Wednesday, January 18, 2023

अमेरिका में नानी टैक्सी ड्राइवर



कल सुबह यहाँ धूप खिली। सुबह सुहानी हो गयी। सड़क पर धूप की क़ालीन सी बिछी थी। आसपास भी सब जगह धूप का क़ब्ज़ा था। पेड़-पौधे, पानी और पुल पर धूप ही धूप। पेड़ से धूप मनमर्ज़ी से ऊपर-नीचे हो रही थी। सूरज भाई अपना जलवा देखकर मुस्करा रहे थे। हमको देखकर डबल मुस्कराने लगे। बोले -‘हाऊ आर यू?’ हम बोले -‘फ़ाइन थैंक यू।’ सूरज भाई मज़े लेने लगे -‘ढेर अंग्रेज़ी सीख गए हो? कहाँ निकल लिए सबेरे-सबेरे?’
हम बोले ज़रा जा रहे हवाई अड्डे तक। दीदी को लेने। बोले -‘ठीक है, जाओ।’
हवाई अड्डे के लिए टैक्सी बुला रखी थी। यहाँ एक ही जगह के लिए टैक्सी के अलग-अलग रेट हैं। तुरंत वाली के अलग। दस-पंद्रह मिनट इंतज़ार वाली के अलग। इनको वेट एंड सेव राइड (wait and save) मतलब इंतज़ार करो और पैसे बचावो। इंतज़ार वाली टैक्सी के पैसे कम पड़ते हैं। कुछ देर इंतज़ार करने में चार-पाँच डालर मतलब 300-400 रुपए बच जाएँ तो क्या बुरा? इतना तो अपने यहाँ एक आदमी की दिहाड़ी होती है।
वेट एंड सेव वाली टैक्सी राइड देखकर फिर लगा कि यहाँ समय की कितनी क़ीमत है।
टैक्सी बुक की बताया गया - मेगन आ रही हैं बारह मिनट में। अपनी सवारी पूरी करने के बाद। इंतज़ार के मिनट कम होते हुए ज़ीरो हुए और गाड़ी सामने आकर खड़ी हो गयी। मेमन ने पूछा -‘अनूप?’ हमने कहाँ -‘एस और गुड मार्निंग बोलकर बैठ गए?’
बात मौसम से शुरू हुई। मेगन खिली धूप से खिली हुई थीं। प्रफुल्लित। बताया कि सुबह सात बजे निकली हैं। यह उनकी दूसरी राइड थी। घर चलाने के लिए टैक्सी चलाती हैं। घर में बेटी और बेटे हैं। शाम तीन बजे तक टैक्सी चलाएँगी। इसके बाद घर वापस। अमूमन सुबह सुबह पाँच बजे निकलना पसंद करती हैं लेकिन कल सात बजे निकली।
टैक्सी के भुगतान बारे में मेगन ने बताया कि उनको भुगतान हर ट्रिप के बाद हो जाता है। यह विकल्प उन्होंने चुना है। कुछ लोग हफ़्ते में भुगतान का विकल्प भी चुनते हैं। यहाँ कोई ड्राइवर पूछता नहीं कि भुगतान आनलाइन करेंगे कि नक़द।
भारत में ओला बुक करने पर ड्राइवर पहले पूछता है -‘भुगतान नक़द (ड्राइवर को) करोगे की ओला से?’
ओला या कम्पनी को आनलाइन भुगतान पर अधिकतर ड्राइवर बुकिंग कैंसल कर देते हैं। ड्राइवर को भुगतान के नाम पर राज़ी हो जाते हैं। इसका कारण पता करने पर बताया कई ड्राइवरों ने कि ओला वाले तीन दिन बाद भुगतान करते हैं। इस बीच गैस के खर्च के लिए उनके पास पैसे नहीं होते! इसीलिए वो लोग नक़द भुगतान के लिए आग्रह करते हैं।
कल मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जन्मदिन होने के कारण राष्ट्रीय अवकाश था। आफिस और स्कूल बंद थे। मार्टिन लूथर किंग का जन्मदिन 15 जनवरी,1929 को हुआ था लेकिन पूरे अमेरिका में इसे जनवरी के तीसरे सोमवार को मनाया जाता है। इस बार यह 16 जनवरी को मनाया गया। गए साल 17 जनवरी को (तीसरे सोमवार ) मार्टिंग लूथर किंग का जन्मदिन मनाया गया था।
इसके अलावा और भी तमाम बातें हुईं लेकिन वो सब भाषायी घपले के शिकार हो गए। कुछ हमको उनका उच्चारण नहीं समझ आया उससे ज़्यादा बहुत कुछ उनको हमारी अंग्रेज़ी पल्ले नहीं पड़ी होगी। एक दूसरे के मुँह से निकली ज़्यादातर अंग्रेज़ी वहीं कार से में गिर गयी। झाड़ू लगाई तो तमाम अंग्रेज़ी के वाक्य कार में बरामद हो जाएँगे। लेकिन यहाँ झाड़ू लगाने का चलन नहीं, वैक्यूम क्लीनर चलता है।
यात्रा ख़त्म होने से पहले हमने मेगन से पूछा -‘आपकी जिंदगी का सबसे यादगार पल कौन सा रहा?’
वो बोली -‘जब मेरे बच्चे हुए।’ इसके बाद बोली -‘जब मैं नानी बनी।’
अपने नानी पने के किस्से वो बड़े ख़ुश होकर सुनाती रहीं। बोली -‘मैं बहुत खुश हूँ नानी बनाकर। मेरा पोता दस महीने का हो गया। मैं घर पहुँचकर उसके साथ खूब खेलती हूँ। मुझे बहुत मज़ा आता है।’
मुझे लगा कि महिला कहीं की भी हो उनको माँ-दादी-नानी बनना सबसे अच्छा लगता है। महिलाओं के लिए मातृत्व सबसे शायद ख़ूबसूरत एहसास है।
मैंने पूछा -‘जो बेटी माँ बनी उसकी शादी हो गयी?’
उन्होंने बताया -‘अभी नहीं। वो लोग इस बारे में तय करेंगे। अभी बेटी अठारह साल की नहीं हुई है। जब वो 18 की हो जाएगी तब हो सकता है वो लोग शादी करें।’
अमेरिका में आमतौर पर शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है। लेकिन कुछ प्रान्तों में इसमें कुछ छूट है। कैलिफ़ोर्निया में भी शादी की उम्र 18 साल है लेकिन इससे कम उम्र में अगर वो चाहे तो किसी एक अभिभावक की और जज की अनुमति से पहले भी शादी कर सकते हैं।
अपने देश के चाल-चलन से अलग है यहाँ मामला। उधर इस तरह के अधिकतर मामले ‘आनर किलिंग’ के खाते में ही जुड़ते हैं। यहाँ बच्चा हो गया। शादी के बारे में अभी सोचना है कि होगी कि नहीं। दुनिया के हर समाज में परिवार से जुड़े अलग नियम हैं, अलग चलन हैं। एक समाज के चलन किसी दूसरे समाज के रिवाज से तुलना करने पर कभी बड़े अजीब और अटपटे से लग सकते हैं। लेकिन अलग चलन है तो है। सब अपने हिसाब से चल रहे हैं।
हमको Arrival पर पहुँचना था। मेगन हमको हवाई अड्डे पर छोड़कर और अराइवल का रास्ता बताकर मुस्कराते हुए बाय बोलकर चाली गयीं। हम हवाई अड्डे के अंदर प्रवेश कर गए।

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Monday, January 16, 2023

परदेश में दोस्तों से मुलाक़ात



पिछली बार अमेरिका आए थे तो न्यूयार्क उतरे थे। न्यूयार्क से फ़िलाडेलफ़िया, वाशिंगटन,पोर्टलैंड आदि-आदि होते हुए सैनफ्रांसिसको पहुँचे थे। एक तरह से पूरा अमेरिका नाप लिया था दौड़ते-भागते । इस बार आए हैं तो मौसम की मार ऐसी कि फ़ोस्टर सिटी तक सिमट के रह गए हैं।
एक जगह रह जाने का फ़ायदा भी हुआ कि क़ायदे से आसपास को देख रहे हैं। जमकर आराम कर रहे हैं। मज़े में घूमते हुए टहल रहे हैं। तसल्ली से किस्से लिख रहे हैं।
अमेरिका के क़िस्से पढ़ते हुए कई दोस्तों ने लिखा कि हमारे साथ वो भी अमेरिका घूम रहे हैं। मज़ेदार बात है यह। लेकिन सच तो यह है कि हम खुद बहुत छोटा हिस्सा देख पा रहे हैं। जितना देख पा रहे हैं उसमें से कुछ के बारे में ही लिख पा रहे हैं। फ़ोटो,वीडियो से किसी जगह को देखकर उतना महसूस कर पाना सम्भव नहीं होता जितना रूबरू होकर।
अमेरिका घूमते हुए यह भी लगा कि हमारे अपने शहर के ही न जाने कितने हिस्से अनदेखे हैं। कई जगह तो आजतक नहीं गए। पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है जिस शहर में रहते हुए उसको भी क़ायदे से नहीं देख पाते। यहाँ घूमते हुए सोचा कि लौटकर अपने आसपास को और तसल्ली से देखेंगे।
फ़ेसबुक पर हमारी पोस्ट्स पढ़कर देवास के ओमवर्मा जी Om Varma ने हमको संदेश भेजा कि वे पास में ही सनीवेल में हैं। 16 जनवरी को वापस भारत लौटेंगे। ओमवर्मा जी पहले भी एक मुलाक़ात भोपाल में हुई थी जब हम दोनों पहले ज्ञान चतुर्वदी सम्मान में शिरकत करने पहुँचे थे जिसमें कैलाश मंडलेकर जी को सम्मानित किया गया था।
ओमवर्मा जी व्यंग्यकार हैं। लेकिन उनकी ख्याति श्रेष्ठ दोहाकार के रूप में है। ओम जी समसामयिक घटनाओं पर नियमित चुटीले दोहे लिखते रहते हैं। उनके हाल में दो दोहा संग्रह आए हैं- ‘गांधी दौलत देश की’ और ‘ख़त मौसम का बाँच।’
‘गांधी दौलत देश की’ गांधी जी की आत्मकथा ‘ मेरे सत्य के प्रयोग’ का दोहा रूपांतरण है। ‘ख़त मौसम का बाँच’ में विभिन्न विषयों पर लिखे दोहे संकलित हैं। आजकल की सर्दी के हाल उनके इस दोहे में बयान हैं :
बदन धँसाती ठंड ने, ठिठुरा दिए शरीर
इक टुकड़ा भर धूप को, तरसें शाह फ़क़ीर।
हम लोगों का परिचय का सिलसिला जबलपुर के समय से शुरू हुआ। ओम वर्मा जी हमारे जबलपुर के रोजनामचों को हमारा अच्छा लेखन मानते हैं। ‘पुलिया पर दुनिया’ की रंगीन प्रति अपने पिता जी के पढ़ने के लिए ख़रीदी थी। उस पर उनके पिताजी की हस्तलिखित प्रतिक्रिया मेरे लिए उस किताब पर सबसे आत्मीय उपलब्धि है।
ओम वर्मा जी पास ही में थे इसलिए उनसे मिलने की बात हुई। बस मौसम की हरी झंडी का इंतज़ार था। 12 जनवरी को उनका संदेश आया - ‘आज मौसम बिल्कुल साफ़ है।’ मतलब मुलाक़ात की जाए।
संदेशे के मुताबिक़ हम फ़ौरन तैयार होकर निकल पड़े। नक़्शे के मुताबिक़ हमारे ठिकाने 25.7 मील (41.12 किमोमीटर) दूर थे। टैक्सी के दो विकल्प आए हमारे पास। फ़ौरन के लिए 42 डालर के क़रीब। 15 मिनट तक आने के लिए 37.83 डालर। समय की कोई तंगी थी नहीं हमको। हमने पंद्रह मिनट वाला विकल्प चुन कर टैक्सी बुक की। इंतज़ार करने लगे। सोचा आएगी आराम से 15 मिनट में। लेकिन हमारे बुक करते ही हमारा मोबाइल थरथराते हुए बताने लगा -‘गाड़ी तीन मिनट में आ रही है। बाहर निकलकर खड़े हो जाएँ।’ बाहर तो हम खड़े ही थे। संदेश के बाद सावधान भी हो गए।
तीन मिनट होते-होते गाड़ी आ गयी। गाड़ी स्टार्ट होते ही ड्राइवर सैंटियागो (Santiago) से बातचीत भी शुरू हो गयी। मूलतः ब्राज़ील के रहने वाले सैंटियागो 2015 में अमेरिका आए। 40 साल की उमर है। 40 साल की बाली उमर में पाँच बच्चों के पिता बन चुके सैंटियागो की पत्नी भी साफ़-सफ़ाई आदि के काम करती हैं। अभी वर्किंग वीज़ा पर हैं। गाड़ी चलाते हैं। आगे रहने के जुगाड़ के लिए एक कम्पनी में काम करते हैं जो साफ़-सफ़ाई, घर बदलने की सेवा और मरम्मत आदि के काम करती है। कोई ज़रूरत हो तो सेवा के लिए अपनी कम्पनी का कार्ड भी थमा दिया सैंटियागो ने।
पाँच बच्चों का भरण-पोषण, पढ़ाई-लिखाई मुश्किल काम है। इन बच्चों में दो जुड़वा हैं। अमेरिका में पैदा हुए। बाक़ी बच्चे ब्राज़ील की पैदाइश हैं।
’40 की उमर में पाँच बच्चे, कोई परिवार नियोजन का उपाय नहीं अपनाया? ‘ यह सवाल हमारे मुँह से निकलते ही गाड़ी धीमी हो गयी। हमको लगा कि अगला -‘यह पूछने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?’ कहकर गाड़ी से उतार देगा। लेकिन गाड़ी धीमी होने का कारण आगे का ट्रैफ़िक था। थोड़ा आगे गाड़ी थी इस लिए गाड़ी धीमी की थी ड्राइवर ने। गाड़ी की स्पीड बहाल होने पर ड्राइवर ने पूछा -‘क्या पूछा आपने मैं समझ नहीं पाया?’ हमने सोचा अच्छा हुआ नहीं समझ पाए। कभी-कभी भाषा की दूरी भी बचाव का काम करती है।
हमने कहा -‘मैं पूछ रहा था कि ब्राज़ील के हाल कैसे हैं?’
उसने तल्ख़ी से कहा -‘बहुत भ्रष्टाचार है वहाँ। जीना मुश्किल है। इसीलिए हम यहाँ भटक रहे हैं।’
हमें लगा कि शायद हर जगह के कमोबेश यही हाल हैं। कहीं कम, कहीं ज़्यादा। जहां तानाशाही है वहाँ के तो सही हाल ही नहीं मिलते।
बातचीत करते हुए कब रास्ता पूरा हो गया पता नहीं चला। 41. 12 किलोमीटर की दूरी 36 मिनट में तय हो गयी। हम ओमवर्मा जी के ठिकाने पर थे। ड्राइवर हमको छोड़कर चला गया।
वर्मा जी ठिकाने पर पहुँचकर उनको फ़ोन किया तो वे बाहर आए। उनकी बिटिया संघमित्रा का काम घर से चल रहा था। दामाद जी आफिस गए थे। पहुँचते ही समोसा, चाट, चाय आदि का शानदार नाश्ता हुआ। इसके बाद बातों की पतंगे उड़ी। तमाम यादें साझा हुईं।
वर्मा जी नोट छापने के कारख़ाने बैंक नोट प्रेस देवास से 2014 में रिटायर हुए थे। 93 की उम्र के पिताजी की देखभाल के चलते कहीं निकलना नहीं हो पाता था। इस बार निकले तो बेटे के पास आस्ट्रेलिया और बिटिया के पास अमेरिका आ गए। पिताजी छोटे भाई के साथ देवास में हैं।
खाने-पीने-बतियाने के बाद चलने का समय भी आया। चलने से पहले ओम वर्मा जी ने अपने दोहा संग्रह ‘गांधी दौलत देश की’ और ‘ख़त मौसम का बाँच’ भेंट किया। मैं अपने साथ अशोक पांडेय Ashok Pande की धूम मचाऊँ अनूठी क़िस्सागोई से लबरेज़ से उपन्यास लपूझन्ना उनके लिए ले गया था। हम लोगों ने किताबें एक-दूसरे को देते हुए फ़ोटो खिंचाई -ताकि सनद रहे।
इस बीच हमारे कालेज के मित्र संजीव अग्रवाल Sanjeev Agrawal वहाँ आ गए। संजीव हमारे बैच के इलेक्ट्रिल इंजीनियरिंग के टापर थे। शरीफ़ बच्चों जैसी इमेज। लेकिन हर शरीफ़ इंसान की बदमाशियाँ भी होती हैं जो उनके ख़ास दोस्तों को पता होती हैं। यह दोस्तों की उदारता ही होती है कि इंसान बाद में भी शरीफ़ माना जाए। संजीव से अमेरिका आने के बाद से संदेशबाज़ी हुई लेकिन बात नहीं हो पायी थी।
संजीव से मिलना पहले से तय नहीं था लेकिन जब पता चला कि हम सनीवेल में हैं तो पास ही होने के कारण अपना घर से चलने वाला आफिस छोड़कर आ गए। कुछ उसी तरह जैसे कालेज में मूड न होने पर क्लास से फूट लेते थे। संजीव ने कहा -‘चलो कहीं चाय पीते हैं।’
हमने कहा -‘चाय पीना है तो घर चलो।’
संजीव चाय पीने के लिए 41.12 किलोमीटर दूर हमारे घर तक आए। चाय पी और रात होने से पहले वापस लौटे। इस दौरान कालेज, घर-परिवार, दुनिया जहान की बाते हुईं। इधर-उधर की, न जाने किधर-किधर की। इतनी सारी बातें हुईं कि सब गड्ड-मड्ड होकर ज़ेहन में सुरक्षित हो गयीं।

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Sunday, January 15, 2023

मेट्रो की भूलभुलैया और साझे की टैक्सी



सेनफ़्रांसिस्को से अगले स्टेशन तक पहुँचने में ही अपन का ‘मेट्रो यात्रा’ उत्साह हवा हो गया। कहीं से पता नहीं चल रहा था कि फ़ोस्टर सिटी तक कैसे पहुँचेंगे। घबराकर मेट्रो यात्रा का संकल्प त्यागकर हम अगले स्टेशन पर उतर गए। अगला स्टेशन मिलब्रे था। तय किया कि अब आगे टैक्सी से वापस लौटेंगे।
स्टेशन से बाहर आने के पहले हमने वहाँ मौजूद महिला सहायक से पूछा कि फ़ास्टर सिटी कैसे जा सकते हैं मेट्रो से। उसने बताया कि अगले प्लेटफ़ार्म से दूसरी ट्रेन लेनी होगी। उसके लिए दूसरा टिकट लेना होना। हमारे पास वाला टिकट काम नहीं आएगा।
महिला की बात कुछ समझ में आई मुझे, कुछ नहीं आई । हमने दो बार फिर पूछा। उन्होंने बताया। तीसरी बार तरीक़ा पूछने पर उन्होंने कहा -‘लगता है आप मेरी बात समझ नहीं आ पा रहे हैं। मैं ज़रा इनकी सहायता कर दूँ फिर आपसे फिर बात करती हूँ।’
वहाँ पर एक और सज्जन मौजूद थे। उनको भी हमारी जैसी ही कोई समस्या थी। उनको समझाने के बाद उन्होंने मुझे फिर समझाया। हम मेट्रो का रास्ता तो नहीं समझ पाये लेकिन यह जरुर समझ गए कि मेट्रो यात्रा का विचार त्याग देना ही उचित है।
हमारी इस बातचीत से और दीन दुनिया से निर्लिप्त एक नौजवान जोड़ा पास ही खड़ा एक दूसरे को चूमने में तल्लीन था। लड़का-लड़की एक दूसरे के होंठ बारी-बारी से चूम रहे थे। चूम क्या जैसे एक-दूसरे के होंठ साफ़ कर रहे हों वाइपर की तरह। हमने उनको महिला सहायक से पूछताछ करने की अवधि तक ही उड़ती नज़र से देखा। पूछताछ के बाद बाहर आ गए।
बाहर आकर लौटने के लिए टैक्सी के एप देखने शुरू किए। उबर और लिफ़्ट दो टैक्सी के एप मेरे मोबाइल में जुड़े हैं। दोनों में बेटे का क्रेडिट कार्ड जुड़ा है। अपन का क्रेडिट कार्ड जितनी बार भी जोड़ने की कोशिश की, कोई न कोई कमी बताकर मना होता रहा। यात्रा ख़त्म होते ही क्रेडिट कार्ड से पैसे कट जाते हैं। ड्राइवर के टिप के पैसे आप चाहे तो जोड़ सकते हैं। वैसे किसी ड्राइवर ने टिप या फिर रेटिंग अच्छी देने का अनुरोध नहीं किया।
मिलब्रे स्टेशन पर जब गाड़ी बुलाने के लिए कोशिश की तो एप ने पूछा -‘किधर आना है? मिलब्रे ईस्ट या मिलब्रे वेस्ट।’ हमको पता नहीं था कि हम किधर खड़े हैं -मिलब्रे ईस्ट या वेस्ट। हमने सोचा कि टैक्सी बुलाने के पहले पता कर लें। कानपुर में एक बार ऐसा हो चुका है कि सेंट्रल स्टेशन पर गाड़ी बुक की तो ड्राइवर घंटाघर की तरफ़ था, हम प्लेटफ़ार्म नम्बर एक कैंट की तरफ़ था। फ़ोन किया तो बेचारा आया। लेकिन यहाँ तो ड्राइवर को फ़ोन करने का चलन कम है। हमने सोचा थोड़ा आगे बढ़कर थोड़ा चाय-वाय पी ली जाए तब बुलाएँ टैक्सी।
आगे बढ़कर मुख्य सड़क पर आए। फुटपाथ पर खड़े होकर सड़क का ट्रैफ़िक देखते रहे कुछ देर। सामने ही मिलब्रे मुस्कान केंद्र (Millbrae Smile Center) नाम से डेंटिस्ट का क्लिनिक था। बग़ल में मनोचिकित्सक का ठिकाना। गाड़ियाँ तेज़ी से सड़क से गुजर रहीं थीं। कुछ देर आती-जाती गाड़ियाँ और सामने की इमारतों को देखते रहे।
बग़ल में ही एक रेस्टोरेंट दिखा- पीटर्स कैफ़े (Peters Cafe)। अंदर घुसते ही लाबी नुमा जगह जहां शायद इंतज़ार के लिए सोफ़े लगे थे। हमने अंदर घुसने से पहले पूछा -‘यहाँ चाय मिलेगी?’ काउंटर पर मौजूद महिला ने चाय के लिए हामी भारी और हम अंदर घुस गए।
चाय के लिए आर्डर देते ही चाय आ गयी। उसके पहले हमको एक अंडाकार मेज़ के सामने एक ऊँची कुर्सी पर बैठा दिया गया। कुर्सी और मेज़ का गठबंधन देखकर क्लबों आदि में पीने-पिलाने की व्यवस्था याद आ गयी। वहाँ बग़ल की मेज़ों में कुछ ग्राहक खाने-पीने में तल्लीन थे।
हमको बैठाकर काउंटर की महिला ही हमारे लिए चाय ले आयी। हमारा कार्ड लिया। कार्ड से पैसे काट लिए और बिल एक फ़ोल्डर में रखकर सामने धर दिया। 3.50 डालर का चाय का बिल और साथ में फ़ोल्डर। फ़ोल्डर शायद ‘टिप’ के लिए था। लेकिन हमको एहसास नहीं हुआ कि यहाँ टिप भी देनी है। हमको लगा कि पैसे काट लिए खुद चाय के तो अब क्या कुछ और देना।
चाय पत्ती पड़ा उबला पानी और दूध अलग-अलग था। चीनी बग़ल में रखी थे। हमने तीन बार में पूरी चाय ख़त्म की। चाय पीते हुए आसपास के नज़ारे भी देखे। कैफ़े के काँच के बाहर सड़क का नजारा साफ़ दिख रहा था। सामने खाना खाती हुई महिला सिगरेट सुलगाते हुए सामने बैठे साथी से बात कर रही थी। इस बीच कैफ़े में घुसी एक महिला दरवाज़े के पास ही लड़खड़ाकर गिर गयी। उसके साथ के बुजुर्ग ने उसको सहारा देने की कोशिश की लेकिन वह महिला सहारे की अनदेखी करते हुए खुद उठी और बुजुर्ग के साथ अंदर आकर एक मेज़ के सामने कुर्सी पर बैठ गयी। बैठते ही वे लोग मीनू देखने में तल्लीन हो गयी। ऐसा लगा ही नहीं उनके हावभाव से महिला कुछ देर पहले दरवाज़े के पास लद्द से गिरी थी।
चाय ख़त्म करके हमने काउंटर पर मौजूद महिला से बातचीत करने के लिए कैफ़े के बारे में पूछा। कितना पुराना है कैफ़े? उसने बताया कि क़रीब 30 साल पुराना है कैफ़े। बाद में देखा नेट पर उसके हिसाब से कैसे 1990 में शुरू हुआ था। हमने कैफ़े के फ़ोटो लेने के बारे में पूछा। उसने कहा -‘ले लो। कोई गल्ल नहीं।’ कैफ़े के फ़ोटो लेने के बाद अपन ने उसका भी फ़ोटो लेने की अनुमति चाही। उसने कहा -‘कोई समस्या नहीं। ले सकते हैं।’ हमने कहा -‘मास्क तो उतारो।’ उसने मुस्कराते हुए मास्क उतारा और हमने उसका फ़ोटो लिया।
चलने से पहले और बातचीत हयी उसके अनुसार वह महिला शुरू से ही पीटर्स कैफ़े से जुड़ी हैं। मूलतः ताइवान की रहने वाली हैं। नाम है -‘टिफिनी।’ इस नाम का मतलब क्या होता है ताइवान में यह पूछना रह गया।
वापस लौटने के लिए हमने साझे की टैक्सी का विकल्प चुना। आते समय 27.79 डालर (2259 रुपए) लगे थे। साझा टैक्सी का विकल्प 14.63 डालर (1189 रुपए) का था। मतलब 1070 रुपए की बचत।
टैक्सी बुक करते ही सूचना आ गयी- ड्राइवर रोलैंडो (Rolando) टोयोटा गाड़ी (Toyota Prius) में तीन मिनट में पहुँच रहे हैं। बाहर आकर खड़े हो जाएँ। तीन मिनट बाद संदेश आया -‘ड्राइवर आ गया है। पाँच मिनट बाद वह वापस चला जाएगा।’ हमने इधर-उधर देखा। गाड़ी और ड्राइवर नहीं दिखा। कानपुर में होते हैं तो ड्राइवर फ़ोन करता है। यहाँ ऐसा कोई चलन नहीं। हमने सोचा हम ही कर लें। हमने फ़ोन मिलाया तब तक बग़ल की पार्किंग में एक गाड़ी वाला अपना हेडलाइट लुपलुपाते दिखा। हम पास गए। उन्होंने पूछा -‘अनूप?’ हमने जबाब में पूछा -‘रोलैंडो।’ दोनो के जबाब हाँ में थे। हम गाड़ी में बैठ गए।
गाड़ी में बैठते ही बात हुई। रोलैंडो ने बताया कि सुबह उसे उनकी 15 वीं ड्राइव है यह। नौ बजे से एक बजे तक 15 सवारी मतलब काफ़ी काम हो गया। बाद में जब फिर पूछा तो उन्होंने बताया कि पास-पास की सवारी थीं। वैसे भी यहाँ सड़क पर जाम नहीं लगता। केवल दूरी तय करनी होती है।
हमने पूछा -‘ उमर कितनी है आपकी?’
रोलैंडो ने हंसते हुए बताया -‘मैं 21 साल का हूँ। तुमको क्या लगता है कि मेरी उमर कितनी है?’
हमने कहा -‘हमको तो लगता है 16 साल से ज़्यादा नहीं है तुम्हारी उमर।’
इस बार हंसते हुए उन्होंने पहले अपनी उमर 48 बताई। जिसे हमने मान लिया। लेकिन आख़िर में उन्होंने अपनी उमर 65 साल की बताकर उस पर ताला लगा दिया।
इसके बाद हुई बातचीत में रोलैंडो ने अपने परिवार के किससे बताए-‘ पहली शादी 22 साल की उम्र में हुई थी। उससे दो बच्चे हुए। 16 साल साथ के बाद उससे तलाक़ हो गया। तलाक़ का कारण यह था कि उसको किसी दूसरे पुरुष के साथ देख लिया था रोलैंडो ने। साल भर बाद दूसरी शादी की। दूसरी शादी को 26 साल हो गए। दूसरी पत्नी के दो बच्चे और उनसे खुद के दो बच्चे हैं। कुल मिलाकर छह बच्चों के पिता हैं रोलैंडो।
दूसरी शादी चार साल लिव-इन में रहने के बाद की। इस तरह देखा जाए तो पहली पत्नी के साथ रहते हुए तीन साल दूसरी महिला के साथ लिव-इन में रहे। पहली से तलाक़ का कारण उसका दूसरे पुरुष से सम्बन्ध था। वही काम उन दिनों खुद कर रहे थे।
पहली पत्नी के बारे में पूछने पर बताया -‘मुझे पता नहीं कहाँ हैं, होंगी कहीं।’
आम तौर पर तलाक़ लेने में यहाँ कितना समय लगता है? मेरे यह पूछने पर रोलैंडो ने बताया -‘अगर लेन-देन और सम्पत्ति मुआवज़े के लफड़े न हो तो महीने भर में तलाक़ हो जाता है।’ उनकी बात सुनकर मुझे अपने कई दोस्त याद आए जो तलाक़ के इंतज़ार में बुढ़ा रहे हैं । तारीख़ पर तारीख़ पड़ रही हैं।
हावी पूछने पर रोलैंडो ने बताया -‘घर पहुँच कर खाना बनाना अच्छा लगता है। पत्नी काम से आती है तब तक खाना बना लेते हैं।’
बतियाते हुए हमारी मंज़िल आ गयी। उतरने के बाद साथ में फ़ोटो ली। गले मिले रोलैंडो से। इसके बाद वो चले गए।
मज़े की बात कि हमारी टैक्सी साझे की थी। लेकिन कोई और सवारी रास्ते में नहीं मिली। पर हमारे पैसे 14.63 डालर ही कटे। जाते समय कुल खर्च हुआ था 27.79 डालर। लौटे समय कुल खर्च हुआ 24.13 डालर {14.63 डालर (साझा टैक्सी) + 6 डालर (मेट्रो टिकट +3.50 डालर (चाय) } इस तरह लौटते में हमने 3.66 डालर मतलब 297.50 रुपए बचाए । पैसे बचाए मतलब पैसे कमाए।
कुल मिलाकर एक अनुभव भरा दिन रहा अमेरिका में। मेट्रो की भूलभुलैया और साझे की टैक्सी के अनुभव का दिन।

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Thursday, January 12, 2023

अमेरिका में मेट्रो की सवारी



आज सुबह अमेरिका की हवाई नियंत्रण व्यवस्था बैठ गयी। हवाई अड्डे और पायलट के बीच सम्पर्क स्थापित करने वाली व्यवस्था में गड़बड़ी के कारण हज़ारों उड़ाने लेट (8000 के क़रीब) हो गयीं, निरस्त (1000 के क़रीब) हो गयीं। हज़ारों यात्री हवाई अड्डों पर फँसे रहे ।
दोपहर तक हवाई नियंत्रण व्यवस्था सुधार गयी। उड़ाने शुरू हो गयीं। हवाई जहाज हमारे ऊपर से उड़ते दिखाई दे रहे हैं।
इस अव्यवस्था का कारण पता करने में लगे हैं लोग। जाँच हो रही है। बस यही बयान आया है कि इसमें कोई हैकिंग नहीं हुई है।
हमको लगा कि कहीं कोई इस लफड़े का ठीकरा हमारे ऊपर न फोड़ दे। कोई कहे -'जब से आया है बिजली गुल हो गयी, इंटरनेट ठप हो गया अब ये हवाई नियंत्रण व्यवस्था भी बैठ गयी।'
संयोग से परसों हम गए थे सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डे। दीदी को भेजने। दीदी अपनी बिटिया के पास एरिज़ोना गयीं थीं। उनको बैठाने गए थे एयरपोर्ट।
घर से एयरपोर्ट 9.5 मील मतलब 15.29 किलोमीटर दूर है। 14 मिनट का रास्ता। टैक्सी बुक की। संदेश आया -लोरेना (Lorena) आ रही हैं ड्राइवर के रूप में। गाड़ी टोयोटा पायरस V । ड्राइवर और गाड़ी का फ़ोटो भी मेसेज में आ गया। थोड़ी देर में संदेश आया - 3 मिनट में आ रही है गाड़ी। तीन मिनट होते-होते आ भी गयी गाड़ी।
गाड़ी आई। नाम पूछकर बैठा लिया लोरेना ने गाड़ी में और चल दी एयरपोर्ट की तरफ़। एयरपोर्ट पहुँचकर उतार दिया। 14 मिनट की यात्रा में गुडमार्निंग और धन्यवाद का ही आदान-प्रदान हुआ।
गाड़ी चलाने वाली लोरेना नौजवान ड्राइवर थी। शायद कहीं पढ़ाई भी करती हो या कुछ और। पूछा नहीं।
यहाँ महिलाओं का टैक्सी चलाना आम बात है। पिछले पंद्रह दिनों में अधिकतर टैक्सी ड्राइवर महिलाएँ ही मिली। पुरुष ड्राइवरों से बातचीत भी हुई लेकिन महिला ड्राइवरों से बातचीत का खाता नहीं खुला। शायद इसलिए कि उनके साथ यात्रा कम दूरी की रही। शुरू होते ही ख़त्म हो गयी।
एयरपोर्ट पर चेक इन तक हम भी गए। भारत में एयरपोर्ट पर दरवाज़े के अंदर नहीं घुसने देते। यहाँ अंदर जहां बोर्डिंग पास बनते हैं वहाँ तक यात्री के साथ जा सकते हैं। चले गए।
बोर्डिंग पास भी खुद निकालने की व्यवस्था थी। प्रिंटर पर क्यू आर कोड दिखाकर प्रिंट करना था बोर्डिंग पास। हमने दिया मोबाइल प्रिंटर पर। बार-बार कोशिश करने के बाद भी पास नहीं निकला। हमको कोशिश करते और असफल होते देख पास खड़ी एयरलाइन की महिला सहायक वहाँ आई और परेशानी का कारण पूछा। हमने बताया कि बोर्डिंग पास नहीं नहीं निकल रहा। महिला सहायक ने हमारा मोबाइल लेकर पलट कर रखा स्कैनर पर। बोर्डिंग पास प्रिंटर से सरकता हुआ बाहर आ गया। हम मोबाइल उल्टा लगा रहे थे।
बोर्डिंग पास लेकर कुली सेवा के लिए खोजा। बग़ल में ही कुली मौजूद थे। दीदी को लेकर अंदर चले गए। पंद्रह-बीस मिनट में वो वहाँ पहुँच गयीं जहां से उनको हवाई जहाज़ में बोर्ड करना था। सब काम में कुल मिलाकर आधा घंटा लगा होगा।
हमारा एयरपोर्ट पर आने का मक़सद पूरा हो गया था। अब हमें वापस लौटना था। लौटने के पहले सोचा थोड़ा एयरपोर्ट टहल लिया जाए। थोड़ी देर टहले भी। बड़े से बोर्ड पर उड़ानों के विवरण लगे थे। कई एयरलाइन के बड़े -बड़े काउंटर थे। लेकिन उनमें भीड़ जैसी नहीं थी। लोग अपने-आप बोर्डिंग पास निकाल कर अंदर जा रहे थे।
टहलते हुए हमको एटीएम दिखा। हमने सोचा देख लें कि अपना एटीएम यहाँ काम करता है क़ि नहीं। बैंक में तो बताया गया था कि काम करेगा। हमने बीस डालर निकालने के लिए एटीएम को अर्ज़ी लगाई। एटीएम ने पूछा भी कि दस डालर के दो नोट लोगे कि बीस डालर का एक। हमने बताया -‘दस डालर के दो नोट दे दो।’
आगे बढ़ने पर एटीएम महोदय बोले -‘पैसा निकालने की फ़ीस लगेगी 3 डालर। 3 डालर मतलब लगभग 250 रुपए। पहले मन किया मना कर दें कि हमें नहीं चाहिए। लेकिन फिर सोचा अनुभव लिया जाए कि निकलता है पैसा कि नहीं। आगे बढ़ने के लिए आदेश दिया।
लेकिन एटीएम ने पैसा नहीं निकाला। थोड़ा घूमकर खड़ा हो गया और बता दिया कि पैसा नहीं निकल सकता। देश में होते तो बैंक मैनेजर को फोनियाते। अब यहाँ से क्या कहें? आगे बढ़ गए। सोचा लौटा जाए।
लौटने के लिए पहले हमने सोचा कि पैदल चला जाए। लेकिन मौसम बारिश के प्रभाव में था। बूँदा-बांदी हो रुकते-रुकते हो रही थी। दूसरी रास्ता टैक्सी का था जैसे आए थे। तीसरा रास्ता लोकल ट्रेन का था जिसमें कुल चार-पाँच डालर में घर तक पहुँचने का विवरण था। आने में टैक्सी में 27.79 डालर (2268.55 रुपए) लगे थे।
ट्रेन जहां से जाती है वहाँ तक पहुँचने का रास्ता हमने काउंटर पर पूछा। बुजुर्ग थे वहाँ। नहीं बता पाए। एक से और पूछा उसको भी नहीं पता था। हमने फिर नोटिस बोर्ड, मैप और इधर-उधर खोजकर रास्ता खोजा। पता चला गेट G के आगे से मिलेगी ट्रेन। वहाँ तक जाने के लिए एयरपोर्ट की शटल सेवा हाज़िर थी।
समय हमारे पास इफ़रात था इसलिए हमको घूमने-भटकने में संकोच नहीं हुआ। अलबत्ता जब ज़्यादा भटकने लगे तो यह डर लगने लगा कि कहीं किसी अनधिकृत जगह पर न पहुँच जाएँ जहां जाना वर्जित हो। पकड़ जाने पर लेने के देने पड़ जाएँ।
एयरपोर्ट शटल सेवा का उपयोग करके हम गेट G तक पहुँचे। वहाँ से ट्रेन के स्टेशन पर। ट्रेन के स्टेशन पर टिकट खुद निकालना था। हमने सोचा घर तक का टिकट लेंगे लेकिन विकल्प में स्टेशन नहीं था। डालर के टिकट मिल रहे थे। नेट के हिसाब से 4.85 डालर का टिकट था। हमने छह डालर का टिकट निकाला। वहाँ भी अपना कार्ड काम नहीं किया तो बेटे का क्रेडिट कार्ड लगाया। छह डालर का टिकट का टिकट बाहर आते ही बेटे का फ़ोन आ गया (उसको मेसेज गया होगा कि ट्रेन टिकट ख़रीदा गया है) -‘आप ट्रेन से क्यों आ रहे ? परेशान हो जाएँगे।’
हमने कहा -‘अरे कोई नहीं, ज़रा अनुभव लेते हैं। आ जाएँगे। चिंता न करो।’
टिकट लेकर हम आगे बढ़े। स्टेशन के अंदर जाने के लिए टिकट घुसाया। गेट खुला नहीं। फिर कोशिश की फिर नहीं खुला। पता चला टिकट उल्टा घुसा रहे थे। पलट के टिकट घुसाया। गेट स्वागत मुद्रा में खुल गया। हम अंदर गए। सहायक से पूछा गाड़ी के बारे में। उसने बताया नीचे जाओ वहाँ ट्रेन मिलेंगी। उसकी बात दो बार में समझ पाए हम। दो बार में इसलिए कि कुछ उसको हमारी अंग्रेज़ी नहीं समझ नहीं आई कुछ हमको उसकी। बहरहाल, अंग्रेज़ी भले न समझ में आई हो लेकिन दो बार में बात समझ में आ गयी।
नीचे गए तो फिर एक से पूछा इस जगह के लिए ट्रेन कहाँ से मिलेगी। उसने जो बताया उसके हिसाब से हम ग़लत जगह पर आ गए थे। हम फिर वापस पहुँचे सहायक के पास। एक बार फिर अंग्रेज़ी का आदान-प्रदान हुआ। इस बार उसने धीमे थोड़ा सख़्त अंग्रेज़ी में कहा -‘ तीसरी बार पूछ रहे हो। मैं बता चुकी हूँ कि गाड़ी नीचे मिलेगी।’
हम सहमते हुए फिर नीचे आए। कई लोगों से पूछा लेकिन किसी को पता ही नहीं था। सब कह रहे थे -‘हमको नहीं पता। हम खुद नए हैं।’
इसकी तुलना अपने यहाँ दिल्ली, मुंबई की मेट्रो से करके देखें तो वहाँ हर अगला आदमी आपको आपके लिए रास्ता और ट्रेन बताने के लिए तैयार मिलेगा। यहाँ हर इंसान एप और मैप भरोसे है।न समझ में आया तो भटकते रहो।
आख़िर में हम एक ट्रेन में बैठ ही गए। सोचा जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन के अंदर यात्री के नाम पर एक-दो लोग थे। उनसे पूछा तो उनको भी पता नहीं था। ट्रेन एकदम ख़ाली। इससे अच्छा तो उठाकर इसको दिल्ली में चला दिया जाए। आमदनी ही होगी कुछ न कुछ।
थोड़ी देर में हमने गाड़ी में मौजूद नक़्शा देखा। उसमें कहीं उस स्टेशन का नाम नहीं था जहां हमको जाना था। हम घबरा के उतर गए। हमको डर लगा कि कहीं ऐसा न हो कि दूसरी रूट पर चले जाएँ जिसका किराया छह डालर से ज़्यादा हो और कोई आकर जुर्माना ठोंक दे। लेकिन उतरने के बाद सोचा कि ऐसे कब तक इंतज़ार करते रहेंगे। हम फिर चढ़ गए ट्रेन में। इस बार हमारे चढ़ते ही चल दी।
हम रास्ते के नज़ारे देखते हुए सहमे से बैठे रहे ट्रेन में। थोड़ी देर में स्टेशन आया मिलब्रे (Millbrae)। हम वहीं उतर लिए। बाहर निकले। स्टेशन पर मौजूद महिला सहायक से पूछा -‘फ़ास्टर सिटी के लिए ट्रेन कहाँ से मिलेगी?’
उसने हमारा टिकट देखा। बताया कि प्लेटफ़ार्म नम्बर पाँच पर जाओ। दूसरा टिकट ख़रीदो। वहाँ दूसरी कम्पनी की टिकट मिलेगी। उससे आगे जाना होगा।
यह अहसास हुआ कि यहाँ अलग-अलग ट्रेन सेवाएँ हैं। एक का टिकट दूसरे में काम नहीं करेगा। यहाँ ट्रेन से वही चल सकता है तो रोज़ चलता रहा हो। ट्रेन यात्रा विवरण में भी ऐसा कुछ लिखा था -इस स्टेशन से उस स्टेशन जाओ, 170 मीटर पैदल चलो, अगली स्टेशन फिर वहाँ से 600 मीटर पैदल चलकर ठीहे पर पहुँचो। लेकिन नक़्शा जितना सरल था रास्ता उससे उलट कठिन था।
हमें लगता है कि अमेरिका एक कार प्रधान और जहाज़ प्रधान देश है। ट्रेन जैसे सार्वजनिक यात्रा के साधन यहाँ उतने चलन में नहीं हैं। कार बनाने वाले चाहते भी नहीं होंगे कि सार्वजनिक यात्रा के साधन प्रचलन में आएँ। नीतियाँ और व्यवस्थाएँ भी उसी हिसाब से बनती होंगी।
हमको समझ नहीं आया कि जब हम एक टिकट ख़रीद चुके हैं तो दूसरी क्यों ख़रीदें। उसने बहुत धैर्य से हमको कई बार समझाया। हमको यही समझ में आया कि घर पहुँचने के लिए सबसे उचित तरीक़ा यही है कि यहाँ ट्रेन छोड़ दी जाए और टैक्सी पकड़ कर घर चला जाए।
हम ट्रेन यात्रा का लालच त्यागकर स्टेशन से बाहर आ गए। वैसे भी एक स्टेशन तक की यात्रा का अनुभव ले ही चुके थे। स्टेशन से बाहर आकर हम टैक्सी लेने के एप में दाम के तुलनात्मक अध्ययन में लग गए।

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Wednesday, January 11, 2023

अपना बाज़ार मतलब सबका बाज़ार


फ़िराक़ गोरखपुरी जी की पत्नी एक बार गोरखपुर से इलाहाबाद आईं तो घर पहुँचते ही फ़िराक़ साहब ने पूँछा -'मिर्च का अचार लाई हो? उन्होंने जबाब दिया -'नहीं।' यह सुनते ही फ़िराक़ साहब अपनी पत्नी पर बहुत ख़फ़ा हुए। उनको खरी-खोंटी सुनाई।
फ़िराक़ साहब के बारे में बहुत पहले कहीं पढ़ा यह संस्मरण अनायास दो दिन पहले बहुत तेज़ी से याद आया। बहुत तेज़ी से याद आने का मतलब अचानक याद आना। अचानक मतलब भड़ से याद आना मतलब याद की सर्जिकल स्ट्राइक होना।बहुत तेज याद आया तो कल्पना भी की कि कैसे उन्होंने पूछा होगा, कैसे उनकी पत्नी ने बताया होगा और कैसे फ़िराक़ साहब ग़ुस्सा हुए होंगे। मिर्च का आचार फ़िराक़ साहब को बहुत पसंद रहा होगा। उनकी इच्छा रही होगी कि उनकी पत्नी आएँ तो अचार लेती आएँ। भूल जाने पर उनके मुँह का स्वाद गड़बड़ा गया होगा। वे झल्लाए होंगे।
फ़िराक़ साहब से जुड़ा संस्मरण सैनहोजे के सिख गुरुद्वारे से लौटते समय याद आया। जो लोग दूसरे देशों से यहाँ आए हैं वे अपने देश के सामान के लिए हुड़कते होंगे । जहां मिल जाता होता वहाँ बार-बार जाते होंगे। न मिलने पर दुखी हो जाते होंगे और इंतज़ार करते होंगे कि कोई आएगा तो लाएगा।
गुरुद्वारे जाते समय तय हुआ था कि लौटते समय किसी भारतीय स्टोर से जाएँगे। जो सामान कम हो गए हैं उनको लेते आएँगे। सामान ख़रीदना भी यहाँ एक ज़िम्मेदारी है, काम है।
अपने यहाँ तो सब्ज़ी और तमाम सामान फुटकर दुकानों में चलते फिरते ख़रीद लिए जाते हैं। आधा से ज़्यादा बाज़ार तो सड़क और फुटपाथ पर लगता है। लेकिन अमेरिका में ख़रीदारी के लिए शापिंग माल्स की शरण में ही जाना होता है। न्यूयार्क में अलबत्ता कुछ दुकाने फुटपाथ में लगी देखीं हमने। शायद न्यूयार्क जैसे कुछ इलाक़ों का स्वरूप वहाँ आए लोगों ने कुछ-कुछ अपने देश के हिसाब से कर लिया है।
शापिंग माल्स भी अलग-अलग देश के हिसाब से होते हैं। दूध, चाय, फल, सब्ज़ी जैसे सामान तो लगभग हर माल्स में मिल जाते हैं। लेकिन और अपने देश के हिसाब से और सामान लेने के लिए ख़ास माल्स में ही जाना होता है।
पास का शापिंग मॉल में चीनी सामानों की बहुतायत है। विवरण अंग्रेज़ी के अलावा शायद चीनी भाषा में ही होते हैं। कुछ में केवल चीनी भाषा में। एक ही सामान तरह-तरह की विविधता में। केवल देखकर समझना मुश्किल कि यह हमारे मतलब का है कि नहीं। एक दिन दूध लाए तो पता लगा पतला वाला उठा लाए। जब तक ख़त्म नहीं हो गया, सुनते रहे -'दूध पतला वाला है। पूरा दूध वाला लाना चाहिए था।'
एक दिन ब्रेड खोजते रहे। आटा ब्रेड के हर तरह के पैकेट में सामान का विवरण देखा तो ब्रेड में अंडा मिला पाया । पता लगा कि बिना अंडे की ब्रेड तो भारतीय स्टोर में ही मिलेगी।
भारतीयों की बहुतायत होने के चलते यहाँ जगह-जगह भारतीय स्टोर हैं। उनमें भारतीय लोगों की ज़रूरत के हिसाब से लगभग हर सामान मिलता है। चकला, बेलन, पापड़, सौंफ़, हींग, हल्दी जैसी चीजें तो मिलती ही हैं वो चीजें भी मिल जाती हैं जो आमतौर पर भारत में शापिंग माल्स वाले नहीं रखते। यहाँ एक स्टोर में ' कम्पट' देखकर मेरा यह अन्दाज़ पुख़्ता हुआ।
जहां बेटा रहता है वहाँ पास में, क़रीब पंद्रह-बीस मिनट की पैदल दूरी पर एक भारतीय स्टोर है। लेकिन वहाँ एक ही बार जा पाए। उस दिन सिख गुरुद्वारे से लौटते पता चला कि सनीवेल में भारतीय स्टोर है। बड़ा स्टोर। वहाँ सब भारतीय सामान मिल जाता है।
लंगर छकने के बाद नींद का हल्का हमला शुरू हो गया था लेकिन रास्ते में पढ़ने के कारण भारतीय स्टोर का आकर्षण भी ज़बरदस्त था। नींद और बाज़ार की कुश्ती में जीत बाज़ार की हुई और हम भारतीय स्टोर की तरफ़ गमयमान हुए।
भारतीय स्टोर का नाम था -अपना बाज़ार। नाम में ही बाज़ार की सुगंध। अपना बाज़ार बताकर ही सबका बाज़ार बना जा सकता है। बाज़ार इसी तरह लोगों लोगों को आकर्षित करता है। लोगों पर क़ब्ज़ा करता है।
अपना बाज़ार की ख़ासियत यह है कि यह चौबीस घंटे खुला रहता है। मतलब कभी भी कोई भी सामान चाहिए यहाँ मिल सकता है।
अपना बाज़ार के आसपास एकदम भारतीय माहौल है। यहाँ पान की दुकान भी है और चाट का ठेला भी। चाट की दुकान को बम्बईया रूप देने के लिए ठेले पर जूहू चौपाटी और गोलगप्पे लिखा था। रोमन में, देवनागरी में और अन्य भारतीय भाषाओं की लिपि में।
हमतो लंगर खाकर आए थे लिहाज़ा न हमको चाट खानी थी न गोलगप्पे। हम सीधे अपना बाज़ार में घुसे। जो सामान लेना था वह और इसके अलावा और तमाम सामान लेकर झोले में भरकर काउंटर पर बिल बनवाने के लिए लाइन में खड़े हो गए।
काउंटर-बालिका की 'हाँ जी', 'हं जी' अपना स्टोर को एकदम 'अपना' भारतीय बना रही थी। हर काउंटर की तरह उसने भी पूछा -'बैग लेना है?' हम लोगों ने कहा -'नहीं।'
सामान ले जाने के लिए बैग लेने पर उसकी क़ीमत चालीस-पचास सेंट (35-40 रूपये) लगती है। इसलिए अधिकतर भारतीय अपना झोला साथ लेकर जाते हैं।
सामान लेकर और बिल भुगतान करके हम लोग बाहर आए। बाहर आने से पहले हम लोगों ने अपना-बाज़ार में सभी ग्राहकों के लिए मुफ़्त में उपलब्ध करायी जाने वाली चाय कप में डाली और बाहर निकल आए। बाहर कुर्सियों में बैठकर चाय पी गयी। सामने फ़ोल्डिंग चारपाई पालिथीन में बंधी रखी थी। जिसको चाहिये ले जाए।
अब हमको चारपाई तो चाहिए नहीं थी। हम उसको और आसपास के नज़ारे देखते हुए चाय पीते रहे। चाय पीकर उसका कप चाट वाले डस्टबिन को समर्पित करके हम कार में जमा हुए और घर वापस आ गए। अपना बाज़ार से अपने घर।

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Tuesday, January 10, 2023

सैन होजे में गुरुद्वारा दर्शन



परसों शाम को ड्राइवर ने अगले दिन मौसम ख़राब रहने की जानकारी दी थी। उसकी बात पर भरोसा करते हुए हमने कल बाहर जाना स्थगित कर रखा था। लेकिन जब सुबह हुई तो ड्राइवर की सूचना मौसम विभाग की सूचना की तरह ही ग़लत साबित हुई। सूरज भाई सुबह से ही अपनी टीम के साथ आसमान पर हाजिर थे। मौसम ख़ुशनुमा हो गया था।
वो तो कहो हमसे किसी ने पूछा नहीं । कोई पूछता -'मौसम कैसा है ?' तो हमारा जबाब होता -'आशिकाना।'
मौसम कोई भी लेकिन 'मौसम कैसा हो' के सवाल के जवाब में हमारा यही जवाब होता है -'आशिकाना।'
अमेरिका के मुक़ाबले कानपुर, लखनऊ के ठिठुरन वाले मौसम की खबर मिल रही थी। मन किया यहाँ से किलो-दो किलो मौसम कानपुर वहाट्सएप कर दें। लेकिन फिर याद आया कि अभी वहाट्सअप में मौसम ट्रांसफ़र का फ़ीचर नहीं आया। क्या पता कुछ दिन बाद आ जाए। जब तक नहीं आता तब तक ऐसे ही काम चलाया जाए ।
मौसम ठीक हो गया तो घूमने जाने का प्लान बनना शुरू हुआ। सैनफ्रांसिसको या फिर सैनहोजे के गुरुद्वारा में से कहीं एक जगह जाने की बात हुई। सैनफ्रांसिसको तीन साल पहले जा चुके थे। गुरुद्वारा देखा नहीं था। बड़ा नाम सुना था सो आख़िर में वहीं जाना तय हुआ।
फ़ोस्टर सिटी से सैनहोजे का गुरुद्वारा क़रीब 37.9 मील मतलब 61 किलोमीटर है। चल दिए।
इतवार की छुट्टी का दिन होने के कारण ट्रैफ़िक कम था। गाड़ी किसी भी लेन में चलाई जा सकती थी। अमेरिका में आम दिन में तेज स्पीड वाली लेन पर चलने के लिए अलग से टोल देना पड़ता है। टेस्ला जैसी बिजली से चलने वाले गाड़ियों को भी कम ईंधन खपत और पर्यावरण मित्र गाड़ी होने के चलते भी तेज गति वाली लेन में चलने की सुविधा होती है। इसके अलावा और कोई गाड़ी तेज गति वाली लेन में चलती पायी गयी तो उसके पैसे कट जाते हैं। अपने आप। सब गाड़ियाँ इसी तरह सड़क से जुड़ी होंगी।
तेज स्पीड पर लेन पर चलने के अलग पैसे की व्यवस्था देखकर एहसास हुआ कि यहाँ हर सुविधा का सम्बंध पैसे से है। सड़क पर चलने का पैसा, पार्किंग का पैसा, रेस्ट रूम का पैसा और भी न जाने किस-किस बात का पैसा।
मौसम अच्छा था। ख़ुशनुमा। सड़क बढ़िया। गाड़ी सड़क ऐसे चल रही थी जैसे नदी में नाव चल रही हो। गाड़ी तैरती हुई सी चलती लगी। कोई गड्ढा नहीं, कोई स्पीड ब्रेकर नहीं।
गुरुद्वारा पहुंचकर गाड़ी पार्किंग में खड़ी की गई। फ्री पार्किंग। गुरुद्वारा की इमारत भव्य। ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा से देखने पर पूरा सैनहोजे दिखता है। ऐसे जैसे कोई हिल स्टेशन हो।
गुरुद्वारा का निर्माण 1984 से शुरू हुआ। शुरुआती परेशानियों से निपटते हुए पहला चरण 2004 में पूरा हुआ। खर्च आया -12 मिलियन डॉलर मतलब आज के करीब 100 करोड़ रुपये (98.50 करोड़) । इसके बाद निर्माण का दूसरा चरण अब पूरा हुआ और खर्च हुए 20 मिलियन डालर मतलब लगभग 165 करोड़। इतने पैसे का इंतज़ाम सिख समुदाय के लोगों ने मिलकर किया होगा लेकिन इस भव्य गुरुद्वारा के निर्माण का श्रेय तो शुरुआती लोगों स्व जीत सिंह बेनीवाल, तेजा सिंह और स्व बाबा प्यारा सिंह ओभी को दिया जाएगा। गुरुद्वारा उत्तरी अमेरिका का सबसे बड़ा गुरुद्वारा है।
गुरुद्वारा में प्रवेश करते ही इसकी साफ़-सफ़ाई और व्यवस्था से गुरुद्वारा के स्तर का अंदाज़ा लगता है। शुरुआत में ही जानकारी के लिए काउंटर, रेस्ट रूम, जूते रखने की मुफ़्त सेवा, सर पर बांधने के लिए रुमाल गुरुद्वारे की तरफ़ दिया जाता है। सर पर बांधने का नया रुमाल दिया जाता है। वापस आने पर उसको जमा कर दिया जाता है। उसको फिर साफ़ करके ही प्रयोग किया जाता है।
मुख्य सभागार में गुरूग्रंथ साहब रखे हैं। उनके ऊपर खड़े हुए चंवर डुलाते हुए ग्रंथी और पूजा करते हुए, कीर्तन सुनते हुए तमाम लोग। पूजा हाल में 2585 लोगों के बैठने की व्यवस्था है। यह संख्या हाल में लिखी है। लोग गुरूग्रंथ साहब के सामने सर नवा कर वहीं प्रसाद ग्रहण करके फिर बैठकर कीर्तन सुन रहे थे। हम लोगों ने भी गुरु ग्रंथ साहब को प्रणाम करके, प्रसाद ग्रहण कर कुछ देर कीर्तन सुना और फिर लंगर हाल की तरफ़ गए।
लंगर हाल में लोग पंगत ज़मीन पर में बैठे लंगर छक रहे थे। एक तरफ़ बुजुर्गों और विकलांग लोगों के लिए बैठने की व्यवस्था की। हम लोगों ने भी लंगर छका। खाने में कढ़ी, सब्ज़ी, रोटी, चावल और खीर थी।सादा और स्वादिष्ट भोजन। खाने के बाद चाय, बिस्कुट ,पकौड़ी भी खा रहे थे लोग। खाने की व्यवस्था के लिए अनेक स्वयंसेवक सेवादार लोग मौजूद थे। खाने के बाद थाली साफ़ करने की भी व्यवस्था थी। वहाँ भी सेवादार लोग लगे थे। खाने का इतना साफ़-सुथरा इंतज़ाम देखकर मन खुश हो गया। यह भी लगा कि कभी-कभी हमको भी सेवा का काम करना चाहिए।
लंगरहाल में सूचनापट पर गुरुद्वारे से सम्बंधित सूचनायें प्रसारित होती जा रहीं थी। लोग लंगर की व्यवस्था के लिए क्या-क्या सामान दे सकते हैं, गुरुद्वारा को पारदर्शिता के लिए प्रथम घोषित किया गया है , आदि सूचनाएँ।
वहीं हाल में एक काउंटर पर सिख बच्चों की शिक्षा की सहायता के लिए जानकारी दी जा रही थी। सहायता के उद्धेश्य निम्न हैं:
1. यह प्रयास करना कि हर शिख बच्चा कालेज जा सके और स्नातक हो सके।
2. कालेज जाने वाले युवाओं को भविष्य के लिए सहायता प्रदान करना।
3. कालेज जाने वाले एवं मेधावी छात्रों के माध्यम से छोटे बच्चों को पढ़ाई में सहायता प्रदान करना।
इस उद्धेश्य की पूर्ति के लिए गुरुद्वारा कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष भूपिन्दर सिंह ढिल्लन (बॉब ढिल्लन) की अपील वहाँ आने वालों लोगों को वितरित की जा रही थी। बॉब ढिल्लन 17 साल की उम्र में पंजाब से अमेरिका आये थे। शुरुआती दौर में पढ़ाई के लिए ढाबों, रेस्तरां में काम करते हुए अपना कैरियर शुरू करने वाले बॉब ढिल्लन आज सैन होजे की प्रमुख हस्तियों में हैं।
गुरुद्वारा की गतिविधियों का विस्तार से विवरण गुरुद्वारा की साइट में मौजूद है।
सैन होजे सिख गुरुद्वारा का विवरण जानने के लिए गुरूद्वारा की साइट देखिए: https://sanjosegurdwara.org/
लौटते समय सिख गुरूद्वारा के कम्युनिटी बोर्ड पर तरह-तरह की सूचनाएं देखने को मिली। किसी को कामचाहिए तो किसी को कामगार, कोई घर की खोज में है तो कोई घर किराए पर देने को तैयार है। बच्चे की देखभाल के लिए नैनी की मांग वाले तो कई विज्ञापन दिखे।
एक लड़का मेलबर्न आस्ट्रेलिया से स्टूडेंट वीजा पर आया है।उसके पास अपनी कार है। उसको काम चाहिए, नकद पैसे पर। इसके लिए वह दिन या रात कभी भी काम करने को तैयार है। काम देने वाले की सुविधा के वह शिफ्ट होने के लिए तैयार है। अपना पता और फोन नम्बर छोड़ा हुआ था उसने। क्या पता उसको अब तक कुछ काम मिल गया हो।
एक लड़के ने अपने लिए लड़की के लिए भी विज्ञापन दिया था।
घर से शाकाहारी खाने की सुविधा देने की सूचना भी लगी थी। किसी को सहायक की आवश्यकता थी तो किसी को काम की।
एक कोने में लोगों ने अपने विजिटिंग कार्ड लगाए हुये थे।
कुल मिलाकर गुरुद्वारा सिख समाज की अनेक आवश्यकताओं को पूरा करने का माध्यम बना हुआ है।
हर धर्म के पूजास्थल कहीं न कहीं अपने समाज की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
बाहर आकर हम लोगों ने अपना सर पर बांधने वाला रुमाल जमा किया। जूते वापस लिए और बाहर आ गए।
बाहर आकर हम लोगों ने गुरुद्वारे के आसपास खूब सारे फोटो लिए। ऊपर से पूरा सैन होजे दिख रहा था। गाड़ियां , सड़कें और मकान का सुंदर कोलॉज। एक तरफ हरी पहाड़ियां देखकर ऐसा लग रहा था मानों किसी हिल स्टेशन में आ गए हों।
फोटोबाजी के बाद हम लोग वापस घर के लिए चल दिये।

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