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पुलिस और प्रार्थना
By फ़ुरसतिया on February 7, 2007
[ऒ. हेनरी की पिछली कहानी पर हमारे रवि रतलामी भाई की फरमाइस थी-ओ.हेनरी
की एक और कहानी - कोई तीस साल पहले पढ़ी थी - जिसमें एक निराश्रित व्यक्ति
आश्रय के लिए जेल जाना चाहता है और वह बहुत सा गैर कानूनी काम करता है
परंतु जेल जा नहीं पाता , और जैसे ही वह कोई अच्छा काम करता है, जेल में
चला जाता है- फिर से पढ़वाएँ तो वाकई मजा आए!अब रवि रतलामीजी के कारण ही हमने ब्लाग लिखना शुरू किया तो उनकी मांग हमारे लिये वी.आई.पी. मांग है। सो सारे काम किनारे करके ऒ.हेनरी की वह कहानी यहां पेश है जिसके लिये रवि रतलामीजी आग्रह किया। ]
मैडिसन चौक की एक बैंच पर सोपी बेचैनी से करवटें बदल रहा था। जब जंगली बत्तखें, रात में भी जोर से चीखने लगें, जब सील के चमड़े के ओवरकोट के अभाव
में स्त्रियां अपने पतियों से अधिक सट कर बैठने लगें और जब बाग में पड़ी हुई बैंच पर सोपी बेचैनी से करवटॆं बदलने लगे, तब आप कह सकते है कि सर्दी
का आगमन होने ही वाला है।
सोपी की गोद में एक सूखा हुआ पत्ता आ गिरा। यह पाला पड़ने की पूर्वसूचना थी। मैडिसन चौक के निवासियों के प्रति पाला महाशय बहुत ही उदार हैं और अपने वार्षिक आगमन की पूर्वसूचना उन्हें भेज देते है। हर चौराहे पर पाला महाशय, उत्तरी पवन को, जो फ़ुटपाथ के निवासियों के लिए चपरासी का काम करता है, अपना विजिटिंग कार्ड सूखे पत्तों के रूप में दे देते हैं, ताकि वे उनके स्वागत को तैयार रहें।
सोपी के मस्तिष्क ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया कि अब उसे आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के लिए कमर कसनी पड़ेगी। और इसी कारण आज वह बेंच पर बेचैनी से करवटें बदल रहा था।
शीत से बचने के लिए सोपी के दिमाग में कोई ऊंची कल्पनाएं नहीं थी। भूमध्यसागर के किनारे या विसूवियस की खाड़ी के मादक आसमान के नीचे उद्देश्यहीन घूमने की उसकी महत्वाकांक्षा नहीं थी। उसकी आत्मा तो सिर्फ़ यह चाहती थी कि तीन महीने जेल में कट जायें। तीन महीने तक रहने, खाने की निश्चित व्यवस्था, हमजोलियों का सहवास और कड़ाके की सर्दी एवं पुलिस के सिपाहियों से रक्षण- यही उसकी वांछनाओं का सार था।
बरसों तक ब्लैकवैल का मेहमाननवाज जेलखाना ही उसका सर्दियों का निवास-स्थान रहा है। जिस प्रकार न्यूयार्क के अन्य भाग्यवान लोग हर वर्ष सर्दियां बिताने के लिए रिवीरा या पामबीच के टिकट कटाते थे उसी प्रकार सोपी ने भी जाड़ो में जेल में हिजरत करने कि मामूली व्यवस्था कर ली थी। और अब वह समय आ गया था। पिछली रात उसी चौक में फ़व्वारे के पास एक बैंच पर उसने रात काटी; परन्तु कोट के नीचे, घुटनों पर और कमर पर लपेटे हुए तीन मोटे-मोटे अखबार भी सर्दी से उसकी रक्षा नहीं कर सके थे। इसलिए उसे जेल की याद सताने लगी। शहर के गरीबों के लिए सोने की जो धर्मार्थ व्यवस्था की जाती थी, वह उसे पसन्द नहीं थी। सोपी की राय में परोपकार से कानून कहीं अधिक दयालु था। शहर में नगरपालिका की ओर से कई सदाव्रत और संस्थाएं चलती थीं, जहां उसके खाने और सोने की सामान्य व्यवस्था हो सकती थी। परन्तु सोपी जैसी स्वाभिमानी आत्माओं को, दान की यह भिक्षा असहनीय बोझ लगती थी। दान के हाथों प्राप्त की गयी किसी भी सहायता का मूल्य, आपको रूपयों से नहीं तो मानभंग से चुकाना ही पड़ता है। जिस प्रकार सीजर के साथ ब्रूटस था, उसी प्रकार धर्मशाला की हर चरपाई के साथ स्नान करने की सजा और सदाव्रत की रोटी के हर टुकड़े के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन की छानबीन का दण्ड, आवश्यक रूप से जुड़ा रहता है। इसलिए कानून के मेहमान बनना ही बेहतर है क्योंकि कानून, नियमों से संचालित होने पर भी, किसी शरीफ़ आदमी के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देता।
जेल जाने का निश्चय करते ही सोपी ने तुरन्त तैयारियां आरम्भ कर दीं। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के अनेक आसान तरीके हैं। सबसे सुखद उपाय यह था कि किसी बढ़िया होटल में शानदार भोजन किया जाये और उसके बाद स्वयं को दिवालिया घोषित कर बिना शोरगुल हुए, चुपचाप पुलिस के हाथों में पहुंचा जाये। इसके बाद की व्यव्स्था कोई समझदार मैजिस्ट्रेट अपने आप कर देगा।
सोपी बेंच से उठकर चौक से बाहर निकला और पक्की सड़कों के जाल को लांघता हुआ वहां पहुंचा, जहां पांचवी सड़क ब्राडवे से मिलती है। वह ब्राडवे की तरफ़
मुड़ा और एक चमचमाते हुए होटल के सामने रूका, जहां हर रात रेशमी कपड़ो की तड़क-भड़क दिखाई देती है, अंगूर की बढ़िया शराब की नदियां बहती हैं और
स्वादिष्ट व्यंजनों के ढेर लगे मिलते हैं।
सोपी को कमर से ऊपर पहिने हुए कपड़ो पर तो पूर्ण विश्वास था। उसकी दाढ़ी बनी हुई थी, कोट अच्छा था और बड़े दिन पर किसी मिशनरी महिला द्वारा भेंट
मिली हुई टाई, उसके संभ्रान्त होनी की घोषणा कर रही थी। यदि वह किसी प्रकार बिना शंका उत्पन्न किये टेबल तक पहुंच जाता, तब तो सफ़लता उसके हाथ
में थी। शरीर का वह भाग, जो टेबल के ऊपर दिखाई देता है, वेटर के मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं जगा सकता। सोपी ने सोचा कि फ़्रांसीसी शराब की एक बोतल, मुर्ग-मुसल्लम, पुडिंग, आधा पैग शैम्पेन और एक सिगार-इतना काफ़ी होगा। सिगार की कीमत तो एक डांलर से ज्यादा नहीं होगी। सब मिलाकर कीमत
इतनी ज्यादा नहीं होनी चाहिये कि होटल मालिक के मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाये; फ़िर भी त्रप्ति इतनी होनी चाहिये कि जाड़ो के निवास स्थान तक की यात्रा आनन्द से कटे।
परन्तु जैसे ही सोपी ने होटल के दरवाजे मे पैर रखा, मुख्य वेटर की नजर उसकी फ़टी पतलून और पुराने जूतों पर पड़ी। तुरन्त ही सुद्र्ढ़ और सधे हुए हाथों ने उसे पकड़कर चुपचाप सड़क पर ला पटका और इस प्रकार मुर्ग मुसल्लम के बरबाद होने की नौबत टल गयी।
सोपी ब्राडवे से वापस लौटा। उसे ऎसा महसूस हुआ कि वांछित ध्येय तक पहुंचने में यह स्वादिष्ट भोजन वाला मार्ग तो काम नहीं देगा। जेल तक पहुंचने का और कोई उपाय ढूढंना चाहिये।
छठी सड़क के मोड़ पर उसे तरह-तरह की चीजों से, करीने से सजायी हुई, एक कांच की खिड़की बिजली की रोशनी में जगमगाती हुई दिखाई दी। सोपी ने पत्थर उठाया और उसे शीशे पर दे मारा। चारों तरफ़ से लोग दौड़े और एक पुलिस का सिपाही भी आ खड़ा हुआ। सिपाही को देखकर सोपी मुस्कराया और अपनी जेबों में हाथ डाले हुए चुपचाप खड़ा रहा।
सिपाही ने तमतमा कर पूछा,”शीशा फ़ोड़ने वाला कहां गया?”
सौभाग्य का स्वागत करते हुए सोपी ने व्यंग के स्वर में सह्रदयता से पूछा, “क्या आप इतना भी नहीं समझते कि इसमें मेरा भी कुछ हाथ हो सकता है?”
सिपाही के दिमाग ने सोपी को दोषी मानने से इन्कार कर दिया। खिड़कियों को पत्थर मार कर तोड़ने वाले, कानून के रक्षकों से गप-शप करने के लिए कहीं रूकते है? वे तो फ़ौरन नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं। पुलिसमैन ने कुछ दूर सड़क पर एक आदमी को बस पकड़ने के लिए भागते देखा और अपना डंडा घुमाता हुआ वह उसके पीछे भागा। दो बार असफ़ल होकर सोपी निराश हो गया और मटरगश्ती करने लगा।
सड़क के उस पार, एक साधारण शानो-शौकत का होटल था। वहां छोटी जेब और बड़े पेट वाले ग्राहक जाया करते थे। घटिया बर्तन और धूमिल वातावरण; पतली दाल और गन्दे मेजपोश। इस स्थान पर सोपी बिना रोक-टोक अपनी फ़टी पतलून और पुराने जूतों समेत जा पहुंचा। वह टेबल पर जा बैठा और पेट भर कर कबाब,
कोफ़्ते, केक और कचौड़ियां खा गया। और तब उसने वेटर के सामने यह रहस्य खोला कि तांबे की एक पाई का भी उसने मुंह नहीं देखा है।
बड़े रौब से उसने वेटर से कहां, “अब जल्दी ही पुलिस को बुलाइये; व्यर्थ में एक शरीफ़ आदमी का वक्त क्यों खराब करते हैं?”
अंगारे- सी लाल आंखे दिखाते हुए, कठोर शब्दों में वेटर ने कहा,” तेरे लिए और पुलिस का सिपाही?” उसने अपने साथी को आवाज दी और सोपी महाशय फ़िर एक
बार निर्दयता से सड़क पर ला पटके गये।
सुथार के गज की तरह धीरे-धीरे एक-एक जोड़ को खोलता हुआ सौपी उठा और कपड़ों की धूल झाड़ने लगा। आज उसके लिए गिरफ़्तारी म्रग-मरीचिका हो चली थी और उसे वह सुखदायी जेल कोसों दूर दिखाई दे रही थी। कुछ दूरी पर एक दुकान के सामने खडे़ हुए सिपाही ने उसे देखा और हंसता हुआ अपने रास्ते चला गया।
काफ़ी देर इधर-उधर भटाकने के बाद सोपी में गिरफ़्तारी की आराधना करने की हिम्मत फ़िर जाग्रत हुई। एक बार जो अवसर आया, वह नासमझ सोपी को अचूक लगा।
मनोहर और सुशील मुखमुद्रा वाली एक नवयुवती, एक दुकान की खिड़की के सामने खड़ी, अन्दर सजी हुई प्यालियां और दावातों को कुछ दिलचस्पी से देख रही थी
और दो गज की दूरी पर ही कठोर मुखाक्रति वाला एक सिपाही नल का सहारा लिये खड़ा था।
सोपी ने इस, बार औरतों को छेड़-छाड़ करने वाले घ्रणित और तुच्छ गुण्डे का पार्ट अदा करने की योजना बनायी। अपने शिकार की सौम्या और भोली सूरत देखकर
तथा कानून के सतर्क पहरेदार को पास में खड़ा जान कर सोपी को यह सोचने का प्रोत्साहन मिला कि शीघ्र ही उसकी बांह पर सिपाही के पंजे की उस सुखदायी
पकड़ का अनुभव होगा जो उसे सर्दियों-भर आरामदायक जेल में पहुंचा देगी।
सोपी ने मिशनरी महिला द्वारा भेंट दी गयी टाई को ठीक किया, सिकुड़ती हुई आस्तीनों को कोत से बाहर निकाला, टोप को तिरछी अदा से पहिना और उस युवती
की तरफ़ बढ़ा। उसने उसकी तरफ़ आंख से इशारा किया, उसे देखकर खांसा-खंखारा, और चेहरे पर बनावटी हंसी ला कर बदतमीजी से घ्रणित गुण्डों की तरह झूमने
लगा। अपने आंख की कोर से तिरछी नजर डाल कर उसने यह देख लिया कि पुलिस का सिपाही उसे घूर रहा है। युवती दो-चार कदम आगे-पीछे हुई और फ़िर अधिक एकाग्रता से खिड़की में सजी हुई चीजों को देखने लगी। सोपी निर्भयता से आगे बढ़ कर उसके पास जा खड़ा हुआ और अपना टोप सिर से उठाकर बोला , “क्यों पंछी! कहीं कुछ तफ़रीह का इरादा है?”
सिपाही अब भी देख रहा था। सतायी हुई युवती की उंगली के एक इशारे मात्र से सोपी अपनी मंजिल तक पहुंच सकता था। अपनी कल्पना में वह थाने की सुखद गरमी में पहुंच भी चुका था। परन्तु युवती उसकी ओर मुंह करके खड़ी हो गयी और अपना हाथ बढ़ाकर उसके कोट की बांह को पकड़ कर खुशी से बोली-”जरूर दोस्त मैं तो बिल्कुल तैयार हूं। मै तो खुद ही तुमसे कहने वाली थी, मगर वह सिपाही जो देख रहा था!”
व्रक्ष से लता के सामान अपनी देह से लिपटी हुई उस लड़की को लिये, अब सोपी मुलिसमैन के सामने से गुजरा, तो उदासी ने उसे घेर लिया। उसके भाग्य में
शायद आजादी ही बदी थी।
अगले मोड़ पर ही वह उस लड़की से पिंड छुड़कर भागा। वहां से वह ऎसे मुहल्ले में पहुंच कर रूका, जहां रात में झूठे वादे करने वाले बेफ़िक्र प्रेमी और शराब-संगीत के दौर चलते है। फ़र के कोट पहिने महिलाएं और बढ़िया ओवरकोट पहिने पुरूष, उस सुहानी हवा में टहल रहे थे। एकाएक सोपी के मन में शंका उठी कि किसी भयानक टोटके ने तो उसे गिरफ़्तारी से परिमुक्त नहीं कर रखा है। इस विचार से वह कुछ घबराया, परन्तु एक भव्य नाटकघर के सामने शान से टहलते हुए एक सिपाही को देखते ही उसके मन मे शराबी का पार्ट अदा करने की योजना फ़िर बिजली की तरह कौंध गयी।
फ़ुटपाथ पर खड़े होकर सोपी ने अपएने कर्कश आवाज में शराबियॊं की तरह बकना और चिल्लाना आरम्भ किया। नाच कर, चीख कर, चिल्ला कर और अनेक तरीकों से उसने आसमान सिर पर उठा लिया।
पुलिसमैन ने डंडा घुमाते हुए सोपी की तरफ़ पीठ कर ली और एक राहगीर से कहने लगा,” ये कालेज का कोई लड़का है। उन्होंने हार्टफ़ोर्ट कालेज को आज बुरी
तरह हराया है, इसलिए खुशियां मना रहा है। सिर्फ़ हल्ला मचाता है- डर की कोई बात नहीं। इन लोगों से कुछ न कहने की हमे हिदायत है।”
दु:खी होकर सोपी ने इस असफ़ल तिकड़म को त्याग दिया। क्या पुलिस के सिपाही उसे कभी गिरफ़्तार नही करेंगे? उसकी कल्पना में जेल एक अप्राप्य स्वर्ग के
समान लगने लगी। उसने ठंडी हवा से बचने के लिए अपने जीर्ण कोट के बटन बन्द कर लिये।
सिगार की एक दुकान में उसने एक सम्भ्रान्त मनुष्य को सिगार सुलगाते हुये देखा। अन्दर जाते समय उसने अपना रेशमी छाता दरवाजे के पास रख दिया था।
सोपी अन्दर घुसा, छाता उठाया और धीरे-धीरे चहलकदमी करता हुआ आगे बढ़ गया। सिगार वाला मनुष्य जल्दी से उसके पीछे चला ।
वह कुछ सख्ती से बोला “मेरा छाता”!
चोरी पर सीनाजोरी करते हुए, सोपी उपहास करने लगा,” क्या वाकई आपका छाता? तो फ़िर आप पुलिस को क्यों नहीं बुलाते? यह खूब रही- आपका छाता! जल्दी
करिये, साहब, पुलिस को बुलाइये, मोड़ पर ही खड़ा है!”
छाते के मालिक ने अपनी चाल धीमी कर दी। सोपी ने भी वैसा ही किया। लेकिन उसके मन में यह आशंका उठ चुकी थी कि इस बार भी भाग्य उसे धोखा दे जायेगा। सिपाही सहमा हुआ उन दोनों की ओर देखता रहा।
छाते वाले ने कहा,” जी हां, जी-आप जानते है, ऎसी गलती हो ही जाती है। अगर यह छतरी आपकी है तो मुझे माफ़ करें। दरअसल बात यह है कि आज सुबह ही मैंने इसे एक होटल से उठाया था। अगर आप इसे पहचानते है-अगर आपकी है तो मै आशा करता हूं कि आप मुझे….।”
सोपी दुष्टता से बोला,”जी हां, निश्चित रूप से यह मेरी है।”
छतरी का तथाकथित स्वामी मैदान छोड़कर भाग गया। पुलिसमैन भी काफ़ी दूर पर दिखाई देने वाली एक मोटर से सड़क लांघने वाली एक सुन्दरी को बचाने कि लिए चल पड़ा।
सोपी, पूर्व की तरफ़ मरम्मत के लिए खोदी गयी एक सड़क पर आगे बढ़ा। गुस्से से उसने छाते को एक गढ़े में फ़ेंक दिया। सिर पर लोहे की टोपी और हाथ में डंडा
लिये घूमने वाले, पुलिस समुदाय के प्रति उसका मन विरक्ति से भर गया। वह तो उनके पंजो में जंसना चाहता था और सिपाही शाय्द उसे, बुराई से ऊपर उठे
हुए किसी राजा के समान समझ रहे थे।
अन्त में सोपी एक ऎसे मुहल्ले में पहुंचा जहां कोतवाल और प्रकाश बहुत कम था। एक मार्ग से होकर वह मैडिसन चौक की दिशा में चला। घर का मोह मनुष्य
को अपनी ओर खींचता ही है, चाहे उसका घर किसी पार्क की बैंच ही क्यों न हो।
लेकिन एक अत्यन्त नीरव स्थान पर सोपी के पांव रूप गये। यहां एक पुराना गिरजा था-टूटा-फ़ूटा, विलक्षण और महराबदार। बैंगनी रंग के कांच वली खिड़की
में से मन्द प्रकाश छन रहा था और निश्चय ही अगले इतवार की प्रार्थना की तैयारी में लीन पियानो बजाने वाला परदों पर उगलियां नचा रहा था।
स्वर्गीय संगीत की मधुर स्वर-लहरी बहती हुई सोपी के कानों तक आयीं जिसने उसे अभिभूत कर गिरजे की चारदीवारी से मानो जकड़ दिया।
आकाश में निर्मल स्निग्ध चांद चमक रहा था। सड़क राहगीरों से सूनी थी। पंछी तन्द्रिल स्वरों में चहचहा रहे थे। वातावरण किसी गांव के गिरजे के समान प्रशान्त था। प्रार्थना के स्वरों सोपी को सींखचों से जकड़ दिया था।
क्योकि वह उस प्रार्थना से परिचित था- उसने इसे इस युग में सुना था जब कभी उसके जीवन में पवित्र विचारों , साफ़ कपड़ो आकांक्षाओं, फ़ूलों, माताओ, बहनो, और मित्रो का भी स्थान रहा था।
सोपी के मन की ग्रहणशीलता और पुराने गिरजे के पवित्र प्रभाव के सम्मिलन ने सोपी की अन्तरात्मा में एक अदभुत परिवर्तन ला दिया। आतंकित होकर उसने
उस गर्त की गहराई का अनुभव किया, जिसमें वह गिर चुका था अध:पतन के दिन, घ्रणित आकांक्षाएं, कुचली हुई आशाएं. ध्वस्त मानस-जिन्होंने अब तक उसके
अस्तितव को बनाया था, उसके स्म्रतिपट पर उभर आये।
और दूसरे ही क्षण, उसके ह्रदय ने इस नये विचार से उत्साहपूर्वक समझौता कर लिया। सहसा, उसके ह्रदय में अपने दुर्भाग्य से लड़ने की एक बलवती प्रेरणा उत्पन्न हुई। इस दलदल से अपने आपको बाहर निकालने का उसने निश्चय किया। वह फ़िर से अपने आपको मनुष्य बनायेगा। जिस बुराई ने उसे दबोच रखा है, उसे वह जीतेगा। अब भी समय है, उसकी उम्र कुछ ज्यादा नहीं। वह अपनी पुरानी आकांक्षाओं को पुनर्जीवन देकर, बिना लड़खड़ाये पूरी करेगा। पियानों के उन
मधुर स्वरों ने, उसकी आत्मा में एक हलचल मचा दी थी। कल सुबह ही वह शहर के दक्षिणी भाग में जाकर काम ढूंढेगा। फ़र के एक व्यापारी ने उसे एक बार
ड्राइवर की नौकरी देनी चाही थी। कल ही वह उसे ढूंढ कर नौकरी ले लेगा। वह दुनिया में कुछ बनेगा।
सोपी ने आनी बांह पर किसी पकड़ का अनुभव किया। तेजी से घूमते ही उसे एक सिपाही का कठोर चेहरा दिखाई दिया।
सिपाही ने पूछा,”यहां क्या कर रहे हों?”
सोपी ने कहां,”जी, कुछ नहीं?”
सिपाही बोला, “कुछ नहीं? तो मेरे साथ चलो।”
दूसरे दिन सवेरे पुलिस कोर्ट के मैजिस्ट्रेट साहब ने फ़रमाया,”तीन महीने की सख्त कैद।”
-ऒ.हेनरी
मैडिसन चौक की एक बैंच पर सोपी बेचैनी से करवटें बदल रहा था। जब जंगली बत्तखें, रात में भी जोर से चीखने लगें, जब सील के चमड़े के ओवरकोट के अभाव
में स्त्रियां अपने पतियों से अधिक सट कर बैठने लगें और जब बाग में पड़ी हुई बैंच पर सोपी बेचैनी से करवटॆं बदलने लगे, तब आप कह सकते है कि सर्दी
का आगमन होने ही वाला है।
सोपी की गोद में एक सूखा हुआ पत्ता आ गिरा। यह पाला पड़ने की पूर्वसूचना थी। मैडिसन चौक के निवासियों के प्रति पाला महाशय बहुत ही उदार हैं और अपने वार्षिक आगमन की पूर्वसूचना उन्हें भेज देते है। हर चौराहे पर पाला महाशय, उत्तरी पवन को, जो फ़ुटपाथ के निवासियों के लिए चपरासी का काम करता है, अपना विजिटिंग कार्ड सूखे पत्तों के रूप में दे देते हैं, ताकि वे उनके स्वागत को तैयार रहें।
सोपी के मस्तिष्क ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया कि अब उसे आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के लिए कमर कसनी पड़ेगी। और इसी कारण आज वह बेंच पर बेचैनी से करवटें बदल रहा था।
शीत से बचने के लिए सोपी के दिमाग में कोई ऊंची कल्पनाएं नहीं थी। भूमध्यसागर के किनारे या विसूवियस की खाड़ी के मादक आसमान के नीचे उद्देश्यहीन घूमने की उसकी महत्वाकांक्षा नहीं थी। उसकी आत्मा तो सिर्फ़ यह चाहती थी कि तीन महीने जेल में कट जायें। तीन महीने तक रहने, खाने की निश्चित व्यवस्था, हमजोलियों का सहवास और कड़ाके की सर्दी एवं पुलिस के सिपाहियों से रक्षण- यही उसकी वांछनाओं का सार था।
बरसों तक ब्लैकवैल का मेहमाननवाज जेलखाना ही उसका सर्दियों का निवास-स्थान रहा है। जिस प्रकार न्यूयार्क के अन्य भाग्यवान लोग हर वर्ष सर्दियां बिताने के लिए रिवीरा या पामबीच के टिकट कटाते थे उसी प्रकार सोपी ने भी जाड़ो में जेल में हिजरत करने कि मामूली व्यवस्था कर ली थी। और अब वह समय आ गया था। पिछली रात उसी चौक में फ़व्वारे के पास एक बैंच पर उसने रात काटी; परन्तु कोट के नीचे, घुटनों पर और कमर पर लपेटे हुए तीन मोटे-मोटे अखबार भी सर्दी से उसकी रक्षा नहीं कर सके थे। इसलिए उसे जेल की याद सताने लगी। शहर के गरीबों के लिए सोने की जो धर्मार्थ व्यवस्था की जाती थी, वह उसे पसन्द नहीं थी। सोपी की राय में परोपकार से कानून कहीं अधिक दयालु था। शहर में नगरपालिका की ओर से कई सदाव्रत और संस्थाएं चलती थीं, जहां उसके खाने और सोने की सामान्य व्यवस्था हो सकती थी। परन्तु सोपी जैसी स्वाभिमानी आत्माओं को, दान की यह भिक्षा असहनीय बोझ लगती थी। दान के हाथों प्राप्त की गयी किसी भी सहायता का मूल्य, आपको रूपयों से नहीं तो मानभंग से चुकाना ही पड़ता है। जिस प्रकार सीजर के साथ ब्रूटस था, उसी प्रकार धर्मशाला की हर चरपाई के साथ स्नान करने की सजा और सदाव्रत की रोटी के हर टुकड़े के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन की छानबीन का दण्ड, आवश्यक रूप से जुड़ा रहता है। इसलिए कानून के मेहमान बनना ही बेहतर है क्योंकि कानून, नियमों से संचालित होने पर भी, किसी शरीफ़ आदमी के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देता।
जेल जाने का निश्चय करते ही सोपी ने तुरन्त तैयारियां आरम्भ कर दीं। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के अनेक आसान तरीके हैं। सबसे सुखद उपाय यह था कि किसी बढ़िया होटल में शानदार भोजन किया जाये और उसके बाद स्वयं को दिवालिया घोषित कर बिना शोरगुल हुए, चुपचाप पुलिस के हाथों में पहुंचा जाये। इसके बाद की व्यव्स्था कोई समझदार मैजिस्ट्रेट अपने आप कर देगा।
सोपी बेंच से उठकर चौक से बाहर निकला और पक्की सड़कों के जाल को लांघता हुआ वहां पहुंचा, जहां पांचवी सड़क ब्राडवे से मिलती है। वह ब्राडवे की तरफ़
मुड़ा और एक चमचमाते हुए होटल के सामने रूका, जहां हर रात रेशमी कपड़ो की तड़क-भड़क दिखाई देती है, अंगूर की बढ़िया शराब की नदियां बहती हैं और
स्वादिष्ट व्यंजनों के ढेर लगे मिलते हैं।
सोपी को कमर से ऊपर पहिने हुए कपड़ो पर तो पूर्ण विश्वास था। उसकी दाढ़ी बनी हुई थी, कोट अच्छा था और बड़े दिन पर किसी मिशनरी महिला द्वारा भेंट
मिली हुई टाई, उसके संभ्रान्त होनी की घोषणा कर रही थी। यदि वह किसी प्रकार बिना शंका उत्पन्न किये टेबल तक पहुंच जाता, तब तो सफ़लता उसके हाथ
में थी। शरीर का वह भाग, जो टेबल के ऊपर दिखाई देता है, वेटर के मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं जगा सकता। सोपी ने सोचा कि फ़्रांसीसी शराब की एक बोतल, मुर्ग-मुसल्लम, पुडिंग, आधा पैग शैम्पेन और एक सिगार-इतना काफ़ी होगा। सिगार की कीमत तो एक डांलर से ज्यादा नहीं होगी। सब मिलाकर कीमत
इतनी ज्यादा नहीं होनी चाहिये कि होटल मालिक के मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाये; फ़िर भी त्रप्ति इतनी होनी चाहिये कि जाड़ो के निवास स्थान तक की यात्रा आनन्द से कटे।
परन्तु जैसे ही सोपी ने होटल के दरवाजे मे पैर रखा, मुख्य वेटर की नजर उसकी फ़टी पतलून और पुराने जूतों पर पड़ी। तुरन्त ही सुद्र्ढ़ और सधे हुए हाथों ने उसे पकड़कर चुपचाप सड़क पर ला पटका और इस प्रकार मुर्ग मुसल्लम के बरबाद होने की नौबत टल गयी।
सोपी ब्राडवे से वापस लौटा। उसे ऎसा महसूस हुआ कि वांछित ध्येय तक पहुंचने में यह स्वादिष्ट भोजन वाला मार्ग तो काम नहीं देगा। जेल तक पहुंचने का और कोई उपाय ढूढंना चाहिये।
छठी सड़क के मोड़ पर उसे तरह-तरह की चीजों से, करीने से सजायी हुई, एक कांच की खिड़की बिजली की रोशनी में जगमगाती हुई दिखाई दी। सोपी ने पत्थर उठाया और उसे शीशे पर दे मारा। चारों तरफ़ से लोग दौड़े और एक पुलिस का सिपाही भी आ खड़ा हुआ। सिपाही को देखकर सोपी मुस्कराया और अपनी जेबों में हाथ डाले हुए चुपचाप खड़ा रहा।
सिपाही ने तमतमा कर पूछा,”शीशा फ़ोड़ने वाला कहां गया?”
सौभाग्य का स्वागत करते हुए सोपी ने व्यंग के स्वर में सह्रदयता से पूछा, “क्या आप इतना भी नहीं समझते कि इसमें मेरा भी कुछ हाथ हो सकता है?”
सिपाही के दिमाग ने सोपी को दोषी मानने से इन्कार कर दिया। खिड़कियों को पत्थर मार कर तोड़ने वाले, कानून के रक्षकों से गप-शप करने के लिए कहीं रूकते है? वे तो फ़ौरन नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं। पुलिसमैन ने कुछ दूर सड़क पर एक आदमी को बस पकड़ने के लिए भागते देखा और अपना डंडा घुमाता हुआ वह उसके पीछे भागा। दो बार असफ़ल होकर सोपी निराश हो गया और मटरगश्ती करने लगा।
सड़क के उस पार, एक साधारण शानो-शौकत का होटल था। वहां छोटी जेब और बड़े पेट वाले ग्राहक जाया करते थे। घटिया बर्तन और धूमिल वातावरण; पतली दाल और गन्दे मेजपोश। इस स्थान पर सोपी बिना रोक-टोक अपनी फ़टी पतलून और पुराने जूतों समेत जा पहुंचा। वह टेबल पर जा बैठा और पेट भर कर कबाब,
कोफ़्ते, केक और कचौड़ियां खा गया। और तब उसने वेटर के सामने यह रहस्य खोला कि तांबे की एक पाई का भी उसने मुंह नहीं देखा है।
बड़े रौब से उसने वेटर से कहां, “अब जल्दी ही पुलिस को बुलाइये; व्यर्थ में एक शरीफ़ आदमी का वक्त क्यों खराब करते हैं?”
अंगारे- सी लाल आंखे दिखाते हुए, कठोर शब्दों में वेटर ने कहा,” तेरे लिए और पुलिस का सिपाही?” उसने अपने साथी को आवाज दी और सोपी महाशय फ़िर एक
बार निर्दयता से सड़क पर ला पटके गये।
सुथार के गज की तरह धीरे-धीरे एक-एक जोड़ को खोलता हुआ सौपी उठा और कपड़ों की धूल झाड़ने लगा। आज उसके लिए गिरफ़्तारी म्रग-मरीचिका हो चली थी और उसे वह सुखदायी जेल कोसों दूर दिखाई दे रही थी। कुछ दूरी पर एक दुकान के सामने खडे़ हुए सिपाही ने उसे देखा और हंसता हुआ अपने रास्ते चला गया।
काफ़ी देर इधर-उधर भटाकने के बाद सोपी में गिरफ़्तारी की आराधना करने की हिम्मत फ़िर जाग्रत हुई। एक बार जो अवसर आया, वह नासमझ सोपी को अचूक लगा।
मनोहर और सुशील मुखमुद्रा वाली एक नवयुवती, एक दुकान की खिड़की के सामने खड़ी, अन्दर सजी हुई प्यालियां और दावातों को कुछ दिलचस्पी से देख रही थी
और दो गज की दूरी पर ही कठोर मुखाक्रति वाला एक सिपाही नल का सहारा लिये खड़ा था।
सोपी ने इस, बार औरतों को छेड़-छाड़ करने वाले घ्रणित और तुच्छ गुण्डे का पार्ट अदा करने की योजना बनायी। अपने शिकार की सौम्या और भोली सूरत देखकर
तथा कानून के सतर्क पहरेदार को पास में खड़ा जान कर सोपी को यह सोचने का प्रोत्साहन मिला कि शीघ्र ही उसकी बांह पर सिपाही के पंजे की उस सुखदायी
पकड़ का अनुभव होगा जो उसे सर्दियों-भर आरामदायक जेल में पहुंचा देगी।
सोपी ने मिशनरी महिला द्वारा भेंट दी गयी टाई को ठीक किया, सिकुड़ती हुई आस्तीनों को कोत से बाहर निकाला, टोप को तिरछी अदा से पहिना और उस युवती
की तरफ़ बढ़ा। उसने उसकी तरफ़ आंख से इशारा किया, उसे देखकर खांसा-खंखारा, और चेहरे पर बनावटी हंसी ला कर बदतमीजी से घ्रणित गुण्डों की तरह झूमने
लगा। अपने आंख की कोर से तिरछी नजर डाल कर उसने यह देख लिया कि पुलिस का सिपाही उसे घूर रहा है। युवती दो-चार कदम आगे-पीछे हुई और फ़िर अधिक एकाग्रता से खिड़की में सजी हुई चीजों को देखने लगी। सोपी निर्भयता से आगे बढ़ कर उसके पास जा खड़ा हुआ और अपना टोप सिर से उठाकर बोला , “क्यों पंछी! कहीं कुछ तफ़रीह का इरादा है?”
सिपाही अब भी देख रहा था। सतायी हुई युवती की उंगली के एक इशारे मात्र से सोपी अपनी मंजिल तक पहुंच सकता था। अपनी कल्पना में वह थाने की सुखद गरमी में पहुंच भी चुका था। परन्तु युवती उसकी ओर मुंह करके खड़ी हो गयी और अपना हाथ बढ़ाकर उसके कोट की बांह को पकड़ कर खुशी से बोली-”जरूर दोस्त मैं तो बिल्कुल तैयार हूं। मै तो खुद ही तुमसे कहने वाली थी, मगर वह सिपाही जो देख रहा था!”
व्रक्ष से लता के सामान अपनी देह से लिपटी हुई उस लड़की को लिये, अब सोपी मुलिसमैन के सामने से गुजरा, तो उदासी ने उसे घेर लिया। उसके भाग्य में
शायद आजादी ही बदी थी।
अगले मोड़ पर ही वह उस लड़की से पिंड छुड़कर भागा। वहां से वह ऎसे मुहल्ले में पहुंच कर रूका, जहां रात में झूठे वादे करने वाले बेफ़िक्र प्रेमी और शराब-संगीत के दौर चलते है। फ़र के कोट पहिने महिलाएं और बढ़िया ओवरकोट पहिने पुरूष, उस सुहानी हवा में टहल रहे थे। एकाएक सोपी के मन में शंका उठी कि किसी भयानक टोटके ने तो उसे गिरफ़्तारी से परिमुक्त नहीं कर रखा है। इस विचार से वह कुछ घबराया, परन्तु एक भव्य नाटकघर के सामने शान से टहलते हुए एक सिपाही को देखते ही उसके मन मे शराबी का पार्ट अदा करने की योजना फ़िर बिजली की तरह कौंध गयी।
फ़ुटपाथ पर खड़े होकर सोपी ने अपएने कर्कश आवाज में शराबियॊं की तरह बकना और चिल्लाना आरम्भ किया। नाच कर, चीख कर, चिल्ला कर और अनेक तरीकों से उसने आसमान सिर पर उठा लिया।
पुलिसमैन ने डंडा घुमाते हुए सोपी की तरफ़ पीठ कर ली और एक राहगीर से कहने लगा,” ये कालेज का कोई लड़का है। उन्होंने हार्टफ़ोर्ट कालेज को आज बुरी
तरह हराया है, इसलिए खुशियां मना रहा है। सिर्फ़ हल्ला मचाता है- डर की कोई बात नहीं। इन लोगों से कुछ न कहने की हमे हिदायत है।”
दु:खी होकर सोपी ने इस असफ़ल तिकड़म को त्याग दिया। क्या पुलिस के सिपाही उसे कभी गिरफ़्तार नही करेंगे? उसकी कल्पना में जेल एक अप्राप्य स्वर्ग के
समान लगने लगी। उसने ठंडी हवा से बचने के लिए अपने जीर्ण कोट के बटन बन्द कर लिये।
सिगार की एक दुकान में उसने एक सम्भ्रान्त मनुष्य को सिगार सुलगाते हुये देखा। अन्दर जाते समय उसने अपना रेशमी छाता दरवाजे के पास रख दिया था।
सोपी अन्दर घुसा, छाता उठाया और धीरे-धीरे चहलकदमी करता हुआ आगे बढ़ गया। सिगार वाला मनुष्य जल्दी से उसके पीछे चला ।
वह कुछ सख्ती से बोला “मेरा छाता”!
चोरी पर सीनाजोरी करते हुए, सोपी उपहास करने लगा,” क्या वाकई आपका छाता? तो फ़िर आप पुलिस को क्यों नहीं बुलाते? यह खूब रही- आपका छाता! जल्दी
करिये, साहब, पुलिस को बुलाइये, मोड़ पर ही खड़ा है!”
छाते के मालिक ने अपनी चाल धीमी कर दी। सोपी ने भी वैसा ही किया। लेकिन उसके मन में यह आशंका उठ चुकी थी कि इस बार भी भाग्य उसे धोखा दे जायेगा। सिपाही सहमा हुआ उन दोनों की ओर देखता रहा।
छाते वाले ने कहा,” जी हां, जी-आप जानते है, ऎसी गलती हो ही जाती है। अगर यह छतरी आपकी है तो मुझे माफ़ करें। दरअसल बात यह है कि आज सुबह ही मैंने इसे एक होटल से उठाया था। अगर आप इसे पहचानते है-अगर आपकी है तो मै आशा करता हूं कि आप मुझे….।”
सोपी दुष्टता से बोला,”जी हां, निश्चित रूप से यह मेरी है।”
छतरी का तथाकथित स्वामी मैदान छोड़कर भाग गया। पुलिसमैन भी काफ़ी दूर पर दिखाई देने वाली एक मोटर से सड़क लांघने वाली एक सुन्दरी को बचाने कि लिए चल पड़ा।
सोपी, पूर्व की तरफ़ मरम्मत के लिए खोदी गयी एक सड़क पर आगे बढ़ा। गुस्से से उसने छाते को एक गढ़े में फ़ेंक दिया। सिर पर लोहे की टोपी और हाथ में डंडा
लिये घूमने वाले, पुलिस समुदाय के प्रति उसका मन विरक्ति से भर गया। वह तो उनके पंजो में जंसना चाहता था और सिपाही शाय्द उसे, बुराई से ऊपर उठे
हुए किसी राजा के समान समझ रहे थे।
अन्त में सोपी एक ऎसे मुहल्ले में पहुंचा जहां कोतवाल और प्रकाश बहुत कम था। एक मार्ग से होकर वह मैडिसन चौक की दिशा में चला। घर का मोह मनुष्य
को अपनी ओर खींचता ही है, चाहे उसका घर किसी पार्क की बैंच ही क्यों न हो।
लेकिन एक अत्यन्त नीरव स्थान पर सोपी के पांव रूप गये। यहां एक पुराना गिरजा था-टूटा-फ़ूटा, विलक्षण और महराबदार। बैंगनी रंग के कांच वली खिड़की
में से मन्द प्रकाश छन रहा था और निश्चय ही अगले इतवार की प्रार्थना की तैयारी में लीन पियानो बजाने वाला परदों पर उगलियां नचा रहा था।
स्वर्गीय संगीत की मधुर स्वर-लहरी बहती हुई सोपी के कानों तक आयीं जिसने उसे अभिभूत कर गिरजे की चारदीवारी से मानो जकड़ दिया।
आकाश में निर्मल स्निग्ध चांद चमक रहा था। सड़क राहगीरों से सूनी थी। पंछी तन्द्रिल स्वरों में चहचहा रहे थे। वातावरण किसी गांव के गिरजे के समान प्रशान्त था। प्रार्थना के स्वरों सोपी को सींखचों से जकड़ दिया था।
क्योकि वह उस प्रार्थना से परिचित था- उसने इसे इस युग में सुना था जब कभी उसके जीवन में पवित्र विचारों , साफ़ कपड़ो आकांक्षाओं, फ़ूलों, माताओ, बहनो, और मित्रो का भी स्थान रहा था।
सोपी के मन की ग्रहणशीलता और पुराने गिरजे के पवित्र प्रभाव के सम्मिलन ने सोपी की अन्तरात्मा में एक अदभुत परिवर्तन ला दिया। आतंकित होकर उसने
उस गर्त की गहराई का अनुभव किया, जिसमें वह गिर चुका था अध:पतन के दिन, घ्रणित आकांक्षाएं, कुचली हुई आशाएं. ध्वस्त मानस-जिन्होंने अब तक उसके
अस्तितव को बनाया था, उसके स्म्रतिपट पर उभर आये।
और दूसरे ही क्षण, उसके ह्रदय ने इस नये विचार से उत्साहपूर्वक समझौता कर लिया। सहसा, उसके ह्रदय में अपने दुर्भाग्य से लड़ने की एक बलवती प्रेरणा उत्पन्न हुई। इस दलदल से अपने आपको बाहर निकालने का उसने निश्चय किया। वह फ़िर से अपने आपको मनुष्य बनायेगा। जिस बुराई ने उसे दबोच रखा है, उसे वह जीतेगा। अब भी समय है, उसकी उम्र कुछ ज्यादा नहीं। वह अपनी पुरानी आकांक्षाओं को पुनर्जीवन देकर, बिना लड़खड़ाये पूरी करेगा। पियानों के उन
मधुर स्वरों ने, उसकी आत्मा में एक हलचल मचा दी थी। कल सुबह ही वह शहर के दक्षिणी भाग में जाकर काम ढूंढेगा। फ़र के एक व्यापारी ने उसे एक बार
ड्राइवर की नौकरी देनी चाही थी। कल ही वह उसे ढूंढ कर नौकरी ले लेगा। वह दुनिया में कुछ बनेगा।
सोपी ने आनी बांह पर किसी पकड़ का अनुभव किया। तेजी से घूमते ही उसे एक सिपाही का कठोर चेहरा दिखाई दिया।
सिपाही ने पूछा,”यहां क्या कर रहे हों?”
सोपी ने कहां,”जी, कुछ नहीं?”
सिपाही बोला, “कुछ नहीं? तो मेरे साथ चलो।”
दूसरे दिन सवेरे पुलिस कोर्ट के मैजिस्ट्रेट साहब ने फ़रमाया,”तीन महीने की सख्त कैद।”
-ऒ.हेनरी
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कहानी पढ़ने के बाद का, तीस साल पहले का वो सिहरन अब भी याद है.
कई बार कालजयी कहानियों की भी कथावस्तु बदल जाती हैं. इस बेहतरीन कहानी के संबंध में भी कुछ ऐसा ही हुआ. दरअसल, पिछले दिनों एक ख़बर पढ़ी कि मॉस्को में सर्दियों के इस मौसम में गिरफ़्तारियाँ बढ़ गई हैं, क्योंकि पुलिस बेघरों और दारू के नशे में भट रहे लोगों को सड़क से उठा कर ले जा रही है. उद्देश्य है उन्हें माइनस तीस सेल्सियस तापमान की मार से दूर किसी गर्माहट भरे माहौल में ले जाना. सबको जेल ही पहुँचाया गया हो ऐसा भी नहीं, बल्कि कइयों को बसों में भर कर सरकारी आश्रय स्थलों तक ले जाने की भी व्यवस्था की गई.
लिंक काम नहीं कर रहा था. इसलिए प्रस्तुत है इस त्रासद ख़बर का एक हिस्सा-
Fighting the cold with jail
By Andrew E. Kramer The New York Times
FRIDAY, JANUARY 20, 2006
MOSCOW: Igor, a homeless man who lives in Paveletsky train station, stumbled out of one of this city’s police-run drunk tanks at around 6 p.m. Friday with an indignant complaint.
“I wasn’t even drunk,” he said pulling a soiled stocking cap around his ears. Igor, who offered only his first name, had just poured himself a drink when the police detained him. “They said I was drinking, but I hadn’t even started,” he said.
Igor was among the lucky ones. Dozens of people, most described by the authorities as homeless men or drunks, have frozen to death in Moscow this week. Temperatures hovered Friday at minus 30 Celsius (minus 22 Fahrenheit).
His quick arrest was evidence of what the city authorities said was a huge effort mounted this week to keep the toll as low as possible as Moscow endures its coldest January on record in decades. It is a struggle of policemen, social workers and doctors against the brutal cold – and a tangled social problem of drinking to abandon among middle age men. …
…Asked why he decided to drink during one of Moscow’s all-time cold snaps, Igor said: “I drink because it’s cold.”
http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/1381481.cms