Tuesday, December 13, 2022

रात में नेपाल की सड़क



3D रेस्टोरेंट मतलब तीन बेटियों के रेस्टोरेंट से चाय पीकर लौटे तक काफी रात हो गयी थी। काफी रात मतलब करीब दस बजने वाले थे। सड़क पर केवल गाडियां थीं। सड़क के दोनों तरफ दुकानें बंद हो चुकी थीं। काफी दुकानों के साईन बोर्ड चमक रहे थे। दुकानों में काफी के नाम रोमन हिंदी में लिखे थे। लग रहा था किसी हिंदुस्तानी शहर में टहल रहे हैं।
थोड़ी दूर पर एक बौद्ध मठ के बाहर कुछ लोग खड़े दिखे। कुछ लोग मतलब 3-4 लोग। नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से आये थे वे लोग। मठ काफी पुराना था। 69 लोग रहते हैं मठ में।
वे लोग किसी के इंतजार में थे। बात करने पर पता चला कि कोई बड़े मठ से जुड़े कोई बड़े बौद्ध आने वाले हैं। उनकी अगवानी के लिए ही खड़े थे वे लोग। हर आती-जाती गाड़ी को चौकन्ना होकर देखते। गाड़ी निकल जाने पर थोड़ा सहज होकर बतियाते, इसके बाद फिर चौकन्ना हो जाता। चौकन्नेपन और सहजता की साइकिल चल रही थी।
थोड़ी देर में एक बड़ी गाड़ी रुकी। मठ के बाहर खड़े लोग लपककर उनकी अगवानी में जुट गए। गाड़ी अंदर चली गयी। मठ का दरवाजा बंद हो गया।
जिस तरह लोग आने वाले का इंतजार कर रहे थे और जितनी भव्य गाड़ी में आये वीआईपी बौद्ध और लोग लपककर उनको अंदर ले गए और गाड़ी के अंदर जाते ही गेट बंद हो गया उसे देखकर लगा कि धर्म के मामले में तामझाम कितना बढ़ गया है। बड़ा साधु, बड़ा धार्मिक मतलब बड़ा रुतबा मतलब बड़ी गाड़ी, बड़ा प्रोटोकॉल। धर्म दिखावे की मनाही करते हैं, वही इफरात में दिखता है हर जगह।
बहरहाल, आगे बढ़े। एक तिराहे पर नेपाली पुलिस के तीन जवान ड्यूटी दे रहे थे। पता चला उनमें से एक स्थायी कर्मचारी है, बाकी दो दिहाड़ी पर हैं। चुनाव भर के लिए उनकी ड्यूटी लगाई गई है। चुनाव बाद वापस चले जायेंगे। नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से आये थे दिहाड़ी सिपाही। अपने यहां के होमगार्ड सरीखे। पर होमगार्ड तो लगभग नियमित ड्यूटी करते हैं। लेकिन यहां दिहाड़ी सिपाही की ड्यूटी सिर्फ चुनाव भर को थी। क्या पता बाद में और कोई काम मिले।
करीब महीने भर के लिये ड्यूटी के लिए करीब 25 हजार नेपाली रुपये मिलने की बात बताई उन लोगों ने।
सिपाहियों ने बताया कि ये जो चौराहों पर ठेलिया वाले हैं उनको भी रात दस बजे तक ही अनुमति है ठेलिया लगाने की। रात दस के बाद कोई नहीं दिखेगा।
नेपाली सिपाहियों की फोटो खींचने के लिए पूछा तो मुस्कराकर खड़े हो गए। खींच ली हमने फ़ोटो।
होटल के बाहर दरबान मुस्तैद था। बातचीत से पता चला कि काफी दिन सऊदी अरब रह कर आये हैं। तबियत खराब हो गयी तो अब वापस आ गए। अब नहीं जाएंगे। वहाँ पैसा बहुत है लेकिन रहने की तकलीफ भी काफी।
नेपाल में मंहगाई की बात चली तो उन्होंने बताया कि यहां सब सामान तो बाहर से आता है। इसीलिए मंहगाई है। भारत मे मोटरसाइकिल के दाम पूछे हमसे तो हमने अंदाज से बता दिया -एक लाख रुपये। इस पर वो बोले -'यहाँ आते आते मोटरसाइकिल तीन से चार लाख रुपये मिलती है। पेट्रोल 200 रुपये लीटर है। हर सामान बाहर से आता है इसी लिए बहुत मंहगाई है।'
परेशानियों के इस एहसास के बावजूद दरबान के चेहरे पर मुस्कान थी और लहजा विनम्र। लेकिन यह तो हम देख रहे थे। हमको क्या एहसास उनकी परेशानी का। जो झेलता है वही अच्छी तरह समझता है।
दरबान से बात करके अंदर आये। होटल के अहाते में फव्वारा चल रहा था। फव्वारे के चारो तरफ रोशनी थी। पानी उछल-उछलकर ऊपर आ रहा था। थोड़ी देर रोशनी में चमकता और फिर नीचे चला जाता। जैसे स्टेज पर लोग आते है, अपना रोल अदा करते हैं और वापस मंच से चले जाते हैं उसी तरह पानी अपना रोल अदा कर रहा था।

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Monday, December 12, 2022

बेटियों का रेस्टोरेंट



पिछले महीने नेपाल जाना हुआ। दफ्तर के काम से। कानपुर से लखनऊ, लखनऊ से दिल्ली। दिल्ली से काठमांडू। सुबह दिल्ली से चलकर दोपहर के पहले काठमांडू पहुंच गए। हवाई अड्डे पर एकदम अनौपचारिक माहौल। एयरपोर्ट पर ही करेंसी बदलने के कई काउंटर थे। भारत और नेपाली करेंसी का कोई काउंटर नहीं था। पता चला कि भारत का रुपया नेपाल में चलता है, इसीलिए भारत-नेपाल करेंसी काउंटर की जरूरत ही नहीं।
हवाई अड्डे के बाहर निकल कर आये। कोई तड़क-भड़क नहीं। सादा जीवन उच्च विचार टाइप मामला। हवाई अड्डे के बाहर की इमारत देखकर लगा कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े हैं।
नेपाल पहुंचते ही पटर-पटर करने वाला फोन शांत हो गया। हमने नेपाल के लिए इंटरनेशनल रोमिंग प्लान लिया था। वह चालू नहीं हुआ था। साथ के ड्राइवर समझदार( स्मार्ट कहना ज्यादा ठीक होगा) उन्होंने फौरन अपने हॉटस्पॉट से हमको जोड़ लिया और संपर्क चालू। व्हाट्सएप से बातचीत शुरू। घर से निकलते ही बातचीत की मात्रा भी बढ़ जाती है।
होटल पहुंचकर कुछ देर आराम करके खाना खाया। दोपहर बाद काम निपटाया। देखते-देखते शाम हो गयी।
होटल में नाश्ता के अलावा एक खाने की व्यवस्था थी। शाम को सोचा बाहर खाएंगे। इसी बहाने थोड़ा घूम भी लेंगे। शाम को निकलते-निकलते आठ बज गए।
होटल के बाहर आये तो देखा सब दुकानें बंद। सड़क पर गाड़ियों के अलावा सन्नाटा। कोई दुकान खुली दिखी भी तो वह बन्द हो रही थी। नुक्कड़ पर एक ठेलिया पर कुछ नानवेज पकौड़ी टाइप बिक रही थी। पता किया तो मछली, चिकन घराने की पकौड़ियाँ थीं। एक बच्ची मोबाइल पर चैटियाती हुई अनमने ढंक से जबाब दे रही थी। दूसरी पास की फुटपाथ पर बैठी फोनालाप में रत थी। रात के सन्नाटे में अकेली लड़कियों को देखकर थोड़ा ताज्जुब हुआ। लेकिन फिर यह यह मंजर लगभग हर नुक्कड़ पर दिखा। आगे के मोड़ों पर ताज्जुब विदा हो गया। यह सामान्य बात लगी।
ठेलिया पर कुछ खाने के लिए नहीं मिला तो आगे बढ़े। मेन रोड के बगल में ही गली पर एक दुकान खुली दिखी। वहां चाय-काफी बिकती थी। हमको लगा कि चाय के साथ बिस्कुट खा लेंगे। लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि दुकान बढ़ चुकी थी। बहुत कहने पर भी वो चाय या काफी बनाने के लिए राजी नहीं हुए। आदमी और औरत दोनों बोले-'सुबह आना तब चाय पिलायएंगे।' हमने कहा -'सुबह मतलब कितने बजे?' वो बोले -'छह बजे।'
हमारे बार-बार के अनुरोध के बावजूद वो चाय बनाने को राजी नहीं हुए। अंततः हमने वहां से एक बिस्कुट का पैकेट लिया। 190 नेपाली रुपये का। मतलब हिंदुस्तानी लगभग 120 रुपये। दुकान से बाहर निकलकर देखा बगल में एक बोर्ड लगा था -'डांस बार एवं रेस्टोरेंट।' वहां अंदर से ड्रम बजने जैसी आवाज आ रही थी।
रेस्टोरेंट ने ललचाया कि अंदर जाकर खाने के बारे में पूछें। लेकिन 'डांस बार' ने बरज दिया। कौन मानेगा कि अंदर रेस्टोरेंट में खाने की तलाश के लिए गए थे, डांस बार नहीं।
आगे मुख्य सड़क के दोनों ओर सब दुकाने बन्द हो चुकी थीं। बड़े-बड़े होटल खुले थे। लगभग हर चौराहे पर नानवेज पकौड़ी वाली ठेलिया दिखीं। हम आगे बढ़ते गए। लगा कि कहीं न कहीं तो कोई चाय का या खाने का जुगाड़ दिखेगा।
आगे बढ़ते हुए हर चौराहे पर सोचते कि अगले तक जाएंगे, फिर वापस हो लेंगे। इस चक्कर में कई चौराहे पार कर गए लेकिन कोई चाय की या खाने की दुकान न दिखी। फिर भी हम बढ़ते गए।
'कोशिशें अक्सर कामयाब हो जाती हैं' शायद यही साबित करने के लिए आगे एक रेस्टोरेंट खुला दिखा। खुला क्या हो तो वह बन्द ही गया था लेकिन दरवाजा खुला था। 3 D रेस्टोरेंट। हम फौरन 'दाखिल-रेस्टोरेंट' हो गए।
रेस्टोरेंट के अंदर माहौल एकदम घरेलू सा था। एक महिला कोने में बैठी एक बड़े बर्तन में कुछ खा रही थी। पास में खड़ा एक आदमी गोद में बच्चा लिए खड़ा था। दूसरा खाना खाती महिला के पास बैठा था। तीसरा सोफे-कुर्सी पर पेट के बल लेटा हुआ मोबाइल में कोई गेम खेल रहा था।
रेस्टोरेंट बन्द हो चुका था। खाने का कोई जुगाड़ नहीं था। मना हो गया। इस पर हमने पूछा -'अच्छा चाय मिल जाएगी?' हमारी आशा के विपरीत जबाब मिला -'हां चाय बन जाएगी। ।' हम खुश हो गए। कहा -'बनवा दीजिए।'
आदमी ने अंदर जाकर शायद दुकान में काम करने वाली बच्चियों को बुलाकर चाय बनाने को कहा। बच्चियों के चेहरे उनींदे से थे। शायद अनमने भी। लेकिन अपन ने उनको नजरअंदाज किया। 'अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता' वाला गुट ज्वाइन करके चाय का पूरी बेताबी के बावजूद तसल्ली वाले भाव से इंतजार करने लगे।
कुछ देर में चाय आई। बड़े ग्लास में ऊपर तक भरी चाय। इतना कि रेलवे स्टेशन के कागज वाले चार-पांच कप भर जाएं। हमने पूरी तसल्ली से बिस्कुट के साथ चाय पी। इस बीच महिला खाना खाती रही। आदमी बच्चा खिलाता रहा। चाय बनाकर लाई बच्चियां अंदर जा चुकी थीं।
इस बीच आदमी ने बताया कि यह रेस्टोरेंट उसने नया खोला है। पांच लाख रुपये महीने किराया है। एक और रेस्टोरेंट है उनका। उससे दोनों से कुल।मिलाकर 30-35 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।
चलते समय चाय के दाम चुकाए। साठ रुपये की चाय। नेपाली साथ रुपये मतलब 37 रुपये करीब हिंदुस्तानी रुपये।
विदा होते हुए हमने 3D रेस्टोरेंट नाम का कारण पूछा। ऐसे ही कौतूहलवश। हमें लगा कि कोई 3 ईडियट जैसा कारण होगा नाम के पीछे। लेकिन काउंटर पर खड़ी महिला ने बताया कि यह नाम उसके पिता ने रखा है। उनकी तीन बेटियां हैं। बेटियों के नाम पर उन्होंने दुकान का नाम रखा 3 D रेस्टोरेंट मतलब तीन बेटियों का रेस्टोरेंट।
कितनी प्यारी बात। बेटियों का रेस्टोरेंट। नीमा नाम है जो बेटी मिली उस दिन और जिसने सब दुकाने बन्द होने के बावजूद हमको चाय पिलवाई। इतवार को पैदा हुई थी। शायद यह भी बताया कि इतवार को पैदा हुई इसलिए बुद्धिष्ट हुए।
लौटते हुए सड़क पर लोग बहुत कम दिख रहे थे। केवल गाड़ियों की आमद। पूरा नेपाल सो रहा था। नेपाल जल्दी सोता है, जल्दी जगता है। मज़े में लोग कहते हैं -सूरज अस्त, नेपाल मस्त।
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Wednesday, November 30, 2022

लिफाफे में कविता बनाम लिफाफे में किराया


लगभग चार वर्षों के इंतजार के बाद अरविंद तिवारी जी Arvind Tiwari का चौथा व्यंग्य उपन्यास प्रकाशित हुआ -'लिफाफे में कविता।' प्रकाशित होते ही खरीदा और पढ़ना भी शुरू कर दिया। एक छुटकी पोस्ट भी लिखी। सोचा पूरा पढ़ कर तसल्ली से लिखेंगे। उपन्यास पढ़ गए। लेकिन तसल्ली न मिली।
शुरू में तो अरविंद जी ने छोड़ दिया। बोले-'आराम से लिखना।' लेकिन छह महीने बाद जब लिखने का तकादा किया तो कथानक आधा उड़ गया दिमाग से। दुबारा पढ़े 192 पेज। वो तो कहो उपन्यास की रोचकता जबर्दरस्त है तो फिर मजे लेकर पढ़ गए। कहीं कोई कालजयी टाइप उपन्यास होता तो दुबारा पढ़ने में कोई न कोई याद आ जाता।
अभी हाल ही में एक लेखक का बहुप्रचारित उपन्यास छपकर आया है। बहुत उत्साह से मंगाने वाले मित्र से जब पूंछो कहा तक पहुंचे ? पता चलता है चालीस पेज पर अटके हैं। इस मामले में अरविंद तिवारी जी के सभी उपन्यास रोचक और पठनीय हैं।
उपन्यास पढ़कर उसके पंच और उसके बारे में व्यंग्ययात्रा में भेज भी दिया। छप भी गया। एक काम पूरा हुआ।
उपन्यास छपने के करीब साल भर बाद इसी महीने की शुरुआत में अरविंद जी का फोन आया। बोले -'उपन्यास पर गोष्ठी तय हुई है। आना है।' हमने कहा -'आएंगे। काहे नहीं आएंगे।'
तारीख बताई गयी 26 नवम्बर। जो कि एक दिन बाद सरक के 27 हो गयी। हमने 26 नवम्बर को पहुंचने का और 27 को लौटने का रिजर्वेशन करा लिया। सोचा था डेढ़ दिन आगरा घूमेंगे। शहर, किला, ताजमहल और भीड़-भाड़ देखेंगे, भटकेंगे। सुबह-शाम सूरज उगने-अस्त होने के समय ताजमहल देखने की बात भी सोच ली। शनिवार,इतवार का दिन। तसल्ली से आवारागर्दी का प्लान बन गया।
लेकिन सब कुछ प्लान के हिसाब से कहां होता है। घर के काम कुछ ऐसे पड़े कि 26 को जाना स्थगित हो गया। अब बचा दिन 27 का। 27 की सुबह गोमती में तत्काल से रिजर्वेशन कराया। लेकिन पैसे भगतान करते-करते मामला वेटिंग लिस्ट तक पहुंच गया। गाड़ी सुबह साढ़े सात पर जाती है। सोचा वेटिंग कन्फर्म हुई तो नहीं तो बस से निकल लेंगे।
शाम को सोचा कि काहे को वेटिंग का इंतजार किया जाए, रात की बस से निकल लेंगे। बैग तैयार कर लिया। लेकिन ऐन निकलने से पहले शरीर ने कहा -'आराम बड़ी चीज है। रात में घर में सोया जाए। सुबह निकलना।' मान ली बात।
सुबह छह बजे निकले। गोष्ठी 2 शुरू बजे होनी थी। बस स्टैंड पहुंचे। बस तैयार थी। बैठ गए। ड्राइवर बोला -'पांच घण्टे में पहुंच जाएंगे। एक्सप्रेस वे से चलेंगे।' हमने सोचा-' बहुत सही। ग्यारह-बारह तक आगरा पहुंच कर दो बजे तक गोष्ठी स्थल पहुंच जाएंगे।'
बस चली। कंडक्टर आया। टिकट बनाया। हमने इत्मीनान से पूछा कि आगरा कब तक पहुंचेंगे। कन्डक्टर दुगुने इत्मीनान से बोला -'दो बजे तक पहुंच जाना चाहिए।' हमारे हाथ के तोते तो नहीं लेकिन हल्के से होश तो उड़ ही गए। हमने कहा -'ड्राइवर तो पांच घण्टे कह रहा था।'
'ड्राइवर नया है। उसको पता नहीं होगा। दो बजे तक पहुंचेगे आगरा।' -कन्डक्टर ने और भी इत्मीनान से कहा। हमको लगा ये बस का ड्राइवर न हुआ किसी संस्था का कर्णधार हो गया जिसको पता ही नहीं कि कहां घसीटे लिए जा रहा है अपनी संस्था को, कहाँ पहुंचाएगा।
हमने रुट पूंछा तो उसने बताया -'कन्नौज, गुरसहायगंज, मैनपूरी, शिकोहाबाद, टूंडला होते हुए आगरा जाएगी।' मैनपूरी मतलब अरविंद तिवारी जी का जन्मस्थान, शिकोहाबाद मतलब वर्तमान निवास, आगरा मतलब गोष्ठी स्थल। मतलब बस सभी महत्वपूर्ण स्थलों को निपटाते हुए पहुंचनी है।
दो बजे आगरा में पहुंचने के कंडक्टर ने टूंडला में आधे घण्टे रुककर नाश्ते का प्लान भी बता दिया। हमने सोचा कि टूंडला उतरकर ओला या कोई और सवारी कर लेंगे। समय पर पहुंच जाएंगे।
रास्ते में ड्राइवर जगह-जगह रुककर सवारियां बटोरते हुए आगे बढ़ा। हम भी ग्राम्य सुषमा निहारते हुए गोष्ठी की कल्पना करने लगे। छप्पर, जानवर, बैल, खेत, उपले और तमाम बेतरतीब नजारे देखकर लगा कि कह दें -'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या।' लेकिन नहीं कहे। गोष्ठी 2 बजे शुरू होनी थी।
इस बीच कल्याणपुर, मंधना, चौबेपुर, शिवराजपुर, बिल्हौर, मानीमऊ निकलते गए। हर स्टेशन पर हमारी कोई न कोई रिश्तेदारी। हरेक को तसल्ली से याद करते रहे। आगे बढ़ते गए।
कन्नौज के पहले अरविंद तिवारी जी का फोन आया। बोले -'कहाँ हो, किधर तक पहुंचे?' हमने बताया -'बस से आ रहे। 2 बजे तक पहुंचेंगे।' तिवारी जी ने सुना तो बोले -'ये तो बहुत गड़बड़ बस पकड़ ली। बहुत देर में पहुंचेंगी।' हमने कहा -'पहुंच जाएंगे।' तिवारी जी ने पूरा रुट बिना सांस लिए गिना दिया। बोले -'उस रुट के बारे हमें अच्छी तरह पता है। आपको लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे आना चाहिए था। या फिर गोमती से।'
अरविंद तिवारी जी खुद कवि रहे हैं। कवि सम्मेलनों में जाते रहे हैं।जिस बारीकी से रुट बताया उससे उनके उपन्यास की बात की पुष्टि हुई -'कविता की तरह रेलवे(बस) के टाइम टेबल को रटना मंचीय कवियों के लिए जरूरी होता है।'
बहरहाल तिवारी जी की हड़काई का असर यह हुआ कि हमको भी लगा कि अब गोष्ठी छूट गयी। लगने तक हम कन्नौज पहुंच गए थे। हमने वहीं ट्रेन की चेन खींचने वाले अन्दाज में अपना झोला उठाया और बस को तलाक दे दिया। सोचा कुछ नहीं तो कन्नौज से कार से चले जायेंगे। जो होगा देखा जाएगा।
कन्नौज में उतरकर चाय पीते हुए पता किया तो मालूम हुआ कि 12 किलोमीटर आगे एक्सप्रेस हाइवे है। 30 रुपये में ऑटोवाला पहुंचा देगा 15 रुपये में। वहां से दो घण्टे में आगरा पहुंच जाएंगे।
ऑटो वाले ने सवारी भरी और हमको भी भरकर आगे बढ़ा। एक छुटके ऑटो में 6 सवारी बैठाए था। फिर भी शिकायत कि एक सवारी कम है। नुकसान होगा।
रास्ते में ऑटो वाले ने बताया कि ऑटो के अड्डे पर तमाम लोगों को पैसे देने पड़ते हैं उसको। पुलिस, ठेकेदार, इसको उसको और न जाने किसको। ऑटो वह फोन पर बतियाते हुए ऐसे चला रहा था जैसे हवाईजहाज वाले ऑटो पायलट मोड़ में जहाज उड़ाते हैं।
जहां उतारा ऑटो वाले ने वहीं चढ़ाई के बाद एक्सप्रेस हाइवे था। चढ़ाई चढ़ते ही बस मिल गयी। हम लपककर चढ़ गए। पीछे बैठे। पूरी सीट सूरज की रोशनी में नहाई हुई थी। बलभर विटामिन डी लेते हुए आगरा की तरफ बढ़ गए। पहले के खड़खड़ाहट भरे रास्ते की जगह बस अब तैरती हुई सी चल रही थी। बेआवाज चलती बस में बैठे तसल्ली हो गयी कि अब तो समय पर पहुंच ही जायेंगे।
इस बार तिवारी जी का फोन आया तो बोले -'आपकी बस में आवाज नहीं आ रही।' उनको शायद लगा होगा कि अगला बस से उठकर वापस तो नहीं चला गया। हमने बताया कि एक्सप्रेस वे से आ रहे तो उन्होंने भी सुकून की सांस ली।
लंबे रास्ते से एक्सप्रेस वे की तरफ बढ़ते हुए हमको लगा कि हमारे बड़े-बुजुर्ग हमको आरामदायक रास्ते में ठेल कर अनेक अनुभवों से वंचित कर रहे। मैनपुरी, शिकोहाबाद होते हुए आते तो गोष्ठी भले छूट जाती लेकिन कितने रोचक अनुभव होते। परसाई जी पैसेंजर से चलते थे, खटारा बस पकड़ते थे ताकि जनता के बीच से अनुभव मिलें। तिवारी जी ने हमको उससे वंचित किया। परसाई जी की तरह बस यात्रा का लेख लिखने का मसाला रह गया।
लंबे रास्ते आते तो तिवारी जी बार-बार पूछते कहाँ तक पहुंचे, कितनी दूर हैं। हम बिना कुछ बोले ही प्रमुख वक्ता बन जाते। सञ्चालक हर वक्ता के बाद बताता -'कानपुर से आने वाले अनूप शुक्ल बस आने ही वाले हैं।' लेकिन इस एक्सप्रेस वे की बस ने सारी वीआईपी सम्भवनाये खत्म कर दीं।
आगरा के सारे रुट तिवारी जी ने लिखा रखे थे। उनको फॉलो करते हुए हम गोष्ठी स्थल यूथ होस्टल पहुंच गए। वहां तिवारी जी का फोन आया -'कहां तक पहुंचे?' हमने बताया -'घटनास्थल पहुंच गए।' उन्होंने पास ही स्थित आहार रेस्टोरेंट बुला लिया। वहां प्रेम जनमेजय जी प्रेम जनमेजय और अरविंद तिवारी जी मौजूद थे। उसकी फोटो साझा करते हुए तिवारी जी ने लिखा है -' हिंदी व्यंग्य के दो सैनिक' । हमने सोचा आगे लिख दें -'शिकार के इंतजार में।' लेकिन फिर नहीं लिखा। वहां लिखते तो फिर यहां क्या बताते?
हमारे पहुंचते ही खाने का फिर आर्डर हुआ। खाना खाकर हम लोग गोष्ठी स्थल की तरफ बढ़ें इसके पहले अरविंद तिवारी जी हमको एक लिफाफा देने लगे। हमने पूछा -'ये क्या?' बोले -'किराया है रख लो।' हमने मना कर दिया। हमने सोचा कि 'लिफाफे में कविता' की जगह 'लिफाफे में किराया' चल रहा।
तिवारी जी ने फिर कहा लेकिन हमने मना कर दिया तो कर दिया। बाद में हमारी न में आलोक पुराणिक Alok Puranik भी शामिल हो गए। हम बहुमत में हो गए। लोकतंत्र में जिसका बहुमत उसकी बात मानी जाती है।
हमने तो खाली मना ही किया था। आलोक पुराणिक जी ने फ्रंटफुट पर आकर डायलॉग भी मार दिया -'अरे तिवारी जी आप भी क्या बात करते हैं। आप जब और जहां बुलाएंगे हम आएंगे।' मौके पर सटीक डायलाग मार लेना भी समर्थ व्यंग्यकार की निशानी है। 🙂
अरविंद तिवारी जी मान तो गए हमारी बात। हालांकि बाद में उन्होंने फेसबुक थाने पर हमारी शिकायत दर्ज करा ही दी कि इन लोगों ने किराया तक नहीं लिया।
हम लोग समय पर गोष्ठी स्थल पहुंच गए। वहां आलोक पुराणिक जी अच्छे बच्चों की तरह नोट्स ले रहे थे। 'लिफाफे पर कविता' में जगह-जगह निशान, चिप्पियाँ लगाए हुए वे तैयारी में जुटे थे। ओपन बुक एक्जाम के लिए तैयारी। वक्ता सभी आ गए थे सिवाय डॉ अनुज त्यागी के। उनका और श्रोताओं का इंतजार था।

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Sunday, November 27, 2022

अतुल अरोरा से मुलाक़ात

 कल Atul Arora मुलाक़ात हुई। बहुत दिनों के बाद। इसके पहले की मुलाक़ात लगभग दस-बारह साल पहले हुई थी जब हम आर्मापुर में रहते थे। तीन साल पहले जब अपन अमेरिका की यात्रा पर थे तो अतुल न्यूजर्सी ,जहां हम हफ़्ते भर रहे , के बग़ल के मोहल्ले (स्टेट) में ही रहते थे। लेकिन उन दिनों फ़ेसबूक से दूरी बनाए रखने के चक्कर में वो हमारी पोस्ट्स देख न पाए और हमारे अमेरिका प्रवास के बारे में जान न पाए। लिहाज़ा दो कनपुरिये अमेरिका में मिल न पाए।

पहली मुलाक़ात हम लोगों की आभासी ही हुई। ब्लागिंग के चलते। 2004 में । अतुल रोज़नामचा ब्लॉग लिखते थे। उन दिनों उनकी पोस्ट्स सबसे ज़्यादा पढ़ी जानी पोस्ट्स होती थी। ‘लाइफ़ इन एच ओ वी लेन’ भारत से अमेरिका पहुँचे लोगों की ज़िंदगी का रोचक वृत्तांत है। बाद में ,शायद व्यस्तता के चलते , इस तरह के किस्से कम होते हुए ठहर गये। आजकल जो किस्से आते हैं उनके घर के किचन गार्डन में मूली और दीगर सब्ज़ियाँ उगाने की जिस तरह कहानी आती है उसके चलते कल मिलने पर हमारा सबसे पहला सवाल था -“भइया यहाँ से इंजीनियरिंग करके वहाँ सब्ज़ी उगाने गये थे क्या?”
लेकिन इसके लिए अतुल या किसी को क्या दोष देना। आजकल जिसको जो काम सौंपा गया वह उसको छोड़कर दूसरे काम में जुटा हुआ है। हर जगह डायवर्सिफ़िकेशन चल रहा है।
बहरहाल बात मुलाक़ात की । विदेश से देश लौटने पर लोगों के पास दिन होते हैं गिनेचुने , मिलने का मन होता है बहुत लोगों से। लोग भी मिलना चाहते हैं। दिन, घंटे और जगह तय होती है। मिलना होता है।
अतुल से मिलने की बात तय हुई थी 27 को लखनऊ में। हिमांशु बाजपेयी Himanshu Bajpai के साथ। हमारा ग्रुप भी बन गया कार्यक्रम तय करने के लिए। लेकिन फिर अरविंद तिवारी Arvind Tiwari जी के उपन्यास ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ पर 26 को होने वाला कार्यक्रम 27 को शिफ्ट हो गया। लिहाज़ा हमारा लखनऊ जाना निरस्त हो गया। अतुल का भी कार्यक्रम बदला और हमारा 26 को मिलना तय हुआ।
बहरहाल मिलने के लिए बाहर कोई ‘ठीक-ठाक’ जगह खोजी गई। तय हुआ कि गोविन्दनगर के होटल दीप में मिलना होगा।
ये ‘ठीक-ठाक’ जगहों पर मिलने वाली बात लिखने-पढ़ने वालों की समाज में स्थिति की कहानी है। लोग लिखने-पढ़ने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखते। घर में घुसने नहीं देना चाहते हैं। मजबूरी में लोग बाहर मिलते हैं।
समय तय हुआ था सुबह साढ़े आठ बजे का। मिलनातुर लोग आठ ही बजे पहुँच गये। हमने अपने नामराशी अनूप शुक्ला Anoop Shukla को भी न्योता उछाल दिया -आओ,जलेबी खिलाते हैं। अनूप शुक्ला ने निमंत्रण स्वीकार तो किया लेकिन इस शर्त के साथ कि जैसे ही फ़ोन आएगा घर से , वो भाग लेंगे। उनकी ड्यूटी घर ताकने के लिए लगी थी।
दीप होटल में कोई चाय-पानी या बैठने का जुगाड़ नहीं था। इसके बाद कई जगह भटके। घंटा भर तो बैठने की जगह में भटकते रहे। आख़िर में किसी ने जगह सुझाई -चाय बार। पहुँचे तो चाय बार तो बंद था लेकिन बैठने के लिये ज़मीन में एक फुट ऊपर तक उगे पेड़ों के तने उपलब्ध थे। वहीं बैठकर मुलाक़ात हुई।
तमाम नई पुरानी यादें ताज़ा हुईं। अतुल ने फिर से लिखना शुरू करने का प्रण लिया। किताब फ़ाइनल करने का भी। इंजीनियर के अमेरिका जाकर किसान बन जाने की बात पर अतुल ने बताया कि सभी यही कहते हैं। इसी सिलसिले में बात चली कि कानपुर से कंप्यूटर की पढ़ाई करके सालों पहले कुवैत पहुँचे जीतेन्द्र चौधरी Jitendra Chaudhary आजकल घर, दफ़्तर या जहां बताओ वहाँ कैंडल लाइट डिनर की व्यवस्था का इंतज़ाम करने में लगे हैं आजकल।
बात देश दुनिया की भी हुई। अतुल ने बताया कि जब अमेरिका में बाढ़ में तबाही मची हुई थी तो वो दुनिया को चौड़े होकर बता रहे थे -‘सब कुछ ठीक है।’ बुश को क्या कहें अब तो वो रिटायर हो गये। आज भी हर जगह यही हाल है।
बातचीत के दौरान अनूप शुक्ला की उनके घर से पुकार लगी। वो फ़ोटो खिंचाकर फूट लिए। बाकी बचे तीन लोग मतलब अतुल , उनके जीजा जी और हमने वहीं एक चाय की गुमटी पर खड़े होकर चाय पी। फ़ोटो उसने फ्री ने खिंचवा दिये। मिल-मिलाकर हम लोग वापस लौट आये। तय हुआ कि अगले महीने की संभावित अमेरिका यात्रा के दौरान हम लोग फिर से मिलेंगे और अतुल हमको ‘क़ायदे से फ़िलेडेल्फ़िया घूमायेंगे’।
कल की मुलाक़ात में चीनी कितने चम्मच, कानपुर की घातक कथाएँ और मोहब्बत २४ कैरेट के लेखक मृदुल मृदुल कपिल को भी साथ होना था। लेकिन एन समय पर उनको दफ़्तर के काम से बाहर जाना पड़ा और वे आ न पाए। नौकरी जो न कराये।

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Thursday, November 17, 2022

प्यार बड़ा अनमोल और अनोखा एहसास है

 काठमांडू एयरपोर्ट पर वे बच्चियाँ मिलीं। दुबई जा रही हैं। किसी स्कूल में केयरटेकर का काम मिला है। माथे पर चावल और सिंदूर का शुभकामना टीका और गले में शुभकामना का दुपट्टा।

बारहवीं तक पढ़ी है बीच में बैठी बच्ची। उसके बग़ल में पीला दुपट्टा लटकाए बच्ची अभी 11 में ही है। तीनों के मुँह में लालीपाप है। लालीपाप चूसती हुई, मोबाइल पर बतियाती-मेसीजियती हुई बच्चियाँ अपनी उड़ान के इंतज़ार में हैं।
बातचीत के बाद बच्चियों के फ़ोटो खींचे। लाल टीका लगाए बच्ची बोली -“बहुत प्यारा फ़ोटो है। मुझे भेज दीजिए।”
कैसे भेजें पूछने पर बच्ची ने मेरे हाथ से मोबाइल लिया और अपना नम्बर सेव कर दिया। हमने फ़ोटो भेज दिया। अंजिता गिरी नाम है बच्ची का ।
फ़ोटो मिलने के बाद बच्ची ने पूछा -“आपका नाम ओनुप है ?”
हमने कहा -“हाँ। अनूप ।”
हमने उसको यात्रा और भविष्य की शुभकामनाएँ दीं। उसने शुक्रिया कहा।
कैसा लग रहा है दुबई जाते हुए पूछने पर बताया -“अंदर से अच्छा लग रहा है। बाहर से ख़राब भी।”
सिक्किम में पढ़ाई की हुई बच्ची के दस अक्टूबर के स्टेट्स में लिखा है -“ Deeply love to the person who broke my heart 💓
प्यार बड़ा अनमोल और अनोखा एहसास है। प्यार के बिना कोई दुनिया सूनी है।

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Monday, November 14, 2022

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे



आजकल अक्सर चीजें खोने लगी हैं। खोती हैं फिर कुछ देर बाद मिल जाती हैं। लुका-छिपी सी खेलती हैं। कोई-कोई चीज तो महीनों बाद मिलती है। जब कोई चीज बहुत दिन तक नहीं मिलती तो उसकी याद आती है। अंदाज रहता है कि कहाँ होगी। सोच कर फिर लगता है कि मिल जाएगी। अक्सर मिल भी जाती हैं। लेकिन कई बार वे चीजें दूसरी जगह मिलती है। चीजें भी छलिया होती हैं। बदमाशी करने में मजा आता है उनको।
पिछले दिनों पासपोर्ट की खोज हुई। शाहजहांपुर से कानपुर आये सामान में कहीं रखा था। सामान अभी खुला नहीं है। सामान के समुद्र में पासपोर्ट का मोती कैसे खोजा जाए। एक के ऊपर एक डिब्बे। पता नहीं किस डिब्बे में रखा है। पैक करते समय लगता है याद रहेगी जगह। लेकिन कुछ देर बाद याद फैक्स मेसेज की स्याही की तरह उड़ जाती है। लगाते रहो अंदाज।
हमारी याद में पासपोर्ट किताबों के बक्से में था। बीस-पच्चीस बक्सों में बारह-पन्द्रह मिले। बाकी डिब्बे भी गुम। जो मिले उनको खोजने पर पढ़ी, अधपढी और अधपढ़ी किताबें दिखीं। हर किताब शिकायत मुद्रा में। पढ़ी किताब कह रही थी -पढ़कर भूल गए हरजाई। अधपढी कह रही थी -मंझधार में छोड़ गए बेवफा। अनपढी किताब कह रही थी -पढ़ना नहीं था तो लिया क्यों? हर किताब को शिकायत थी -'कब तक यहां अंधेरे में डिब्बों में बन्द रहेंगे हम लोग। एक के ऊपर लदे हैं। कम से कम उजाले में रैक में तो रखो। हर किताब मानों शाप मुद्रा में घूर रही थी। गोया कह रही हो-'तुमने हमारी बेइज्जती खराब की है इसीलिए नहीं मिल रहा तुम्हारा पासपोर्ट। हमारे समर्थन में छिप गया है पासपोर्ट। आखिर वो भी तो किताब है।'
बहुत खोजने पर नहीं मिला तो सोचा अब नहीं मिलेगा। निराश हुआ जाए थोड़ी देर। लेकिन मनचाही होती कहाँ है? एक झोले को ऐसे ही देखा तो उसमें दिख गया। बदमाश आराम से बैठा दूसरे कागजों के साथ गप्पें लड़ा रहा था। हमने हड़काया -'तुमको तो किताबों के साथ होना चाहिए था यहां कहाँ छिपे हो?' बोला -'आजकल किताबों और शरीफ आदमियों के साथ रहने का चलन कहाँ। हम इसीलिए ऐन टाइम पर इधर झोले में आ गए थे। खुला रहता है। आराम है यहां।'
चपतिया के पासपोर्ट को जेब में डाला और किताबों को बॉय बोलकर वापस आ गए।
अभी पासपोर्ट खोए मिले एक दिन भी नहीं हुआ होगा कि कल सुबह-सुबह मोबाइल गुम हो गया। पासपोर्ट के साथ कुछ देर एक ही जेब में रहकर उससे गुम होने का किस्सा सुना होगा। उसको भी शौक चर्राया खोने का।
सुबह खोजने पर नहीं मिला मोबाइल तो घण्टी बजाए। रिंग पूरी गयी। लेकिन सुनाई नहीं दी। रिंग जाने से लगा कि किसी ने चुराया नहीं है। बस मोबाईल ऐसी किसी जगह है जहां हम उसे भूल गए हैं।
याद करने लगे कल कहां गए थे। पासपोर्ट खोजने गए थे वहां गए। घण्टी बजी लेकिन आवाज नहीं सुनाई दी। कार में झुककर अंदर तक खोजा। मुंडी टकराई सीट से। लेकिन मोबाइल नहीं मिला।
मोबाइल खोजते हुए एहसास होने लगा कि खो गया है मोबाइल। अब मोबाइल खोने की कल्पना करके नुकसान का अंदाज लगाने लगे। ऑफिशियल मेल खुलने का दरवाजा मोबाइल में है। उनको देखने का जुगाड़ बदलना होगा। तमाम फ़ोटो मोबाइल में हैं वो खो जाएंगे। लैपटॉप, घड़ी के पासवर्ड के लिए बच्चा फिर हड़कायेगा।
जैसे-जैसे मोबाइल मिलने में देर होती गयी, तय होने लगा कि मोबाइल गया अब। सोचने लगे कि जहां-जहां कल गए होंगे वहां भी जाएंगे यह पक्का जानते हुए भी कि वहां नहीं होगा। यह भी लगने लगा कि जिसको मिलेगा वह मेरी फोटुएं देखकर फोन करके फोन छुड़ाने की फिरौती मांगेगा। फिरौती दो नहीं तो सबको दिखा देगे ऐसी आती है फोटुएं।
मोबाईल फिरौती वाली बात वाले समय में हकीकत बन सकती है। जिस कदर लोग अपने मोबाइल में सब कुछ रखने लगे हैं उससे वह इतना प्यारा और अनमोल होता जा रहा है कि लोग मोबाइल का अपहरण करके फिरौती मांगने लगे यह बड़ी बात नहीं।
बहरहाल, फाइनली तय किया कि मोबाइल खोने की सूचना अफवाह नहीं एक सच्चाई है और निराश होने का निर्णय लिया जाय। झोला जैसा मुंह लटकाए घर वापस आये तो नजर सामने पड़े बैग पर पड़ी। अनमने मन से उसको खोला तो सबसे ऊपर मोबाइल पड़ा मुस्करा रहा था। देखकर लगा भजन गा रहा हो -'मोको कहां खोजे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।'
हाथ में चिपटाकर हड़काया उसको -"बदमाश कहीं के सुबह से खोज रहे हैं तुमको और तुम यहाँ छिपे बैठे हो। कित्ती आवाजें दी तुमको, तुम बोले तक नहीं।" मोबाइल रुंआसा होकर बोला -"बोलते कैसे? हमारा बोलती तो आधुनिक लोकतंत्र में मीडिया की तरह बन्द है। बाइब्रेशन पर धर दिए गए थे हम। तुम्हारी सारी की सारी काले हमारे पेट में हलचल मचा रहीं थीं। हर काल पर जी हो रहा था कि चिल्ला के बोलें हम यहां हैं। लेकिन कैसे बोलते। हम तो बाइब्रेशन पर थे। खुले में धरे होते तो इधर -उधर हिलते भी। यहां कागज के बीच में हिलना-डुलना तक मोहाल। हमको साइलेंट या बाइब्रेशन में रखोगे तो कैसे बोलेंगे? हमारी बोलती बंद करोगे तो ऐसे ही परेशान होंगे। "
हमने मोबाइल को पुचकारा। पास ही में धरे मोबाईल को मिलने की खुशी मनाने के लिए चाय पी। पीते हुए थोड़ी छलकाई भी। मोबाईल आराम से सामने पड़ा अपने उपयोग का इंतजार कर रहा था।
हमने मोबाईल को पुचकार कर पोस्ट लिखना शुरू किया। वो भी खुश , हम भी खुश। आप भी खुश हो जाइए -'जो होगा देखा जायेगा।'

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Monday, November 07, 2022

इंग्लिश दारू पीने में मजा नहीं आता



ओवरब्रिज के पास सीटी बजाते दिखे बाबा जी। सीटी सुनते ही आसपास से कई कुत्ते पूंछ उठाये भागते चले आये। सब बाबा जी द्वारा वहीं जमीन पर रखे समोसे, छोले खा रहे थे। बाबा जी तसल्ली वाले वात्सल्य से खड़े उनको देख रहे थे।
बात हुई तो पता चला बाबा जी ओवरब्रिज के आसपास सामान की देखभाल के लिए चौकीदारी करते हैं। रात की ड्यूटी। अकेले रहते हैं। रोज कुछ न कुछ आसपास के कुत्तों को खिलाते रहते हैं। कुत्ते इंतजार करते हैं। एक आवाज में दौड़े चले आते हैं पूंछ उठाये। टूट पड़ते हैं खाने पर।
"सब हमारी तुम्हारी तरह ही जीव हैं। जो बन सकता है खिला-पिला देते हैं।"- कहने वाले बाबा जी पास ही रनियां के रहने वाले हैं। दो भाई , तीन बहने हैं। भाइयों-बहनों के परिवार हैं। बाबा जी अविवाहित रहे। कारण पूछने पर बताया-'पिता हमारे बोले-हमारे पास खर्चे के पैसे नहीं हैं। तुम शादी न करना। हमने नहीं की।'
आज के समय के हिसाब से पिता की इतनी बात मानने वालों की कल्पना मुश्किल है। बाबा जी के यहां परम्परा का भी दबाब रहा होगा। चंद्रपाल कमल नाम है। कबीरपंथी हैं।
"पिता की बात मानकर शादी नहीं कि तो कभी-कभी लगता होगा कि हमारा भी परिवार होता। जीवनसाथी होता?"
हमारी इस बात का सीधा जबाब न देकर बोले-"लोग मजे लेते हैं। मेला, नौटंकी में नचनियां मजे लेती हैं। कहती हैं -ये बुढ़ऊ शादी काहे नहीं करते। तो उनकी बात का बुरा न मानते हुए समझाते हैं मन को।"
फिर बात कुत्तों के बहाने जीवों पर आई। बोले-"सब जीव को जिंदा रहने का हक है। किसी को मारना ठीक नहीं। कल-परसों कुछ लोग, शायद छत्तीसगढ़, विलासपुर के होंगे जो यहां मंजूरी करने आये हैं, गुलेल से चिड़ियों को मार रहे थे। हमने टोका-'खबरदार, मारना नहीं इनको।' फिर रुके वो।"
रात भर की चौकीदारी के सात-आठ हजार रुपये मिलते हैं। हमसे बोले -"कहूँ दस-पन्द्रह हजार की परमानेंट चौकीदारी होय तौ बताव। हियन तो पुल बन जाई , काम खत्म हुई जइहै।"
अब काम कहाँ दिलवा दें। आजकल सबसे ज्यादा शोषण असंगठित क्षेत्रों की मजदूरी का हुआ है। न्यूनतम मजदूरी के कानून के बावजूद मजदूरी का बड़ा हिस्से ठेकेदार धर लेता है। एक के पीछे दस लोग , घटी मजदूरी पर भी, काम करने को मौजूद हैं।
कोई मिलेगा तो बताएंगे, कहकर हम आगे बढ़ गए। हालांकि हमको और बाबा जी दोनों को भरोसा है कि ऐसा कभी होगा नहीं।
आगे सड़क किनारे चूल्हा सुलगाये कुछ लोग खाना बना रहे थे। ईंटो का चूल्हा, सड़क किनारे की लकड़ी और सड़क पर जम गई रसोई। धूल-धक्कड़ भरी सड़क पर बनती मोटी रोटियां। वहीं सेंककर एक ईंट पर रखते जा रहे थे बनाने वाले। बतियाते भी जा रहे थे।
चार लोग मिलकर बना रहे थे। कोई आलू लाया, कोई आटा कोई मीट , कोई दारू। साझा रसोई। किटी पार्टी। बोले -'हम लोग इसको हलकालू कहते।' हलकालू मलतब किटी पार्टी। सामुदायिक रसोई।
रोटी बनाने वाला हवा भरने, पंचर बनाने का काम करता है। बातचीत से अंदाज लगा -'दारू के सुरूर में है सब लोग।' पूछने पर कन्फर्म भी हुआ। एक बोले-'रात को एक क्वार्टर तो चाहिए। दिन भर तक जाते हैं पल्लेदारी से।'
पल्लेदारी मतलब बोझा, मूलतः बोरे ढोने का काम। पास ही गल्ला गोदाम में काम करते हैं। कानपुरी झुमला -'झाड़े रहो कलट्टरगंज' पल्लेदारों के चलते ही बना।
दारू की बात चली तो बोले-'हमको देशी ही चढ़ती है। इंग्लिश में मजा नहीं आता। बोतल खाली कर दें फिर भी शुरुर न आये। देशी ठीक है। एक क्वार्टर ने काम चल जाता है। 65 रुपये में आता है एक क्वार्टर।
इस बीच एक साइकिल वाला आया। हवा भरवानी थी उसको। रोटी बनाने वाले ने बोला -'देख लेव होय कम्प्रेशर मां तौ भर लेव।' साइकिल वाले ने छुच्छी में कम्प्रेशर का पाइप लगाया। भरकर चला गया।
हमने दारू के नुकसान की बात कही तो हमपर हंसे वो। बोले -' अच्छा खाना खाओ, कुछ नुकसान नहीं करती। हम तो दिन में चार क्वार्टर पीते हैं।'
हमने ताज्जुब किया -'चार क्वार्टर। बहुत है ये तो।'
'अरे तो कोई एकसाथ थोड़ी पीते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में पीते हैं। दिन भर में खत्म करते हैं चार क्वार्टर। कोई नुकसान नहीं करती।' -दारू विशेषज्ञ ने बताया।
इस बीच एक बच्चा आ गया। हमको जानता है तो पास खड़ा हो गया। उसकी तारीफ करते हुये बोला -"बहुत माई डियर बच्चा है। बहुत तहजीब से बात करता है। बहुत आगे जाएगा। बहुत इंटेलीजेंट है।"
बच्चे के कंधे पर हाथ रखे हम उसकी बात सुनते रहे। बच्चे के पिता ई-रिक्शा चलाते हैं। मां किसी और के साथ चली गयी हैं। पिता अपने बच्चों को पालते हैं। दीपक की कोचिंग में पढ़ता है। वहीं मुलाकात हुई थी।
हमारी बातचीत को वहीं एक व्हील चेयर पर बैठे बुजुर्ग भी चुपचाप सुन रहे थे। बीच-बीच में मुस्कराते भी जा रहे थे। उनको भी इस किटी पार्टी हला कुली में शामिल किए जाने की आशा होगी।
पार्टीबाजो को वहीं छोड़कर हम आगे बढ़े। हमको दवा लेने जाना था। रास्ते में सड़क किनारे एक मूंगफली वाले बहंगी में मूंगफली रखे सड़क पर बैठे मूंगफली बेच रहे थे। मूंगफली ली। 25 रुपये की सौ ग्राम। छिली हुई 35 की सौ ग्राम। मतलब 100 ग्राम मूंगफली छीलने के दस रुपये। मतलब अगर कोई दस किलो मूंगफली छील ले तो हजार रुपये का काम हो गया।
रोजगार के अवसर हर जगह हैं। कोई करे तो सही।
मूंगफली वाले रामनाथ जी ने बताया कि फैजाबाद के रहने वाले हैं। खुद मूंगफली लाते हैं। अपने सामने भुजंवाते हैं। एक भी खराब मूंगफली नहीं रखते। शाम 4 से रात 10 तक बेंचते है मूंगफली। बाकी दिन तैयारी, खाना-पीना।
"जब मूंगफली का सीजन नहीं होता तो क्या करते हैं? " पूछने पर बोले -"वापस गांव चले जाते हैं। फिर सीजन पर आते हैं।"
"मेट्रो के चलते सड़क बन्द हो गयी तो बहुत नुकसान हुआ। पहले लोग किलो-किलो लेकर जाते थे। बंधे ग्राहक थे। सड़क बन्द होने से बिक्री पर बहुत असर हुआ।"यह बात एकदम निर्लिप्त भाव से कही रामनाथ जी ने।
मूंगफली लेकर हम वापस चल दिये। आधी रास्ते में निपटा दी। बाकी घर में। एक भी मूंगफली खराब नहीं निकली। हर दाना गबरू, जवान। 'नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना' घराने के दाने। अगले दिन फिर गए। फिर ली मूंगफली। अभी खत्म नहीं हुई हैं। आइए खिलाये।
कोई इंसान फैजाबाद से कानपुर मूंगफली बेंचने आता है। मूँगफली का सीजन खत्म होने पर वापस फैजाबाद चला जाता है। न जाने कितनी यादें होंगी रामनाथ और उनके जैसे लोगों की। हर इंसान अपने में एक महाआख्यान होता है।
लौटते में देखा तो हलाकुली वाली रसोई बढ़ चुकी थी। लोग खा-पीकर जा चुके थे। बाबा जी अलबत्ता एक कुर्सी पर बैठे चौकीदारी कर रहे थे। एक कुत्ता उनके सामने बैठा कुछ खा रहा था।
'ये कुत्ते आपके प्रति बहुत प्रेम रखते हैं। मोहब्बत करते हैं।' हमने कहा।
बोले -"सब मोहब्बत कौरे की है। हमसे खाने-पीने को मिलता है तो आ जाते हैं बेचारे।" कहते हुए बैठने के लिए कुर्सी ऑफर की। कुत्ते को थोड़ा दुलराया भी।
लेकिन हम बैठे नहीं। देर हो गयी थी। घर आ गए।

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