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चिट्ठाकारी- पांच सवाल, पांच जवाब
By फ़ुरसतिया on February 20, 2007
रचनाजी ने हमसे कुछ सवाल पूछे थे। हालांकि उन्होंने जैसे लिखा था आप
सभी वरिष्ठ और सम्मानित चिट्ठाकार हैं, शायद आपके अपने चिट्ठों के लिये
कोई मानक भी निर्धारित होंगे..यदि आप अपने चिटठे पर न लिखना चाहें तो कोई
बात नही उससे मुझे लगा कि शायद किन्हीं और अनूपजी के लिये
होगा जो कोई महान व्यक्ति होंगे। लेकिन बाद हमने सोचा जवाब दे देते हैं।
हमसे पूछा गया होगा तो जवाब स्वीकार किया जायेगी नहीं तो कोई बात नहीं। सो
हमने रचनाजी की पहली बात, जवाब देंगे तो खुशी होगी, को ही ध्यान में रखते हुये जवाब देने का प्रयास करके उनको खुश करने का प्रयास किया है।
और रही बात हम लोगों को जी और जीतेंद्र को भाई कहने की तो उन्मुक्तजी ऐसा है कि वहां खाड़ी के देशों के सारे छटे हुये लोगों लोग डर के मारे भाई बोलते हैं। शकील भाई, दाउद भाई, ये भाई-वो भाई। तो ऐसाइच अपन जीतू भाई भी अपना रुतबा जमायेला है। भौत मेनत करेला, दंड पेलेला है। इधर का माल उधर करना। नारद पर सटाना सब कुछ करेला। इसी लिये अक्खा ब्लागर लोग इसको भाई बोलता। टेंशन नई लेने का।
१. मेरे लिये चिट्ठाकारी के मायने: जैसा मैं कई बार लिख चुका हूं कि हम मजाक-मजाक में चिट्ठाजगत में धंस गये| एक बार जो धंसे तो फिर धंसते चले ही गये। रविरतलामी का लेख पढ़कर, देबाशीष के ब्लाग पर मौजूद छहारी के लिंक से सूरदास की तरह टटोल-टटोलकर टाइप किये कुल जमा नौ शब्दों से पहली पोस्ट लिखी। होते करते अब हम सबसे लम्बी पोस्टें लिखने वाले चिट्ठाकार के रूप में बदनाम हो गये। लोग हमारी पोस्ट देखकर, फुरसत से पढ़ेंगे, सोचकर हमारा ब्लाग पढ़ना स्थगित करते रहे। और वह फुरसत किसी को कहां मयस्सर। बहरहाल, अब लोगों ने मजबूरी में ही सही मेरी पोस्ट पढ़ना शुरू किया है।
ब्लागिंग मेरे लिये शुरू में अभिव्यक्ति का माध्यम बनी। अपना सारा पहले का लिखा कूड़ा कबाड़ हमने अपने ब्लाग पर डाल दिया, डालते गये। अनुगूंज शुरुआती दिनों में अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम बना। अनुगूंज के जरिये हमने कुछ नये लेख बहुत मन लगाकर लिखे। उनमें मेरा सबसे पहला लेख -क्या देह ही है सब कुछ मुझे अभी भी लुभाता है। अनुगूंज की दुबारा अविलम्ब शुरुआत होनी चाहिये। अनुगूंज के साथ ही हम लोग उन दिनों अंग्रेजी ब्लागरों द्वारा आयोजित ‘ भारतीय ब्लाग मेला‘ प्रतियोगिता में भी कुछ दिन उचक-उचक कर हिंदी के ब्लाग नामांकित किये। एक बार जब हिंदी के कई ब्लाग वहां चर्चित हुये तो अतुल की ‘डांसिग-मेल’ आयी- हिंदी ब्लाग मेला में छा गयी। उसमें होना-हवाना कुछ नहीं था लेकिन कुछ चर्चा होती थी हम उसी में निहाल हो जाते थे। एकाध बार अतुल, जीतेन्द्र से पंगा हुआ। कुछ लोगों ने अपने ब्लाग में कलाकारी पूर्ण फोटो लगाये उसको अतुल और जीतेंन्द्र ने करमचंद जासूस बनकर फ्राड बताया। फिर बाद में उन लोगों ने हम लोगों के ब्लाग की चर्चा बन्द कर दी। इसपर बड़ा वबाल हुआ। हम सब लोगों ने मैडमैन नामक ब्लागर के यहां इतनी टिप्पणियां कीं कि बेचारा पगला गया और उसने अपने ब्लाग पर कमेंट बन्द कर दिये। फिर उसी समय अक्षरग्राम पर तमामबहसे हुयीं। निरंतर का प्रकाशन शुरू हुआ। उसी समय चिट्ठाचर्चा शुरू किया गया। चिट्ठाचर्चा शुरू करने के पीछे ‘ब्लाग मेला’ में कुछ अंग्रेजी ब्लागरों द्वारा हिंदी ब्लाग से बिदकने के कारण अपना मंच बना था। वे हिंदी से बिदकते थे। हमने कहा हम दुनिया की किसी भी भाषा की चर्चा करेंगे। कुछ दिन इसे मैं अकेले लिखता रहा। अंग्रेजी ब्लाग्स के बारे में भी लिखने के कारण इसे वे भी पढ़ते थे। लेकिन समय के अभाव के कारण इसे बाद में स्थगित करना पड़ा। बाद में हमें अंदाजा लगा कि हमारा तरीका गलत था। फिर हमने अपने और साथियों से अनुरोध किया और अब मेरे ख्याल में चिट्ठाचर्चा हमारे ब्लाग जगत की एक उपलब्धि है। आगे मेरा मन है कि हम इसे इसके मोटो ‘दुनिया की किसी भी भाषा के चिट्ठे का चर्चा’ के अनुरूप बना सकें तो क्या कहने!
चिट्ठाचर्चा, निरंतर और अभिव्यक्ति के साथ-साथ मेरा अपने लेखन के अलावा इधर-उधर सहयोग होने लगा। फिर स्वामीजीने एक दिन मुझपर डोरे डाले और हमें हिंदनी पर बैठा दिया। उस समय मैं सोचता था कि हर हफ़्ते एक लेख चिट्ठाकारी के काफ़ी है। महीने में चार लेख हमारा लक्ष्य था। हम उसे बखूबी हासिल भी कर रहे थे। लेकिन अब हालत यह है कि हम इसमें इतना डूब गये हैं कि अगर दो दिन कुछ न लिखें तो लगता है पाप कर रहे हैं। पहले हमें अपने विजिटर देखने का भी शौक बहुत था। दिन में कई बार काउंटर देखते कि कितने लोग आये, कितने गये। अब अर्सा हो गया आवा-जाही का रिकार्ड देखे।
पहले हम सोचते थे ये लिखें, ऐसा लिखें-वैसा लिखें। लिखने के पहले नयी नवेली दुल्हन की तरह सजाव-श्रंगार करते थे। बार-बार सोचते थे ये लिखा है इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। लोग क्या कहेंगे। अब हिंदी ब्लागजगत इतना अपना लगता है मैं इन सब सहज सोच से उबर चुका हूं। यह मैं इसलिये लिख रहा हूं ताकि
बता सकूं कि हम भी उस दौर से गुजर चुके हैं जिससे हमारे तमाम साथी आज गुजर रहे हैं।आज टिप्पणियों की बहुत चर्चा होती है। वास्तव में यह तो आना-जाना शुरू करने का बहाना है। नये ब्लागर के लिये दूसरों (पुरानों) के ब्लाग पर टिप्पणियां करना उनको अपने आगमन के बारे में सूचना देना जैसा है। यह एक जरिया है जिससे वे आपके ब्लाग पर पहुंचते हैं। नारद तो एक रिजर्वेशन काउंटर है। आपको डिब्बे में बैठाना का जरिया। डिब्बे के अंदर तो आपको अपना व्यवहार खुद ब खुद बनाना है। अगर आप चाहते हैं कि लोग आपके लेखन के बारे में राय जाहिर करें तो कभी-कभार आपको भी अपनी राय जाहिर करने का विचार बनाना चाहिये।
हम कहां ये क्या लिखने लगे। हमें तो अपने लिये चिट्ठाकारी के मायने लिखने थे। ये सब अटरम-सटरम पढ़कर कहीं रचना जी हमारा पूरा जवाब न खारिज कर दें। लेकिन क्या करें आदत से मजबूर हैं। असल में दो-ढाई साल की इतनी अधिक यादे हैं कि वे मौका मिलते ही छलकने लगती हैं।
अब मेरे लिये चिट्ठाकारी अभिव्यक्ति का जरूरी माध्यम बन गयी है। अपने विचार यहां लिखकर सुकून मिलता है। हमारे तमाम दोस्तों ने कहा कि अपना लिखा छपाते क्यों नहीं। कहीं भेजते क्यों नहीं लेकिन हम अपन राम इसी में मस्त हैं। पिछले दिनों हमने अपने सारे लेखन का प्रिंट आउट लिया। करीब दो सौ लेख का वजन २० किलो। कोई पूछे कि कितना लिखा तो हम कह सकते हैं बीस किलो। रद्दी कागज का भाव अगर दो रुपये किलो लिया जाये तो हमने चालीस रुपये के बराबर लिख लिया।
मौज-मजे के लिये शुरू की गयी चिट्ठाकारी अब हमारे लिये अपनी मातृभाषा, राजभाषा की सेवा करने का कारण बनती जा रही है। लोगों को अपनी समझ से हिंदी के बेहतरीन लेखन से परिचित कराने का प्रयास इसी लालच के कारण होने लगा कि मन करता है जो हमने अच्छा पढ़ा उसे हमारे साथी भी जानें। खुद पढ़ें
दूसरों को भी पढ़ायें। इसके अलावा अब चिट्ठाकारी मेरे लिये नेट पर हिंदी भाषा को समृद्ध करने के एक उपाय के रूप में सामने आयी है। इंटरनेट पर हिंदी की अधिकाधिक सामग्री उपलब्ध करने कराने का संकल्प धीरे-धीरे करके आकार ले रहा है। आज नहीं तो कल मैं जितना हो सका उतना नेट हिंदी से संबंधित सामग्री उबलब्ध कराने का प्रयास करुंगा और मुझे पूरा भरोसा है कि हमारे तमाम साथी भी जितना हो सकेगा उतना इसमें अपने तरीके से सहयोग करने का प्रयास करेंगें।
तो रचनाजी, चिट्ठाकारी यात्रा ने हमें ‘ अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है के मौज-मजे और कौतूहल से शुरू करके इधर-उधर की गप्पाष्टक करते हुये हिंदी को समृद्ध करने के संकल्प के उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां हम सोचने और कहने लगे हैं ‘अब हम देखते हैं ई कैसे नहीं होगा’। चिट्ठाकारी हमारे लिये ‘कइसे होगा’ से शुरु करके ‘कइसे नहीं होगा’ तक की यात्रा है जिसकी मंजिल है ‘देखो हम कहते थे अब हो गया न!‘ अपनी तमाम तकनीकी सीमाऒं के बावजूद मुझे इस बारे में कोई दुविधा नहीं है कि अगर हम चाहे तो हिंदी भाषा की समृद्धि के लिये इतना योगदान दे सकते हैं कि खुद हमको ताज्जुब होगा एक दिन -अरे यह हमने किया, हमने कर डाला, वाह क्या बात है।
२.चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना :हम मिलनसार व्यक्ति हैं। अपने पसंदीदा लोगों से मिलने में हमें मिलना अच्छा लगता है। जब किसी शहर जाते हैं तो प्रयास रहता है कि वहां के अधिक से अधिक दोस्तों से मेल मुलाकात कर लें। हमारी इस आदत के चलते इंद्र अवस्थी ने एक बार मेल में लिखा- शुकुल तो झांखर (कांटेदार झाड़ियां ) हैं, जिसको देखो उससे लिपट जाते हैं। तो सच तो यह है कि अगर मौका मिले तो हम सारे ब्लागर साथियों से मिलना चाहेंगे। उसमें देश-दुनिया के सारे हिंदी चिट्ठाकार शामिल हैं। हम एक बार अपना देश साइकिल से घूम चुके हैं। ज्यादातर हम अपने कालेज के दोस्तों के यहां रुके। अब फिर से भ्रमण कामना होने लगी है। शायद शहर-शहर घूमते हुये ब्लागर साथियों मिलन-योग हो। और एक बात हम साफ़ कर दें कि हम जिससे मिलना चाहते हैं उसके पते, फोन नंबर के कभी मोहताज नहीं रहे। सब मिल जाता है जब मिलने का मन होता है- बशर्ते अगला बचने का प्रयास न करे। वो कहा भी है तुलसीदास जी ने -जेहि पर जाकर सत्य सनेहू, मिलहिं सो तेहिं नहिं कछु सन्देहू। हम परसाईजी से मिलने गये तो हमें सिर्फ़ यह पता था कि वे नेपियर टाउन में कहीं रहते हैं। हम खमरिया से घूमते-टहलते उनसे मिलकर ही वापस लौटे। ऐसे ही एक बार हम इलाहाबाद के तेलियरगंज में चार घंटे घूमते रहे अपने एक मित्र यादव जी की तलाश में और लौटे तभी जब गले लगे हुये यादवजी से सुन लिया- अरे गुरुदेव आप! चाय-पान गप्प-सड़ाका होना तो अपरिहार्य था। उन दिनों हमने बशीर बद्र से यह नहीं सुना था-
अब जब रचनाजी ने हमसे पूछा है कि यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है? इसका जवाब यह हम तो सबसे मिलना चाहते हैं और चूंकि यह सवाल रचनाजी ने पूछा है तो हम यही कहना चाहते हैं कि हम सबसे पहले आप से ही मिलना चाहते हैं। वैसे यह विचार है खतरनाक क्योंकि रचनाजी ने अपने बारे में लिखते हुये बताया है कि वे किसी भी मजाक का बुरा मान सकती हैं और हम मजाक करते रहना मेरी आदत हैं।
३. चिट्ठाकारी से व्यक्तित्व में बदलाव: चिट्ठाकारी अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम है। इधर लिखा-पोस्ट किया, उधर से टिप्पणी आ गयी। यह वास्तव में आश्चर्यजनक किंतु सत्य टाइप का मामला है। इसके अलावा अगर मैं अपने बारे में कहूं तो मेरे अन्दर कई बदलाव आये। लिखना शुरू हुआ। लोगों से परिचय बढ़ा। दुनिया-जहान के बारे में प्राथमिक जानकारियां पाते रहने का सिलसिला बना। अपने बारे में नये सिरे से जानने का मौका मिला। हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हम अपने संस्मरण लिखेंगे लेकिन अतुल के संस्मरण पढ़कर उसे लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। हमने कभी सोचा नहीं था कि प्रोग्रामिंक सीखेंगे लेकिन अब अक्सर सोचते हैं कि सीखा जाये। नेट पर हिंदी को समृद्ध करने की चाह कभी इतनी बलवती नहीं रही जितनी अब चिट्ठाकारी करने के बाद हुयी। नये दोस्तों की दुनिया खुली हमारे लिये इसकी बदौलत। आज देश-दुनिया में चारो तरफ़ आपा-धापी है, दुनिया बगटुट भागती जा रही है न जाने किस तरफ़। ऐसे में भी हमें सुकून और ताजगी का अहसास होता है अपने चिट्ठाकार दोस्तों के माध्यम से। अपने दोस्तों से संपर्क करके और उनके तमाम निस्वार्थ योगदान देखकर देखकर लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितनी लोग कहते हैं। अब चाहे इसे मेरी खामख्याली समझा जाये लेकिन यह सच है कि चिट्ठाकारी शुरू करने के बाद से मेरे मन में अच्छाई के प्रति विश्वास बढ़ा है, मेरा खुद का आत्मविश्वास बढ़ा है और मुझे यह फिर से लगने लगा है कि हम चाहें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।
पसंदीदा पोस्ट: वैसे तो अपनी कई पोस्टें मुझे पसंद हैं। स्वामीजी तो कहते हैं कि मैंने ये पीला वासंतिया चांद से अच्छी कोई पोस्ट अभी तक नहीं लिखी। लेकिन मुझे इसके अलावा अपने गुरुजी के ऊपर लिखा संस्मरण सतगुरु की महिमा अनत सबसे ज्यादा अच्छा लगता है। मैं उसे पढ़ने की बात तो छोडि़ये उसको याद करने मात्र से भावुक हो जाता हूं।
दोस्तों की तो तमाम पोस्टें हैं जो मुझे बेहद पसंद हैं। आजकल तो लोग एक से एक अच्छी पोस्ट लिख रहे हैं। ऐसे में किसी एक पोस्ट के बारे में कहना बड़ा कठिन है। लेकिन मुझे एक पोस्ट स्वामीजी की याद आती है जो उन्होंने शिक्षा व्यवस्था के बारे में अनुगूंज में लिखी थी। उस समय तक स्वामी का लेखन का अन्दाज धुंआधार टाइप का था। अब लोगों को पता नहीं लैसी लगे लेकिन वह पोस्ट मेरे दिमाग में एक बेहतरीन पोस्ट के रूप में दर्ज है। हिंदी ब्लाग जगत की कुछ बेहतरीन पोस्ट देखने का मन रखने वालों को अनुगूंज की पुरानी पोस्टें देखनी चाहिये।
मेरी पसंद की पुस्तकें: किताबें पढ़ना मुझे सबसे अच्छा लगता है। कुछ किताबों को मैं बार-बार पढ़ता रहता हूं। उनमे प्रमुख हैं:-
* हरिशंकर परसाई रचनावली: इसमें परसाई जी के लेख छह खण्डों में संकलित हैं।
*रागदरबारी- लेखक श्रीलाल शुक्ल आजादी के बाद के भारतीय गांव समाज का अनूठा चित्रण। अपने ढंग का हिंदी का एकमात्र व्यंग्य उपन्यास।
*कसप- लेखक मनोहरश्याम जोशीजोशीजी की अनूठी शैली में लिखी गयी अप्रतिम प्रेम कथा।
*आदि विद्रोही- लेखक हावर्ड फ्रास्ट अनुवादक अमृतराय रोम के गुलामों के विद्रोह की कहानी। ये गुलाम ग्लैडियेटर कहलाते थे। पीढी़ दर पीढ़ी गुलाम रहते थे। ग्लैडियेटर्स को रोमन लोग अपने मनोरंजन के लिये तब तक लड़ाते थे जब तक दो में से एक मर नहीं जाता था।
*समकालीन पत्र पत्रिकायें तद्बभव, ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस, कथादेश, परिकथा आदि-इत्यादि!
अब इस प्रक्रिया का सबसे कठिन काम उन लोगों के नाम जाहिर करना जिनसे इस कड़ी को आगे बढ़ाने के लिये कहा जाये। मैं चाहूंगा कि मेरे निम्नसाथी इस कड़ी में शामिल हों:-
१.रमनकौल: रमन कौल हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती दिनों से हमारे साथी बने हुये हैं। इधार कुछ दिनों से वे इधर-उधर हो गये लेकिन जब भी कुछ अच्छा काम होता है तो उनकी बधाई अवश्य आती है-खासकर निरंतर से जुड़े मसले पर। उन्होंने वायदा भी किया है कि जल्दी ही उर्दू ब्लाग्स की चिट्ठाचर्चा शुरू करने वाले हैं।प हिंदी चिट्ठाजगत पहली ब्लागर मीट का श्रेय भी उनको ही है जब वे अतुल के यहां जाकर उनसे मिले।
२.हिंदीब्लागर:- जब से हिंदी ब्लागर महोदय ने लिखना शुरू किया हम उनके लेखन के मुरीद हैं। भले ही उनसे परिचय केवल हिंदी ब्लागर के रूप में है लेकिन मुझे लगता है मैं उनको बहुत अच्छी तरह जानता हूं। सिर्फ नाम, पता आदि दुनिवायी बातें पता करनी हैं। वे तो जिस दिन मन होगा हम पता कर लेंगे। वे मुझे अपने दिल के करीब लगते हैं।
३. सीमाकुमार:- मैंने सीमाजी से कहा था कि वे फैशन डिजाइनिंग वगैरह से जुड़ी बातें बताते हुये लिखना शुरू करें। उन्होंने हां भी कहा था। लेकिन अभी तक उन्होंने केवल कुछेक कविताऒं और चंदेक सूचनाओं से आगे लिखना शुरू नहीं किया है। हमें उनके बहुमुखी लेखन का इंतजार है।
४. बेजीजी:- बेजीजी को हमारा चिट्ठाचर्चा करने का अन्दाज बहुत भाता है। यह बात जब उन्होंने अपनी एक टिप्पणी में लिखी तो हम और मेहनत से चर्चा में जुट गये। यह खास ख्याल रहते हुये कि कहीं बेजीजी का चिट्ठा न छूटने पाये- तारीफ़ आदमी को कहीं का नहीं छोड़ती। बेजीजी की छोटी-छोटी, सहज कवितायें बिना बोर हुये पढ़ना अपने-आप में मजेदार अनुभव है।
५.मैथिलीजी: जैसा धुआंधार स्वागत मैथिलीजी का हिंदी ब्लाग जगत में हुआ वैसा शायद अभी तक किसी का नहीं हुआ। आज मैथिलीजी हमारे लोगों के ब्लाग पर नियमित टिप्पणी करने वालों में से हैं। सालों पहले बैंक से सेवा निवृत्ति के बाद वे अब हिंदी सेवा के लिये कुछ करना चाहते हैं। इंशाअल्लाह जल्दी ही उनकी साइट भी शुरू होने वाले है। हम चाहते हैं कि वे अपने तकनीकी ज्ञान का उपयोग करते हुये नारद से भी जुड़े रहें।
इन पांचों साथियों मेरे पांच सवाल हैं( कुछ सवाल उन्मुक्तजी से कापी किये :)):-
१.आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है? क्यों?
२.आपके जीवन की सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना कौन सी है ?
३.आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते/करती हैं?
४.क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?
अथवा
६. अपने जीवन में आप कौन सा एक काम/लक्ष्य ऐसा है जिसे पूरा करना चाहेंगे /चाहेंगी?
अब हमने अपना होमवर्क करके कापी जमा कर दी। रचनाजी बतायें कि इससे संतुष्ट हैं या नहीं।हम पास हुये या फेल। सवालों के जवाब हमने पूरी ईमानदारी से देने का प्रयास किया है। अब इससे वे संतुष्ट कितना हैं यह वे बतायें।
मेरी पसंद
विष्णु नागर
और रही बात हम लोगों को जी और जीतेंद्र को भाई कहने की तो उन्मुक्तजी ऐसा है कि वहां खाड़ी के देशों के सारे छटे हुये लोगों लोग डर के मारे भाई बोलते हैं। शकील भाई, दाउद भाई, ये भाई-वो भाई। तो ऐसाइच अपन जीतू भाई भी अपना रुतबा जमायेला है। भौत मेनत करेला, दंड पेलेला है। इधर का माल उधर करना। नारद पर सटाना सब कुछ करेला। इसी लिये अक्खा ब्लागर लोग इसको भाई बोलता। टेंशन नई लेने का।
१. मेरे लिये चिट्ठाकारी के मायने: जैसा मैं कई बार लिख चुका हूं कि हम मजाक-मजाक में चिट्ठाजगत में धंस गये| एक बार जो धंसे तो फिर धंसते चले ही गये। रविरतलामी का लेख पढ़कर, देबाशीष के ब्लाग पर मौजूद छहारी के लिंक से सूरदास की तरह टटोल-टटोलकर टाइप किये कुल जमा नौ शब्दों से पहली पोस्ट लिखी। होते करते अब हम सबसे लम्बी पोस्टें लिखने वाले चिट्ठाकार के रूप में बदनाम हो गये। लोग हमारी पोस्ट देखकर, फुरसत से पढ़ेंगे, सोचकर हमारा ब्लाग पढ़ना स्थगित करते रहे। और वह फुरसत किसी को कहां मयस्सर। बहरहाल, अब लोगों ने मजबूरी में ही सही मेरी पोस्ट पढ़ना शुरू किया है।
ब्लागिंग मेरे लिये शुरू में अभिव्यक्ति का माध्यम बनी। अपना सारा पहले का लिखा कूड़ा कबाड़ हमने अपने ब्लाग पर डाल दिया, डालते गये। अनुगूंज शुरुआती दिनों में अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम बना। अनुगूंज के जरिये हमने कुछ नये लेख बहुत मन लगाकर लिखे। उनमें मेरा सबसे पहला लेख -क्या देह ही है सब कुछ मुझे अभी भी लुभाता है। अनुगूंज की दुबारा अविलम्ब शुरुआत होनी चाहिये। अनुगूंज के साथ ही हम लोग उन दिनों अंग्रेजी ब्लागरों द्वारा आयोजित ‘ भारतीय ब्लाग मेला‘ प्रतियोगिता में भी कुछ दिन उचक-उचक कर हिंदी के ब्लाग नामांकित किये। एक बार जब हिंदी के कई ब्लाग वहां चर्चित हुये तो अतुल की ‘डांसिग-मेल’ आयी- हिंदी ब्लाग मेला में छा गयी। उसमें होना-हवाना कुछ नहीं था लेकिन कुछ चर्चा होती थी हम उसी में निहाल हो जाते थे। एकाध बार अतुल, जीतेन्द्र से पंगा हुआ। कुछ लोगों ने अपने ब्लाग में कलाकारी पूर्ण फोटो लगाये उसको अतुल और जीतेंन्द्र ने करमचंद जासूस बनकर फ्राड बताया। फिर बाद में उन लोगों ने हम लोगों के ब्लाग की चर्चा बन्द कर दी। इसपर बड़ा वबाल हुआ। हम सब लोगों ने मैडमैन नामक ब्लागर के यहां इतनी टिप्पणियां कीं कि बेचारा पगला गया और उसने अपने ब्लाग पर कमेंट बन्द कर दिये। फिर उसी समय अक्षरग्राम पर तमामबहसे हुयीं। निरंतर का प्रकाशन शुरू हुआ। उसी समय चिट्ठाचर्चा शुरू किया गया। चिट्ठाचर्चा शुरू करने के पीछे ‘ब्लाग मेला’ में कुछ अंग्रेजी ब्लागरों द्वारा हिंदी ब्लाग से बिदकने के कारण अपना मंच बना था। वे हिंदी से बिदकते थे। हमने कहा हम दुनिया की किसी भी भाषा की चर्चा करेंगे। कुछ दिन इसे मैं अकेले लिखता रहा। अंग्रेजी ब्लाग्स के बारे में भी लिखने के कारण इसे वे भी पढ़ते थे। लेकिन समय के अभाव के कारण इसे बाद में स्थगित करना पड़ा। बाद में हमें अंदाजा लगा कि हमारा तरीका गलत था। फिर हमने अपने और साथियों से अनुरोध किया और अब मेरे ख्याल में चिट्ठाचर्चा हमारे ब्लाग जगत की एक उपलब्धि है। आगे मेरा मन है कि हम इसे इसके मोटो ‘दुनिया की किसी भी भाषा के चिट्ठे का चर्चा’ के अनुरूप बना सकें तो क्या कहने!
चिट्ठाचर्चा, निरंतर और अभिव्यक्ति के साथ-साथ मेरा अपने लेखन के अलावा इधर-उधर सहयोग होने लगा। फिर स्वामीजीने एक दिन मुझपर डोरे डाले और हमें हिंदनी पर बैठा दिया। उस समय मैं सोचता था कि हर हफ़्ते एक लेख चिट्ठाकारी के काफ़ी है। महीने में चार लेख हमारा लक्ष्य था। हम उसे बखूबी हासिल भी कर रहे थे। लेकिन अब हालत यह है कि हम इसमें इतना डूब गये हैं कि अगर दो दिन कुछ न लिखें तो लगता है पाप कर रहे हैं। पहले हमें अपने विजिटर देखने का भी शौक बहुत था। दिन में कई बार काउंटर देखते कि कितने लोग आये, कितने गये। अब अर्सा हो गया आवा-जाही का रिकार्ड देखे।
पहले हम सोचते थे ये लिखें, ऐसा लिखें-वैसा लिखें। लिखने के पहले नयी नवेली दुल्हन की तरह सजाव-श्रंगार करते थे। बार-बार सोचते थे ये लिखा है इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। लोग क्या कहेंगे। अब हिंदी ब्लागजगत इतना अपना लगता है मैं इन सब सहज सोच से उबर चुका हूं। यह मैं इसलिये लिख रहा हूं ताकि
बता सकूं कि हम भी उस दौर से गुजर चुके हैं जिससे हमारे तमाम साथी आज गुजर रहे हैं।आज टिप्पणियों की बहुत चर्चा होती है। वास्तव में यह तो आना-जाना शुरू करने का बहाना है। नये ब्लागर के लिये दूसरों (पुरानों) के ब्लाग पर टिप्पणियां करना उनको अपने आगमन के बारे में सूचना देना जैसा है। यह एक जरिया है जिससे वे आपके ब्लाग पर पहुंचते हैं। नारद तो एक रिजर्वेशन काउंटर है। आपको डिब्बे में बैठाना का जरिया। डिब्बे के अंदर तो आपको अपना व्यवहार खुद ब खुद बनाना है। अगर आप चाहते हैं कि लोग आपके लेखन के बारे में राय जाहिर करें तो कभी-कभार आपको भी अपनी राय जाहिर करने का विचार बनाना चाहिये।
हम कहां ये क्या लिखने लगे। हमें तो अपने लिये चिट्ठाकारी के मायने लिखने थे। ये सब अटरम-सटरम पढ़कर कहीं रचना जी हमारा पूरा जवाब न खारिज कर दें। लेकिन क्या करें आदत से मजबूर हैं। असल में दो-ढाई साल की इतनी अधिक यादे हैं कि वे मौका मिलते ही छलकने लगती हैं।
अब मेरे लिये चिट्ठाकारी अभिव्यक्ति का जरूरी माध्यम बन गयी है। अपने विचार यहां लिखकर सुकून मिलता है। हमारे तमाम दोस्तों ने कहा कि अपना लिखा छपाते क्यों नहीं। कहीं भेजते क्यों नहीं लेकिन हम अपन राम इसी में मस्त हैं। पिछले दिनों हमने अपने सारे लेखन का प्रिंट आउट लिया। करीब दो सौ लेख का वजन २० किलो। कोई पूछे कि कितना लिखा तो हम कह सकते हैं बीस किलो। रद्दी कागज का भाव अगर दो रुपये किलो लिया जाये तो हमने चालीस रुपये के बराबर लिख लिया।
मौज-मजे के लिये शुरू की गयी चिट्ठाकारी अब हमारे लिये अपनी मातृभाषा, राजभाषा की सेवा करने का कारण बनती जा रही है। लोगों को अपनी समझ से हिंदी के बेहतरीन लेखन से परिचित कराने का प्रयास इसी लालच के कारण होने लगा कि मन करता है जो हमने अच्छा पढ़ा उसे हमारे साथी भी जानें। खुद पढ़ें
दूसरों को भी पढ़ायें। इसके अलावा अब चिट्ठाकारी मेरे लिये नेट पर हिंदी भाषा को समृद्ध करने के एक उपाय के रूप में सामने आयी है। इंटरनेट पर हिंदी की अधिकाधिक सामग्री उपलब्ध करने कराने का संकल्प धीरे-धीरे करके आकार ले रहा है। आज नहीं तो कल मैं जितना हो सका उतना नेट हिंदी से संबंधित सामग्री उबलब्ध कराने का प्रयास करुंगा और मुझे पूरा भरोसा है कि हमारे तमाम साथी भी जितना हो सकेगा उतना इसमें अपने तरीके से सहयोग करने का प्रयास करेंगें।
तो रचनाजी, चिट्ठाकारी यात्रा ने हमें ‘ अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है के मौज-मजे और कौतूहल से शुरू करके इधर-उधर की गप्पाष्टक करते हुये हिंदी को समृद्ध करने के संकल्प के उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां हम सोचने और कहने लगे हैं ‘अब हम देखते हैं ई कैसे नहीं होगा’। चिट्ठाकारी हमारे लिये ‘कइसे होगा’ से शुरु करके ‘कइसे नहीं होगा’ तक की यात्रा है जिसकी मंजिल है ‘देखो हम कहते थे अब हो गया न!‘ अपनी तमाम तकनीकी सीमाऒं के बावजूद मुझे इस बारे में कोई दुविधा नहीं है कि अगर हम चाहे तो हिंदी भाषा की समृद्धि के लिये इतना योगदान दे सकते हैं कि खुद हमको ताज्जुब होगा एक दिन -अरे यह हमने किया, हमने कर डाला, वाह क्या बात है।
२.चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना :हम मिलनसार व्यक्ति हैं। अपने पसंदीदा लोगों से मिलने में हमें मिलना अच्छा लगता है। जब किसी शहर जाते हैं तो प्रयास रहता है कि वहां के अधिक से अधिक दोस्तों से मेल मुलाकात कर लें। हमारी इस आदत के चलते इंद्र अवस्थी ने एक बार मेल में लिखा- शुकुल तो झांखर (कांटेदार झाड़ियां ) हैं, जिसको देखो उससे लिपट जाते हैं। तो सच तो यह है कि अगर मौका मिले तो हम सारे ब्लागर साथियों से मिलना चाहेंगे। उसमें देश-दुनिया के सारे हिंदी चिट्ठाकार शामिल हैं। हम एक बार अपना देश साइकिल से घूम चुके हैं। ज्यादातर हम अपने कालेज के दोस्तों के यहां रुके। अब फिर से भ्रमण कामना होने लगी है। शायद शहर-शहर घूमते हुये ब्लागर साथियों मिलन-योग हो। और एक बात हम साफ़ कर दें कि हम जिससे मिलना चाहते हैं उसके पते, फोन नंबर के कभी मोहताज नहीं रहे। सब मिल जाता है जब मिलने का मन होता है- बशर्ते अगला बचने का प्रयास न करे। वो कहा भी है तुलसीदास जी ने -जेहि पर जाकर सत्य सनेहू, मिलहिं सो तेहिं नहिं कछु सन्देहू। हम परसाईजी से मिलने गये तो हमें सिर्फ़ यह पता था कि वे नेपियर टाउन में कहीं रहते हैं। हम खमरिया से घूमते-टहलते उनसे मिलकर ही वापस लौटे। ऐसे ही एक बार हम इलाहाबाद के तेलियरगंज में चार घंटे घूमते रहे अपने एक मित्र यादव जी की तलाश में और लौटे तभी जब गले लगे हुये यादवजी से सुन लिया- अरे गुरुदेव आप! चाय-पान गप्प-सड़ाका होना तो अपरिहार्य था। उन दिनों हमने बशीर बद्र से यह नहीं सुना था-
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से,अब जब हमने कई बार इस शेर को सुन लिया है तब भी हमें लगता है कि यह शेर हमारे लिये नहीं किसी और के लिये लिखा गया होगा।
ये नये मिजाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।
अब जब रचनाजी ने हमसे पूछा है कि यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है? इसका जवाब यह हम तो सबसे मिलना चाहते हैं और चूंकि यह सवाल रचनाजी ने पूछा है तो हम यही कहना चाहते हैं कि हम सबसे पहले आप से ही मिलना चाहते हैं। वैसे यह विचार है खतरनाक क्योंकि रचनाजी ने अपने बारे में लिखते हुये बताया है कि वे किसी भी मजाक का बुरा मान सकती हैं और हम मजाक करते रहना मेरी आदत हैं।
३. चिट्ठाकारी से व्यक्तित्व में बदलाव: चिट्ठाकारी अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम है। इधर लिखा-पोस्ट किया, उधर से टिप्पणी आ गयी। यह वास्तव में आश्चर्यजनक किंतु सत्य टाइप का मामला है। इसके अलावा अगर मैं अपने बारे में कहूं तो मेरे अन्दर कई बदलाव आये। लिखना शुरू हुआ। लोगों से परिचय बढ़ा। दुनिया-जहान के बारे में प्राथमिक जानकारियां पाते रहने का सिलसिला बना। अपने बारे में नये सिरे से जानने का मौका मिला। हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हम अपने संस्मरण लिखेंगे लेकिन अतुल के संस्मरण पढ़कर उसे लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। हमने कभी सोचा नहीं था कि प्रोग्रामिंक सीखेंगे लेकिन अब अक्सर सोचते हैं कि सीखा जाये। नेट पर हिंदी को समृद्ध करने की चाह कभी इतनी बलवती नहीं रही जितनी अब चिट्ठाकारी करने के बाद हुयी। नये दोस्तों की दुनिया खुली हमारे लिये इसकी बदौलत। आज देश-दुनिया में चारो तरफ़ आपा-धापी है, दुनिया बगटुट भागती जा रही है न जाने किस तरफ़। ऐसे में भी हमें सुकून और ताजगी का अहसास होता है अपने चिट्ठाकार दोस्तों के माध्यम से। अपने दोस्तों से संपर्क करके और उनके तमाम निस्वार्थ योगदान देखकर देखकर लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितनी लोग कहते हैं। अब चाहे इसे मेरी खामख्याली समझा जाये लेकिन यह सच है कि चिट्ठाकारी शुरू करने के बाद से मेरे मन में अच्छाई के प्रति विश्वास बढ़ा है, मेरा खुद का आत्मविश्वास बढ़ा है और मुझे यह फिर से लगने लगा है कि हम चाहें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।
पसंदीदा पोस्ट: वैसे तो अपनी कई पोस्टें मुझे पसंद हैं। स्वामीजी तो कहते हैं कि मैंने ये पीला वासंतिया चांद से अच्छी कोई पोस्ट अभी तक नहीं लिखी। लेकिन मुझे इसके अलावा अपने गुरुजी के ऊपर लिखा संस्मरण सतगुरु की महिमा अनत सबसे ज्यादा अच्छा लगता है। मैं उसे पढ़ने की बात तो छोडि़ये उसको याद करने मात्र से भावुक हो जाता हूं।
दोस्तों की तो तमाम पोस्टें हैं जो मुझे बेहद पसंद हैं। आजकल तो लोग एक से एक अच्छी पोस्ट लिख रहे हैं। ऐसे में किसी एक पोस्ट के बारे में कहना बड़ा कठिन है। लेकिन मुझे एक पोस्ट स्वामीजी की याद आती है जो उन्होंने शिक्षा व्यवस्था के बारे में अनुगूंज में लिखी थी। उस समय तक स्वामी का लेखन का अन्दाज धुंआधार टाइप का था। अब लोगों को पता नहीं लैसी लगे लेकिन वह पोस्ट मेरे दिमाग में एक बेहतरीन पोस्ट के रूप में दर्ज है। हिंदी ब्लाग जगत की कुछ बेहतरीन पोस्ट देखने का मन रखने वालों को अनुगूंज की पुरानी पोस्टें देखनी चाहिये।
मेरी पसंद की पुस्तकें: किताबें पढ़ना मुझे सबसे अच्छा लगता है। कुछ किताबों को मैं बार-बार पढ़ता रहता हूं। उनमे प्रमुख हैं:-
* हरिशंकर परसाई रचनावली: इसमें परसाई जी के लेख छह खण्डों में संकलित हैं।
*रागदरबारी- लेखक श्रीलाल शुक्ल आजादी के बाद के भारतीय गांव समाज का अनूठा चित्रण। अपने ढंग का हिंदी का एकमात्र व्यंग्य उपन्यास।
*कसप- लेखक मनोहरश्याम जोशीजोशीजी की अनूठी शैली में लिखी गयी अप्रतिम प्रेम कथा।
*आदि विद्रोही- लेखक हावर्ड फ्रास्ट अनुवादक अमृतराय रोम के गुलामों के विद्रोह की कहानी। ये गुलाम ग्लैडियेटर कहलाते थे। पीढी़ दर पीढ़ी गुलाम रहते थे। ग्लैडियेटर्स को रोमन लोग अपने मनोरंजन के लिये तब तक लड़ाते थे जब तक दो में से एक मर नहीं जाता था।
*समकालीन पत्र पत्रिकायें तद्बभव, ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस, कथादेश, परिकथा आदि-इत्यादि!
अब इस प्रक्रिया का सबसे कठिन काम उन लोगों के नाम जाहिर करना जिनसे इस कड़ी को आगे बढ़ाने के लिये कहा जाये। मैं चाहूंगा कि मेरे निम्नसाथी इस कड़ी में शामिल हों:-
१.रमनकौल: रमन कौल हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती दिनों से हमारे साथी बने हुये हैं। इधार कुछ दिनों से वे इधर-उधर हो गये लेकिन जब भी कुछ अच्छा काम होता है तो उनकी बधाई अवश्य आती है-खासकर निरंतर से जुड़े मसले पर। उन्होंने वायदा भी किया है कि जल्दी ही उर्दू ब्लाग्स की चिट्ठाचर्चा शुरू करने वाले हैं।प हिंदी चिट्ठाजगत पहली ब्लागर मीट का श्रेय भी उनको ही है जब वे अतुल के यहां जाकर उनसे मिले।
२.हिंदीब्लागर:- जब से हिंदी ब्लागर महोदय ने लिखना शुरू किया हम उनके लेखन के मुरीद हैं। भले ही उनसे परिचय केवल हिंदी ब्लागर के रूप में है लेकिन मुझे लगता है मैं उनको बहुत अच्छी तरह जानता हूं। सिर्फ नाम, पता आदि दुनिवायी बातें पता करनी हैं। वे तो जिस दिन मन होगा हम पता कर लेंगे। वे मुझे अपने दिल के करीब लगते हैं।
३. सीमाकुमार:- मैंने सीमाजी से कहा था कि वे फैशन डिजाइनिंग वगैरह से जुड़ी बातें बताते हुये लिखना शुरू करें। उन्होंने हां भी कहा था। लेकिन अभी तक उन्होंने केवल कुछेक कविताऒं और चंदेक सूचनाओं से आगे लिखना शुरू नहीं किया है। हमें उनके बहुमुखी लेखन का इंतजार है।
४. बेजीजी:- बेजीजी को हमारा चिट्ठाचर्चा करने का अन्दाज बहुत भाता है। यह बात जब उन्होंने अपनी एक टिप्पणी में लिखी तो हम और मेहनत से चर्चा में जुट गये। यह खास ख्याल रहते हुये कि कहीं बेजीजी का चिट्ठा न छूटने पाये- तारीफ़ आदमी को कहीं का नहीं छोड़ती। बेजीजी की छोटी-छोटी, सहज कवितायें बिना बोर हुये पढ़ना अपने-आप में मजेदार अनुभव है।
५.मैथिलीजी: जैसा धुआंधार स्वागत मैथिलीजी का हिंदी ब्लाग जगत में हुआ वैसा शायद अभी तक किसी का नहीं हुआ। आज मैथिलीजी हमारे लोगों के ब्लाग पर नियमित टिप्पणी करने वालों में से हैं। सालों पहले बैंक से सेवा निवृत्ति के बाद वे अब हिंदी सेवा के लिये कुछ करना चाहते हैं। इंशाअल्लाह जल्दी ही उनकी साइट भी शुरू होने वाले है। हम चाहते हैं कि वे अपने तकनीकी ज्ञान का उपयोग करते हुये नारद से भी जुड़े रहें।
इन पांचों साथियों मेरे पांच सवाल हैं( कुछ सवाल उन्मुक्तजी से कापी किये :)):-
१.आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है? क्यों?
२.आपके जीवन की सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना कौन सी है ?
३.आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते/करती हैं?
४.क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?
अथवा
६. अपने जीवन में आप कौन सा एक काम/लक्ष्य ऐसा है जिसे पूरा करना चाहेंगे /चाहेंगी?
अब हमने अपना होमवर्क करके कापी जमा कर दी। रचनाजी बतायें कि इससे संतुष्ट हैं या नहीं।हम पास हुये या फेल। सवालों के जवाब हमने पूरी ईमानदारी से देने का प्रयास किया है। अब इससे वे संतुष्ट कितना हैं यह वे बतायें।
मेरी पसंद
बुश बेचारा तो शान्ति चाहता था-
वह तो कह रहा था
सद्दाम तू मेरे को पसन्द नहीं
और भैया तू अपना मुल्क छोड़कर चला जा
सद्दाम गया नहीं तो बुश बेचार क्या करता?
विष्णु नागर
Posted in बस यूं ही | 28 Responses
मुसीबत है कि चेन्नई मे मीलने का सवाल ही नही उठता , नागपूर मे आजकल अच्छी पुस्तके मिलना बंद हो गयी है! अब इसे प्राप्त कैसे करें ?
१.//अब हमने अपना होमवर्क करके कापी जमा कर दी। नहीं।हम पास हुये या फेल। अब इससे वे संतुष्ट कितना हैं यह वे बतायें।//
आप पास तो अच्छे नंबरों से हो गये हैं, लेकिन २-२ नम्बरों के प्रश्नो के लिये इतने बडे-बडे जवाब! मानों हमारी पढने की परिक्षा ली जा रही हो! और मेरे असंतुष्ट होने के लिये आपने कुछ बाकी नही रखा है!
२.आपकी तो दोनों अच्छी पोस्ट मैने पढी हैं, स्वामी जी का एक बेहतर लेख पढने को मिला. शुक्रिया.
३.//हम सबसे पहले आप से ही मिलना चाहते हैं।//
मै इस मजाक का बुरा नही मान रही!
४.आपका चिट्ठाकारी का अनुभव जानना सुखद रहा!
५.//जवाब देंगे तो खुशी होगी, को ही ध्यान में रखते हुये जवाब देने का प्रयास करके उनको खुश करने का प्रयास किया है।//
खुशी देने का बहुत धन्यवाद!
और अन्त मे – भाई के ऐसी व्याख्या!!! जीतू भाई आशा है आप हमे माफ करेंगे!
लगता है मुझे जीतू भाई का नाम लेते वक्त उनकी परिचर्चा मे लिखी चिट्ठी का लिन्क देते रहना पडेगा!
सर जी।
वो आप उन ब्लॉग शोधार्थी नीलिमा जी के लिए कितनी सामग्री दिए जा रहे हैं। यह तो हिंदी चिट्ठाकारी के मौखिक इतिहास का पूरा आख्यान है
धन्यवाद
बहरहाल, विष्णु नागर जी की कविता प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद!
कुछ वर्ष पहले पत्रकारों के एक दल में मेवाड़ इलाक़े का दौरा करने का मौक़ा मिला था. शायद चार-पाँच दिन के लिए ले जाया गया था हमें, साक्षरता अभियान की प्रगति देखने के लिए. कई ग्रामीण इलाक़ों में जाना पड़ा. एक गाँव में विष्णु नागर जी गाँव वालों से बातचीत ख़त्म करने को तैयार ही नहीं दिख रहे थे. दूसरी ओर साथ गए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रतिनिधि बेचैन हो रहे थे. यहाँ तक कि मानव संसाधन मंत्रालय और यूनीसेफ़ के प्रतिनिधियों को भी लग रहा था कि देर हो रही है. विष्णु नागर जी हमारे दल के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति थे, सो उनको वहाँ से उठने के लिए कहने को कोई आगे नहीं आ रहा था. आख़िरकार, ये काम मुझ सौंपा गया. मैंने उनके कान में धीरे से कहा- ‘नागर जी, चला जाए. अभी और कई कार्यक्रम हैं.’ उनका जवाब था- ‘मुझे पता है अगला कार्यक्रम उदयपुर शहर में है. लेकिन शहर के बनावटी लोगों के बीच समय गुजारने से बेहतर नहीं है कि इन निष्कपट ग्रामीणों की कुछ और बातें सुनी जाए?’
उस दौरे के बाद विष्णु नागर जी से अगली मुलाक़ात हुई तो उन्हें हिंदुस्तान अख़बार के लिए रक्षा मंत्रालय की रिपोर्टिंग करते पाया. मुझे अच्छा नहीं लगा. उनके जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए रक्षा मंत्रालय की ‘बीट’ मुझे ठीक नहीं लगी. कादम्बिनी पत्रिका में वो कहीं ज़्यादा संतुष्ट होंगे. हालाँकि, प्रबंधकों के व्यावसायिक निर्देशों के अनुरूप पत्रिका में लाए गए बदलावों को लेकर वो बहुत ख़ुश तो नहीं ही होंगे.
पर अब चूँकि आप हमारा नाम लिख चुके हैं कोशिश करेंगे की उत्तर लिख सकें ।
आपका चिट्ठा पूरा बडे ध्यान से पढा…अपना नाम जो ढूँढ रही थी…एक सलाह देना चाहती हूँ …सायकल से दु़बई मत आना…पन्कचर हुई तो ऊंट करना पडेगा ।
एक और बात पूछ्नी थी आप मेरे चिट्ठो का प्रमोशन कर रहे हैं या डिमोशन !
“बेजीजी की छोटी छोटी कवितायें बिना पढ़ना अपने-आप में मजेदार अनुभव है।”
@अफलातूनजी, शुक्रिया।
@आशीष, परसाई रचनावली राजकमल प्रकाशन दिल्ली में मिलेगी। जल्द ही हम विवरण भेजेंगे और तब तक परसाईजी की रचनायें जो भवनेश ने ई-बुक फार्म में मुझे भेजी हैं।
@जगदीशजी, आपका मन खुला है इसीलिये झट से उसे छू लेते हैं हमारे लेख!
@रचनाजी, शुक्र है आपने हमे पास कर दिया। जीतू को भाई वाले कोई भी लिंक आप दिखाऒ सच हमसे बेहतर आप नहीं जानतीं। जीतू को हम तब से जानते हैं जबसे उन्होंने लिखना शुरू किया। परिचर्चा तो अब शुरू हुयी है। हमारी न जाने कितनी चर्चाये हैं जिनका कोई लिंक नहीं है। और आपको यह सच बताने का कोई लिंक नही मिलेगा कि अगर हम जीतू की खिंचाई न करें तो बेचारे की तबियत बिगड़ जाती है। बुरे सपने आते लगते हैं उसे। अब बताओ आप कि हम आपके लिंक देखेंगे कि अपने कनपुरिया भाई की सेहत
@मसिजीवी, अभी इन घटनाऒं के लिंक भी दे देंगे नीलिमाजी को तब उनको और अच्छा लगेगा। ज्यादा मसाला मिल जायेगा।
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना.
हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। इधर जो चुनाव हो रहे हैं, उनका परिणाम चाहे जो भी हो हमारी ओर से सबसे बढ़िया ब्लागर का अवार्ड आपको दिया जाता है। ईनाम की पुस्तक और सीडी आप तक शीघ्र पहुँच जाएगी।
मेरी आंखों मे खिला था पहले
आज इस बात पर गर्व महसूस होता है की आपका पहला लेख पढ कर ही मैने हिंदिनी बनाने की सोची थी.
कुछ दिन पहले पंकज बैंगानी पूछ रहे थे की आपने और हमने हिंदिनी और तरकश को एक साथ जूमला पर लाने की बात की थी – आप हिंदिनी को जूमला पर कब ला रहे हैं?
मैंने उन्हे बताया की भाई हिंदिनी को जूमला पर लाने का एकमात्र तरीका ये है की पूरी नई साईट हो उस पर पुराने लेख भी हों और साथ ही हमारे ब्लाग जैसे हैं वो भी वैसे के वैसे रहें. कारण ये है की फ़ुरसतियाजी के लेखों की इतनी ट्रेकबैक और कडियां सहेजी गई हैं की उन्हें हटा नही सकते. ऐसा है आपका लेखन – पाठकों ने कडियां तक सहेजी हुई हैं – खुद मैने भी.
इतना प्रेम मिला है की आज हिंदिनी पर ६०% लोग सीधे आते हैं. हिंदिनी नेटवर्क बढाने की चाह तो होती है लेकिन आपकी टक्कर के लिखने वाले और नियमित, अनुशासित ब्लागर्स कहां से लाऊं? अतुल व्यस्त है, गोविंदजी के पास हार्डवेयर की समस्या है, इंद्र अवस्थीजी तो धूमकेतू के समान बरसों में एक टिप्पणी कर के गायब हैं.
इस स्थिती में सुधार जरूरी है. मैं एक लेख को चार साईट्स पर छाप कर हिंदी की सेवा करने में यकीन नही करता – नए कद्दावरों वाली नई साईट को देखने में जरूर करता हूं. दोहराव नहीं.
आज हिंदिनी के काऊंटर नही देखते हैं हम वो गौण बात है, साईट पर परिचय के पन्ने जोडना बकाया हैं. लेकिन आज उससे अधिक विकिपीडिया के बारे में लेख सब तक पहुंचाना प्राथमिक हो जाता है – हमारी प्राथमिकताएं तो सुधरी हैं.
आशा है की आपकी प्राथमिकताओं, लेखन और अनुशासन से वो हिंदी प्रेमी भी सीख लेंगे जिन्हे कई नए ब्लागर इस लिये नही पढ पाए की वे किन्ही कारणों से लिखना बंद कर चुके -और वे हिंदी को नेट पर लाने, बढानें में अपने योगदान का अंश जोडना भूल चुके. जिन्हें पढना और जिनके साथ काम करना आपको और मुझे प्रिय रहा है.
अब ये बताएं कि भारत भ्रमण पर निकल कब रहे हैं. कम से कम इतना तो मुमकिन हो कि दिल्ली प्रवास पर आएं और मुलाक़ात हो.
@
@रजनीजी, शुक्रिया। देखिये आप हमारे नामराशि से भी कहिये कि वे भी कुछ प्रभावित हॊं!
@शुऐब, पसंद का शुक्रिया!
@मृणाल, प्रभावित होने के लिये क्या कहें! घटनाऒं पर भी तो हमारा बस नहीं!
@भुवनेश, इंतजार खत्म! अब का करोगे?
@ उन्मुक्तजी
@बेजीजी,मैथिलीजी, जुर्म चाहे एक बार किया जाये या सौ बार, सजा ही मिलती है। आपने एक पोस्ट लिखी अब आप दीजिये जवाब!:)
@ समीरलालजी, धन्यवाद! पूछिये हम कोई डरते थोड़ी न हैं सवालों से।
@अभिनव,गुरुजी वाली पोस्ट हमारी सबसे पसंदीदा पोस्ट लगती है। उनकी याद से ही आत्मविश्वास की अनुभूति होती है। किताब, सीडी के लिये अग्रिम शुक्रिया। ब्लागर चुनाव जीतना हमारा कभी ध्येय नहीं रहा। इसीलिये इसके लिये हमने वोट भी नहीं मांगे। हां, सबका परिचय दे दिया। इस उद्धेश्य से कि लोग अपनी उदासीनता त्यागकर शायद वोटिंग करने आयें। जहां तक सबसे बढ़िया ब्लागर के इनाम की बात तो वो हमें तुम्हारे टिप्पणी से ही मिल गया। शुक्रिया।:)
@अंतर्मन,शुक्रिया!
@ अमित ,शुक्रिया!
@स्वामी, यह सच है कि हमारे लेखन के जारी रहने में हिंदिनी पर लिखने का भी बहुत कुछ हाथ है। अब तुम जीनत समझो या कुछ भटकटैया,मजबूरी है!:) यह भी सच है कि समय के साथ नेट पर हिंदी की प्रगति के लिये प्रयास करने का मन बनता गया है!
@नीरज दीवान, शुक्रिया, भारत भ्रमण पर जाने क्यों चलने के पहले हम दिल्ली में तुमसे मुलाकात करने आयेंगे।
@मानसी, शुक्रिया!:)
@ श्रीश,शुक्रिया। हम कहानी सुनाते रहेंगे!
एकदिन मिलेंगे 1 रुपये में 49 डॉलर, तब होगा भारतोदय चिन्मय
आप तो मुझे भी लिखवा कर छोड़ेंगे !!
ये तो थी मजाक की बात । अपना कहा मुझे अच्छी तरह याद है । हाँ, लिखने की गति थोडी़ (या बहुत ) धीमी है । पर लिखूँगी जरूर । आजकल अपने एक सपने को पूरा करने की तरफ भी कुछ काम कर रही हूँ जिसमें काफी समय लग जाता है (यह देखें http://bluenblaze.com/ ) | और भाई की शादी भी है अगले हफ्ते ।
वैसे याद दिलाने के लिए तथा प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद । आपके इस लंबे लेख को भी पढ़ कर काफी अच्छा लगा ।