जिस जगह ठहरे हैं हम पहलगाम में, सड़क वहां से बहुत पास है। सौ मीटर करीब। सबेरे गजरदम यात्रियों का अमरनाथ के लिए प्रस्थान शुरू हो गया। यात्रा के लिए निकलते हुए यात्री बाबा बर्फ़ानी की जय, बोल बम, हर-हर महादेव की जयकार करते हुए जा रहे थे। कमरे से ही अंदाज लगाया कि सड़क पर यात्री ही यात्री होंगे।
इंस्टिट्यूट से निकलते ही कुछ महिलाएं सड़क किनारे की रेलिंग पर टिकी, बैठी दिखीं। पास के कैम्प में रुके थे सब लोग। चलने से पहले की बतकही चल रही थी। हमने पूछा -'कहाँ से आये हैं आप लोग?'
इन्होंने बताया -'इलाहाबाद।'
हमने कहा -'इलाहाबाद नहीं बाबा प्रयागराज।'
वो हंसने लगीं। एक ने कहा -'प्रयागराज कहने से बहुत लोग समझ नहीं पाते। नया नाम है न।'
'अरे नया नहीं यह तो बहुत पुराना नाम था। इलाहाबाद तो बाद में पड़ा नाम। अब फिर हो गया प्रयागराज।' - दूसरी ने ज्ञान वर्षा की।
एक बार बातचीत शुरू हो जाये और बात की शुरुआत ही हंसी वाली बात से हो जाये तो आगे की बतकही का रास्ता राजपथ हो जाता है। हमने पूछा-'इतने लोग आए हैं आप लोग। आपके घरवाले भी साथ हैं। आप यह बताइये कि यात्रा के लिए निकलने के लिए उकसाया किसने घरवालों को?'
इस पर एक महिला ने अपना हाथ-' प्रजेंट सर!' वाले अंदाज में उठाते हुए कहा -'मैंने।'
दूसरी महिला को उसका अकेले श्रेय लेना पसंद नहीं आया। उसने यात्रा के श्रेय का प्रसाद सबको बराबर बांट दिया। हमने कहा -'कुछ भी हो घरों में कोई भी सामूहिक काम बिना महिलाओं की सक्रिय सहमति के नहीं हो सकता। घर को चलाने का साफ्टवेयर महिलाओं के ही हाथ में होता है।'
सभी महिलाएं इस पर फट से सहमत हो गयीं। शायद इसलिए कि इस बात में सबकी तारीफ थी।
चलते हुए सड़क पर आ गए। लोगों के दल के दल यात्रा के लिए निकल रहे थे। एक जगह करीब चालीस-पचास लोग इकट्ठे थे। हमने उस दल में शामिल बुजुर्ग से पूछा -'आप लोग कहाँ से आये?'
पूछते ही बुजुर्गवार उन के गोले की तरह खुलते चले गए। उनकी मुखमुद्रा देखकर लगा कि शायद उनको इस बार का बेताबी से इंतजार कोई उनके दल के बारे में उनसे पूछे।
यात्रओं में घर से बाहर निकलकर इंसान किसी से मिलने पर बहुत जल्दी खुल जाता है। बात का सिलसिला शुरू होते ही सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ तो उड़ेल ही देता है। उन्होंने बताया कि वे लोग नीमच से आये हैं। उनका और उनके समधी का परिवार मिलाकर कुल पचास लोग हैं।
यह भी बताया कि एजेंट के माध्यम से आये हैं वे लोग। एक हजार रुपये रोज का किराया है। खाना-पीना , रहना सारा इंतजाम शामिल है इसमें।
बुजुर्गवार के साथ उनकी नातिन भी है। उन्होने बताया कि वह बीएससी कर रही है। उनके साथ की महिलाएं भी उनसे वार्ता में सक्रिय भाग ले रहीं थीं और उनकी बात में सर हिलाते हुए या उनको उनकी बात में अपनी बात जोड़ती जा रहीं थी।
पहले भी वे लोग एकबार दक्षिण की यात्रा पर जा चुके हैं। हमने पूछा -'यात्रा में मजा आ रहा है?'
वे लोग बोले -'बहुत मजा आ रहा हैं।'
बातचीत करते हुए उनकी गाड़ी आ गयी। सब उधर की तरफ लपक लिए।
लगातार गाड़ियां आ रहीं थी। जहां कैम्प लगा था उस जगह से यात्री उतरकर सड़क पर ऐसे आते जा रहे थे जैसे चीटियाँ बिल से बाहर आते हुए झुंड में निकलती दीखती हैं।
यात्री अपनी गाड़ियों का इंतजार कर रहे थे। इंतजार के दौरान पास की नदी के पास खड़े होकर फोटो, सेल्फी, वीडियो के जरूरी काम में जुटे थे। यात्रा से कम जरूरी नहीं है यात्रा की स्मृतियां संजोना। इसके बाद गाड़ियां आने पर बैठकर चल दे रहे थे।
एक आदमी यात्रा में चलने की सुविधा के लिए लकड़ियां बेच रहा था। दस रुपये की एक। पास के गांव में रहता है। गोल्फ कोर्स में मजदूर का काम करता है। वहां पांच-छह महीने काम मिलता है। इसके बाद जहां मेहनत मंजूरी का काम मिलता है, कर लेता है।
उमर पूछने पर बताई -'तीस और तीन।'
शादी हो चुकी है। एक बेटी है। पत्नी घर में ही काम करती है।
यात्रा के दौरान मौका मिला तो लकड़ियां बेंचने निकल लिया। पचास लकड़ियां लाया था घर से। तीन-चार छोड़कर सब बिक चुकी थीं।
यह हाल इधर के अधिकतर लोगों का है। इधर का क्यों? लगभग सब जगह यही हाल होते जा रहे हैं। लोगों के पास से नियमित काम कम होते जा रहे हैं।
इस बीच हमने नदी के तमाम फोटो ,वीडियो ले डाले। सुबह के समय नदी एकदम सुघड़ सुंदरी से इठलाती हुई बहती जा रही थी। अपने सौंदर्य से अनजान तो नहीं लेकिन उससे बेपरवाह सी बहती हुई नदी। नदी को अपने सौंदर्य का एहसास है लेकिन वह उसको अपनी मुंडी पर लादकर नही चल रही। कोई घमंड का भाव नहीं अपनी खूबसूरती के प्रति। गर्व का बोझ भी बड़ा भारी होता है। सफर में सामान जितना कम हो उतना अच्छा। नदी यह बात समझती है इसी लिए सहज होकर बहती है।
हमारे वहां रहते हुए एक चाय वाले आ गए। दस मिनट में चाय बनाने को बोले। हम बोले -'बनाओ।'
चाय बनाने के दौरान बतियाने लगे। मनीष नाम है। अलीगढ़ के रहने वाले हैं। दस-बारह साल पहले आये थे। तबसे यहीं जमे हैं। घर में पत्नी, बच्चों से मिलने तीज-त्योहार चले जाते हैं। जाड़े के महीने में, दिसंबर से मार्च तक, घर में ही रहते हैं।
जिस दोस्त ने उनको यहाँ काम दिलाया ,बताया, उसको बाद में जमा नहीं काम। छोड़कर चला गया। आजकल ड्राइवरी कर रहा है। खुद की गाड़ी भी खरीद लिया है।
चाय बन गयी। चाय पीते हुए वहीं तमिलनाडु के बीएसएफ के एक जवान भी आ गए। उनको भी चाय पिलाये। रोजी रोटी के चक्कर में आदमी को कहाँ नहीं भटकना पड़ता है। चाय पीते हुए हमने कहा -'रोजी रोटी के चलते ही एक अलीगढ़ वाला आदमी एक तमिलनाडु वाले को चाय पिला रहा है -दोनों के घर से बहुत दूर।
लौटते हुए सेल्फी प्वाइंट पर फिर गए। दो घोड़े वहां खड़े थे। शायद उनको भी सेल्फी का चस्का लगा था। इंसान की संगत का असर। इंसान खुद तो बिगड़ता ही है, दूसरों को भी बिगाड़ता है। हमने यह बात अपने मित्र को बताई तो उन्होंने बेशख़्ता कहा -'घोड़े भी गदहागिरी करने लगे।'
यह बात उसने यह अच्छी तरह जानते हुए कही कि कल।हमने यहाँ सेल्फी ली थी। दोस्तों का कोई भरोसा नहीं,कब क्या कह दें। भरोसा होता तो दोस्त क्यों होते?
बहरहाल हमने घोड़ो की फोटो ले ली। कभी मिलेंगे तो दिखा देंगे।
चलते हुए किसी को कहते सुना -'बाबा बर्फानी का आकार तीन इंच बचा है।'
सड़कपर बर्फ़ानी बाबा की जयकार करते हुए लोग यात्रा के लिए निकलते जा रहे थे।
किस्सा 18 जुलाई का पोस्ट हुआ आज
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