग। चलने से पहले की बतकही चल रही थी। हमने पूछा -'कहाँ से आये हैं आप लोग?'
इन्होंने बताया -'इलाहाबाद।'
हमने कहा -'इलाहाबाद नहीं बाबा प्रयागराज।'
वो हंसने लगीं। एक ने कहा -'प्रयागराज कहने से बहुत लोग समझ नहीं पाते। नया नाम है न।'
'अरे नया नहीं यह तो बहुत पुराना नाम था। इलाहाबाद तो बाद में पड़ा नाम। अब फिर हो गया प्रयागराज।' - दूसरी ने ज्ञान वर्षा की।
एक बार बातचीत शुरू हो जाये और बात की शुरुआत ही हंसी वाली बात से हो जाये तो आगे की बतकही का रास्ता राजपथ हो जाता है। हमने पूछा-'इतने लोग आए हैं आप लोग। आपके घरवाले भी साथ हैं। आप यह बताइये कि यात्रा के लिए निकलने के लिए उकसाया किसने घरवालों को?'
इस पर एक महिला ने अपना हाथ-' प्रजेंट सर!' वाले अंदाज में उठाते हुए कहा -'मैंने।'
दूसरी महिला को उसका अकेले श्रेय लेना पसंद नहीं आया। उसने यात्रा के श्रेय का प्रसाद सबको बराबर बांट दिया। हमने कहा -'कुछ भी हो घरों में कोई भी सामूहिक काम बिना महिलाओं की सक्रिय सहमति के नहीं हो सकता। घर को चलाने का साफ्टवेयर महिलाओं के ही हाथ में होता है।'
सभी महिलाएं इस पर फट से सहमत हो गयीं। शायद इसलिए कि इस बात में सबकी तारीफ थी।
चलते हुए सड़क पर आ गए। लोगों के दल के दल यात्रा के लिए निकल रहे थे। एक जगह करीब चालीस-पचास लोग इकट्ठे थे। हमने उस दल में शामिल बुजुर्ग से पूछा -'आप लोग कहाँ से आये?'
पूछते ही बुजुर्गवार उन के गोले की तरह खुलते चले गए। उनकी मुखमुद्रा देखकर लगा कि शायद उनको इस बार का बेताबी से इंतजार कोई उनके दल के बारे में उनसे पूछे।
यात्रओं में घर से बाहर निकलकर इंसान किसी से मिलने पर बहुत जल्दी खुल जाता है। बात का सिलसिला शुरू होते ही सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ तो उड़ेल ही देता है। उन्होंने बताया कि वे लोग नीमच से आये हैं। उनका और उनके समधी का परिवार मिलाकर कुल पचास लोग हैं।
यह भी बताया कि एजेंट के माध्यम से आये हैं वे लोग। एक हजार रुपये रोज का किराया है। खाना-पीना , रहना सारा इंतजाम शामिल है इसमें।
बुजुर्गवार के साथ उनकी नातिन भी है। उन्होने बताया कि वह बीएससी कर रही है। उनके साथ की महिलाएं भी उनसे वार्ता में सक्रिय भाग ले रहीं थीं और उनकी बात में सर हिलाते हुए या उनको उनकी बात में अपनी बात जोड़ती जा रहीं थी।
पहले भी वे लोग एकबार दक्षिण की यात्रा पर जा चुके हैं। हमने पूछा -'यात्रा में मजा आ रहा है?'
वे लोग बोले -'बहुत मजा आ रहा हैं।'
बातचीत करते हुए उनकी गाड़ी आ गयी। सब उधर की तरफ लपक लिए।
लगातार गाड़ियां आ रहीं थी। जहां कैम्प लगा था उस जगह से यात्री उतरकर सड़क पर ऐसे आते जा रहे थे जैसे चीटियाँ बिल से बाहर आते हुए झुंड में निकलती दीखती हैं।
यात्री अपनी गाड़ियों का इंतजार कर रहे थे। इंतजार के दौरान पास की नदी के पास खड़े होकर फोटो, सेल्फी, वीडियो के जरूरी काम में जुटे थे। यात्रा से कम जरूरी नहीं है यात्रा की स्मृतियां संजोना। इसके बाद गाड़ियां आने पर बैठकर चल दे रहे थे।
एक आदमी यात्रा में चलने की सुविधा के लिए लकड़ियां बेच रहा था। दस रुपये की एक। पास के गांव में रहता है। गोल्फ कोर्स में मजदूर का काम करता है। वहां पांच-छह महीने काम मिलता है। इसके बाद जहां मेहनत मंजूरी का काम मिलता है, कर लेता है।
उमर पूछने पर बताई -'तीस और तीन।'
शादी हो चुकी है। एक बेटी है। पत्नी घर में ही काम करती है।
यात्रा के दौरान मौका मिला तो लकड़ियां बेंचने निकल लिया। पचास लकड़ियां लाया था घर से। तीन-चार छोड़कर सब बिक चुकी थीं।
यह हाल इधर के अधिकतर लोगों का है। इधर का क्यों? लगभग सब जगह यही हाल होते जा रहे हैं। लोगों के पास से नियमित काम कम होते जा रहे हैं।
इस बीच हमने नदी के तमाम फोटो ,वीडियो ले डाले। सुबह के समय नदी एकदम सुघड़ सुंदरी से इठलाती हुई बहती जा रही थी। अपने सौंदर्य से अनजान तो नहीं लेकिन उससे बेपरवाह सी बहती हुई नदी। नदी को अपने सौंदर्य का एहसास है लेकिन वह उसको अपनी मुंडी पर लादकर नही चल रही। कोई घमंड का भाव नहीं अपनी खूबसूरती के प्रति। गर्व का बोझ भी बड़ा भारी होता है। सफर में सामान जितना कम हो उतना अच्छा। नदी यह बात समझती है इसी लिए सहज होकर बहती है।
हमारे वहां रहते हुए एक चाय वाले आ गए। दस मिनट में चाय बनाने को बोले। हम बोले -'बनाओ।'
चाय बनाने के दौरान बतियाने लगे। मनीष नाम है। अलीगढ़ के रहने वाले हैं। दस-बारह साल पहले आये थे। तबसे यहीं जमे हैं। घर में पत्नी, बच्चों से मिलने तीज-त्योहार चले जाते हैं। जाड़े के महीने में, दिसंबर से मार्च तक, घर में ही रहते हैं।
जिस दोस्त ने उनको यहाँ काम दिलाया ,बताया, उसको बाद में जमा नहीं काम। छोड़कर चला गया। आजकल ड्राइवरी कर रहा है। खुद की गाड़ी भी खरीद लिया है।
चाय बन गयी। चाय पीते हुए वहीं तमिलनाडु के बीएसएफ के एक जवान भी आ गए। उनको भी चाय पिलाये। रोजी रोटी के चक्कर में आदमी को कहाँ नहीं भटकना पड़ता है। चाय पीते हुए हमने कहा -'रोजी रोटी के चलते ही एक अलीगढ़ वाला आदमी एक तमिलनाडु वाले को चाय पिला रहा है -दोनों के घर से बहुत दूर।
लौटते हुए सेल्फी प्वाइंट पर फिर गए। दो घोड़े वहां खड़े थे। शायद उनको भी सेल्फी का चस्का लगा था। इंसान की संगत का असर। इंसान खुद तो बिगड़ता ही है, दूसरों को भी बिगाड़ता है। हमने यह बात अपने मित्र को बताई तो उन्होंने बेशख़्ता कहा -'घोड़े भी गदहागिरी करने लगे।'
यह बात उसने यह अच्छी तरह जानते हुए कही कि कल।हमने यहाँ सेल्फी ली थी। दोस्तों का कोई भरोसा नहीं,कब क्या कह दें। भरोसा होता तो दोस्त क्यों होते?
बहरहाल हमने घोड़ो की फोटो ले ली। कभी मिलेंगे तो दिखा देंगे।
चलते हुए किसी को कहते सुना -'बाबा बर्फानी का आकार तीन इंच बचा है।'
सड़कपर बर्फ़ानी बाबा की जयकार करते हुए लोग यात्रा के लिए निकलते जा रहे थे।
किस्सा 18 जुलाई का पोस्ट हुआ आज

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